चंद्रेश्वर का आलेख "हिन्दी में व्यंग्य लेखन की प्रासंगिकता और व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई"

 

हरिशंकर परसाई 



लेखक परिचय 

30 मार्च, 1960 को बिहार के बक्सर ज़िले के आशा पड़री गांव के एक सामान्य किसान परिवार में जन्म।


उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, प्रयागराज से चयनित होने के बाद 1 जुलाई, 1996 से एम. एल. के. पी. जी. कॉलेज, बलरामपुर में हिन्दी विषय में शिक्षण का कार्य आरंभ किया। 26 वर्षों के शिक्षण कार्य के बाद  30 जून, 2022 को विभागाध्यक्ष एवं प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्ति के बाद लखनऊ में रहते हुए स्वतंत्र लेखन कार्य।


हिन्दी-भोजपुरी की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में 1982-83 से कविताओं और लेखों का लगातार प्रकाशन। अब तक सात पुस्तकें प्रकाशित । तीन कविता संग्रह -'अब भी' (2010), 'सामने से मेरे' (2017), 'डुमराँव नज़र आयेगा' (2021)।


एक शोधालोचना की पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आंदोलन' (1994) एवं एक साक्षात्कार की पुस्तिका 'इप्टा-आंदोलनःकुछ साक्षात्कार' (1998) का प्रकाशन। एक भोजपुरी गद्य की पुस्तक--'हमार गाँव' (स्मृति आख्यान, 2020) एवं 'मेरा बलरामपुर' (हिन्दी में स्मृति आख्यान, 2021-22) का भी प्रकाशन।



हरिशंकर परसाई का नाम लेते ही मन मस्तिष्क में व्यंग्य शब्द गूंजने लगता है। ऐसा बहुत कम होता है कि किसी लेखक के साथ एक खास विधा इस तरह से जुड़ जाए। यह परसाई जी की साधना का कमाल है। अपने आस पास के अनुभवों को जिस तरह व्यंग्य की पैनी धार प्रदान की, वह अदभुत है। आज परसाई जी का जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से हम इस प्रखर मेधा के रचनाकार की स्मृति को नमन करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कवि आलोचक चन्द्रेश्वर का आलेख हिन्दी में व्यंग्य लेखन की प्रासंगिकता और व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई।

 


जन्म शती : हरिशंकर परसाई (22-08-1924 - 10-08-1995)


"हिन्दी में व्यंग्य लेखन की प्रासंगिकता और व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई"


चंद्रेश्वर         


हिन्दी के पहले और शीर्ष व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त, 1924 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद (नर्मदापुरम) जनपद के इटारसी तहसील के एक गांव जमानी में हुआ था । यह गांव इटारसी से 12 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। इनके पिता का नाम जुमक लालू प्रसाद और माता का नाम चंपा बाई था। कम उम्र में ही इन्हें अपने माता-पिता से वियोग का सामना करना पड़ा था । इनकी मृत्यु 10 अगस्त, 1995 को जबलपुर में हुई थी। इन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के बाद साल-दो - साल तक शिक्षण कार्य भी किया था और अंततः अविवाहित रह कर आजीवन स्वतंत्र लेखन करते रहे। वे 'अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ' से भी जुड़े हुए थे। वे खुले तौर पर मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध लेखक थे। वे स्वाधीनता के बाद के उन लेखकों में थे जिन्हें आलोचक डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने इधर के एक साक्षात्कार (हंस, अगस्त, 2023 में) "बहुत हद तक नेहरूवादी" कहा है। वे यह भी कहते हैं कि "आज़ादी के पहले के भारत को जानने के लिए जिस तरह प्रेमचंद का साहित्य एक प्रामाणिक दस्तावेज है, उसी तरह से हरिशंकर परसाई का साहित्य आज़ादी के बाद के भारत का प्रामाणिक दस्तावेज है।" परसाई का समस्त लेखन देश की स्वाधीनता के बाद का है। हिन्दी में स्वाधीनता के पहले अगर किसी एक शीर्ष लेखक का नाम लेने या चुनने की विवशता ही होगी तो बिना किसी हिचक या संकोच के मैं भी प्रेमचंद का नाम लेना या चुनना चाहूंगा। इसी तरह से स्वाधीनता के बाद के 77 वर्षों में हिन्दी साहित्य की हर विधा में विपुल एवं महत्वपूर्ण लेखन के बाद भी सृजनात्मक गद्य लेखन के क्षेत्र में हरिशंकर परसाई का नाम मुझे भी शीर्ष पर दिखाई पड़ता है। ऐसे तो भारतीय और विशेषकर हिन्दी साहित्य की हर विधा में व्यंग्य और वक्रोक्ति की चेतना की परंपरा आरंभ से ही चली आ रही है। भारतीय काव्य शास्त्री आचार्य कुंतक ने तो वक्रोक्ति के नाम पर एक संप्रदाय ही खड़ा कर दिया था जो 6 संप्रदायों में अपना एक अलग और विशिष्ट स्थान रखता है। बहरहाल, व्यंग्य का साहित्य में एक चेतना के रूप में किसी भी अभिव्यक्ति की शैली - पद्य अथवा गद्य में उपस्थित होना या किसी विधा में उसका दिखाई देना एक अलग परिघटना है और उसे एक स्वतंत्र विधा का दर्जा देना सर्वथा भिन्न परिघटना है। हिन्दी में व्यंग्य को एक स्वतंत्र विधा का दर्जा दिलाने वाले पहले व्यंग्यकार हैं हरिशंकर परसाई। वे पहले और आज तक के हिन्दी व्यंग्य लेखन में शीर्ष व्यंग्यकार भी हैं।


उनका समस्त व्यंग्य लेखन स्वाधीन भारत के बाद के समय और समाज का न सिर्फ़ दस्तावेज़ एवं दर्पण है; बल्कि दीपक भी है। वह अपने पाठकों को रास्ता दिखाने का भी काम करता है। हरिशंकर परसाई ने सृजनात्मक गद्य की प्रमुख विधाओं में- मसलन निबंध, लघुकथा, कहानी, उपन्यास आदि में व्यंग्य लेखन किया है। उनकी प्रमुख निबंध व्यंग्य कृतियों में -  'पगडंडियों का ज़माना', 'सदाचार की तावीज', 'ठिठुरता हुआ गणतंत्र',' वैष्णव की फिसलन', 'विकलांग श्रद्धा का दौर', 'तुलसीदास प्रभु चंदन घिसै' और 'मैं कहता आंखिन की देखी' आदि हैं। कहानी  व्यंग्य संग्रहों में 'हंसते हैं रोते हैं', 'जैसे उनके दिन फिरे', 'भोलाराम का जीव' और उपन्यास में 'रानी नागफनी की कहानी', 'तट की खोज', 'ज्वाला और जल' आदि मुख्य हैं । 'तिरछी रेखाएं' कथेतर गद्य कृति है। उनकी व्यंग्य कृति 'विकलांग श्रद्धा का दौर' पर उन्हें सन् 1982 में देश का प्रतिष्ठित पुरस्कार 'साहित्य अकादमी' पुरस्कार दिया गया था। उन दिनों देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी थीं।


जो हो, हरिशंकर परसाई ने अपने व्यंग्य लेखन के जरिए स्वाधीनता के बाद के भारत की शासन-सत्ता का एक सशक्त आलोचनात्मक विमर्श प्रस्तुत किया है। उन्होंने न सिर्फ़ शासन -सत्ता का; बल्कि हर तरह की परंपरागत रूढ़िवादी सामाजिक -धार्मिक सत्ताओं के विद्रूप, छल-पाखंड, विसंगतियों, विडंबनाओं और विषमताओं को भी निशाना बनाया है। उनकी व्यंग्य की शैली नयी है। उन्होंने अपने व्यंग्य की भाषा को भी नए मुहावरे दिए हैं। उसे धारदार बनाने की कोशिश की है। उन्होंने अपने व्यंग्य लेखन में समय-समाज के सच को निर्भीकता के साथ दर्ज किया है। उसमें अन्याय के विरोध में न्याय की स्थापना के लिए एक जद्दोजहद है। ऐसा लेखकीय उदाहरण कम ही दिखाई देता है जो एक साथ श्रेष्ठ हो और लोकप्रिय भी। उन्होंने न सिर्फ़ व्यंग्य को एक अलग विधा की पहचान दी; बल्कि विशाल पाठक समुदाय भी तैयार किया। जैसे उर्दू शायरी को शुरू में ही ग़ालिब मिल गए कुछ उसी तरह से हिन्दी व्यंग्य को हरिशंकर परसाई मिल गए। 


हमारे समकालीन समय के श्रेष्ठ आलोचक और कवि-गद्यकार डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने एक साक्षात्कार (हंस, अगस्त, 2023) में ही कहा है कि ''परसाई ने हिन्दी व्यंग्य को एक नया सौन्दर्य शास्त्र दिया है। उन पर कबीर और प्रेमचंद के अलावा पश्चिमी लेखकों में  ब्रेख्त, आस्कर वाइल्ड, बर्नार्ड शा, गार्निडर आदि का प्रभाव है। हालांकि इन सब से अलग हैं परसाई। उन पर किसी लेखक का प्रभाव हावी नहीं है। ऐसा नहीं लगता कि वे किसी का अनुसरण कर रहे हों। आप मेरे ख्याल से प्रेरणा की बात करें तो ग़ालिब और प्रेमचंद से ज़्यादा प्रेरणा उनके व्यंग्य में भी मिलेगी। परसाई ने तुलसी दास, कबीर दास और ग़ालिब के लिखे पर ख़ूब प्रयोग किए हैं। क्योंकि इन्हें पूरा पढ़ा है उन्होंने। उन्होंने विदेशी लेखकों को ख़ूब पढ़ा है पर मुझे नहीं लगता कि इसका प्रभाव उनकी शैली या शिल्प पर पड़ा हो।'' हरिशंकर परसाई के व्यंग्य लेखन की मूल चेतना राजनीतिक है। वे अपने लेखन के ज़रिए सत्ता और सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तन की मुहिम में शामिल लेखक थे। आज के मंदिर-मस्ज़िद के विवादित दौर में उनकी एक लघु व्यंग्य कथा पूरी की पूरी पेश कर रहा हूं -


"कबीर दास की बकरी कभी पड़ोस के मंदिर में घुस जाती थी, कभी मस्ज़िद में और दोनों इबादतगाहों को गंदा कर देती थी। पुजारी और मौलवी ने शिकायत की कि "कबीर तुम्हारी बकरी मंदिर -मस्ज़िद में घुस जाती है।"

कबीर दास बोले,"माफ़ कीजिए, जानवर है, तभी घुस जाती है , मैं कभी घुसा क्या?"


हरिशंकर परसाई के व्यंग्य लेखन के तेवर को जानने -परखने के लिए कुछ उनकी कालजयी गद्य पंक्तियां भी द्रष्टव्य हैं।


1. लडक़ों को, ईमानदार बाप निकम्मा लगता है।


2. दिवस कमजोर का मनाया जाता है, जैसे हिंदी दिवस, महिला दिवस, अध्यापक दिवस, मजदूर दिवस। कभी थानेदार दिवस, अधिकारी दिवस, क्लर्क दिवस,  नहीं मनाया जाता।


3. व्यस्त आदमी को अपना काम करने में जितनी अक्ल की ज़रूरत पड़ती है, उससे ज़्यादा अक्ल बेकार आदमी को समय काटने में लगती है।


4. जिनकी हैसियत है, वे एक से भी ज़्यादा बाप रखते हैं। एक घर में, एक दफ्तर में, एक-दो बाज़ार में, एक-एक हर  राजनीतिक दल में।


5. आत्मविश्वास कई प्रकार का होता है, धन का, बल का, ज्ञान का। लेकिन मूर्खता का आत्मविश्वास सर्वोपरि होता है।


6. सबसे निरर्थक आंदोलन भ्रष्टाचार के विरोध का आंदोलन होता है। एक प्रकार का यह मनोरंजन है जो राजनीतिक पार्टी कभी-कभी खेल लेती है, जैसे कबड्डी का मैच।


7. रोज़ विधानसभा के बाहर एक बोर्ड पर ‘आज का बाजार भाव’ लिखा रहे। साथ ही उन विधायकों की सूची चिपकी रहे जो बिकने को तैयार हैं। इससे खरीददार को भी सुविधा होगी और माल को भी।


8. हमारे लोकतंत्र की यह ट्रेजेडी और कॉमेडी है कि कई लोग जिन्हें आजन्म जेलखाने में रहना चाहिए वे ज़िन्दगी भर संसद या विधानसभा में बैठते हैं।


9. विचार जब लुप्त हो जाता है, या विचार प्रकट करने में बाधा होती है, या किसी के विरोध से भय लगने लगता है, तब तर्क का स्थान हुल्लड़ या गुंडागर्दी ले लेती है।


11. धन उधार दे कर समाज का शोषण करने वाले धनपति को जिस दिन महा जन कहा गया होगा, उस दिन ही मनुष्यता की हार हो गई।


11. हम मानसिक रूप से दोगले नहीं तिगले हैं। संस्कारों से सामन्तवादी हैं, जीवन मूल्य अर्द्ध-पूंजीवादी हैं और बातें समाजवाद की करते हैं।


12. फासिस्ट संगठन की विशेषता होती है कि दिमाग सिर्फ नेता के पास होता है, बाकी सब कार्यकर्ताओं के पास सिर्फ शरीर होता है।


13. बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है।


14. दुनिया में भाषा, अभिव्यक्ति के काम आती है। इस देश में दंगे के काम आती है।


15. जब शर्म की बात गर्व की बात बन जाए, तब समझो कि जनतंत्र बढिय़ा चल रहा है।


16. जो पानी छान कर पीते हैं, वो आदमी का खून बिना छाने पी जाते हैं।


17. सोचना एक रोग है, जो इस रोग से मुक्त हैं और स्वस्थ हैं, वे धन्य हैं।


18. हीनता के रोग में किसी के अहित का इंजेक्शन बड़ा कारगर होता है।


19. नारी-मुक्ति के इतिहास में यह वाक्य अमर रहेगा कि ‘एक की कमाई से पूरा नहीं पड़ता।'


20. एक बार कचहरी चढ़ जाने के बाद सबसे बड़ा काम है, अपने ही वकील से अपनी रक्षा करना।


21. कभी-कभी राष्ट्र की रक्षा का नारा सबसे ऊंचा चोर ही लगाते हैं। राष्ट्र की रक्षा से कभी-कभी चोरों की रक्षा का मतलब भी निकलता है।


आप सब देख सकते हैं कि हरिशंकर परसाई के व्यंग्य लेखन की तासीर को जानने-समझने के लिए उपरोक्त उदाहरण पर्याप्त हैं। वास्तव में उनका समस्त व्यंग्य लेखन अपने पाठकों के समक्ष तर्क और विवेक की प्रतिष्ठा करता है। वह उनकी समझदारी को बढ़ाता है। वह इसी मामले में हिन्दी-उर्दू के शीर्ष आधुनिक लेखक प्रेमचंद की परंपरा को भी आगे ले जाता है । उनकी मृत्यु के बाद (10 अगस्त,1995) सितम्बर, 1995 के 'हंस' में प्रख्यात कथाकार-संपादक राजेन्द्र यादव ने उन्हें ''मनुष्य की मुक्ति का रचनाकार'' बताया था । राजेन्द्र यादव ने अपने उसी संपादकीय में लिखा है - "चैखव का मूल स्वर करुणा है और कबीर का ग़ुस्सा - परसाई दोनों का मिश्रण था - और तीनों का सरोकार था समाज - मुझे तो यह भी लगता है कि भाषा के अद्भुत, रचनात्मक और चमत्कारिक प्रयोग करने वाले ज्ञानरंजन, उदय प्रकाश और स्वयं प्रकाश जैसे लेखक संभव ही इसीलिए हो पाए कि पूरे पर्यावरण पर आसमान की तरह छाया था हरिशंकर परसाई - निराला, राहुल, प्रेमचंद, यशपाल की परंपरा में वह बहुत बड़ा समाज-द्रष्टा लेखक था और अपने खड्डे पर बैठ कर ही "झीनी -बीनी चदरिया'' कातता और अन्यायों को उधेड़ता रहा।"


कहना ही होगा कि आज के दौर में जिस तरह से सत्ता ने झूठ, लूट, क्रूरता, नफ़रत, हिंसा, छद्म राष्ट्रभक्ति, धार्मिक उन्माद और अन्याय का मनुष्य एवं समाज विरोधी एक कृत्रिम माहौल निर्मित किया है - उसमें साहित्य और साहित्यकार की ज़िम्मेदारी पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गई है। यह समय खलनायक को ही कद्दावर बना कर पेश कर रहा है। यह विद्रूपताओं से भरा समय है। आज ज़रूरत है ऐसे लेखन की जो एक गहरी अंतर्दृष्टि के साथ अपने समय को निर्भयता के साथ रच सके और अपने पाठकों को अंधेरे में राह दिखा सके। आज के दौर में व्यंग्य की विधा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बन सकती है। इस मामले में हरिशंकर परसाई आज भी हमारे लिए अपने व्यंग्य लेखन के माध्यम से टार्च की रोशनी लिए पथ प्रदर्शक बन सकते हैं, हैं भी। इधर हिन्दी में व्यंग्यकारों की तीन-चार पीढ़ियों में कुछ नाम ऐसे ज़रूर हैं जो निर्भय हो कर आज के समय की चुनौतियों से मुठभेड़ कर रहे हैं और अपना प्रतिरोध व्यंग्य विधा में दर्ज करते हुए परसाई की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं । इन पर चर्चा फिर कभी ।



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टिप्पणियाँ

  1. वाह।व्यंग्य की मार्मिकता को रेखांकित करता एक अत्यंत प्रभावकारी आलेख।बधाई लेखक को।सुनील कुमार पाठक ,पटना।

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  2. आपका आभार प्रिय भाई संतोष चतुर्वेदी जी।

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  3. आपका शुक्रिया और साधुवाद प्रिय मित्र संतोष चतुर्वेदी जी। चंद्रेश्वर।

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