ध्रुव शुक्ल की किताब 'वा घर सबसे न्यारा' पर नितेश व्यास बाबजी की काव्यात्मक समीक्षा 'छाछ जगत बपरानी'।
शास्त्रीय संगीत की दुनिया में कुमार गन्धर्व आज भी एक प्रतिमान हैं। लोक संगीत को शास्त्रीय से भी ऊपर ले जाने वाले कुमार जी ने कबीर को जैसा गाया है, वह अदभुत और अविस्मरणीय है। शायद ही कोई गायक उस ऊंचाई को स्पर्श कर पाए। उनकी गायकी में मालवा की धुन और वे लोक गीत भी गूंथे हुए हैं, जो वहां की मिट्टी से जुड़े हैं। यह वर्ष इस अप्रतिम गायक का जन्मशताब्दी वर्ष भी है। कवि ध्रुव शुक्ल ने कुमार गन्धर्व जी की जन्मशती के अवसर पर 'वा घर सबसे न्यारा' जैसी महत्त्वपूर्ण किताब लिखी है। इस किताब को पढ़ कर नितेश व्यास ने एक काव्यात्मक समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ध्रुव शुक्ल की किताब 'वा घर सबसे न्यारा' पर नितेश व्यास बाबजी की काव्यात्मक समीक्षा 'छाछ जगत बपरानी'।
छाछ जगत बपरानी
नितेश व्यास बाबजी
1.
जैसे सूरज हर प्रभात में
लेता है नया जन्म
हर कविता से जन्मता है कवि
हर राग से जन्म होता है गायक का
होने विराग
2.
अनाहत को
आहत करने की साधना में
लीन रही देह
गेह जो सबसे न्यारा
स्वर सजाते रहे उसे
श्वास के आवागमन की लय
धड़कन की ताल से मिल
रचती रही राग
होने
विराग
3.
कैसे होता है स्वरोदय
पढ़ा था पाणिनीय शिक्षा में कि
पहले आत्मा बुद्धि से मिलकर
मन को पदार्थ से संयुक्त करती,
मन देहाग्नि को प्रेरित करता
देहाग्नि मारुत को प्रेरित करती
वह मारुत उर में विचरण करती हुई
मन्द्र स्वर को जन्म देती
कुमार भी इस स्वर के साथ रोज़ जन्मते
लय होते नाद के साथ
4.
स्वर-शिशु
उठ जाते बहुत पहले से
जागती है माॅं-राग
बहुत बाद में
कभी तो जागती ही नहीं
बिलखते शिशु सो जाते
खो जाते
पिता-आकाश में
5.
देह ग्राम यह अतिविरल स्वर-श्रुतियों का वास।
साधक हो गन्धर्व जब आ बैठे तब पास।।
6.
क्या है षड्ज
कौन ऋषभ
कहां है गान्धार
किसका मध्यम
किसको धैवत
कैसा पंचम
कहां का निषाद
या कि सभी षड्ज ही है
षड्भ्य:जात:
एक तत्व से सब जग उपजा
सब में एक समाया
ऐसा षड्ज ही तुमको भाया रे साधो!
7.
क्या
षड्ज की छाया को पकड़़ने
दौड़ते हैं छहों स्वर
ऋतुऐं पकड़ना चाहती
जैसे
संवत्सर
8.
सबद हुआ परकासा
साधो! मत जाओ रे प्यासा
शब्द-ज्योति
प्रकाश भी जिससे
होता प्रकाशित
स्वरारूढ़ शब्द
पहुंचा देते
उस घर
जो है सबसे न्यारा
सबसे प्यारा
9.
तालं कालक्रियामानम्
तल मे है अतल में भी
जल में है कल-कल में भी
पल में, हल में, समतल में भी
कुछ में भी
नाकुछ में भी
पलक में और फ़लक में भी
हद और अनहद को बांधे खड़ी है
जैसे ताल
घर की सबसे बड़ी है
10.
हाथ उठा हुआ
तुम्हारा चित्र
मानो राग के छूने हो चरण
आकाशगंगा से चुनने हो स्वर-बिन्दु
या कि इंगित-मात्र तत् की ओर
उस तट की ओर
बुलावा अज्ञात का
गगन में आवाज़ हो रही
झीनी-झीनी
सुनता है कोई-कोई
गुनता है गन्धर्व-निर्मोही
11.
क्या कभी जान सकूंगा
गगन की ओर निशाना साधती
तुम्हारी तर्जनी
आदेश था कि सन्देश
उपदेश है कि व्यपदेश (सूचना)
12.
आर्ष-श्रुतियां
गान-श्रुति बन उतरी
तब समझाया तुमने
नाद-बीज और बिन्दु ही
इच्छा-ज्ञान और क्रिया बन कर
लौटते रहते जगत में
यही जगत की गति है
सनातन मति भी
13.
निर्भय-निर्गुण के बीच
कहीं
गूंजती है लौ
...अगम की
14.
देवताओं और मनुष्यों के बीच
संदेश-वाहक थे गन्धर्व
पुराणों मे मिलती है अनेक कथाऐं
गन्धर्वराज पुष्पदन्त का उल्लेख भी मिलता है यत्र-तत्र
महिम्न स्तोत्र मे मिलती है पूरी कथा
किस तरह अपने गायन से
अभिभूत किया था भगवान शिव को
आत्मयुक्त देह ही शिव है
अन्यथा शव ही शव
शिवत्व से युक्त तुम्हारी स्वरमयी चेतना भी
अविनाशी है अपनी निगुनियों में
मुझे छूती है हर बार
जब भी सुनता हूं तुम्हें
ओ गुरुज्ञानी!
15.
गायकी कुठे आहै
कहां है गायकी?
समकालीन सब खोजते रहे तुम्हारे गायन में गायकी
स्वर-सन्धानों, मुरकियों, तानों में,
उन्हें कभी पकड़ में नहीं आया तुम्हारा संगीत
जैसे हजारों मार्गों से खोजने पर भी घट-घट व्यापी
नहीं दीखता
तान-तरंगें उनके कर्ण-कुहकों से टकरा कर
न जाने कहां गुम हो जाती होंगी
कानों पर रखी चश्में की डंडियों से शायद
दब गयी हो उनकी श्रवण-ग्रन्थि
या कि हृदय-ग्रन्थि कोई संकुचित
जिसमे समा ही न पाया हो तुम्हारा गान-सौन्दर्य
जग दर्शन के मेले में जैसे
कोओं की पांत में बैठी हंस-ध्वनि को कौन सुने
हाथ मलती समकालीनता की विरागी-चेतना को
क्यूं कर भाता तुम्हारी बेधज-सजी राग का सौन्दर्य
लायकी से हीन ही कोई बोला होगा-
गायकी कुठे आहै
कुमार गन्धर्व |
16.
काल में पुनरावृत्ति का गुण नहीं
कितना विरोधाभासी लगता यह वक्तव्य
किसी काम को बार-बार करना हमारी कमज़ोरी है
तो क्या काल कभी भी स्वयं को नहीं दोहराता
तो फिर ये दिन-रात ये पक्ष-मास ये ऋतु-संवत्सर
सब कुछ नया है?
हर दिन नया सूर्य, हर रात एक नया चांद
हर दिन एक नयी राग
कण्ठ में आग
नेत्रों में जाग नयी
सृष्टि के पास इतना वैविध्य है
कि कल्प-कल्प तक भी
कल चहकी हुई वही चिड़िया आज कुछ भिन्न चहकेगी
कली कुछ भिन्न महकेगी
भ्रमर-गुंजार होगा भिन्न
यही तो है सनातन-भेदाभेद
17.
लोक के आंगन में
तुलसी के पौधे-सी
रोपित है राग
जैसे गांव-घर के चूल्हे में
सोई रहती आग
कोमल-कंठ में सुलगती
जब कोई कुमार आत्म-धौंकनी से
मारता फूंक
उठती हूक
लोक को आलोकित करती
शास्त्र को भी करती समृद्ध
रचनी एक नया लोक-शास्त्र
18.
भटकना
बिना चले बहुत दूर
खोजने राग की उमग
जीवन भर बस यही उमंग
कि गा सके कुछ जिसे कह सके अपना
न टूटे जगत का सपना
उससे पहले पा जाए घर अपना
लेकिन घर की जगह भटकना ही भाया तुम्हें
ग्रामों मूर्छनाओं की पेचिदा गलियों में
निरन्तर भटकती तुम्हारी चेतना
तब भी
जब देह पड़ी थी किसी खोल-सी खोखल
प्राण तब भी शोध रहे थे
साध रहे थे स्वर को
वह घर जिसमें कोई दरवाजा नहीं
उसमें प्रवेश की संभावना से जूझते
कभी थका कंठ गिरता ताल पर
तो कभी ताल करती अनाहत को आहत
अनहद नाद बजता ही रहता अहर्निश
देह वाद्य मे सुप्त स्वर
सद्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर
जा पहुंचते कभी उस घर
श्रोता अपलक निहारते
राग बुहारती बिखरे स्वर
मूर्छनाएं विलीन हो जाती ग्रामों में
ग्रामपति जागता हुआ
भीगे नयनl
19.
वे पांच-सात वर्ष
जो रोग-काल था
वास्तव में वह तुम्हारे लिए था योग-काल
मौन और मनन की साधना का समय
कहा है तुमने-
'अगर मैं निरन्तर गाता रहता तो भी
वो नहीं पा सकता था जो
इन वर्षों के मौन से पाया'
तानपुरे से स्वर साधती भानुमति
तुम्हारे गिरते हुए बलगम को
अपनी अंजुरी में भर लेती
निर्माल्य की तरह
प्रसन्न-मध्यम-मुग्ध मुद्रा त्वम्
देखते रहते उसकी सेवा
स्वर ही नही साधता राग को
राग भी पूरती स्वर को
स्वयं ही से
20.
धीरज से हटे अवसाद के पर्दे
इधर भारत राग-स्वतन्त्रता के
संवादी सुर लगा रहा था
वहीं दूसरी ओर
गन्धर्वों में कुमार बिखरते-बिखरते
विवादी-स्वरों को
जीवन-राग में समेट कर
काल की चक्रधार तिहाइयों के बीच से
उठान को तैयार
शिव से उत्पन्न स्वरों ने
शव को फिर से शक्ति दी
प्रकट हुआ शिवपुत्र
नाद हुआ आह्लाद
21.
स्वराघात को साधने का अभ्यास
शक्ति देता गया
जीवनाघातों को सहन करने की
तीन सप्तकों के सोपान त्याग
विदा हुई राग
भानुमति लीन हुई
जल बिनु मीन हुई
22.
तुम्हारा दुख ढला
बंदिशों में
राग ढले आंसू
तानों में वो सारी चीखें
जो दबी रह गयी
भीतर कहीं
सन्ताप, भाप बन कर उठता
पकड़ता राग को
आन्तरिक आग को
जलते रहे तुम जीते-जी
आज सौ साल बाद भी
लपटें लटक रही शून्य में
23.
रोता हूं तुम्हारे दुख को देख कर
तुम्हारी साधना को देख होता हूं विनत
प्रेम को देख रीझता हूं
खीजता हूं तुम्हारी वितृष्णा पर
कबीर रोता है कंठ में तुम्हारे
साखियों ने मानो पायी बैसाखियां
वे खड़ी हैं हाथ बांधे
तुम्हारी सासों में दौडना चाहती
निगुनियां तुम्हारे गुन गाती
नही थकती
कुमार तो कभी नहीं थकते
तुम क्यूं थक गये?
24.
आवाज़ की उपासना
अनेक घाटों का पानी पी कर भी
जब नहीं बुझी प्यास
तब ख़ुद ही
अपना कुआं खोदना
क्यूं गाना दूसरों की तरह
कहां है मेरी आवाज़, मेरे सुर, मेरी राग, मेरी आग
अब अपने ही कंठ-कूप के
अतल में, मूलचक्र में
छुप बैठी
परा की आराधना ही बनी
सांगीतिक-साधना
25.
स्वर-लय और ताल से परे कुछ नहीं
कौन जानता इनको?
यह सारा जगत्
इस त्रिवेणी पर
तिर रहा तिनके की तरह,
कहां है इस त्रिवेणी का आदि-उद्गम
साधक
खोजता ही रहता जीवन भर
द्वार तक ही हो आता तृप्त
द्वारि!
अब भी प्रतीक्षा में तुम्हारी...
26.
गायन मे दर्शन
दर्शन में सूरदर्शन
जो रुका हुआ है वह चल रहा है
चलते हुए में है एक ठहराव
सभी समझते कि उनके पास है गायन का अर्क
यही तो है फर्क
एक साधक और गायक में
साधना के माध्यम से
शून्य को साधता हुआ
स्वसत्ता-शून्य स्वरसत्तानुस्यूत
पा जाता अर्कोदय
हो जाता स्वरोदय
27.
* मैं सुर मैं हूं लय में है शरीर...*
ठहरता हूं इस पंक्ति पर
जैसे आत्मा में ठहरता है शून्य
सुर और लय
मैं और शरीर
जीव और जगत्
व्यष्टि को त्याग समष्टि की आकांक्षा
तुम्हारे गायन मे ही नहीं
व्यक्तित्व में भी दीखती
तुम एक होना चाहते
एकाकार निर्विकार...
28.
लोक-धुनों से ही निकली है राग
लकड़ी में छुप बैठी आग
समझा तुमने
बहुत देर तक
मालवा की लोक-धुनों को सुनते हुए
कि लोक के आंगन में ही खेली है रागिनियां
विदा हुई देर-सवेर
लौटाया तुमने
उन्हें
बाबुल का घर-प्यारा
सबसे न्यारा
29.
देवास के
सुदूर गांव-अंचलों में
झाड़ियों की ओट मे छुप बैठी लोक-राग
किसी रमणि-सी सकुचाई पहले
उसे साध कर
लाए तुम अपने साथ
थाम कर हाथ जैसे लाता है वर, वधू को
जिनका 'सा' खोजना भी मुश्किल था
ऐसी स्वर-वीथियों ने
रचवाई तुमसे नई स्वरावलि
वहीं से फूटा
तुम्हारी धुन-उमग रागों का स्रोत
शून्य से ओतप्रोत
30.
निर्गुण का इकतारा
जिस में सारा जगत् पसारा
गावै कोई निरगुन हो कर
सारे गुन मैं वां पर वारां
साधो! निर्गुण का इकतारा
रात बजे, नहीं दिन में बाजै
सतगुरु नाम सहारा
लोक सोय तब जोगी जागै
ये गन्धर्व विचारा
साधो निर्गुण का इकतारा
एक तार एक ही से लागा
दूजा कछु न सहारा
नाथ सूर कबिरा की बानी
गुन-गुन जगत बिसारा
साधो!निर्गुण का इकतारा
नित प्रसन्न-मध्यम कुमार जब
निर्गुण-स्वर विस्तारा
लोक भया आलोक चतुर्दिक्
नाद-ब्रह्म भव तारा
साधो निर्गुण का इकतारा
ध्रुव शुक्ल |
31.
चरम द्रुत के बीच अप्रत्याशित यति से तुम
तुम्हारी गायकी का स्थापत्य
आकर्षित करता शिल्पकारों को भी
अत्यधिक उठाव के बीच अचानक ठहराव
चक्रधार तिहाइयों के बीच अचानक विलम्बित
चरम द्रुत के बीच अप्रत्याशित यति-सा
गतियुक्त ठहराव तुम्हारा गायन
शून्य शिखर पर स्थित रिक्त-सा
दूर से ही दीख पड़ता
चमकता
आलोकित करता परिपार्श्वव
32.
तुम्हारे गायन में सुनता हू़
खण्डित मूर्तियों का रुदन
शिल्पकारों के सुकोमल आघात भी
घात लगाए शिकारियों द्वारा
चोटिल पशु-पक्षियों की करुण-व्यथा
प्रकृति के सुकुमार रूप के साथ ही रूप-विकराल
लय और ताल
देश और काल की सीमा का अतिक्रमण
प्रतिगमन अपने उद्गम की ओर
कुछ अदीठी खण्डित मूर्तियों को
आज है तुम्हारी प्रतीक्षा
कि तुम्हारी राग सहला सके उनके घाव
33
'शोक' तुम्हारा उपनाम
अशोक तुम्हारा संगीत
लोकशोक-निवारक
लोकालोक-कारक
34.
जैसे हर यज्ञ में आवाहन करना होता देवताओं का
यज्ञाचार्य विविध विधियों से बुलाता,आसन देता
पाद्य-अर्घ्यादि से करता सत्कार
वैसे ही होता राग का आवाहन
गायक साधक की तरह पहले सहलाता सुरों को
तानपुरे के तारों को छेड़ती अंगुलियां
अस्पर्श छुअन से
निकलते स्वर
कंठ को प्रेरित करते
स्वरों की पगडंडियां अभी दिखती, ओझल होती कभी
ताल अभी ढ़ूंढ ही रही होती अपना तल
कि एक तीव्र आलाप से बिखरे स्वरों को समेटता
साधक राग के द्वार तक पहुंचता
लेकिन राग-गृह में अभी प्रवेश कहां?
जैसे भिक्षुक मांगता भिक्षा सद्ग्रहणी से
मन्द्र स्वर में करता मृदु-निवेदन
अन्नपूर्णा-सी राग, हो कर स्वरपूर्णा
भर देती साधक के कंठ में अपनी आग
सम्मुख आ खड़ी होती
शिशु-साधक के कंठ से झरती निर्झरी-सी
तृप्त करती ...
...नहीं
कि ओझल हो जाती शून्य-विवर में
35.
तुम्हारे गायन ने खोली दिशा-एकादशी
भाव-भंगिमाओं ने रचा नया मुद्रा-विज्ञान
मुद्राएं समाधिस्थ साधु-सी
मुग्ध करती
टोहती शून्य
कभी मुद्राएं गायन पर हावी होती
कभी गायन मुद्राओं पर चढ़ कर बोलता
संगीत-रसिक चुनते राग के नये आयाम
चित्रकारों को भी मिलता नूतन व्यायाम
मुद्रा-राग रूपी बाण से बिंधे श्रोता
तड़पते हैं
जैसे एकान्त -कोलाहल के बीच शून्य
36.
तुमने नदियों के नाम पर
रागों की रचना की
कुलियों और हमालियों पर रची बन्दिशें
रेल के ठेके से मेल करती हुई
ठसाठस भीड़ में एकान्त रचती हुई
सहेली शब्द इतना भाया की उस पर रच डाली एक राग
सहेली तोड़ी
दादुर के बोलने मे कौनसा स्वर है
कोयल के स्वर से कहां तक मिलता हमारा स्वर
तुम्हारा स्वर-संसार तानपुरे से निकल
फैला संसार भर में
कि सिलबट्टे पर भांग पीसने में भी एक लयकारी है
तुम्हारी खट-पट भी सांसारिक खटपट से अटपटी होती
कई धागों को साथ बुन कर बनता है रंगीन वस्त्र
वैसे ही रागों के मिश्रण से राग-पट बुना जाता
कोरा शून्य राग-पट धार कर
सभा में छा जाता
सभा हो जाती शून्यवत्-विराग
37.
सुरताल ही सुखताल
सुखताल जहां मुनि शुकदेव ने
सुनाई थी परीक्षित को श्रीमद्भागवत कथा
सात दिन मुक्ति के सात सोपान
तुम स्वयं ही बने सुरताल
सप्त-सुर और ताल का संगमस्थल
जहां बैठ तुम सुनाते रहे
जीवन-राग
श्रोताओं की संख्या भी हो गयी है बहुत अधिक
अठासी हजार ऋषि-गण ही नहीं
वन-वल्ली-तरु-पल्लव-वात-तडाग
गो-ग्राम-ग्रामणी-गगनचारी-गगरीधारी
आधारी-निराधारी सभी स्वतंत्रत-उन्मुक्त-अमुक्तिकामी
पीते हैं रस, पीते जाते हैं
झंझा से जूझते हैं और जीते जाते हैं
यही भागवत-संगीत है
संगीत की भगवत्ता भी इसी में
38.
बन्दिश को बांधना या
साधना कविता को
शून्य मे़ं डूबना या
खोजना स्वयं को
39.
सुमधुरता संगीत की
हर लेती वैर
अहि-नकुल या शेर-बकरी
पीते एक ही घाट पर पानी
गरजते मेघ
बरसती मल्हार
भीगती अहिंसा की पुकार
रची राग गांधी मल्हार
40.
क्या लिक्खू, पढ़कर क्या समझुं
समझ समझ नहीं पाता
नाद,अनाहत, ईडा, पिंगला
मै कब इनको ध्याता
मुझको कछु न समझ में आता।
सुनकर रोता
रो कर सुनता
रो-सुन कर सो जाता
जभी जागता इस जगति में
खुद को मैला पाता
सोधो!कछु न समझ में आता।
निर्गुण-सगुण में कौन सहज है
कौन कुमार को गाता
कौन राग का लय काहि गति
असमझ समझ न पाता
मै तो रो-धो कर खो जाता।
अर्थ-समझ नही सबद ही सुनता
सबद ही सबद को गाता
घूम-घाम वां घर की चौखट
फिर चौराहे आता
साधो! कछु न समझ में आता।
मीरा-सूर-कबीर की वाणी
जब गन्धर्व सुनाता
मन-कुमार के चरणों ही में
तीनधाम सुख पाता
साधो कछु न समझ में आता
धन्य धरा-भारत
कुमार-गन्धर्व जहां तन पाता
निर्गुण-सगुण निरंजन-अंजन
सब ही के गुण गाता
मुझको कछु न समझ में आता
41.
कल्पना के
सप्ताश्व-रथ पर आरूढ़
गगन-विहारी चित्रकार
बंद आंखों कूची फेरता
कैनवास पर
आंखें खुलती तो साकार होता विचित्र
राग के आरोह का जो चित्र बनता दीखता
देखते-देखते अवरोह में
वह कहीं ओर खुलता
गायन में रचित होता रहस्य
रहस्य से गूंथा हुआ गायन
परम्परा की लीक पर चलने वाले ढूंढते है
तुम्हारा घराना
जबकि तुमने जगत ही को बताया
मात्र आना-जाना
नितेश व्यास बाबजी |
सम्पर्क
मोबाइल : 09829831299
वाह 💓 बहुत सुन्दर...यह तो सम्पूर्ण पुस्तक की ही सटीक व्याख्या हो गई | बहुत अच्छी कवितायैं
जवाब देंहटाएंकुमार गंधर्व जी को नमन🙏🙏
बहुत सुन्दर समीक्षा लिखी है सर... अमूल्य योगदान साहित्य जगत में!
जवाब देंहटाएंआपका आभार
जवाब देंहटाएंराग बुहारती बिखरे स्वर ।आपने अपनी कलम की महीन कारीगरी से रच दिया नव काव्य संसार ।अद्भुत कविताएं है ये ।और ध्रुव शुक्ल को मैने पढ़ा नहीं मगर ये उन कविताओं की न तो प्रतिकृति है ना प्रतिध्वनि न उन की समीक्षा ,ये तो स्वयं नए स्वर की कविताएं ही ।बहरहाल बधाई आपको इस सृजनात्मक कार्य का रसास्वादन करने के लिए ।जय हो नितेश बाबजी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर .
जवाब देंहटाएं