सुनील कुमार पाठक का आलेख 'लाली हम भोर के'

सुनील कुमार पाठक

 
21वीं शताब्दी में जाने के बावजूद भारत आज भी एक कृषि प्रधान देश है। इसके बावजूद भारत में किसानों की समस्याएं अंतहीन हैं। तकनीक उपलब्ध होने के बावजूद किसान आज भी खेती के लिए प्रकृति पर निर्भर है।  सरकारों की प्राथमिकता में भी किसान सबसे निचले पायदान पर होता है। किसान आज भी प्रायः मारा-मारा फिरता है। किसान आज भी तंगहाली का सामना करता है। जमीन से जुड़े होने के बावजूद जमीन बड़ी तेजी से उसके हाथ से निकलती जा रही है। वह भूमि को मां का दर्जा देता है। यह मां भी उससे दूर होती जा रही है। पूंजीपतियों की ललचाई नजरे अब किसान की जमीन पर ही टिकी हैं।  आमदनी का निश्चित स्रोत न होने के कारण किसान सूदखोरों के चंगुल में फंस जाते हैं जिसकी अन्तिम परिणति उनकी आत्महत्या के रूप में दिखाई पड़ती है। भोजपुरी अंचल मुख्य रूप से कृषि केंद्रित अंचल ही है। इसी वजह से भोजपुरी की अधिकांश रचनाओं के केंद्र में प्रायः किसान ही होता है। सुनील कुमार पाठक ने भोजपुरी कविता में किसानों की उपस्थिति को ले कर एक महत्वपूर्ण आलेख लिखा है। इस आलेख को इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए  कि यह पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बिहार की वास्तविक स्थिति को जानने समझने के लिए हमारे सामने इस विषय पर अमूल्य दस्तावेज उपस्थित करता है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुनील कुमार पाठक का भोजपुरी आलेख 'लाली हम भोर के'।


'लाली हम भोर के'

(बात भोजपुरी किसानी कविता के)


          

डाॅ. सुनील कुमार पाठक 


                 

भोजपुरी के किसानी कविता पर लिखे के शुरुआत कहाँ से होखी-ई तय कइल बहुत कठिन नइखे। भोजपुरी के आदिकवि जब कबीर के मान लिहल गइल बा त उनकर सबसे प्रचलित पाँति के धेयान राखलो जरूरी बा। ऊ लिखले बाड़ें-


"मसि कागद छूयो नहीं कलम गह्यो नहिं हाथ।" 


मतलब भोजपुरी के आदि कवि कलमजीवी ना रहलें। ऊ कुदालजीवी रहलें। हसुआ-हथौड़ाजीवी रहलें। झीनी-झीनी  चदरिया बीने वाला बुनकर रहलें। मेहनत आ श्रमे उनकर पूँजी रहे जेकरा जरिये ऊ आपन जीवन-बसर करत रहलें। भोजपुरी में रोपनी-सोहनी के लोकगीतन से ले के आउरो सब संस्कार गीतन में श्रम के महिमा के बखान बा। रोपनी गीतन में जवना लोक संस्कृति के बखान बा ओह में जीवन रस के साथे-साथे एकरा संघर्ष आ उद्वेलनो के कम चित्रण नइखे। एगो उदाहरण देखे लायेक बा-


"बाबा लाये मोर गवनवा बलम लरिका


सोने के थारी में जेवना परोसलो

जेवनो ना जेवे बहरि खरिका।"


         

बेमेल बिबाह के चित्रण मैथिल-कोकिल विद्यापति जी के लेखनी से मिलेला-


"पिया मोरे बालक मैं तरुनी"।


दोसरका तरफ भोजपुरी कवि भिखारी ठाकुर के त मशहूर गीते बा जवना में बर के बदरूपई के चित्रण खुल के भइल बा-


"चलनी के चालल दुलहा सूप के फटकारल हे

दियका के लागल बर दुआरे बाजा बाजल हे।"

        

भोजपुरी रोपनी गीत बेमेल बिआह के एह समस्या के बहुत पहिले अपना पाट में भरि लेले रहे जवन एकरा किसानी जीवन से जुड़ल रहे। 

                          

'कवितावली' में जब किसानी जीवन के हलकानि के चित्र तुलसी बाबा रखलें तs ओमें उत्तर भारत खास करके भोजपुरी-अवधी -ब्रजी क्षेत्र के गाँवने के मनई के सामाजिक-आर्थिक स्थितियन के बात सामने आइल-


"खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलि

बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी

जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच-बस

कहैं एक एकन सों' "कहाँ जाई का करी?"

         

किसानी ऊहू बेरा जीवन जीये के अइसन माध्यम ना रहे जवना से सुख-शान्ति आ हर तरे के सुविधा भेंटा जात होखे। बेकारी, बेबसी, बेरोजगारी ऊहू बेरा के जन-जीवन के तबाह कर देले रहे।

     

भोजपुरी क्षेत्र के संतकवि रैदास, पलटू साहब, गरीब दास, दरिया साहब आदि के रचनन में किसानी जीवन के महिमा के साथे-साथे एकरा सिकस्ती, तंगी आ तबाही के उरेहाई आँख खोले वाली बिया-


"साधो ऐसी खेती करी, जासे काल अकाल न मरई।

रसना का हल बैल मन पवना बिरह भोम तहँ बाई।"             (दरिया साहब)


"अन्न ही माता अन्न ही पिता अन्न ही मेटत है सब बिथा

अन्न ही प्राण-पुरुष आधारा अन्न से खुले ब्रह्म द्वारा।"

(संत गरीब दास)


संत पलटू साहब पाँच-पचीस लगवला के बादो खेती के पीड़ा से भली-भाँति परिचित रहलें। राजा-पटवारी के मार से खेतिहर पर कइसन-कइसन आफत-बिपत आ गिरत रहे ओसे पलटू साहब पूरा तरे वाकिफ रहलें-


"आग लगो वाहि देस में जहँवाँ राजा चोर

जहँवाँ राजा चोर प्रजा कैसे सुख पावै

पाँच पचीस लगाय रैन-दिन सदा मुसावै ।"

 (पलटू साहब)

             

लोकभाषा पंजाबी के प्रसिद्ध कवि गुरु नानक देव जेकर भोजपुरी जन-मानस पर अमिट छाप बा, उहाँ के किसानी पद बा-


"इहु तनु धरती कर्मा करो

सलिल आपउ सारिंगपाणी

मनुष्य किरसाणु हरि रिदै जंमाइलै

इस पावसि पदक निरबाणी।"

 (गुरु नानक देव)


यानी अपना मन के किसान बना के शरीर रूपी खेत में बीज रूपी कर्म बो के भक्तिभाव के जल से सींचला पर हियरा के भूमि में हरि-भाव के फसल उगी। किसानी के एह रूपक के जरिए गुरु नानक देव ज्ञान के बातन के आम जन मानस पइठावे में कामयाब भइल रहनीं।

           

रैदास के बेगमपुरी में श्रम आधारित व्यवस्था के प्रधानता रहे।


"स्रम को ईसर जानि के जउ पूजै दिन -रैन

रविदास तिन्हहिं संसार मंह, सदा मिलै सुख-चैन।।"

        

भोजपुरी के किसानी कविता पर बात करत 1753 संवत के जनमल कवि घाघ के त कृषक जीवन के महाकविये मानल जाला। कन्नौज के एह कवि के कहावतन में खेती-किसानी के पूरा विज्ञान भरल बा। भोजपुरी क्षेत्र में घाघ के महान कृषि वैज्ञानिक मानल जाला। उनकर कविताई जवन कुछ संग्रहन में मिलेला भा 'घाघ आ भड्डरी' में संकलित बा ओह से कृषि विद्या प घाघ के मजबूत पकड़ परखल जा सकत बा।


1- "उत्तम खेती जो हर गहा। मध्यम खेती जो संग रहा।।

जो पूछेसि हरवाहा कहाँ। बीज बूड़िगे तिनके तहाँ।।


मतलब साफ कि जे खुदे हरवाही करी ओकरे खेती उत्तम होई।


2- "माघ  मघारे  जेठ  में  जारे

     भादो सारे सेकर मेहरी डेहरी पारे।

      

यानी गेहूँ के खेत माघ में हर जोताये के चाहीं जेठ में तपे देबे के चाहीं ताकि घास जर जाव आ भादो में जोत के सड़ावे के चाहीं, तब जाके मेहरी का डेहरी भरे के मौका हाथ लागी।


3- "सावन मास बहे पुरवाई, बैला बेच कीनीं धेनुगाई।"

 

 माने सावन में पुरवाई सजोर बही त बरखा ना होई आ बैल बेच के गाये खरीद लेबे के पड़ी।

          

एह तरे के अनगिनत कहावत भोजपुरी क्षेत्र के आजो थाती बा।

        

एगो किसान कवि डाक नाँव के रहल बाड़ें। 'डाक-वचनावली' में उनकर रचना संकलित बाड़ी सन। एगो उदाहरण बा-


"तीतिर पंख मेघा उड़े ओ विधवा मुसुकाय।

कहे डाक सुनु डाकिनी ऊ बरसे ई जाय।।"

         

माने कि तीतिर के चितकबरा पंख लेखाँ मेघ उड़त आसमान में दिखे त ऊ बे बरिसले ना रही आ कवनो विधवा मुस्कुरात दिखे त बिना कवनो दोसरा मरद संगे फँसले आ भगले ऊ ना मानी।

         

आजादी के लड़ाई आ किसानी कविता                      

किसानी कविता पर विचार करत अब हम स्वतंत्रताकालीन ओह  रचनन पर विचार करे के चाहब, जवनन में किसानन के सीधा भूमिका रहे। किसानन के वीरता, त्याग, साहस, संघर्ष आ संकल्प के भोजपुरी कविता में बड़ी गंभीरता आ व्यापक रूप से उकेरल गइल बा। बलिया के चितबड़ा गाँव के क्रांतिकारी कवि प्रसिद्ध नारायण सिंह के कविता में 1857 के विद्रोह में किसानन के उबाल के चित्रण बा -


"जब संतावनि के रारि भइलि

बीरन के बीर पुकार भइलि

बलिया के मंगल पांडेय के 


बलिबेदी से ललकार भइलि 

खउलल तब खून किसानन के

जागल जब जोश जवानन के

छक्का छूटल अंग्रेजन के

गोरे गोरे कप्तानन के।"

           

आजादी के आन्दोलन के दौरान ओह किसान-संघर्ष के नइखे भुलाइल जा सकत जवना में मोहनदास करमचंद गाँधी के नाँव सीधे जुड़ल रहे आ ओके इतिहास में 'चम्पारण सत्याग्रह आंदोलन' नाम मिलल। 1917 के एह 'चंपारण आन्दोलन' में एगो निपट भोजपुरिहा किसान राज कुमार शुक्ल जी आपन पाती भेज के गाँधी जी के बोलावे में सफल रहनीं-


"किस्सा सुनते हो रोज औरों के

आज मेरी भी दास्तान सुनो।" 


एक बिगहा जमीन में तीन कट्ठा में नील के खेती करे के मजबूरी वाला 'तीनकठिया कानून' के खिलाफ भोजपुरी कवि शिवशरण पाठक के कविता (सन 1900 के आस-पास) के आधुनिक भोजपुरी के पहिल किसानी कविता मानल जा सकत बा-


"राम नाम भइल भोर गाँव लिलहा के भइले

चँवर दहल सब धान गोंएड़े लील बोअइले।

भइ भैल आमील के राज प्रजा सब भइले दुखी


मिल-जुल लूटे गाँव गुमस्ता हो पटवारी सुखी।

असामी नाँव पटवारी लिखे गुमस्ता बतलावे 

सुजावल जी जपत करसु, साहेब मारन धावे।

थोरका जोते बहुत हेंगयावे तेपर ढेला थुरवावे

कातिक में तइयार करावे फागुन में बोअवावे।

जइसे लील दुपत्ता होखे वैसे लगावे सोहनी 

मोरहन काटत थोर दुख पावे दोषी के दुख दोबरी।" 

        

कुल 22 पंक्तियन के एह भोजपुरी कविता में किसानी जीवन के पीड़ा के बड़ा बारीकी से अभिव्यंजित कइल गइल बा।

            

महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के संपादन में निकले वाली 'सरस्वती' पत्रिका के सितम्बर 1914 के अंक में छपल भोजपुरी कवि हीरा डोम के कविता 'अछूत की शिकायत" में किसानी जीवन के तकलीफ के अभिव्यक्ति काफी मार्मिक बा-


"हमनीं के रात दिन मेहनत करीलेजा

दूइगो रुपयवा दरमाहा में पाइबि।

ठाकुरे के सुखसेत घर में सुतल बानीं

हमनीं के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।"

       

हीरा डोम के एही कविता से भोजपुरी-हिन्दी दलित कविता के शुरुआत मानल जाला। एह कविता में किसानी जीवन के जवन रूप उभरल बा ऊ देख के ई कहल जा सकत बा कि ओही बेरा सामाजिक बराबरी आ शोषण के प्रतिकार के स्वर भोजपुरी गरीब-गुरबा में जाग उठल रहे। 1917 से 1947 के बीच भोजपुरी आ हिन्दी पट्टी में चलल 'चम्पारण सत्याग्रह आंदोलन', 'बिजोलिया किसान सत्याग्रह', 'खेड़ा किसान संघर्ष' आदि आन्दोलनन के  किसानी कविता पर व्यापक प्रभाव रहल बा।

        

बिहार किसान आन्दोलन के दौरान किसान नेता यदुनंदन शर्मा के संपादन में गया जिला किसान सभा द्वारा 1938 में 'चिनगारी' नाम के एगो कविता-पुस्तिका छपल रहे, जवना से ओह बेरा के प्रतिबंधित किसान कविता के प्रतिरोधी चरित्र के झलक मिलत बा। 


'धनमा तोहर लूटे लूटेरा', 

'गाँवे-गाँवे करs भैया करs संगठनवा',

'कुरीतिया कैलख हैरान रे' 


जइसन प्रचलित प्रतिनिधि गीत आम जनता के बीच धूम मचवले रहले सन।

            

जौनपुर जिला के इजरी गाँव के जनकवि राजकुमार वैद्य जी बहुते किसान कविता लिखले रहलें जवन जब्त कर लिहल गइल रहे।वैद्य जी का अपना मारक काव्य-रचना खातिर जेलो जाये के पड़ल रहे। उनकरा कविता के बानगी देखल जा सकत बा-


"सबसे किसान हो अभागा हमरा देसवा में

दिन भर बेगारी रहै  लाखन ठै गारी सहैं

तबहूँ ना लागै इन्हें खाये के ठेकान हो 

अभागा हमरे देसवा में।"


मनोरंजन प्रसाद सिंह 

            

भोजपुरी कविता के इतिहास में दू गो कवितन के कालजयी रचना कहाये के गौरव हासिल बा। कालजयी रचना ऊहे हो सकेले जवन कालजीवी होखे। भोजपुरी के दू गो कविता 'बटोहिया' (1911, रघुवीर नारायण) आ 'फिरंगिया' (1921, प्रिंसिपल मनोरंजन प्रसाद  सिंह) अइसन रचना बाड़ी सन जवनन में आजादी के लड़ाई के स्पष्ट पदचाप सुनल जा सकत बा। ई दूनू रचना दूगो अलगा-अलगा भाव-भूमि पर ठाढ़ बाड़ी सन। 'बटोहिया' में भारत-भूमि के गौरव के गुनगान बा तs 'फिरंगिया' में भारत-दुर्दशा के ग्लानिपरक आ पराभव से जुड़ल चित्र देखे के मिल रहल बा। भारत के सांस्कृतिक विभव 'बटोहिया' में प्रभावकारी बा त दोसरा ओर भारत के ऐतिहासिक समृद्धि के विगलित रूप 'फिरंगिया' में वर्णित बा। एह दूनू गीतन में क्रमशः किसानी जीवन के सामर्थ्य आ लाचारी दूनू के उकेराई भइल बा-


1-"सुन्दर सुभूमि भइया भारत के देसवा से

     मोर प्रान बसे हिमखोह रे बटोहिया!


     ××          ××           ××          ××


   जाउ- जाउ  भइया रे बटोही हिन्द देखि आऊ

    जहाँ सुख झूले धान खेत रे बटोहिया!


2-सुन्दर सुघर भूमि भारत के रहे रामा

    आज इहे भइल मसान रे फिरंगिया

    अन्न धन जन बल बुद्धि सब नास भइल

    कवनो के ना रहल निसान रे फिरंगिया

    जहँवाँ थोड़े ही दिन पहिले ही होत रहे 

    लाखो मन गल्ला आउर धान रे फिरंगिया

    उहें आज हाय रामा!माथवा पर हाथ धरे

    बिलख के रोवेला किसान रे फिरंगिया।"

        

'फिरंगिया' कविता 56 पाँतिन में रचल मनोरंजन बाबू के अइसन यथार्थपरक रचना  बिया जवन भारत के दुर्दिन का ओर इशारा करत स्थितियन में बदलाव खातिर हर संभव प्रयास करत दृढ़संकल्पित हो जाए के आह्वान करत बिया।

                              

मास्टर अजीज (कर्णपुरा अमनौर सारण, बिहार) अइसे त एगो कीर्तनिहा गायक कवि रहलें बाकिर उनकरो रचनन में 1942 में आजादी के लड़ाई के दौर में किसानन के सहयोग आ सक्रिय भूमिका के सजीव वर्णन मिलत बा-


"ओने अंगरेजन के गोली

एने किसानन के टोली

गूँजे जय हिन्द के बोली 

                ओ मढ़ौरा में।"

       

स्वामी सहजानंद सरस्वती भोजपुरी क्षेत्र के एगो अइसन संत  रहनीं जेकर किसानन पर व्यापक प्रभाव रहे। 1936 के अप्रैल में 'अखिल भारतीय किसान सभा' के स्थापना करिके किसान हितन के सामाजिक-आर्थिक विकास खातिर महत्वपूर्ण बतावत उहाँ के भोजपुरी के बृहत्तर क्षेत्र में आपन व्यापक प्रभाव छोड़नीं।भोजपुरी आ हिन्दी कवियन पर एह आन्दोलन आ संगठन के व्यापक असर देखे के मिलल।



राहुल सांकृत्यायन

            

1938-39 में तत्कालीन सारण आ वर्तमान सीवान जिला के अमवारी गाँव में जमींदार लोग के अत्याचार के विरोध में एगो किसान महापंचायत राहुल सांकृत्यायन जी का नेतृत्व में भइल रहे। एकरा के 'हरबेगारी विरोधी किसान आन्दोलन 'कहल गइल जवन आखिरी में हिंसक रूप पकड़ लेले रहे। जमींदार लोग के खेती करत हरचलाई बेगारी के तौर पर ना करे के पड़े- एही खातिर राहुल बाबा के नेतृत्व में किसान सभे एकवटल रहे। एह आन्दोलन के दौरान किसान लोग पर लाठी-चार्ज भइल आ राहुल बाबा के कपार फाट गइल। घटना के वर्णन एगो भोजपुरी कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह के हिन्दी कविता- 'राहुल का खून पुकार रहा" में मिलत बा-


"राहुल के सर से खून गिरे फिर क्यों यह खून उबल न उठे

साधु के शोणित से फिर क्यों सोने की लंका जल न उठे?"

            

1942 ई. में राहुल सांकृत्यायन जी भोजपुरी में एगो नाटक -'जोंक' लिखले रहनीं, जवना में शोसक वर्ग के तानाशाही से भरल आ वंचक रवैया के बखिया उधेड़ल गइल रहे। एह नाटक के एगो गीत के कुछ पंक्तियन के देखल जा सकत बा-


"साँझ बिहान के खरची नइखे, मेहरी मारै तान

  अन्न बिना मोर लड़िका रोवै, का करीं हे भगवान!

  करजा काढ़ि-काढ़ि खेती कइलीं, खेतवै सूखल धान

  बैल बेंचि जमींदरवे के दिहलीं, सहुआ कहै बेईमान।"

         

एजवा किसान के वास्तविक हालत के पूरा सच्चाई के साथ वर्णन कइल गइल बा।

               

बिहार किसान आन्दोलन के किसान गीतन में स्वतंत्रता के बाद के किसान-मजदूर राज्य के स्थापना के वैकल्पिक यूटोपिया बाटे।खडगधारी मिश्र उर्फ तुरिया बाबा तुम्मा बजावत मध्य बिहार के गाँवे-गाँव जाके किसान-जागरण करत रहलें।


"फिरंगिया के राज जब देसवा से मिट जाई

जमींदारी परथा खत्म जब होई जाई

खेतवा के मालिक किसान सब होई जाई

एकरे के कहे हे सुराज हो बुधन भाई!"    

              

वर्तमान सीवान जिला के दुरौंधा प्रखंड के कोड़ारी गाँव के निवासी गोस्वामी चंद्रेश्वर भारती के किसान कवितो में आजादी मिलला के बाद किसान-राज कायम करे के कामना बा। अइसन किसान-राज जेमें गैरबराबरी ना होखे, सामाजिक-धार्मिक सद्भावना होखे-


"हम राज किसान बनइतीं हो 

भरपेट भोजन सबके दीतीं दुखी न कहवइतीं हो

छुआछूत के भूत भगइतीं सरिता प्रेम बहइतीं हो

हिन्दू -मुस्लिम भाई के हम एके मंत्र पढ़इतीं हो।"

        

डुमराँव (बक्सर जिला) निवासी भोजपुरी कवि विश्वनाथ प्रसाद 'शैदा' भारत के विकास में किसानन के महती भूमिका के समुझत लिखले बाड़ें-


"भइया! दुनिया कायम बा किसान से

साँचे किसान हवन तपसी तियागी

मेहनत करेले जीव-जान से।


जेठ में जेकरा के खेते में पइबs

जब बरसेले आगि आसमान से।

झमकेला भादो जब चमकी बिजुरिया 

हटिहें ना तनिको मचान से।

दुनिया के दाता किसाने हवन 

जा पूछs नू पंडित महान से।

गरीब किसान आज भूखे मरत बा

करजा गुलामी लगान से।

होई सुराज तs किसान सुख पइहें 

असरा रहे ई जुबान से।

भारत के 'शैदा' किसान सुख पावसु

बिनत बानीं भगवान से।"

         

भारत के स्वतंत्रता-संघर्ष काल से जुड़ल भोजपुरी कवितन के देखला-पढ़ला के बाद ई कहल जा सकत बा कि एह में किसान -चेतना भूमि से मातृभूमि, धरती माता से भारतमाता आ वर्गमुक्ति से राष्ट्रमुक्ति के ओर अभिमुख बिया। अभिजन राष्ट्रवाद से उबरे खातिर ई किसान कविता कबो भाग-भरोसे हो जात बिया तs कबो बेचैनी में झंडा आ लाठी- डंडा उठा लेत बिया-


"ललका झंडवा आउर मोटका डंडवा लेके ललकारs हो!

उनकर साँस बंद हो जाय।


बहुत दिन से नोचले-खसोटलन

इन सबका बदला लेहु चुकाय

बिना क्रांति के विजय न होई 

चाहे करिहौं कोटि उपाय।"


(किसान नेता राघव शरण शर्मा से मिलल किसान कविता)

           

आजादी हासिल भइला के बाद 'जय जवान जय किसान' के नारा त खूब लागल बाकिर किसानन के माली हालत में कवनो सुधार ना भइल। खेती-किसानी दिन -पर- दिन काफी मँहगा धंधा होत गइल। कृषि-उत्पादन के वाजिब दाम मिलो, समुचित बाजार मिलो, किसान के सस्ता दर पर सिंचाई-सुविधा मिलो, ओकरा सस्ता दर पर सब्सिडी के साथे बढ़िया खाद-बीया मिलो - एह बात के खेयाल शासन-तंत्र ना रखलस। नतीजा भइल कि बड़का खेतिहर तक आपन जमीन बेचि-बेचि शहर पराये लगलें। जेकरा लाचारी रहल उहो ढेर दिन ले थुथुर पर लाठी ना आड़ सकल।किसान आजिज आके आत्महत्या करे लगलें। भोजपुरी के स्वातंत्र्योत्तर किसान कवितन के एही पृष्ठभूमि में पढ़ल-समझल वाजिब होई।         


             

आजादी के बाद के किसानी कविता     

      

आगे अब कुछ अइसन  महत्वपूर्ण भोजपुरी कवियन के कवितन पर विचार होई जे देश में आपन सरकार बनला के बाद किसानी कविता लिखलन। 'किसानी कविता' से अभिप्राय मोटामोटी अइसनकी कविता से बा जवनन में किसान आ किसानी के समस्या आउर ओकर उपलब्धि से जुड़ाव देखे के मिलत होखे। अइसे तs सैकड़न अइसन कवि बाड़ें जे किसानी कविता लिखले बाड़ें बाकिर एह आलेख के कुछ महत्वपूर्ण भोजपुरी कवियने तक सीमित राखल गइल बा। कवि सभे के नाम गिनवला ले जादे प्रयास ई रहल बा कि आजादी के बाद के भोजपुरी किसानी कविता के विभिन्न आयामन पर सार्थक विचार हो सके।एह अध्ययन में भोजपुरी के कुछ अइसन महत्वपूर्ण कवियन के कवितन के केन्द्र में राखत विश्लेषण प्रस्तुत कइल गइल बा जे किसानी जीवन पर प्रमुखता से आपन कलम चलवले बा।


महेन्द्र शास्त्री 


                              

'भोजपुरी के प्रख्यात कवि महेन्द्र शास्त्री (रतनपुरा, महाराजगंज, सीवान) हिन्दी आ संस्कृत के विद्वान रहनीं। उहाँ के प्रगतिशील विचारन के कवि आ सामाजिक सुधार के प्रबल पक्षधर रहनीं।किसान-मजदूर के हक के लड़ाई उहाँ के अपना साहित्य के जरिये लड़नी। उहाँ के लिखनीं-



"कमइया हमार चाट जाता इहे बाबू भइया

जेकरा आगे जोंको फींका अइसन ई कसइया

दुहल जाता खून जेकर अइसन हमनीं गइया

अंडा- बच्चा साथे हमरा दिन-दिन भर खटइया

तेहू पर ना पेट भरे चूस लेता चइया

एकरा बदे गद्दा -गद्दी हमनी का चटइया

एकरा बाटे कोठा -कोठी हमनीं का मड़इया।"

   

एजवा सामाजिक असमानता के देखावत एगो आम किसान परिवार के मजबूरी आ बेबसी के झलकावल गइल बा। दिन भर पूरा देह ठेठवला के बादो झोपड़ी में जीवन-बसर करे के मजबूरी किसान-मजदूर तबका के आज नियति बन गइल बा।

           

महेन्द्र शास्त्री जी के एगो मशहूर कविता हियs- 'किसनवाँ'। 22 पाँतिन के एह कविता में भोजपुरिहा किसान के जीवन के त्रासदी पूरा संवेदना के साथे उकेरल गइल बा-


"मनवाँ के धीरज धरावे किसनवाँ,

मनवाँ के धीरज धरावे।

        कवनो ना कवनो लागल बा लासा

         सुख के नइखे कवनो आसा 

रो-रो के जिनिगी बितावे किसनवाँ,

ओकरा के भूखियो सतावे।

         अबरा के मेहर सभकर भउजाई

          सब केहू अबरे के खोर -खोर खाई

अबरा के अबरो बिरावे किसनवाँ

ओकरा के सब कलपावे।


    ×     ×       ×       ×


            दिन रात टिप-टिप चूये पलानी

             घर भर रोगी लागल बा पानी

हरदम पसीना बहावे किसनवाँ

नयना से नीर बरसावे!"

           

महेन्द्र शास्त्री के एगो आउर कविता बिया- 'केकरा से'। किसानी जीवन के पीड़ा के एहू में देखल जा सकत बा-


"राजा बाबू हो केकरा से अइसन बहार बा।

जोतेला, बोवेला, काटेला, दाँवेला


साँच- साँच कह दs ऊ का पावेला?

  ओकरा मुँहे ना आहार बा।

ऊ उपराजेला कपड़ा कपास

चटकल के ऊ चलावेला खास

ओकरे देहिया उघार बा।"

          

महेन्द्र शास्त्री जी समाज-सुधार के खेयाल से दहेज-प्रथा -उन्मूलन, नशा-उन्मूलन, स्त्री-शिक्षा, किसानी हक-हुकूक आदि खातिर दमगर आन्दोलन सारण प्रमंडल में चलवले रहनीं आ अपना कवितो के जरिए समाज में जन-जागरण के काम करत रहनीं।


पंडित धरीक्षण मिश्र 

           

भोजपुरी के महान कवि पंडित धरीक्षण मिश्र जी (बरियारपुर, कुशीनगर) जी किसान चेतना के एगो मजिगर कवि रहनीं। उहाँ के मुख पेशा किसानिये रहे। किसान के जीवन जीयत खेती-बारी से सीधे उहाँ के जुड़ल रहनीं। ओह बेरा के किसान सब के जिनगी के सगरी कष्ट के उहाँ के नियरे से देखत तs रहबे कइनीं खुद एह कठिनाई के भोगतो रहनीं। फलस्वरूप उहाँ के कविता में किसानी जिनगी के भोगल जथारथ सामने आइल बा। मिश्र जी  के कविता में किसान के जीवन के संकट, ओकर संघर्ष आ समर्पण के विशद वर्णन उपलब्ध बा। धरीक्षण बाबा के गाँव-जवार में ऊँख के खेती खूब होत रहे बाकिर किसान गन्ना-पर्ची के समस्या से अलचार रहलें। गन्ना पर्ची के चोर-बाजारी, खेतन के जालिहा पड़ताल, प्रभावशाली आ व्यापारी वर्ग के काला- कारोबार के  चलते गन्ना-पर्ची (टिकस) खातिर मारा-मारी मचल रहत रहे। धरीक्षण मिश्र जी के एगो कविता बिया- 'गन्ना टिकट के परेशानी'। एकरा कुछ पाँतिन के देखल जा सकत बा-


"धावत है नित टीकस को जस ढूँढ़त स्वान है पत्तल-दोना,

पूछत बात न कोई कहीं इनकी गति देखि के भारत रोना, 

मान से हाथ न धोना चहें अथवा इस भाँति जलील न होना, 

तौल बराबर सोना मिले फिर भी मिल के लिए ऊँख न बोना ।"

       

बरिसन पहिले के ई कविता के भविष्यवाणी आज साँच साबित हो रहल बा जब यूपी में ऊँख के बोआई में आइल भारी गिरावट से चीनी मिल बंदी के कगार पर आ गइल बाड़ी सन।

          

धरीक्षण जी के एगो कविता बिया- 'खेती के तीन साझीदार'। एमें किसान के विडम्बनापूर्ण जीवन के चित्रण गौर करे लायक बा-


"धूरा से धान बनावेला जनता के सदा जियावेला

इहे कारन बाटे कि देश के रीढ़ किसान कहावेला 

अब दशा किसान लोग के प्रायः लउकत हवे गिरल

डेरा डाल गरीबी उनका घर में हरदम रहत हिरल।"


रमाकांत द्विवेदी 'रमता'

                        

रमाकांत द्विवेदी 'रमता' जी [महुली घाट, बड़हरा, भोजपुर] भोजपुरी के जनवादी धारा के एगो प्रमुख कवि रहनीं। उहाँ के अइसे तsअधिकतर कवितन में गाँवन के यथार्थपरक चित्रण भइल बा बाकिर एजवा हम दूगो कवितन के कुछ पंक्तियन के विशेष रूप से उद्धृत करे के चाहब-


"हँसुआ-खुरुपिया, कुदारी-हर-हेंगा लेके 

दिन में करेला घमासान।

ठेहा पर चूकामूका बइठेला गँड़ासी लेके

जसहीं होखेला मुँहलुकान।

मँस-डँस पिलुआ-पताई के ना फिकिर करे

छनकल राखेला बथान।

पिछली पहर लोही लागेले पहिलकी

ओही राते जागेला किसान।


×              ×            ×             ×


जेकरा धरमे बसे शहर-बजरिया 

दिने-दिन बढ़ती प शान।

जेकरा धरमे अनमन रंग चीजवा से


चमचम चमके दोकान।

जेकरा धरमे झारि लामी-लामी धोतिया

आदमी कहावे बबुआन।

कवनीं कमाई राम आजु चूकि गइलीं कि

गवईं में दुखिया किसान।" 


[किसान-1952]

             

रमता जी के एह कविता में किसान के परिश्रम आ तपस्या के बल पर बबुआन लोग के बनल ठाट-बाट आ शहरी हाट के चमक के बड़ी मार्मिक ढंग उकेरल गइल बा। 1954 ई.के लिखल रमता जी के कविता 'हरवाह-बटोही संवाद' में संवादधर्मिता के साथे-साथे किसानी जीवन के हलकानि के फोटोग्राफिक वर्णन बड़ी गंभीरता से भइल बा-


"हरवा जोतत बाड़ें भइया हरवहवा कि 

आग लेखाँ  बरिसेला घाम।

तर-तर चूवेला पसेनवा रे भइया कि

तनिये सा करिले आराम।

चुप रहू,बुझबे ना तेहूँ रे बटोहिया कि

राहे -राहे धरती के ताल।

जइसे चूवे तन के पसीना रे बटोहिया कि 

ओइसे बढ़े धरती के हाल।

कबहूँ ना भरपेट खइले करमजरुआ कि 


झूलि गइले ठटरी के चाम।"

     

किसान के देह से तर-तर चूअत पसेना से सूखल-झुराइल धरती के हाल (नमी) बढ़े के कवि-कल्पना-कविता के दिसाईं एगो अद्भुत प्रयोग मानल जाई- जवन रमता जी जइसन निठाह आ मौलिक कविये में दिखाई पड़ सकत बा। एगो आउर छन्द एही कविता के देखल जा सकत बा।


"हरवा जोतत मोरि जिनिगी सिरइली कि

हरवा से नान्हें के पिरीति 

भरि छुधा जिनिगी में कहियो ना खइलीं कि

इहे तोरा देशवा के रीति

खेतवा में बोइले जे बारहो बिरिहिनी कि

लागेला जम्हार लेखाँ चास

कवन करमवाँ के चूक भइया हितवा कि 

बाले-बचे सूतीले उपास।"

       

'लरिकाई को प्रेम' जइसन खेत से किसान के पिरीति नान्हें के बा जवन चिता पर जाये के दिन तक इयाद रहेला लहना सिंह ('उसने कहा था' हिन्दी के कहानी के नायक) लेखाँ। मय जिनिगी भर छुधा खाये के लालसा ओकर आज ले ना मिटल। आजो ऊ अपना बाल-बचवन संग उपासे सूत जाये खातिर मजबूर बा।


खाता में सरकारी तोहफा ओकरा आजो नइखे भेंटात। पहुँच-पैरबी वाला लोग ऊपरे-ऊपर ओकर हक मार के बइठ जात बा लोग। रमता जी के 1952 में लिखल एह पंक्तियन के सच्चाई आजो जस के तस बा।



      

मोती बी. ए. [बरेजी, देवरिया] भोजपुरी के एगो मशहूर आ उम्दा कविता लिखे वाला कवि रहल बानीं। भोजपुरी साहित्य के हर दिसाईं  समृद्ध करे वाला लोगन में उहाँ के अग्रणी रहल बानी। 'असों आइल महुआबारी में बहार सजनी' जइसन गँवई बोध से जुड़ल गीत लिखे वाला कवि के एगो कविता बिया- ''अगोरिया'। 'एह कविता के पंक्तियन के देखला पर आज के राजनीति के 'अच्छे  दिन' वाला  शिगूफा इयाद आवे लागत बा-


"नीमन दिन के अगोरिया में 

सगरे दिन बाउर हो गइलें सँ

जिनिगी हेनान हो गइल

रासि के रासि 

जब पइया निकलि गइल

त लेंड़ली ओसवला से 

का होई।" 


आजो ई कविता ओतने प्रासंगिक बिया जब ई लिखाइल रहे। लेंड़ली ओसवला से का मिलेला, आ केतना ले मिलेला- ई उहे बता सकत बा जे किसानी से गहिरे जुड़ल होई।


                  


किसान कवि रामजियावन दास 'बावला' (भीखमपुर, चंदौली, यूपी) के कवितन के किसानी-जीवन के आइना मानल गइल बा। अशोक द्विवेदी जी के कहनाम बा कि "जिजीविषा से भरल  किसान लोग के कवि भइल भा कवि के किसान भइल, जवने कहीं-दूनू रूपन में ई जाग्रत कर्मयोगी होला जे हार के कबो हार ना माने। ऊ अपना काम में आवे वाली हर परिस्थिति आ चुनौती से दूई-दूई हाथ करे खातिर तइयार मिलेला। बावला जी अइसने किसान कवि रहलें।" 

            

हिन्दी के सुपरिचित निबंधकार सरदार पूर्ण सिंह जी अपना प्रसिद्ध निबंध 'मजदूरी और प्रेम' में लिखले बानीं कि "हल चलावे वाला आ भेड़ चरावे वाला सुभावे से साधु होला। हल चलाने वाला अपना शरीर के होम करेला। खेत ओकर हवनशाला हs।ओकरा हवनकुंड के ज्वाला के किरन सब चाउर के लम्बा सफेद दाना के रूप में निकलेला। गेहूँ के लाल-लाल दाना एह आग के चिनगारियन के डालियन-जस बाटे। ×   ×   × किसान हमरा अन्न में, फूल में, फल में आहूति देत दिखाई पड़ेला। कहल जाला कि ब्रह्माहूति से जगत पैदा होला। अन्न पैदा करे में किसानो ब्रह्मा के समान होला। खेती ओकरा ईश्वरीय प्रेम के केन्द्र हटे।" सरदार पूर्ण सिंह जी किसान के 'प्रकृति के जवान साधु' कहले बानीं। रामजियावन दास 'बावला' जी भी किसान के एगो महान साधक आ साधु  बतावत अपना एगो  में लिखले बानीं-


"नाहीं भेद-भाव, न त केहू से दुराव बाय

सबसे लगाव बाय मनवाँ क चंगा।

खेत में किसनई, सधुवई समान बाय

सपना के सोध में उधार बाय नंगा।

ओरी खोरी पोखरी तलाब ताल खाल कुल

सगरो सिवान छितरइलिन गंगा

छाप छुप कनई में मनई सनाय 

समुझाय कि सदा रे शिव बाय अड़बंगा।"

            

कवि बावला के सुभाव निपट देहाती आ गँवई रहे। किसानी उनकरा रोम-रोम में बसल रहे। ऊ किसानी के पीड़ा भोगला  के साथे-साथे ओकरा त्याग, तपस्या, दया, वीरता, प्रेम आ स्वाभिमान से वाकिफ रहलें।


"जोग में जुगाड़ में पहाड़ संग अरुझल 

बिरना किसान पुरुसारथ वाला।

जोर भर दुनिया के गरवा लगावइ

पेटवा के गड़हा न पटले पटाला।

हाय धुन खेतवा के मटिया में खोजइ

आये दिन सपना निबहुरा हेराला।

गोड़वा में फटली बेवाय गरगटिया त


बटिया चलत के परान छुइ जाला।"

             

किसान कवि बावला जी नया साल पर अपना बधाई आ मंगलकामना वाली एगो कवितो में आपन किसानी धरम निबाहत रुचिर सुन्दर लोकगंधी छन्द के सिरिजना कइले बानीं-


"उतरि फसलिया सरग सुख देइ जाले 

कचरी निमोनवाँ सरस मुँह बूड़ा

ऊँखिया के रस कोल्हुवाड़ क सोनहटा 

कि तपनी घुसुकिया सुरुकवा क चूड़ा।।


×         ×          ×            ×


बासल बयार  ॠतुराज क सनेस देत

गोरकी चननिया क अँचरा गुलाल हो

खेत-खरिहान में सिवान भरी दाना-दाना 

चिरई के पुतवो ना कतहूँ कंगाल हो।


 ×          ×          ×          ×


हरियर धनिया चटनिया टमटरा क

मटरा क छेमियाँ क गदगर दाल हो 

नया- नया भात हो सनेहिया क बात हो 

एहि बिधि सुभ- सुभ, सुभ नया साल हो।"



भोलानाथ गहमरी

          

भोजपुरी के आकासे छुआवे वाला कवियन में एगो बड़हन नाम भोलानाथ गहमरी जी [गहमर, गाजीपुर] के बा। उहाँ  के गीतन में भोजपुरी लोक संस्कृति के सुवास गमक उठल बा। एगो गीत के कुछ पंक्तियन के देखल जा सकत बा जेमें गाँव के जीवन  के संघर्ष के साथे-साथे ओजवा के रहवइया किसान के त्याग आ तपस्या के भरपूर संवेदना के साथे परोसल गइल बा-


"काँट-कुस से भरल डगरिया, धरीं बचाके पाँव रे!

माटी-ऊपर छानी-छप्पर, उहे हमारो गाँव रे!


×               ×                ×                 ×


चान-सुरुज जिनकर रखवारा, माटी जिनकर थाती

लहरे खेतन बीच फसलिया, देख के लहरे छाती

घर-घर सभकर भूख मेटावे, नाहीं चाहीं नाँव रे!"

            

'भोजपुरी के वर्ड्सवर्थ' के संज्ञा पावे वाला कविवर अनिरुद्ध (डीहीं, मकेर, सारण) के कवितो में किसानी के प्रमुखता मिलल बा। किसान प्रकृति के पुजारी होला। स्वाभाविक रहे कि प्रकृति के चितेरा कवि का किसान के प्रति अपनापा जाग उठे। अनिरुद्ध जी भोजपुरिहा किसान के चित्रण करत लिखत बानीं-


"मथवा पै शोभे बलमु के पगड़िया

खेतवा में तहिआवे सोना चदरिया

बान्हे बलमु बोझा ढोये चले रनिया


लचकत गछुलिया के पार

झूम -झूम आइल बा इहे तेवहार 

झाँझरवा झनन-झनन बोले   

पुरवइया सनन-सनन डोले।"

        

एह गीत से स्पष्ट हो रहल बा कि भोजपुरी क्षेत्र में किसानी खाली मरदे जाति तक सीमित ना रहे। मेहरारूओ लोग खेती-किसानी में अपना घर के सँवागन आ पति के भरपूर मदद करत रहे। भोजपुरी क्षेत्र में एगो लोकगीतो खूब प्रचलित रहे-


"ए धनिया! अब हम बनब किसनवाँ तू किसानिन बनिहs ना। 

जोत-कोड़ हम खादर डालब, तू बरिसइहs पानी। 

करेब खेतवा में हम बोअनिया तू रोपनिया करिहsना।" 


नर-नारी के ई सहयोग-भाव भोजपुरी किसानी जीवन के खूबसूरत रागात्मक पहलू रहे।

           

अनिरुद्ध जी किसानी जिनिगी के हलकानियो के बड़ा संवेदनशील ढंग से वर्णन कइले बाड़न-


"जरा चाम ऊ पीये जहरिया लेके घाम बेयरिया

मोती बूँद झरे तन-मेघा तलफल तपल भुँभुरिया

सुसुताये तरु छाँह कलेवा लइली रोटी- धार 

सोन्ह -सोन्ह भर डलिया लावा, ललचे जिया हमार।"

            

एह गीत में संघर्ष आ प्रेम- दूनू के कवि एके साथे सफलतापूर्वक सधले बा।

                        

रामबचन शास्त्री 'अँजोर' [नवली, गाजीपुर] के गीतन में ग्रामीण जीवन आ प्रकृति के विविध रूपन के चित्रण मिलेला। एगो गीत में किसानी दुनिया के चित्र मनभावन बा-


अतिवादी भूइयाँ झूमेला आसमान

भोरे-भोरे हो सोनवा लुटाने दिनमान

        बहियाँ लगाई गेहूँ-बलिया बटोर के

         घूमे जन्मता मति पोरे पोर के

         अरिये प किसना के सुरहुर मचान...।"

      भोजपुरी  में आपन किताब-'अइसन हमार ई 


माटी ह', 'राग-गँवार' आ 'गँवार सतसई' के जरिये आपन पहचान बनावे वाला कवि रामानन्द राय 'गँवार' [कुशीनगर, उ. प्र.] के बहुते कवितन में ग्रामीण आ किसानी जीवन के चित्रण मिलत बा। गँवार जी के कविता- 'किसान इनके नाम बा' में किसानी जिनिगी के सहज आ जथारथ से जुड़ल  वर्णन देखल जा सकत बा-


"करे ले किसानी ई किसान इनकर नाम बा

इनका जीवन में सुबह बा ना साम बा।

      हउवन अन्नदाता खुदे फुटहा मुहाल बा


      रहे के झोंपरी बाटे सुते के पुआल बा

       लागे ना अलम कहीं-बनल आसाम बा

गीता के पुजारी हउवें मानस में ध्यान बा

घर ,खेत -बारी, खलिहान -चारो धाम बा।"

             

'जय जवान जय किसान' के नारा से प्रेरित-प्रभावित गँवार जी के कविता बिया-'जवान-किसान'। एकरा पंक्तियन में देस खातिर दूनू के महत्व  बतावल गइल बा-


"येक अन्नदाता येक देस के पहरुआ

दूनू भाई भाई येकै माई के दुलरुवा

येक कहावै किसान-येक कहावै जवान

दूनू देसवा के आन-दूनू देसवा के शान।

देसवा के लाज राखैं देसवा के पानी

मह-मह महकेले-दूनू के जवानी

साथे पढ़ेलें पुरान साथे पढ़ेलें कुरान

दूनू देसवा के आन-दूनू देसवा के शान।"

         

गँवार जी के ई सपना भारत के एकता-अखंडता आ सद्भावना के दिसाईं एगो अइसन सुखावह कल्पना बा जवन कवनों कवि के मनोरथ होले।

       

प्रो. जितराम पाठक [भोजपुर] भोजपुरी में मुक्त छंद में कुछ बहुते दमगर रचना कइले बानीं। उहाँ के 'अकाल' शीर्षक एगो महत्वपूर्ण कविता बिया जवना में व्यंग्य के जरिये करुणा के भाव जगावल गइल बा-


"अकाल के उदन्त भँइसा

चरि गइल फसल

किसान हाथ भींजता

अब बेटी के गवना केनियार

फेरे के परी

धिया के लुगरी

अबकी अगहने झाँवर हो जाई

ओकर सोनहुला रंग

सँवर हो जाई

दियरी के बाती

छठि के अघरौटा

बिसुखि गइल

राकस नियन मुँह बवले

महँगी के काल आइल बा

अनेरे लोग कहत बा कि अकाल आइल बा।"

              

रामजी सिंह 'मुखिया' [आरा, भोजपुर] भोजपुरी कवि सम्मेलनन के जान रहत रहलन। सामाजिक-राजनीतिक हर तरे के विसंगतियन पर निधड़क नश्तर चलावल उनकरा कविता के चरित्र रहे। किसानी जीवन पर लिखे के क्रम में उनकर नजर गइल बैलन पर-


"बैला बेचारा, बेचारा बा चारा बिना

पुआरा ना गति के मउअति नारा बा।

बैला का दाया से माया बटोरलs तू 

बैला बयतरनी हेलावे के सहारा बा।

बैला बुढ़ाइल सभ काम थउसाई तोर 

बैले के जोड़ी से चमकत सितारा बा।

दमरी के नमरी ई बैला बनवलस


आ बैला के खूँटा ना चरनि पर गुजारा बा।"


        

जब बैलन के ई गति बा  तs किसान कलपबे नू करी -


"सुनिलs भगवान तनीं कलपल किसानन के

धान धान दान भइल सुरुज के गरहन के।

पानी ना नाहर में,गड़हा में, आहर में

नदियो सुखा गइल धुरि उड़ल करहन के।

×           ×              ×                 ×

'रामजी' के मँहगी मेंअतने बुझात नइखे।"


कैलाश गौतम 

              


कवि कैलाश गौतम जी [चन्दौली, उ. प्र.] के कविता में बदलत गाँवन के तस्वीर तs बा बाकिर किसानन के तकदीर एजवो साथ देबे के तइयार नइखे- 


"हमरे गाँव के किस्मत अइसन जे जागल ते भागल

पुरखन के पगड़ी जोगावै में हम हो गइलीं पागल

गाँव क माटी फूलै महकैं हम माटी में नाँची

पन्ना -पन्ना लिखीं हरियरीआखर- आखर बाँची

भइया हमरे हाथ में छाला पाँव में छाला हौं

जब जब मेहर ताना मारै रोवैं फफक सहाबू 

ना भइली प्रधान गाँव क ना दफ्तर क बाबू

हम किसान अब केतनी ढोईं कमर तोड़ मँहगाई

या त देईं मालगुजारी या त करीं सगाई


बाढ़ गइल त नई चुनौती सूखा-पाला हौं ।"

              

अशोक द्विवेदी



भोजपुरी के सुकवि अशोक द्विवेदी जी [सुल्तानपुर, गाजीपुर] के कवितो मूल रूप से गँवई संस्कृतिये के प्रतिनिधित्व करत बिया।एगो गीत में अपना झाँझर मड़ई के छवावे खातिर बेचैन एगो किसानिन के कंठ से जवन गीत फूटल बा ओमें मजबूरी के साथे-साथे अपना आप पर भरोसो के स्वर मुखर बा-


"जेठवा में जइसे कि अगिया लवरि बरे

लुहवा लहकि मोरा भितरा सुनुगि जरे।

अदहन बनि जाला पनिया 

मड़इया मोर झाँझर लागे।

रोपनी से सोहनी ले कटिया-ओसवनी

नन्हका के बाबू के जोहनी- बोलवनी

अइते त छइतें पलनियाँ

मड़इया मोर झाँझर लागे।"


(कुछ आग कुछ राग)

          

एगो दोसर गीत में अशोक जी कहत बाड़ें कि किसान के बोझ कबो ना हलुका सकल-


"बोझ ना कबो हलुकाइल सँघतिया

         कबहूँ ना पलखत भेंटाइल।

 गील- गील भात संगे नून-माँड़ तियना 

पास में पुअरवे के ओढ़ना- बिछवना


कमरी में गोड़ ना तोपाइल सँघतिया

          लड़िकन के दाँत कटकटाइल।"


                   (फूटल किरिन हजार)

       

दुर्गेंद्र अकारी 


जनकवि दुर्गेन्द्र अकारी [भोजपुर] के कवितो में भोजपुरिहा खेतिहर मजूर के चित्र अइसनका बा जवन केहू के कलपा दी-


"कहँवा ले कहीं हम बिपतिया ए हाकिम!

चढ़ते आषाढ़ में हरवा चलवनीं

चुरा के बन हम कबहूँ ना पवनीं

जउवे आ खेंसारी से पिरितिया ए हाकिम!

सावन भदउवा में कइलीं हम कँदउवा

आधा बनि राखि मालिक आधा देलन जउवा

कहत में फाट तारी छतिया ए हाकिम!"

            

बन (मजूरी) के रूप में कबो चाउर नइखे मिलल। खाली खेंसारी आ जउवे बराबर भेंटाइल बा। सावन में खेत के काँदो में धान रोपला के बावजूदो आधे मजूरी मिलला से किसान डहके खातिर मजबूर बा। आपन पीड़ा सुनावत ओकर छाती फाटे लागत बा बाकिर जमींदार लोग आपन करेजा पथर के करिके  बहिर बन गइल बा लोग। दुर्गेन्द्र अकारी अपना कवितन के जरिये किसानी समाज में एतना लोकप्रिय रहलें कि उनकरा गीतन के जबरदस्त असर खेतिहर मजूरन पर पड़त रहे। गरीब किसान आ मजदूर वर्ग के पीड़ा के स्वर आ आकार देबे में दुर्गेन्द्र के कवनो जोड़ ना रहे एही से उनकरा नाम में 'अकारी' उपनाम जुड़ गइल। अकारी जी के एगो गीत से प्रेरित हो कर भोजपुर के केतना हरवाहा लोग एक जमाना में कबो हरवाही छोड़ देले रहे। ई गीत त रहे-


"अब ना करे मोर मनवा करे के मजूरी

भोरे जमींदरवा दरवा पियादा पेठावे

कान्हा पर हरवा कुदारी चढ़ावे

केतनो खटीला 'बन' दू सेर ना पूरी।

जोति-रोपी खेतवा में मोतिया उगाए

देखि जमींदरवा मन मुसुकाये

बतिया करेला जइसे पथरल छूरी।

काटी बान्हीं धानवा ले अइलीं खरिहनवा

बदले नजरिया गुदात बनवाँ

बन पनिपीउवा दिहत मन तुरी।

दवनीं,ओसवनी, चन्हुपवनी मकनवा

भरि-भरि कोठिया -डेहरिया अँगनवा

तवना प देला  'बन' खँखड़ी आ धुरी।

सुनs भइया मजदूर गरीब बनिहरवा


तोहरा के ठगत बा जालिम जमींदरवा

तोहरे कमइया आपन भरे भूरी।

दुनिया के मजदूर गरीब सब एक हो

बहुत भुलइलs तू अब से सरेख हो

कहेलें अकारी बाटे एकता जरूरी 

अब ना करे मोर मनवा करे के मजूरी।"

         

जमींदार के ठगी से आगाह करत जनकवि अकारी एजवा दुनिया भर के मजदूरन में एकता के कामना कर रहल बाड़ें।भोजपुरी के किसानी कविता समाज आ देश के परिधि से आगे निकलिके दुनिया भर के मजदूरन में एका चाहत बिया। एगो लोकभाषा के कवि के एह वैश्विक दृष्टिकोण के समझे-सराहे के पड़ी।

                           

जनवादी विचारन से ओतप्रोत गीत लिखेवालन में एगो प्रमुख नाम विनय राय 'बबुरंग' [डेढ़गाँवा, उ. प्र.] के बा। इहाँ के बहुते लोकप्रिय गीत में किसानी जीवन के दुर्दशा में सुधार ना होत देख के कवि सवाल खड़ा कर रहल बाड़ें-


"माई रे माई बिहान होई कहिया?

भेड़िया से खाली सिवान होई कहिया

झन-झन झनकेला सगरो सिवनियाँ

धड़-धड़ के रूप बिगारे किसनियाँ


खुशहाल जग में किसान होई कहिया?

हमरा के कागज के नैइया थमाई

अपने आकासे जहजिया उड़ाई

अन्तर के जन्तर गियान होई कहिया?"

           

बाकिर आशंका से उबर के कवि आगे आपन ई विश्वास व्यक्त कर रहल बा-


"तपली जिनिगिया के अब का तपइबs!

मुरुख बनाई हमें अब ना जुझइबs

सोनवाँ उगाई हम भरलीं गोदमवाँ

कउड़ी के तीन कइलs धिरिक जीवनवाँ

अब नाहीं अधिका तू मूरख बनइबs

तपसी जिनिगिया के अब का तपइबs!"



विजेन्द्र अनिल 

           

अइसनके आशा-भरोसा आ उमेद के किरिन विजेन्द्र 'अनिल' जी [बगेन, बक्सर, बिहार] जी के जनगीतनो में मिलत बा-  


"जागि गइल देस के किसनवाँ

बिहनवा में देर नइखे भइया!


    रतिया के ढेर से उड़ल चिनगरिया

     सागर के पेटवा में दहकल अंगरिया


धधकल गाँव के सिवनवाँ 

बिहनवाँ में देर नइखे भइया!


    बूढ़-बूढ़ फेड़वन में लाल-लाल टुसवा

     सहमल अमेरिका सहमि गइल रूसवा


लाल हो रहल असमनवाँ

बिहनवाँ में देर नइखे भइया!


    ललका निसनवा से काँपे राजधनिया

    ठाकुर बेहाल केहू करी ना गुलमिया


हथवा में तीरवा- कमानवाँ 

बिहनवाँ में देर नइखे भइया!"

          

विजेन्द्र अनिल जी के जनगीतन में जनमानस के झकझोर देबे के अकूत क्षमता बा। उनकरा गीतन के ई विशेषता बा कि राजनीतिक विचारन से प्रभावित भइला के बावजूदो कवि एजवा आपन साहित्यिक संचेतनो आ कलेवर के बरकरार रखे में सफल रहल बा।

               

तैयब हुसैन पीड़ित 


भोजपुरी में अपना जनवादी विचारन खातिर जानल जाये वाला आधुनिक भाव-बोध से सम्पन्न कवि तैयब हुसैन 'पीड़ित' [मिर्जापुर, सारण, बिहार] के कविता में स्वाभाविक तौर पर किसान के बेबसी फटेहाली आ ओकरा पर पड़ रहल पूँजीवादी व्यवस्था के दबाव, औद्योगीकरण आ बाजारवाद के हो रहल हमला आदि के बहुत गहिराई से व्यंजित कइल गइल बा। प्रेमचंद के 'गोदान' के पात्रन के प्रतीक बना के तैयब जी किसानी से हो रहल पलायन के रेघरिअवले बाड़न-


"दिनवा ना कटे ना ओराय रात ननदी!

केकरा से कहीं, पतिआय बात ननदी!


        आर पार धनिया डँरेर पर  होरी

         तरवा का तरे से जमीन गइल चोरी


गोबर शहर जाय पछतात, ननदी!"

            

तैयब जी के एगो प्रसिद्ध कविता हियs- 'किसान-गाथा'। आल्हा शैली में लिखाइल एह कविता के जरिये भारत के आजादी के गाथा सुनावत कवि आजाद भारत में किसान-गाथापूरा साफगोई से सुनावे लागत बा-


"आपन लड़ाई सब लड़ेला किसान भाई 

लेले आन्धरा में हथियार हो उठाय

नक्सलबाड़ी,भोजपुरो के किसान लड़े 

बंगाल,बिहार में देले बा बताय

नंदीग्राम,सिंगुर के अजबे कहानी भइया

जेही रखवार  से ही भूमि चोरवाय।"


×              ×               ×               ×


भूमंडल के नया युद्ध में हो जा तू तइयार किसान

मेहनत आ दौलत का बीचे बढ़त जात बा गहिर निसान

खाद-बीज आ पटवन महँगा सस्ता उपजा के सामान


करबरिया सब जोंक बनल बा चूस के पहुँचतऊ मसान

काटल हाथ ना भूल मजूरा मरन शुरू बा खान न पान

भारत के भीतर भारत बा पइसा-पावर, जनता-ज्वान।"


             

गोरख पाण्डेय 


अपना जनवादी रूझान खातिर प्रसिद्ध हिन्दी कवि गोरख पांडेय [पंडित के मुंडेरवा, देवरिया] कुछ भोजपुरियो गीत लिखले बाड़न। उनकर एगो गीत देखे लायेक बा जवना में किसान- आन्दोलनन के पदचाप सुनाई पड़ रहल बा-


"सुरू बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

           कब तक सुतब,मुँदि के नयनवा

            कब तक ढोये सुख के सपनवा

फूटलि ललकी किरिनिया चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

             तोहरे पसीनवा से अन-धन सोनवा

             तोहरा के चूसि -चूसि बढ़े उनके तोनवा

तोहके बा मुट्ठी भर मकइया,चल तूहूँ लड़े बदे भइया।"

     

परमेश्वर दूबे शाहाबादी [भोजपुर] के कवितन में व्यंग्य के धार गजब के वार करे वाला बा। दिल्ली भा पटना के 'किसान रैली' में कइसे कोंचा-कोंचा लोग गाड़ी-बस में जाला आ ओजवा जाए के का मकसद होला -एह पर शाहाबादी जी के व्यंग्य देखे लायेक बा-


"भले रउरा  एको कट्ठा जमीन नइखे

बाकिर किसान रैली में जाये खातिर

नाँव लिखवा सकतानीं

दिल्ली तक फोकट में जा सकतानीं-

ई भासन सुनिके हमरा गाँव के भिरगू सुगबुगइले

कल्पना के चाँदनी चौक में नहइले

कुतुबमीनार से दिल्ली के नजारा  देखि के 

लाल किला के छाँह में जुड़इले

चलsबिलारिये के भाग से सिकहर तs  टूटल।"


सिकहर के टूटल दिखावा भर बा। किसानन के बिटोर के कइसे ओह लोग के मूरुख बनावत अपना राजनीति के चमकावल जाला -ई कविता ओहियो तरफ इसारा करत बिया। साथ ही तनिका-सा लोभ-लाभ के फेरा में किसान अपना लड़ाई के कइसे कमजोर कर लेत बाड़ें - ई बातो के एह रचना में झलकावल गइल बा।

             

महेन्द्र गोस्वामी [भोजपुर] भोजपुरी कविता के आधुनिक भाव आ विचारन से समृद्ध बनावे वाला कवि रहल बाड़न। इनकर सामाजिक प्रतिबद्धता के स्वर सजोर बा। युगन से चलल आ रहल शोषण के झेले खातिर कवि अब तइयार नइखे-


"होत जे आ रहल बा होखे ना अब दिखाई

 चाहे ई जान रही चाहे ई जान जाई!


 ×            ×            ×             ×


मबरखा लहर-पाला में खाने-खेते खटीला

चाहे अंगार बरखो तिल भर नाहीं हटीला 


महलन से झाँक करके लिहल मजा बुझाई

चाहे ई जान रही चाहे ई जान जाई!

जीयsआ हमहूँ जीहीं रस्सी नियन बराके

धरती आ धन हs सबके कबले कहs बुझाई

चाहे ई जान रही चाहे ई जान जाई!"

             

आनन्द संधिदूत [मिर्जापुर] के गीतन के साहित्यिक सौन्दर्य देखल बनेला। प्राकृतिक उपादानन के बिम्ब-प्रतीकन के रूप में पिरोके मजिगर कविता उहाँ के लिखले बानीं। किसानी उहों के कविता में बिया बाकिर अपना पूरा काव्यात्मक सौन्दर्य आ अर्थवत्ता से भरल-पूरल रूप में, जवना से सभ्यता-संस्कृतियो में नया- नया रंग-रूप उभर रहल बा-


"आलू के खेत गढ़े

बिटिया किसान के।

        वेदमंत्र अस लहरे क्यारी पर क्यारी

         थान-थान अक्षर अस फूल पत्र धारी

तवना पर जिल्द मढ़े

बिटिया किसान के!

           घास गढ़े ना-ना-ना संस्कृति के रंग भरे

            सभ्यता सिवाने में सौ -सौ गो छाव भरे

कल्ह के भविष्य पढ़े


बिटिया किसान के!

             बिना डोले सूरज के एक किरन जइसे 

              धरती के पोर- पोर नाँपेले ओइसे

बइठे-बइठान बढ़े

बिटिया किसान के!"              


सूर्यदेव पाठक 'पराग'


सूर्यदेव पाठक 'पराग' [बगौरा, सीवान, बिहार] भोजपुरी आ हिन्दी के सुप्रतिष्ठित कवि बानीं। उहाँ के एगो गीत में किसान के जिनिगी के परिश्रम, सेवा आ त्याग के झलकावल गइल बा-


"हम हईं देश के किसान मोरे भइया हो

हम हईं देश के किसान!

          रात-दिन खट के अनाज उपजाइले

           सभ के खिला के रुखे-सूखे खुद खाइले

            शीत घाम बरखा के करीं ना फिकिर

खेतवे में बसेला परान मोरे भइया हो

हम हईं देश के किसान!"

               

गंगा प्रसाद 'अरुण' [जमशेदपुर] के गीतनो में किसानी के बड़ा  सरधा आ सम्मान से देखल गइल बा-


"हर ले कान्ह किसान खेत में भागल

आज बधरिया के दिनवा फिर जागल

देखि सुतार किसान गँवे मुस्काइल 

चलल हवा पुरवैया मन हरसाइल।"

           

वैद्यनाथ पांडेय 'कोमल' [रोहतास] के गीत में किसान के 'धरती के भगवान' बतावत खेतन से ओकर असीम प्रेम आ लगाव के सुन्दर काव्य-पंक्तियन में परोसल गइल बा-


"चलs धरती के भगवान रे किसनवा क 

गाईं हमनीं का जयकार।

            खेतवे से खुशिया में खुशिया जेकर बाटे

            खेतवे जेकर बाटे आस

            खेतवे के मुरझाइल लागेला जहर सम

            दुनिया के हास -परिहास

सगरो से मोड़ि-मोड़ि कइले निछावर से

खेतवा प मनवा के प्यार।"           


कमलेश राय जी [मऊ, उ.प्र.] हिन्दी-भोजपुरी के एगो अइसन मँजल गीतकार बानीं जेकरा गीत में गाँवन के प्राकृतिक सौंदर्य के साथे-साथे आज ओजवा हो रहल बदलाव के झलकावल गइल बा।एह बदलाव के बीच आपन अस्तित्व बचावे खातिर ओकरा संघर्ष  के पूरा संवेदना के साथे अभिव्यक्ति मिलल बा। गाँवन के एह संघर्ष के बीच एजवा के रहवैया किसान के का स्थिति बा ई कमलेश जी के गीतन में देखल जा सकत बा। उदाहरण के तौर पर-


"घिरि-घिरि आवे कारी-कारी रे बदरिया

हाथ जोरि कलपे किसान

ए बिधिना खेतवे में पसरल परान


×            ×              ×               ×


लरिकन के लोरवा कs असरा  बिलइहें

लहना तगादा ना लगानिया दिअइहें

असवों ना उजरलि पलनियाँ छवइहें 

बुड़िहें सपनवा कs चान।

 करजे कs बीया डारीं करजे कs पनियाँ

रहेली उपासे तबो घर कs परनियाँ

हरले कs बाटे हरिनाम ई किसनिया

कइसों होखे सँझिया-बिहान।

केतना ले बाँचीं दुखवा केरी तकबिया

पिछिलो बकाया बाटे देबे के तकिया

नीक बाड़ें भइया जे गइले सहरिया 

हमरा के कहीं ना ठेकान।"        


कमलेश जी के एह गीत में आपन दुखड़ा सुनावत किसान का अब ई बुझाये लागल बा कि गाँवन में अब ओकर गुजारा नइखे।ऊ अपना ले नीमन अपना भाइये के माने खातिर मजबूर दीख रहल बा, जे एही सब तबाही से उबिया के शहर जा बसलें।           


कमलेश जी के एगो आउरो सुघर गीत बा जवा में किसानी जीवन के पीड़ा के गहिर संवेदना के साथे पिरोवल गइल बा-


"हाँफि-हाँफि के जाँगर तोड़े

करम कुदारी किस्मत कोड़े

करजा चढ़ले रहे कपारे

सगरी उमिर घटावे जोड़े

सुख क सपन नींन भर बाटे

दुख बाँटे दुनिया जहान क


  ×            ×             ×


ढेर गँवावे थोड़े पावे

सगरी जिनिगी आस जोगावे

मन भीतर पीड़ा अभाव क

हँसि- हँसि सबद रमैनी गावे

अनगिन फिकिर रहे माथे पर

पगड़ी बान्हे स्वाभिमान के

धरती रोज बिछा के सूते

ओढ़ना ओढ़े आसमान के

बजर करेजा बा किसान के।"         


किसान पूरा तंगिशो में अपना स्वाभिमान के कबो आँच ना आवे देला, अपना पगड़ी के केहू के पनही के सामने गिरवी ना रखेला-एह बात के एह गीत में रेखांकित कइल गइल बा।         


सुरेश कांटक 



सुरेश कांटक जी [भोजपुर] लगातार अपना गीत आ नाटकन में किसान आ मजदूरन के व्यथा-कथा राखत आ रहल बानीं। उहाँ के एगो गीत देखल जा सकत बा-


"होता दुरगतिया कइसे बचिहें इजतिया राम!


×               ×               ×               ×


होत बा कटाव घर झोपड़ी बिलात बा

छँटनी के धार चले मन अकुलात बा

कइसे बचाईं धरती नइखे अवकतिया  राम!

बुचिया कुँवारी घर में कइसे पढ़ाईं

बचवा के भेजी खाली खिचड़ी खियाईं

मारि-मारि मतिया होता हमनीं से घतिया राम!"            


गाँव में रहने जीजीवाला किसान-मजूर के व्यथा के कवनों ओर-छोर नइखे। मध्याह्न भोजन के सरकारी योजना इस्कूलन में चल रहल बिया बाकिर ओकर निरर्थकता के ई वर्ग बूझत बा। मति मार-मार लोभ-लालच देके जात-पात में बाँट के अपना साथ हो रहल हर तरे के धोखा-ठगी के किसान बूझि तs  रहल बा बाकिर संगठित विरोध के अभाव में ओकर सुराज के सगरी सपना माटी में मिलत जा रहल बाटे।                


ब्रजभूषण मिश्र 


ब्रजभूषण मिश्र [मुजफ्फरपुर] के कविता में बदल रहल गाँवन में किसानी के नया-नया तौर-तरीका के बीच पशुधन से किसानन के हो रहल  विरक्ति के रेखांकित कइल गइल बा-


"कहाँ सुनाता कतहूँ

टिटकारल बैलन के

हरवाहन के ललकार

अब गाँवन में

ट्रैक्टर भइया 

धूर उड़ावत जात।"           


हरेन्द्र हिमकर [प चंपारण] के कुछ दोहा किसानी पर केन्द्रित बाड़े सन। एह दोहन मे किसान अपना बोअल सपनन के फसल झुरात देखे खातिर मजबूर बा-


"बोअत रोपत खेत में भींजत अउर झुरात।

बखरा मिले किसान का सपने के दिन रात।।

सपना बोअत खेत में जरत गलत कठुआत।

कइसन भाग किसान के बाली जरत दहात।।"               


कबो बाढ़ तs कबो सुखाड़-किसान के जीवन के नियति बन गइल बा। कवनों साल केनिहो  सुखाड़ हो जात बा तs केनिहों बाढ़ के पानी लागल फसल के बिलवा देत बा। आजो अधिकतर किसान-खेतिहर प्रकृतिये के आसे-भरोसे बइठल रहे खातिर मजबूर बाड़ें। अपना एगो गीत में बहुते भावप्रवणता आ काव्यात्मकता के साथे कुमार विरल जी एह ओरि संकेत कइले बानीं-


"असों सावन नाहीं बरिसल अँगनवा में 

हम तs ताकत रहि गइनीं असमनवाँ में ।

       

धानवा सुखाइल जाता रोअता किसानवा

         

करजा चढ़ल जाता महँगा रसानवाँ

साँस लटकल बा उलटे परानवाँ में

असों सावन नाहीं बरिसल अँगनवा में।"

    


नवकी चाल-ढाल में भोजपुरी के किसानी कविता

           

भोजपुरी के किसानी कविता अपना  नया दौर में नया भाव आ विचारन से सम्पन्न कवियन के जरिये आपन नया धरती आ आसमान बनावत लगातार आगे बढ़त जा रहल बिया। नवका दौर में उमिर के दिसाईं कुछ वरिष्ठ रचनाकारो लोग सक्रिय बा जे आज के रुचि आ रचाव के हिसाब से नवकी चाल-ढाल वाली रचना परोस रहल बा लोग। दोसरा ओर, कुछ अइसनको युवा कवि लोग एह नवका दौर  में शामिल बा जे लोग के रचनाशीलता में पोढ़पन के तनिको कमी देखे के नइखे मिलत। एह सब कवियन के कहन में विषय के विविधता बा आ शिल्प में भरपूर कसाव बा। छंदबद्ध आ छन्दमुक्त-दूनू तरह के कविता रचे में पारंगत एह कवियन में मौजूदा समय आ समाज के कसमसाहट आ तल्खी, आउर ओसे उबरे के बेचैनी- साफ तौर पर नजर आ रहल बा। एह कवियन के किसानी कविता गाँव आ शहर के सीमा के लाँधत अपना चुनौती के वैश्विक पटल पर जाँचे-परखे के हिमायती बिया। अब अइसनका कुछ कवियन के तेवर आ मिजाज भाँपल जरूरी बा जे किसानी कविता लिखत बेरा ओकरा फलक के फइला के राखल बेहतर समझत बाड़ें।                


पूँजीवाद के सम्मोहक अदा आ भीतरे-भीतर सब रस चूस जाये वाली ओकर घातक मनोवृति, 'बाजारवाद' के दबाव, अपसंस्कृति के फइलाव में लसरा रहल लोक संस्कृति, अमीरी आ गरीबी के बीच लगातार बढ़त जा रहल खाई-ई सब पृष्ठभूमि पर खड़ा भोजपुरी के किसानी कविता- सदानंद शाही [वाराणसी] जइसन एगो समझदार आ हर तरे के परिस्थितियन से भली-भाँति परिचित एगो कवि में जब आपन ठौर बनावत बिया  तs ऊ ई कहे खातिर मजबूर हो जात बाड़ें-


"आवsता साँड़ बड़वरका ए भाई

आपन-आपन खेत बचइहs ए भाई

टीका-चनन लागल बा

हाल के ई दागल बा

मानी नाहीं करी बरियाई।"

         

कन्हैया पांडेय [बलिया] एगो अइसनके कवि बाड़न जिनका कवितन में एगो खास तरे के ताजगी बा। कन्हैया जी के गीतन में किसानी जीवन में नर-नारी के सहयोग भाव थोरिके आगे ले बढ़ि के देखावल गइल बा। गाँवन में अइसनको कुछ छोटका  किसान परिवार बाटे जहँवा मरद कमीनी करे शहर में जा बसल बाड़ें बाकिर ओह घर के जनाना गाँव-टोला के मजूरन के संगे लागि -भिड़ के खेती-बारी करावत बढ़िया उपराजन कर लेत बाड़ी।अइसनके एगो  किसानिन औरत अपना पति के पाती भेज के अरज कर रहल बाड़ी-



"बुधना से पतिया पठवले बानी हो

ए चइतवो में आ जा।

      खेते-खरिहनवा छिटाइल बा सोनवा      


काहे तू रोवेलs भगिया के रोना

मेहनत से अनजा उगवले बानीं हो

ए चइतवो में आ जा।"

         

करजखोरी किसान-जीवन के एगो अइसन बेमारी भा मजबूरी आजो बनल बा जवन दियका लेखाँ ओकरा जिनिगी के चाट रहल बा। जगदीश ओझा 'सुन्दर' के एगो गीत में एकरा ओर इशारा कइल गइल बा-


"जनमे के सूतल जिनिगिया से रूठल

टूटल ना निनिया तहार

बतावs भइया जगबs तs कहिया ले जगबs?

          

दस गो रूपइया सूदिया सयकड़ा       

कबहूँ बियजवा के टूटल ना झगरा

रोजे तगादा में आवे पियादा गरिया सुनावे हजार

बताव भइया जगबs तs कहिया ले जगबs?"              


एह सवाल के जवाब हाजिर होत बा कन्हैया पांडेय जी के एगो गीत में-


"गटकs  लेके हक हमार तूँ

हम छछनीं-छिछियाईं

तू सूतs गद्दा-मसनद पर 

हम भूँइया लोटियाईं

हमरे धन पर मउज करs तूँ

करम ठोकि हम रोईं

ना बाबा अब ई ना होई।"           


"ना बाबा अब ई ना होई" एह बात के ओर इशारा करत बा कि अबहीं ले जवन होत आइल बा ऊ ओइसहीं आगे जारी रही ई कवनों जरूरी नइखे। अब सवाल पर सवाल होई। एगो वाजिब सवाल भोजपुरी कवि शशि प्रेमदेव जी के पंक्तियनो में देखे के मिल रहल बा जवना के जबाब आसान नइखे


"काहे मोर झुराइल राउर गाल गुलाबी बा

बोलीं कवन खराबी बा ना?


×           ×            ×             ×


रउवे पाले महल-अटारी

नोकर-चाकर घोड़ा-गाड़ी

काहे पुहुत -पुहुत से रउवे ठाट नवाबी बा?

होई कइसे सुफल सुराज

रउवे बोलीं ए महाराज!

जब ले लोकतंत्र के सज्जी बात किताबी बा?"       


एक ओर महल-अटारी आ दोसरका ओर झोंपड़ी, एक ओर नबाबी ठाट-बाट आ दोसरका ओर फटेहाली-भारतीय समाज में ई विसंगति जब ले बनल रही तब ले लोकतंत्र के सगरी चरचा बेमानिये मानल जाई।         


लोकतंत्र के नाम पर चले वाला खेल के अब सभे बूझे लागल बा।आसिफ रोहतासवी जी [पटना] के एगो गजल के कुछ शेर देखे लायेक बा-


"लोकतंतर के जान बानी जा 


  आज ले बेजबा नबानी जा।

  फेड़ के छाँह त मवस्सर बा

   मत कहीं-बेमकान बानीं जा।

   नाँव पर एक धूर तक नइखे

   बस,कहे के किसान बानी जा।"

            

किसानन के साथ छल आ ठगी कवनों एके राज्य भा देश के समस्या आज नइखे रह गइल। आसिफ जी कहत बाड़ें-


"आज सबेरे बात भइल हs फोन प जोखन काका ले

 गाँव-जवारे कटनी-बोअनी लागल बाटे धाका ले।

परचा छींटल बा गलियन में साटल बा देवालो पर

सिहर गइल बा गाँव समूचा राते जोर धमाका ले।


×        ×          ×             ×                 ×


तस्लीमा सिंगुर आनन्दीग्राम के ऐनक में 'आसिफ'

सत्ता के तs एके चेहरा बा दिल्ली से ढाका ले।"


  

बलभद्र 

              


बलभद्र [गिरिडीह] एगो अइसन कवि बाड़न जिनका किसानी जीवन से गहिरा लगाव रहल बा। इनकर किशोरावस्था आ जवानी के दिन खेतन आ खरिहारन  पर बीतल बा आ बाद के सामाजिक-सार्वजनिक जीवन खेतिहर-मजूरन के संघर्ष में शामिल रहत राजनीतिक-वैचारिक लड़ाई लड़त। खास राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित- प्रभावित रहला के बावजूदो उनकर कविता राजनीतिक नारेबाजी से अलगा बाड़ी सन। किसान-मजूरन के हक के लड़ाई में बलभद्र जी बराबर शामिल रहल बाड़न। सामाजिक-राजनीतिक सरोकारन के जोगावत साहित्यिक संवेदना आ मर्यादा के कइसे निभावल जाला- ई बलभद्र जी से सीखे लायेक बा। 

          

बलभद्र के कविता में किसानी जीवन के पीड़ा के साथे-साथे एकरा में समाइल विरह जनित रागात्मक चेतनो के मजिगर उरेहाई भइल बा-


"जालs कवना दो देस 

देके जोगिनी के भेस 

आहो अँखिये में कटि जाला रतिया नू हो

जालs कवना दो देस...


  ×       ×        ×       ×


जोते-बोये के सुतार

नाहीं केनियो उधार

घरे ससुर बेमार

सासु आँखे अलचार

आहो थउसल सँउसे उमरिया नू हो

कहीं केतना कलेस!


जालsकवना दो देस...."

       

"थउसल सँउसे उमिरिया" से जादे सार्थक अभिव्यक्ति किसानी जीवन के पीड़ा के झलकावे खातिर आउर का हो सकत बा?

           


खेत में धान-रोपनी करत रामकिसुन बो के रामकिसुन से हँसी-मजाक किसानी जीवन के पीड़ो में पल रहल पुलक, उछाह, अनुराग आ जिन्दादिली के निशानी बा-


"निहुर-निहुर रोपत रही धान रामकिसुन बो

छउकत-छितराइल पनबदरा के बीचे से 

पलखत पवते, उझिलत रहन घाम

खउलाइल मन से सुरुज महराज

बीया के बोझा पहुँचावत 

थकबक भइल रहलें रामकिसुन


×       ×       ×        ×         ×


दूनो परानी के ना ओराइल बात

सटल ना ओठ कबो 

बात बतकही आ हँसी-मजाक में बन्हाइल खेत आ समय

कि रोपते -रोपत रामकिसुन बो के हाथ में

परल एगो अझुराह आँटी जब

बोलली लगाहि बात कि 


"अँटिया बन्हले बाड़s

कि अपना बहिनिया के जूड़ा!"

छुअलस जवन रामकिसुन के करेजा के।"

           

प्रकाश उदय 


प्रकाश उदय [वाराणसी] के कवितो में एही तरे के किसान-जीवन के राग-रंग देखे के मिलेला। उनकर एगो प्रसिद्ध कविता हियs- 'तनी जगइहs पिया'। एकर कुछ पंक्तियन के देखल जा सकत बा-


"आहो-आsहो

रोपनी के रँउदल देहिया साँझे निनाला

तनी जगइहs पिया 

जनि छोड़ि के सुतलके सुती जइहs पिया


आहो -आsहो

हर के हकासल देहिया साँझहीं निनाला

तनी जगइहs धनी

जनि छोड़िके सुतलके सुती जइहs धनी।


×        ×          ×           ×


आहो-आsहो

घर से बदरिया तक ले 

भइया भउजइया तक ले 

दिनवा त दुनिया भर के


रतिए हउए आपन, जनि गँवइहs धनी 

धइ के बँहिया प माथ, बतियइहs धनी।"

                


रोपनी से रँउदाइल देह लेले एने जनाना बाड़ी आ ओने उनकर मरद हर के हकासल देहिया लेले पसरल बाड़ें।तबो रात ना गँवाके अपना सुख-दुख के बाँटत भरमुँह बतिया लेबे के चाहत बाड़ें दूनू बेकत। तंगिश आ तबाही से भरल किसानी जिनिगी के  एह तरे के गार्हस्थिक संवेदना आ गज्झिन मनोभावन से भरल-पूरल चित्रण भोजपुरी कविता के ओह ऊँचाई पर ले जाके ठाढ़ कर देत बा जहाँ ऊ कवनो भाषा के कविता संगे हाथ मिला सकत बिया।

        


प्रमोद कुमार तिवारी [कैमूर] आज के बदल रहल आ तेजी से भागल चल रहल गाँवन में आइल बदलाव के कवनों बहुत सार्थक माने खातिर तइयार नइखन। उनकर कहनाम बा कि आज सुराज के सपना लगातार बिखरत जा रहल बा-


"इक्कीसवीं सदी में चलल गाँव देखीं

गरीबी लाचारी से भरल गाँव देखीं

उजड़ल सपनवा के गठरी मिलल ह

स्कूली के नाँव प बस पटरी मिलल ह

टुकी-टुकी होके पड़ल गाँव देखीं।"


चन्द्रेश्वर 


       

चन्द्रेश्वर जी [लखनऊ] हिन्दी आ भोजपुरी के कवियन में एगो  जानल-मानल नाम बानीं। उहाँ के एगो कविता में किसान के साथे हो रहल ठगी आ अत्याचार के मार्मिक चित्रण देखल जा सकत बा-


"ऊ रोज-रोज 

गाइ-गाइ के 

गुनगुना- गुनगुना के

कबो चीख-चिल्लाइ के 

कहेलन तोहरा लोगन के 

अन्नदाता..अन्नदाता!

आ तू लोग हो जालs लाचार

अन्हरियो आ अँजोरियो पख में

आतमहतेया खातिर।"

              

किसान के 'अन्नदाता' कहि-कहि  के सिकहरा चढ़ा दीहल आ फेर ओकरे संगे ठगी करिके ओकर भरपूर शोषण कइल - आज के व्यवस्था के जइसे दस्तूर हो गइल बा। जयशंकर प्रसाद द्विवेदी [वाराणसी] के 'खेतिहर' शीर्षक गीत में एह बात के सच्चाई परखल जा सकत बा-


"कब ले रोई कहाँ ले गाई

कब ओकर किस्मत फरिआई

जब ले ओकर पेट जरत हौं

'अन्नदाता' का कहल सोहाई?"          


लक्ष्मीकांत मुकुल [बक्सर] भोजपुरी आ हिन्दी के एगो मजिगर कवि बाड़न। हिन्दी में उनकर एगो कविता संग्रह आइल बा-' घिस रहा है धान के कटोरा'।


उनकरा कवितन में समय आ समाज के सच्चाइयन के उकेरला के साथे-साथे किसान आ मजदूरन के हक के लड़ाई लड़े के भरपूर कूबत बा। उनकर भोजपुरी कविता 'भरी में चहुँपल भईंसा' के पंक्तियन के देखल जा सकत बा-


"आवेले ऊ भरकी से

कींच-पाँक के गोड़ लसराइल

आर-डँड़ार पर धावत चउहदी

हाथ में पोरसा भर के गोजी थमले

इहे पहचान बा उनकर सदियन से।


× × ×


जाँगर ठेठाई धरती से उपराज लेले सोना

माटी का आन

मेहनत के पेहान के मानेले जीये के मोल।" 


निठाह भोजपुरी शब्दनो के जरिये  गज्झिन संवेदना आ सोच से भरल कविता लिखल जा सकत बा, मुकुल जी के कविता एह बात के नमूना बाड़ी सन।           


मनोज भावुक [सीवान] अइसे तs गजल के दुनियाँ के बहुते माहिर आ लोकप्रिय रचनाकार हउवन बाकिर एजवा हम  उनका  कुछ दोहन के प्रस्तुत करे के चाहब जवनन में किसानी जीवन के विसंगति आ विडम्बना से भरल जीवन के बहुते मार्मिक चित्र देखे के मिलत बा-


"कृषि प्रधान ई देश हs आपन हिन्दुस्तान ।

जहँवा बा सबसे दुखी सबसे विवश किसान।।

धूर फूँक के बड़ भइल बाटे जवन किसान।


ओकरा से का लड़ सकी आँधी आ तूफान।।

मनीआर्डर के आस में चूल्हा परल उपास ।

भावुक तहरा देश केतना भइल विकास।।

        

'हरियरी रोपत हथेली' के कवि कनक किशोर जी [राँची] सामाजिक सरोकार से जुड़ल कविता लिखेनीं।हर शैली के कविता लिखे में उहाँ के कामयाबी मिलल बा।तमाम तरे के कठिनाइयन के बावजूद उहाँ के भरोसा बा कि एक-न-एक दिन देश में किसान आ मजदूर राज आइये के रही। कविता के पोजिटिव एप्रोच बेजाँय ना कहाई, काहे से कि एहू तरे के विचारन से अभियान के ताकत मिलेला, आन्दोलन सशक्त होला।कनक जी के एगो भोजपुरी गजल में किसानी कविता के कुछ अइसनके सकारात्मक ध्वनि मिली- 


"जिनिगी आस के दीया हsविसवास रखs।

अन्हार भागी अँजोर भेंटी विसवास रखs।।

मिजाज टनक रखs रात ढलान पर बा

काल्हु तोहरे मुट्ठी में  विसवास रखs।

धुँथ छँट रहल बा मउराये जनि द मन के

आगाज दिल्ली तक पहुँची विसवास रखs।

किशोर अब जगिहें गाँव में गान होई 

संसद गाँव में बइठी विसवास रखs।"



सन्तोष पटेल 

          

संतोष पटेल जी [दिल्ली] भोजपुरी आ हिन्दी के सुपरिचित कवि बाड़न। सामाजिक-राजनीतिक सरोकारन से जुड़ल कविता लिखेवाला संतोष जी सामाजिक बराबरी आ सद्भावना के प्रबल पक्षधर कवि बाड़न। इनका कवितन में विचार संवेदना में सउनाइल प्रकट होला। पास-पड़ोस से लिहल बिम्ब साफ-सूथर अभिव्यक्ति के सहज संभव बनावे में मददगार होला। संतोष जी के कवितो में कुछ अइसनके दिखत बा। उदाहरण देखल जा सकत बा-


"किसान त पिसान भइल जात बाड़ें

भूखमरी के चकरी में पिसा के

पुलिस के गोली खा के

महाजन के करजा में दबा के

गरीबी के ढेंकी में कुटाके

सूखा आ बाढ़ आ बेमौसम बरसात से

कबो मौसम के ससरी से 

कबो-कबो जंतर-मंतर पर फँसरी से।"

             

युवा गीतकार अक्षय कुमार पांडेय [गाजीपुर] के नवगीतो में किसानी जीवन के बिम्ब-प्रतीकन के लेके ग्रामीण जीवन से जुड़ल बढ़िया काव्यात्मक सिरिजना भइल बा।कुछ रचनन में तs सीधे किसान के जिनिगी में छाइल अन्हरिया आ ओकरा संघर्ष के उकेरल गइल बा-


"आज उदासल होरी पूछे

कइलीं कवन कसूरिया राम!


उनका घरे अँजोरिया टह-टह 

अपना घरे अन्हरिया राम!


रहि-रहि करि के हिया कि जइसे

फाटल गोड़ बेवाई

तनिको टिके न पाँव समय पर

एतना लागल काई।

नदी किनारे बइठ उपासे

जिनिगी गिने लहरिया राम!"

     

नदी किनारे उपासे बइठल लहर गिने के मजबूरी जवन समय के काई पर पाँव नइखे टिके देत -आज किसान के नियति बन गइल बिया।

               

युवा कवि संजीव कुमार त्यागी [गाजीपुर] के हाले में एगो कविता- संग्रह आइल बा-'ए सरकार! किसान हईं हम'। एह संग्रह के शीर्षक-कविता के कुछ पंक्ति सब  के देखे जोग बाड़ी सन-


"कहे अन्नदाता सब हमके नित-नित नव जसगीत रचावे

जय किसान भाषण में, बोले धरती के भगवान बतावे

नारा भाषण कविताई में, जे हमरा के पूज्य कहेला

उहे लोग सोझाँ परला पs खेतिहर सुनते मुँह बिजुकावे

डेग- डेग पर होखे वाला सनमानित-अपमान हईं हम।


बखरा में अन्हियारी ढोवत, ए सरकार! किसान हईं हम।

हाड़ गला के धरती से हम हीरा मोती उपजाईलाँ

ओहू के बेचे खातिर फिर दर-दर के ठोकर खाईलाँ

नाक बचावत घर सहियारत बोझ बढ़ल जाला करजा के

माटी मिल जाले माटी में, तबहूँ उरिन न हो पाईलाँ

भीतर से हहरत -हपसत हिय, ऊपर मुख मुस्कान हईं हम।"

             

एह कविता में किसानी जीवन के जथारथ के बिना कवनों आदर्श के मोलम्मा चटवले युवा कवि सामने ले आइल बा।

               

किसानन के भारत के 'भाग्यविधाता' बतावल गइल बा।भाग्यविधाता के जइसन छवि होई ओह से अलगा एह देश के छवि थोड़े होई! युवा कवि योगेन्द्र शर्मा 'योगी' [चन्दौली] के कहनाम बा-


"करीं किसानी खाली पेट

झुक गइल करजा से घूंट

सूद भरी कि मूर चुकाईं

सोच-सोच हैरान हईं

हे गोलियाँ हम किसान हईं

जग जाने हम हिन्दुस्तान हईं।"

            

भोजपुरी में महिला कवयित्रियन के अइसे त शुरुए से काफी कमी रहल बा बाकिर जेही कविता के दुनिया में उतरल बा ओकरा रचनन में सामाजिक सरोकार से जुड़ल विषय के कवनों कमी नइखे रहल। सरोज त्यागी जी [गाजियाबाद, उ. प्र.] एगो किसानी कविता के बानगी देखल जा सकत बा-


"चलs पिया तलवार में रोप आईं धान

झउआ कटारी आ फरसा कुदारी

चललैं किसान अउर चल दिल्ली नारी

हियरा में होला गुमान।"

        

सरोज जी के एह कविता में कृषि कार्य में नर-नारी के साझेदारी के बात तsआइल बा बाकिर कविता एह तरे के सपाटबयानी से अलगो कुछ खोजेले।

            

भोजपुरी के मूल प्रकृति के मोताबिक किसान कविता के अधिकतर भाग गीत विधे से जुड़ल बा बाकिर कुछ मुक्त छंद के रचनो धेयान खींचे में कामयाब बाड़ी सन। केशव मोहन पांडेय जी [ठकराहाँ, गोपालगंज, बिहार] लिखत बाड़ें-


"जिनिगी

खाली तइयार रोटी ना हs

पानी हs 

पिसान हs

रात के अन्हरिया पर टहकत बिहान हs

कुदारी के बेंट पर ठेहा लागल हाथ हs 

हर हs

पालो हs


×    ×   ×   ×


तs  खेतवा बचाईं

बचाईं किसान के।"


            

आज घोर मँहगाई के जमाना में खेतियो काफी मँहगा हो गइल बिया। दू-पाई बिटोर के किसान अधिका उपराजन के चक्कर में नया 'वराइटी' के जवन बीज खेत में डालत बा ऊहो कबो-कबो नकली निकल जात बा जवना के चलते पूँजियो डूब जाये के खतरा रहत बा। राकेश कुमार पांडेय [गाजीपुर] के धेयान एनियो बा-


"टट्टर जोते खेतवा न बरधा के खेती अब

महँगा जोताई तेल-डीजल महँगाइल बा

सहीं किसान के झरोखा झाँके झुट्ठे- मुट्ठे

छोटूराम किसान देखा सगरो बिलावल बा।"

              

भोजपुरी एगो लोकभाषा हियs, एह से एकरा लगभग हरेक कवियन के कविताई में ग्रामीण जीवन के चित्रण मिलेला। एकर अधिकतर कवि गाँवे के रहवैया बाड़ें भा गाँवन से उनकर लगाव आजो बनल बा। इहे कारण बा कि उनकरा ग्रामीण जीवन आ किसानी कवितन में स्वाभाविक तौर पर भोगल जथारथ बा।ऊ किसानन खातिर भाड़ा पर लोर नइखन टपकवले। ऊ समुझत बाड़न कि किसानन के जिनिगी से सुख आ आनंद के भोर अभी बहुते दूर बा। सरकारी सब्सिडी भा करजा-माफी के बावजूदो जब आज किसानन के हालत बद से बदतर होत जा रहल बा - तs एकरा पीछे के कारन का हो सकत बा-अब ई अबूझ पहेली नइखे रह गइल।समाज में जातिवाद के जहर फइलाके अपना मतलब के रोटी सेंकल जा रहल बा, आपन उल्लू सीधा कइल जा रहल बा -अब ई सब समुझे खातिर दिमाग पर ढेर जोर डाले के जरूरत नइखे रह गइल। जमीन के झगड़ा में फालतू के मुकदमेबाजी, भूमि-सुधार के समस्या के प्रति सरकारी अरूचि, किसानन खातिर मिले वाला खाद-बीज-डीजल के मँहगाई, फसलन के सरकारी खरीद में बिचौलियन के चाँदी-कटउवल, कृषि-उत्पादन के समुचित बाजार-व्यापार के अभाव आउर तेजी से हो रहल औद्योगीकरण के दौर  में किसानन के जमीन के  हड़प-ई सब कुछ अइसन समस्या बा-जवन कोढ़ में खाज बनके किसानी जीवन के तबाह कर रहल बा। पिछिलका कुछ बरिस में भोजपुरी क्षेत्र में जनवादी शक्तियनो के कमजोर भइला के ई नतीजा बा कि कवनो मजिगर  किसान-आन्दोलन एजवा खड़ा नइखे हो पावत। हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र आदि राज्यन के विकसित किसानी चेतना लेखाँ भोजपुरी इलाका में किसानन के संघर्ष धारदार नइखे बन पावत। भोजपुरी के किसानी कविता एहू सच्चाई से बिना मुँह मोड़ले लगातार भोजपुरी क्षेत्र के किसानन के कमजोरियो के उजागर कर रहल बिया।                                

          

भोजपुरी के कवि किसान के 'धरती के भगवान' बतावत ओकर सामाजिक-आर्थिक महत्व के रूपायित त करत बा बाकिर ओकरा के लेके ऊ कवनो 'यूटोपिया' नइखे रचत। भोजपुरी के किसानी कविता के पाँव बराबर जथारथ के जमीन पर गड़ल रहल बा। एह कविता में जीवन के सुगबुगाहट बा, आ ओकर भरपूर स्पन्दन बा। शोषण के विरुद्ध एकरा संकल्प में दृढ़ता बा आ संघर्ष में नया तेवरो बा। किसान-विरोधी ताकतन के कुचक्र के समुझे-समुझावे में समर्थ आ ओकरा प्रहार से मुक्ति के सार्थक प्रयास से भरपूर ई कविता बिया। भोजपुरी कवि विजेन्द्र अनिल के साफ कहनाम बा-


"लाली हम भोर के

गीत हम अँजोर के

हम शहीद के बाजू

खून हम जवान के

हम किसान के सीना

फेड़ हम सिवान के

पाँखि हईं सतरंगी

जंगल के मोर के।"

           

भोजपुरी के किसानी कवितो के सौन्दर्य बहुरंगी बा। एकरा में अगर संघर्ष के आग बा त मानवीय संवेदना के सरल-तरल अनुभूतिन के अभिव्यक्तियो बा। ई कविता सीधा-सपाट बयानी से ऊपर उठ के आपन एगो काव्यात्मक विवेक लेके आगे बढ़ल बिया। एकरा भाषा में सहजता आ स्पष्टता बा। एकर मतलब ई नइखे कि कलात्मक सौंदर्य से एकरा में नइखे। दरअसल, एकरा साफगोइये में अइसनका सौन्दर्य भरल बा कि ई अलगे से धप-धप बरत एगो जियतार सिरिजना बनिके आपन एगो मुकम्मल पहचान बना लेबे में कामयाब हो गइल बिया। किसानी कविता में अधिकतर  छंदबद्ध रचना बाड़ी सन जवन किसानी जीवन के रुचिर पक्ष के साथे -साथे ओकरा त्रासदियो के पूरा 'स्पेस' देबे के कोशिश कइले बाड़ी सन। छंदमुक्त रचना समकालीन कविता के भाषागत भंगिमा आ मुहावरा के पचाके भोजपुरी में आउरो चमक आ खनक गहि लेले बाड़ी सन। भोजपुरी  क्षेत्र के सुख-दुख, जय-पराजय, खूबी-खामी आउर समृद्धि आ कमजोरी - सब कुछ एह भावधारा के कवितन में शामिल बा। जइसे 'जनतंत्र' के जनता के जनता के जरिये जनता खातिर शासन मानल गइल बा, ओइसहीं भोजपुरी के किसानी कवितो के किसानी से गहिरे जुड़ल कवियन के, किसान-हितन के रक्षा खातिर एगो सार्थक आ संघर्षमूलक रचनात्मक साहित्यिक प्रयत्न कहल जा सकत बा।

                   


सम्पर्क


डा. सुनील कुमार पाठक,

क्वार्टर नंबर-जी-3, आफिसर्स फ्लैट  

भारतीय स्टेट बैंक के नजदीक,

न्यू पुनाईचक पटना-800023

(बिहार)


मोबाइल - 7261890519

टिप्पणियाँ

  1. बहुत शानदार आ लाजवाब आलेख। रचनाकार के मेहनत बोल रहल बा एह आलेख में। किसान के जिनिगी उघरे खातिर किसान जस पाठक जी मेहनत कइले बानीं

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  2. बढ़िया आलेख बा। भोजपुरी कविता में खेत,खेती आ किसान ना मिली त कहंवा मिली। लोकभाषा के कविता के ई बहुत जेनुइन विषय रहल बा। पाठक जी मेहनती आदमी हंवे । जेतना खोज के ले आइल बाड़न ओकरा के लेके तारीफ करे में उजुर ना होखे के चाहीं। बहुत बढ़िया बा।

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  3. भोजपुरी काव्यालोचना के दिसाईं बहुत उल्लेखनीय आलोचनात्मक आलेख। आभार हमरो के शामिल कइले बानीं--बधाई आ शुभकामना।-चंद्रेश्वर(लखनऊ)

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  4. हं त मेहनति भ‌इल बा। भोजपुरी निबन्ध संसार के अइसन अनेक आलेखनि के जरूरत बा,तब ओकर भंडार लहलहाई।
    बहुत बहुत बधाई।।-अनिल ओझा(कोलकाता)

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  5. बहुत भुलाइल कवितन के खोज के जुटवले बानी रउआ । मेहनत से बढ़िया काम ।-डा.ब्रजभूषण मिश्र(मुजफ्फरपुर)

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  6. पूरा पढ़ लेनी। कयिसे बड़ाई करीं, बुझाते नयिखे। अतना बड़हर, बडियार शोधालेख कि बेरी-बेरी पढ़े के मन करता।
    पाठक जी!
    हार्दिक शुभकामना स्वीकार करीं!-डा शंकरमुनि राय (राजनांदगांव,छत्तीसगढ)

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  7. सार्थक, सारगर्भित, शानदार आ जरूरी लेख। बहुत बधाई भइया।-मनोज भावुक(दिल्ली)

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  8. पढ़नीं।दु बार पढ़नीं।हो सकता तेसरको बार पढ़ीं।इहे हमरा तरफ से तहार अनमोल आ घरेलू पीठठोकउवा पुरस्कार बा।इ आलेख वर्तमानकालिक भोजपुरी में तहरा के "शोध पुरुष"के रूप में ठाढ़ करो,हमार आशीष।-डा प्रभाकर पाठक(दरभंगा,बिहार)

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  9. पूरा आलेख पढ़ला के बाद बुझाता कि ई अपने आप में एगो शोधपूर्ण प्रयास बा। बहुत मेहनत आ लगन से लिखा इल बा। हार्दिक बधाई आ शुभकामना।-सूर्यदेव पाठक 'पराग'(लखनऊ)

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  10. भोजपुरी साहित्य में मौजूद किसानी कविता के कालखंड आ वर्तमान संदर्भ के अलग अलग फरका के ओकर मल्टीपल शेड्स के बढ़िया से डॉ.सुनील कुमार पाठक जी लिखले बानी।
    -डा.संतोष पटेल(नई दिल्ली)

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  11. किसानी संवेदनाओं पर आधारित आपका यह लेख बहुत ही गंभीर विमर्श प्रकट कर रहा है।
    उत्कृष्ट लेखन के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई!
    _ लक्ष्मीकांत मुकुल

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