अजय कुमार सिंह की कविताएं
अजय कुमार सिंह |
संक्षिप्त परिचय -
एक झूठे समय में
सच परेशान है
किसी कोने में बैठ-
रो रहा है अपने दुर्भाग्य पर
आज हर ओर झूठ का साम्राज्य है!
यह झूठ का युग
यहाँ सच बोलने वाले को
मान लिया जाता है सबसे बड़ा अपराधी
सच कहना अब मूर्खता का पर्याय है!
सच सुनने वाले कानों के मार्ग अवरुद्ध हैं
वहाँ से रिसता है झूठ का मवाद
कुछ तो जानबूझ कर कान बंद किए हुए हैं
सच को सुनना अब संभव नहीं!
झूठ के इस दौर में
अपने सच के साथ अकेला भटकता हुआ
कोई मानुष आखिर क्या करे
आखिर कहाँ जाए अपना सच ले कर कोई?
इस झूठे समय में।
अधूरा मैं
किसी पुरस्कार या सम्मान की चाह में
मैं नहीं लिखता कविताएं
मैं दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का
एक आम नागरिक!
मुझे नहीं चाहिए परिजनों, दोस्तों या
किसी प्रेमिका के हृदय में जगह
मैं अपनी अधूरी कविताओं के साथ
भटकने वाला एक अधूरा कवि!
मुझे नहीं मिले किसी कविता में
एक आखर भी जगह तो न सही
मैं इस देश के सबसे कमज़ोर किसान-
शोषित मजदूर के दिल में चाहता हूँ
थोड़ी सी जगह!
अगर बना सका इतनी भी जगह
तो निश्चित ही मेरी कोई कविता
पूरी हो सके
और शायद मैं
एक संपूर्ण आदमी बन सकूं
अपने देश का।
काहें का मज़दूर दिवस
मज़दूर दिवस पर मैंने देखा है
श्रमिकों का वही रोज जैसा कठोर परिश्रम
धरती को नापते हुए -
रिक्शे वाले के वही पूजनीय पैर
शायद उसकी पेट की आग का फासला
समस्त धरती से भी अधिक है!
देखा है बड़ाबाजार में मोठिया-मज़दूरो को
रोज की तरह ही काम करते
फिर काहें का मज़दूर दिवस?
यहाँ तो छुट्टी मज़दूर के नाम पर
सरकारी बाबू मना रहे हैं
क्या किसी को सहानुभूति है -
मज़दूर, रिक्शावान, किसान से?
जिनके नाम पर छुट्टी है
वह तो - आज भी कर रहे हैं काम
ढो रहे हैं बोझ!
मुझे प्रार्थना के लिए उठे हाथों से ज्यादा
प्रिय और वंदनीय लगते हैं
मज़दूर के खुरदरे कठोर हाथ
जिनके हाथों से गढ़ा गया है देश!
अगर नहीं करेंगे काम
तो उनके घर नहीं जलेगा चूल्हा,
नहीं जुतेगी खेत, न ऊपजेगा अनाज,
नहीं चुका पाएंगे कर्ज!
फिर काहें का मजदूर दिवस?
आदिम युग की ओर
आदिम युग से आधुनिक युग तक
मानव के सभ्य होने की कहानी लिखी है -
खून से सराबोर इतिहास के पन्नों पर
हमने सभ्य होने के लिए लड़े हैं युद्ध
जंगलों को उजाड़ा नगर बसाएं
खेत खलिहानों को उजाड़ा उद्योग लगाए!
जहाँ हमें बोने चाहिए थे अनाज
उसी धरती पर हमने परमाणु
और रासायनिक हथियार बिछाए
सभ्यता की झूठी होड़ में हमने
खड़े किए हथियारों के जखीरे!
आज धरती उन हथियारों से काँप रही है
मानवता की आड़ में हम होते गए फिर से आदिम
आज धरती पर इंसान सभ्य होने के बहाने
पाश्विकता का परिचायक बन गया है
युद्ध की विभीषिका उसे हर बार -
ले जाती है आदिम युग के थोड़ा और करीब
आखिर हम आदिम युग में क्यों लौटते जा रहे हैं?
लौट आओ बुद्ध
बुद्ध तुमने दुनिया को दिया -
शांति, क्षमा, करुणा !
तुम्हारे अनुयायियों ने तुम्हारे
शांति संदेश को समस्त विश्व
तक फैलाया!
विश्व-शांति का महामंत्र
आज समूचे विश्व से खो रहा है
ऐसे समय में क्या उचित नहीं
कि तुम फिर से तोड़ दो अपना मौन
अपने शांति संदेश की दुर्दशा
देखने को एक बार खोलो -
अपनी आँखें लौट आओ फिर
अपनी समाधि से!
बहुत सो चुके तुम
अब जागो बुद्ध
इस दुनिया को युद्ध नहीं
शांति ही बचा सकती है।
मौन का सफ़र
जाना चाहता हूँ एक ऐसे सफ़र पर
जहाँ से चाह कर भी लौटना मुमकिन नहीं
इस आपाधापी से दूर किसी निर्जन में
कोलाहल से दूर शून्य की ओर,
जहाँ एकांत में हो सके मौन से वार्तालाप
अकेलापन हो शिल्प
मौन जहाँ भाषा हो!
इस मिथ्या जगत से दूर किसी दैवी भूमि पर
हो सके तो मेरे मन ले चल मुझे वहाँ
मैं अपने आप से साक्षात्कार करना चाहता हूँ
जहाँ सुख-दुःख आशा-निराशा से परे -
हो केवल एक असीम मौन की अभिव्यंजना
मैं जाना चाहता हूँ ऐसे सफ़र पर
जहाँ से लौटना चाहूँ तो भी लौट ना सकूँ।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
248, जी टी रोड,
लिलुआ,
हावड़ा (पश्चिम बंगाल)
मोबाइल : 7003013810
कविताओं को प्रकाशित करने तथा संपादक महोदय आदरणीय संतोष चतुर्वेदी जी की टिप्पणी के लिए आभार! आपकी टिप्पणी से बल मिला। कविताओं को और भी ज्यादा सुंदर और प्रभावी बनाती हुई कविवर विजेंद्र सर की पेंटिंग के लिए शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका 🥰🙏
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