विजय राही की कविताएँ

 

विजय राही


कवि परिचय


विजय राही

जन्मतिथि~ 1990

हंस, पाखी, मधुमती, सदानीरा, कृति बहुमत, समकालीन जनमत, विश्व गाथा, वर्तमान साहित्य, किस्सा कोताह, नवकिरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, डेली न्यूज, सुबह सवेरे, प्रभात ख़बर, राष्ट्रदूत, पोषम पा, इन्द्रधनुष, हिन्दीनामा, तीखर, लिटरेचर पाइंट, अथाई, कथेसर, दालान आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेबसाईट्स पर कविताएँ- ग़ज़लें प्रकाशित।



मनुष्य के विकास क्रम में विवाह नामक संस्था के विकास ने उसकी सामाजिकता को स्थायित्व प्रदान किया। लेकिन पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्राधान्य ने इस संस्था में चतुराई से अपने वर्चस्व को स्थापित कर लिया। होना तो यही चाहिए कि लड़के और लड़की दोनों को वैवाहिक संबंध स्थापित करने में स्वतंत्रता मिलती। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ। लड़कियों को यह आजादी नहीं मिली और उन्हें अपने अभिभावकों के रहमो करम पर आश्रित होना पड़ा। लेकिन जैसे नदी को लाख बांधो, वह अपना रास्ता खोज ही लेती है, वैसे ही समय समय पर लड़कियों ने अपने हक के लिए विद्रोह किया। अपना रास्ता खुद ही चुना और अपने मन के जीवन साथी को अपनाया। ध्यातव्य है कि लड़कियों का यह विद्रोह केवल उनका व्यक्तिगत विद्रोह नहीं होता बल्कि यह अपने समय और समाज के प्रति विद्रोह होता है। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वे विद्रोह की राह को चुनती हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि इसका अंजाम क्या होगा। युवा कवि विजय राही अपने समय और समाज पर पैनी दृष्टि रखते हैं। कविता के लिए वे अतिरिक्त प्रयास नहीं करते बल्कि आस पास की घटनाएं, स्थितियां और लोग उनकी कविता के विषय सहज ही बनते हैं। इसी क्रम में उनकी एक महत्त्वपूर्ण कविता है 'चीलगाड़ी'। एक स्थानीय लोकगीत से जोड़ कर कविता में काव्य मर्म का विजय ने खूबसूरती के साथ निर्वहन किया है और इस तरह यह एक उम्दा कविता के रूप में सामने आती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विजय राही की कुछ नई कविताएं।



विजय राही की कविताएँ



फूलों की तरह तुम


फूलों की तरह आई  

तुम मेरे जीवन में 

खिल गई मेरी साँसों में 

ख़ुशबू की तरह 


तुम्हारी ख़ुशबू 

मेरी आत्मा तक फैल गई 


मेरी आँखों से आज भी

झरती रहती है 

तुम्हारी यादों की ख़ुशबू 


मेरी आँखें 

फूलों की खोज करती तितलियां हैं 


इन्हे उम्मीद हैं कि 

फिर फूल खिलेंगे

फिर बहार आयेगी 

जीवन की बगिया में 


तुम्हें याद करना

फूलों को याद करना है 

तुम्हें प्रेम करना 

अपने आप से प्रेम करना है



एक रोटी


एक दिन स्कूल से आया

बस्ता पटका रोटी ढूँढी 

घर में बची एकमात्र रोटी को

मेरे हाथ से कुत्ता ले गया 


जब मैं रोया तो 

माँ ने मुझको ही पीटा 


मेरे समझ नहीं आया कि

माँ को कुत्ते की पिटाई करनी थी

और पीट दिया मुझे

फिर ख़ुद भी रोने लग गई

मुझे पुचकारते-पुचकारते


कि लाल भूखा रह गया है

एक रोटी थी जो घर में 

वह भी कुत्ता ले गया है





चीलगाड़ी


आटे-साटे में हुई थी उसकी सगाई

दूज-वर के साथ

हालांकि ख़ूब जोड़े थे उसने माँ-बाप के हाथ 

जब ब्याह नज़दीक आया

और कोई रास्ता नज़र नहीं आया

तो फिर उसने घर के पीछे 

बैठ पीपल की छाँव मे

तुरत-फुरत संदेशा लिक्खा

भेजा बगल के गाँव में 

ठीक लगन के दिन की बात है

आधी रात गजर का डंका

बिजली कड़की

चुपके-चुपके पाँव धरती

घर से बाहर निकली लड़की 

प्रेमी के गाँव की दूरी सवा कोस थी

वे पगड़ंडियों पर दौड़ते हुए जा रहे थे

डर की धूल को हवा में उड़ाते हुए मुस्कराते हुए 

उन्हें जुगनुओं ने रास्ता दिखाया

टिटहरियों कुछ खेत उनके साथ चली

जब गाँव नजदीक आया

तब जा कर उनके पाँव ज़मीन पर आये

पास ढाणी की कोई शादी में

औरतें गीत गा रही थी;

"बना को दादो रेल चलावे

बनो चलाबे चीलगाड़ी

खोल दे खिड़की बिठाण ले लड़की

अब चलबा दे थारी चीलगाड़ी!"



एक दूसरे के हिस्से का प्यार


एक समय था

जब दोनों का सब साझा था

सुख-दुःख

हँसना-रोना

नींद-सपने

या कोई भी ऐसी-वैसी बात 


कुछ चीज़ें ऐसी भी थीं

जो बेमतलब लग सकती हैं

जैसे साबुन, स्प्रे, तौलिया

कभी-कभी शॉल भी 


कार, मोबाइल, ट्विटर

फेसबुक, व्हाट्सएप

जैसी कई चीजें बड़ी भी, छोटी भी

यहाँ तक कि रोटी भी 


अब नहीं रहा तो

कुछ नहीं रहा

सिवाय उस पाँच वर्षीय बच्चे के

जिसे करते हैं दोनों

एक दूसरे के हिस्से का भी प्यार





कवि की डायरी


कवि की डायरी हमेशा चाहती है 

कि कवि सब कुछ उसी में लिखें 

फिर भी कवि बस टिकटों पर, पर्चियों पर,

और सिगरेट के पैकेटों पर 

लिख देता है कविताएँ 


कवि की डायरी चिड़ती रहती है 

उससे खंडिता नायिका की तरह 



भागना 


भागना प्राणिमात्र की सहज प्रवृत्ति है

एक दुधमुँहा बच्चा भागता है

घुटनों के बल माँ के पीछे

माँ भागती है खेतों में

दादी भागती है भेड़-बकरियों के पीछे

पिता भागते है काम पर

भागना उतना ही स्वाभाविक है

जितने जीवन के तमाम कार्य 


नदियाँ समुद्र की तरफ भागती हैं

धरती रोज़ भागती है सूरज के पीछे

गाँव शहरों की तरफ भागते हैं

और शहर राजधानी की तरफ


राजधानी में बैठा राजा भागता है बिदेश


भागना कोई अपराध नहीं है

वरन् इसे शास्त्र-सम्मत कहा जा सकता है



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


बिलौना कलॉ, लालसोट, दौसा (राज.)

पिनकोड-303503


मो.नं./व्हाट्सएप नं.- 9929475744

Email- vjbilona532@gmail.com





टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही शानदार और दिल छू लेने वाली कविताएँ है आपकी

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहद शानदार रचनाएँ विजय जी

    जवाब देंहटाएं
  3. अग्रज कवि विजेन्द्र जी के स्कैच और आपकी सारगर्भित टिप्पणी के साथ कविताएँ को पढ़ना सुखद लगा। बहुत बहुत शुक्रिया आपका संतोष चतुर्वेदी जी । उत्साहवर्धक टिप्पणियों के लिए सभी साथियों का बहुत आभार ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'