श्रीविलास सिंह द्वारा अनुवादित कुछ अफगान कविताएं
श्रीविलास सिंह |
वैश्विक कविता का फलक समृद्ध है। खासकर उन क्षेत्रों में, जहां के लोग खुली सांस तक नहीं ले पा रहे, उम्दा कविताएं लिखी जा रही हैं। अफगनिस्तान ऐसा ही देश है, जो कुदरती तौर पर सुन्दर होने के बावजूद राजनीतिक तौर पर असुंदर है। कट्टरपंथी तालिबानियों के सत्ता में आने के बाद दकियानूसी परंपराएं एवम कानून लागू किए जा रहे हैं जिससे आम जीवन जीना दुष्कर हो गया है। ऐसे समाज में महिलाओं की स्थिति की कल्पना कर पाना भी सिहरा देने वाला है। तमाम जलालतें झेलने के बावजूद इन महिलाओं ने जीवन में अपनी आस्था बनाए रखी है। उन्हें यह भी उम्मीद है कि यह दौर भी कभी न कभी खत्म होगा और तब बेहतर जीवन का विकल्प भी उनके सामने होगा। श्रीविलास सिंह की खोजी नजरें दुनिया के उस साहित्य पर होती हैं जिन्हें वाकई रेखांकित किया जाना चाहिए। खुद कवि-कहानीकार होने के चलते उनके अनुवाद केवल भाषाई उल्था भर नहीं होते बल्कि वे एक स्वतन्त्र रचना का रूप ले लेते हैं। आज पहली बार पर हम श्रीविलास सिंह द्वारा अनुवादित कुछ अफगान कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं।
कुछ अफ़ग़ान कविताएँ
अनुवाद : श्रीविलास सिंह
१. नादिया अंजुमन
“अफगानिस्तान की बेटी”
मुझे नहीं कोई कामना अपना मुँह खोलने की। मैं क्या गाऊँगी?
मैं रहूँगी तिरस्कृत ही अपने समय द्वारा, चाहे मैं गाऊँ अथवा नहीं
कैसे गाऊँगी मैं शहद के गीत? वह तो परिवर्तित हो गया है विष में मेरी जिह्वा पर--
नाश हो निरंकुश उत्पीड़क के घूँसे का जिसने तोड़ दिया मेरा मुंह
आबाद रहे यह दुनिया जहाँ नहीं है कोई बांटने वाला मेरा दुःख
चाहे मैं रोऊँ या हँसूँ, चाहे मैं जियूँ या मरूँ
मैं और यह बंदी गृह; मेरी उत्कंठाएँ धकेल दी गईं हैं शून्य में।
मैं पैदा हुई व्यर्थता से, पैदा हुई बस चुप करा दिए जाने को।
मेरे हृदय, जानती हूँ मैं, बीत चुका है बसंत, और उसका आनंद भी
किंतु कैसे उड़ सकती थी मैं इन नोच दिए गए पंखों से?
यद्यपि हूँ खामोश इस सारे समय
मैंने सुना है करीब से:
मेरा हृदय फुसफुसाता है अब भी उसके गीत,
जन्म देता नए गीतों को उसके लिए हर क्षण
एक दिन मैं ध्वस्त कर दूँगी यह पिंजरा, और इसका यह एकाकीपन
एक दिन मैं पियूंगी मदिरा आनंद की,
और गाऊँगी जैसे गाना चाहिए किसी चिड़िया को बसंत ऋतु में।
यद्यपि हूँ मैं एक नाजुक वृक्ष- मैं नहीं होऊँगी कंपित हवा के हर झोंके से
मैं हूँ अफगान की बेटी--
मैं छेड़ूँगी अपना फगान*, बुनती रहूँगी इसे अनंत तक।
*फगान : एक विलाप, पश्चाताप और पीड़ा की अभिव्यक्ति।
नादिया अंजुमन |
२. नादिया फज़ल
आह
क्या तुम महसूस करते हो चिड़ियों का मौन ?
क्या तुम देखते हो उनकी दृष्टि
जो पीछे से निशाना बनाते हैं
और रात्रि जैसी कलिमा से युक्त
रात्रि का ह्रदय
तीर के पश्चात्
तीर
३. फिगाह जावेद मुहाजिर
“काबुल के लिए”
मेरे गर्म, आकाशविहीन शहर
मैं आप्लावित हूँ प्रेम से
चाँदनी से भरा हुआ,
रात्रि भिगो दे
तुम्हारी शांति की बंजर भूमि को
और तुम्हारी रातें आप्लावित कर दें
सम्पूर्ण अनंत काल को
तुम्हारे शक्तिहीन घुटनें
तुम्हारी पीड़ा, जलती हुई
जलाती है मुझे
मेरे उन्नत प्रेम,
मैं जानता हूँ तुम्हें --
तुम हो पूर्णतः मेरे योग्य।
मुझे दो अपने खुरदुरे हाथ
दो मुझे अपने हाथ, मेरे प्रेम
अब आओ, आओ
उठो
४. बहार सईद
यह नकाब नहीं छिपा सकती मुझे,
जैसे कि मेरे केश --
इनका दिख जाना मात्र - मुझे नहीं कर देगा नग्न चित्रित।
मैं हूँ सूर्य। मैं झिलमिलाती हूँ परदे के कपड़े में से
नहीं लगा सकता ग्रहण मेरे प्रकाश को
सबसे अधिक अंधकारमय अँधेरा भी नहीं।
एक पवित्र पुरुष नहीं कहेगा मुझे पर्दे के लिए
यदि वह नहीं होगा उतना धर्मात्मा,
उतना धर्मात्मा, उतना दुर्बल
ओ ‘सन्मार्ग’ की भूमि’ के लोगों
बताओ मुझे, कैसे मेरे केश करते हैं तुम्हें पथभ्रष्ट ?
मुझे दिखती नहीं कोई समझदारी उस ज्ञान में
जो बांटते हो तुम
तुम हो जिसने किया है मुझे भ्रष्ट,
फिर मैं क्यों जलूंगी नर्क की आग में?
मैं इनकार करती हूँ स्वीकार करने से,
मेरा सिर नीचा करने से
झुकाने से तुम्हारे कमजोर पैरों पर।
तुम अल्लाह के बंदों !
हटा लो अपनी आँखें मेरे चेहरे से।
जाओ और छिपाओ दुर्बलता
अपनी आत्मा की --
नक़ाब, नक़ाब डालो
अपनी क्षरित होती आस्था पर।
५. लैला सेराहत रोशनी
अनंतकाल के लिए संकेत
मुझ में तुम
हो एक दर्पण,
अस्तित्व की भांति विशाल
नए और पारदर्शी बसंत की भांति।
मैं रोपती हूँ अपनी आँखें
दर्पण में
ताकि एक संकेत
नन्हा और हरित वर्णी
उभर सके , दावा करे
बसंत के अनंत का।
६. फरंगी सौगंध
मात्र अपने लिए, वह हँसती है घंटे भर
गुजरती हुई साँस एक वेश्या की।
फिर कांपती हुई, वह विलाप करती है जोर से
एक वेश्या का भयक्रांत शोक।
एक क्षण को वह दृष्टि डालती है दर्पण पर:
वह नहीं है वहाँ।
और तब वह है
छुपी हुई धूल में
धूल एक वेश्या की दुनिया की।
हर रात्रि, हर दिन, हर घंटे
थमी हुई मजबूत बाँहों में
वह रोती है एक वेश्या के आँसू।
बदल कर एक बिच्छू में
डंक मारती है स्वयं को, विलाप करती है
फिर कल्पना करती है
इलाज की एक वेश्या के लिए।
मृत्यु, व्यस्त है
खेलती हुई शहर में अन्यत्र कहीं,
वह हँसती है नम आँखों में एक वेश्या की।
पतझड़ के बीतने के संग,
एक और कहानी
रह जाती है अनकही:
मैंने गुजार दिया अपना जन्मदिन
गुजार दिया साथ में एक वेश्या के शोक के।
सम्पर्क
मोबाइल : 08851054620
प्रकाशित करने हेतु हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंफरंगी सौगंध की कविता बहुत सशक्त है। अनुवाद में जरूरी धार है।
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