नीलाक्षी सिंह के उपन्यास ‘हुकुम देश का इक्का खोटा’ पर यतीश कुमार की समीक्षा 'पटरी अतीत का सबसे सुंदर शब्द है।'
नीलाक्षी सिंह |
साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है संस्मरण। संस्मरण जिनसे हो कर रचनाकार उन घटनाओं और परिस्थितियों को याद करता है जो उसका हो कर भी महज उसका नहीं होता। एक पाठक के रूप में जब हम उस संस्मरण से दो चार होते हैं तो उसमें खुद को भी पाते हैं। यही किसी संस्मरण की सफलता भी है। लेकिन जब यह संस्मरण किसी अन्य विधा के साथ जुड़ कर सामने आता है तो उसकी तासीर कुछ अलग ही हो जाती है। वैसे भी नीलाक्षी सिंह अपनी रचनाओं में प्रयोगधार्मिता के लिए जानी जाती हैं। हाल ही में चर्चित कथाकार नीलाक्षी सिंह का उपन्यास आया है 'हुकुम देश का इक्का खोटा’। इस उपन्यास पर एक महत्त्वपूर्ण समीक्षा लिखी है कवि यतीश कुमार ने। यतीश स्वयं एक उम्दा रचनाकार हैं। गजब का पढ़ाकूपन उनके स्वभाव में है। आज यतीश कुमार का जन्मदिन भी है। पहली बार की तरफ से उन्हें जन्मदिन की ढेर सारी बधाई एवम शुभकामनाएं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नीलाक्षी सिंह के उपन्यास ‘हुकुम देश का इक्का खोटा’ पर यतीश कुमार की समीक्षा 'पटरी अतीत का सबसे सुंदर शब्द है।'
पटरी अतीत का सबसे सुंदर शब्द है
यतीश कुमार
गरम गीलापन बटोरना जमी स्मृतियों को पिघलाने का उपक्रम है। जिस उपक्रम के लिए लेखिका ने स्मृति के खौलते समय में अपनी कल्पना का तड़का लगाया ताकि सही आस्वाद याद-नामे में दर्ज हो सके। स्मरण और विस्मरण के हिंडोले पर डोलते हुए लिखा गया यह संस्मरण अपनी शैली में थोड़ा हट कर है। अस्पतालिया सेज से शुरू हुई यह स्मृति-यात्रा बचपन और लेखिका बनने से ले कर उपन्यास ‘खेला’ के रचने के बीच के सहे दर्द का मार्मिक चित्रण है। लेखिका बहुत ही सरल आमफ़हम के साथ मजाकिया शिल्प को पकड़ कर कहे जाने का हुनर रखती है जैसे मानो कुछ हुआ ही न हो, पर जैसे ही आप इसे पढ़ कर आगे बढ़ेंगे लेखनी की हवा आपके ज़ेहन को एक रिवाइंड दे देगी और आप थोड़े गंभीर और संजीदा हो उठेंगे। आत्म और कथा दोनों को एकसार करते हुए दर्द के यथार्थ को दर्ज किया गया है। दरअसल विस्मृति को जगाने और स्मृति में बदलने के लिए आदमी जीवन को पुरानी पटरी पर ले जाना चाहता है उन गलियों की यात्रा करना चाहता है जहां लिखा है “पटरी अतीत का सबसे सुंदर शब्द है।”
इन पटरियों पर लेखिका को लय और चलने की ताल मिलती है, इसी के साथ जिस वो जिस झूम की तलाश कर रही हैं उससे उनकी मुलाकात वहीं हुई है। इस किताब को पढ़ने का कुछ अजब संयोग रहा। जब स्मिता के भाई का कैंसर के संक्रमण से देहांत हो गया तब उचाट हुए मन से घर आते ही उस किताब ने मुझे चुना जो महीनों से रखा तो था पर मैंने उसे कभी नहीं पलटा। तब तक संस्मरण के मूल विषय का मुझे भान नहीं था। एक और संयोग यह हुआ कि स्मिता की माँ को भी इसी बीमारी ने डसा था और यहाँ लेखिका की नानी को भी।
संस्मरण फ्लिप-फ्लॉप शैली में लिखा गया है। समय झट से बार-बार बचपन को याद करता है और करते हुए कभी अपनी दीदी, कभी माँ, कभी पड़ोस का वातावरण स्वयं में शामिल करता है। दिमाग और मानस के बीच स्मृतियों की आवाजाही का मर्म चित्र अपनी भाषा के पैनापन से और मार्मिक हो उठा है। यहाँ बालों के गिरने और सहेजने का ज़िक्र आया है, जब लेखिका को शरीर के किसी प्रिय अंग से भी प्रिय अपने बाल लगते हैं और इन बातों का सिलसिला देखते ही देखते अचानक बेहद दार्शनिक मोड़ ले लेता है। दर्शन को टटोलते हुए जो प्रश्न उठते हैं उन्हें सहेजते हुए वह लिखती हैं “मन कौन सा था और आत्मा की सरहद कहाँ से शुरू हो जाती थी? एक शरीर के भीतर मन और आत्मा दोनों कैसे रह लेते थे?”
संस्मरण शैली तो भिन्न है पर यह और भी सुखद है जब रह-रह कर क्षेत्रीय शब्दों का तड़का आता है। अपनी भूमि के शब्द थोड़े और अपने से लगने लगते हैं। यह संस्मरण ‘खेला’ उपन्यास लिखने की पृष्ठभूमि है। एक जगह लेखिका मौत के डर को कहती है थोड़ा रुक जाओ मुझे यह उपन्यास को पूरा कर लेने दो। ऐसी इच्छा तो एक संजीदा और समर्पित लेखिका ही कर सकती है। लेखिका की माँ ख़ुद किताबें पढ़ने और लिखने का शौक़ रखती हैं और उनका समय इस ओर जाने पर लेखिका के मन की विडंबना मुझे सरला देवी के बालमन की याद दिला गई जिसमें बाल मनोविज्ञान की भी बारीकी छिपी है, जब माँ स्वर्ण कुमारी देवी (जो बांग्ला की पहली महिला उपन्यासकार के रूप में जानी जाती हैं) को अपने पठन-पाठन में व्यस्त देख कर जो निर्वात सरला के मन उठता था कुछ वैसा ही नीलाक्षी को भी महसूस होता है बस यहाँ इसकी कसक कड़वी न हो कर मीठी है।
इसी मनोविज्ञान में थोड़ी और मिठास भरते हुए लेखिका सिल और लोढ़ी के बीच सी-सॉ सी उठती तरंगों के ताने बाने का सकारात्मक असर उनकी लेखनी पर कैसे पड़ता है उसकी बेहद रोचक व्याख्या करती हैं। लेखन की प्रवाह को अवरुद्ध करने वाले बांध को यूँ ध्वस्त करना वाक़ई एक सुखद गुदगुदाहट से कम नहीं। जीवन में आपबीती की गहराई और मार्मिकता का कोई लिटमस पत्र नहीं होता पर लेखनी इस का विकल्प ज़रूर है जो इसे अपने मानक में उतार लेती है।
इस पूरे किताब में पिता शब्द पन्ना दर पन्ना विस्तार पाता है। सर्किट बोर्ड जैसे अबूझ पिता मुकम्मल तस्वीर में रेखा दर रेखा खींचते चले जाते हैं। पढ़ते वक्त मैं उन सारी पंक्तियों को एक जगह समेत लेना चाहता था जहाँ पिता का ज़िक्र है और फिर इत्मीनान से उसे बार-बार पढ़ना चाहता था। जरनैल सिंह बने पिता जब अपनी माँ के घाव साफ़ करते हैं या जब बोरसी के आँच में लेखिका को पिता का पूरा चेहरा दिखता है या जब अपनी बेटी की प्रेग्नेंसी के समय कभी खाना नहीं बनाने वाले पिता पक्के शेफ़ बन जाते हैं, ऐसे दृश्यों को रचते हुए लेखिका समूचा जीवंत दृश्य उभार देती हैं और आपके सामने एक मार्मिक फ़िल्म चलने लगती है। ख़्यालों को कुरेदते हुए संवेदनाओं की बाढ़ उमड़ी और संस्मरण की धारा का प्रवाह बढ़ता गया।
कोई अकेलेपन के डर से कहानी लिखने की शुरुआत कर सकता है? तो उत्तर है हाँ! नीलाक्षी के अनुसार उन्हें हॉस्टल के कमरे में एक दिन अकेले रहना पड़ा था और इसी के बाद उनकी पहली कहानी अनायास अस्तित्व में आयी। यह किताब ऐसी ही ढेर सारी रोचक घटनाओं का जमावड़ा है। यह अकेलापन और चुना हुआ एकांत दोनों का जीवंत संतुलन है। उस एकांत के सकारात्मक प्रयोग की बारीकी इस किताब में रुक-रुक कर मिलेगी।
एक दोस्त का यूँ सांत्वना देना कि भले ही उसके पति की मृत्यु कैंसर से हुई पर तुम्हारे साथ ऐसा नहीं होगा और दूरियों को फ़ोन से पाटते हुए लगातार साथ बने रहना इस संस्मरण का मार्मिक हिस्सा है। एक जगह लिखा है “एक रुकी हुई धड़कन हिल गयी और वह भहरा कर दूसरी तमाम बीमार सोयी धड़कनों पर गिरती चली गयी। इस तरह से एक बारी एक झटके से धड़कनें साँसे लेने लगीं।” कहने का ढंग लेखक को लीक से अलग करता है जो इस संस्मरण में कई जगह दिखेगा और आप आश्चर्य करेंगे कि इन बातों को ऐसे भी कहा जा सकता है जो कल्पना से परे हैं।
संपादक की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, अस्वीकार्यता भी सकारात्मकता का एक चेहरा लिए हो सकती है वह अखिलेश जी के पत्र के ज़िक्र के ज़रिए पता चलता है। संपादक और रचनाकार के बीच सार्थक संवाद चलता रहे यह रचनाकार विकास के लिए भी कितना महत्वपूर्ण है यह नीलाक्षी से बेहतर कौन बता सकता है। राजेंद्र यादव जी के संपादन और एक रोचक घटना का ज़िक्र भी आपको थोड़ी देर के लिए रोकेगा।
इन सब से इतर इस संस्मरण को पढ़ने के बाद लगा कि उस पीएमटी पेड़ को देखने एक बार बनारस ज़रूर जाऊँगा। अंत में नीलाक्षी को इस बेहतरीन संस्मरण के लिए बधाई और शुभकामनाएँ।
यतीश कुमार |
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बहुत सहानुभूति से लिखी समीक्षा । यह तभी संभव है जब पाठक रचना की मूल ज़रूरत की तह तक पहुँचा हो। नीलाक्षी की कथा भाषा सघन और संगुंफित है। वह क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर दोनों आयामों में एक साथ चलती है। भाषा की क्रिया और प्रविधि की तराश से आत्म को फैलाया गया है। यह कृति रोचकता और असंभावना पर पुल बनाती है जिसे समीक्षक ने समझा है। और यह तो है ही कि यह उसकी अपनी दृष्टि है । कोई दूसरा समीक्षक इसे अलग तरीक़े से देखेगा।
जवाब देंहटाएंआनंद कुमार सिंह
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