कृष्णमोहन का आलेख 'इक़बाल नेहरू और बंटवारा'



इक़बाल, नेहरू और बंटवारा


कृष्णमोहन



'समयांतर' के जनवरी 2022 अंक में छपे अपने इस लेख को यहाँ फ़ेसबुक के मित्रों के लिए क्रमशः प्रस्तुत कर रहा हूँ।) 

 

(1) 

 

देश के बंटवारे को गुज़रे एक अर्सा हो गया था, जब विगत सदी के आख़िरी दशक में इसके प्रति नई जिज्ञासा हिंदी-उर्दू भाषी समाज में दिखाई पड़ी थी। संतोष की बात है कि वह सिलसिला आगे बढ़ता रहा। अब हम बंटवारे के इतिहास की छानबीन में कुछ और गहरे उतरने की ज़रूरत महसूस कर रहे हैं। उर्दू के महान शायर मुहम्मद इक़बाल के विचारों की भूमिका इस प्रक्रिया में क्या थी, यह सवाल अक्सर हिंदी समाज के बाशिंदों के दिलो-दिमाग़ में भी उठता रहता है। हाल ही में हिंदी की एक प्रमुख पत्रिका 'आलोचना' ने बंटवारे पर केंद्रित अपने दो अंक 59 और 60 निकाले हैं। इसके पहले भाग यानी 59वें अंक में इसके संपादक आशुतोष कुमार का एक लंबा संपादकीय-लेख छपा है। इस लेख की ख़ासियत यह है कि इसमें बंटवारे, और उसमें इक़बाल की भूमिका के संदर्भ में चली पुरानी बहसों से लेकर नवीनतम रणनीतियों की झलक मिल जाती है। किसी भी समाज में पैदा होने वाले विचारों से जूझे बिना उनमें कोई नया उन्मेष नहीं लाया जा सकता। इसलिए, यहां मैंने उक्त लेख से बहस करते हुए अपनी बात कहने का तरीक़ा अपनाया है। 

 

"हसीं आंखों मधुर गीतों के सुंदर देश को खोकर 

मैं हैरां हूं वो ज़िक्रे वादी-ए-कश्मीर करते हैं" 

 

आशुतोष कुमार अपने लेख की शुरूआत कराची के एक मुशायरे के ज़िक्र से करते हैं जिसमें हबीब जालिब जब अपना यह शेर पढ़ते हैं तो सभा तालियों से गूंज उठती है। वे इसे पाकिस्तान के हुक्मरानों की कश्मीर-नीति, और इससे वहां की जनता के मोहभंग के बतौर देखते हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि सीमा के उस पार लोग इस तरह के भावनात्मक मुद्दों की असलियत समझ रहे हैं, लेकिन क्या हम भी उसी मात्रा में अपने सियासी पाखंड से मुक्त हो सके हैं। लेखक के शब्दों में--- "हसीं आंखों और मीठे गीत वाली 'बुलबुलों' के जिस चमन हिंदुस्तान को खो देने की पीड़ा इस शेर में है उसकी भरपाई धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर से भी नहीं हो सकती, अगर किसी तरह मिल भी जाए। यह उस अद्भुत देश को खो देने का एहसास है जो सारे जहां से अच्छा है और जिसकी हस्ती, बक़ौल इक़बाल, दुनिया के मिटाए मिटाई नहीं जा सकी।" इसके बाद वे 'तराना ए हिंद' के आख़िरी शेर को 'सबसे काव्यात्मक और रहस्यमय' बताते हुए उद्धृत करते हैं: 

 

"इक़बाल कोई महरम अपना नहीं जहां में 

मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहां हमारा" 

 

आशुतोष कुमार सवाल करते हैं--- "यह हमारे किस छुपे हुए दर्द का इशारा है, जिसे समझने वाला कोई नहीं है।" इसके बाद वे बंटवारे से पैदा हुए 'क्षति-बोध' यानी 'एहसासे-ज़ियां' का ज़िक्र करते हैं और उसे सामने लाने में साहित्य की भूमिका की विशिष्टता की बात करते हैं---"लेकिन इतिहास का ज़ोर विभाजन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उद्घाटित करने पर है। उन तात्कालिक कारकों की पहचान करने पर है जिन्हें इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सके। अक्सर यह डिबेट जिन्ना, नेहरू, पटेल और माउंटबेटन के इर्द-गिर्द घूमती रह जाती है या मृतकों और विस्थापितों की संख्या तय करने में जुट जाती है। ये सारे काम ज़रूरी हैं, लेकिन साहित्य और कलाओं का काम इनसे आगे का है। उन गहनतर सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रक्रियाओं को उद्घाटित करने का है, जिन तक इतिहास और समाज-विज्ञान के उपकरणों की पहुंच नहीं है। जहां जाने के लिए एक कवि की अंतर्दृष्टि चाहिए।" 

 

स्वाभाविक रूप से इसे पढ़ कर हम यह उम्मीद करने लगते हैं कि बंटवारे के बारे में लेखक कोई 'गहनतर सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक' रहस्योद्घाटन करेगा। लेकिन व्यवहार में पाते हैं कि वह बाह्य-औपनिवेशिक शक्तियों और आंतरिक-सामाजिक समूहों के बीच भटकता रहता है और तय नहीं कर पाता कि किसे इसकी ज़िम्मेदारी दी जाए। इसकी शुरूआत किसी आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत की पहचान की समस्याओं से होती है। लेखक का कहना है कि आधुनिक राष्ट्र का उदय प्रिंटिंग प्रेस के साथ जनभाषाओं के प्रसार के माध्यम से हुआ। इसी के चलते यूरोप में भाषा आधारित राष्ट्र बने। लेकिन भारत में अखिल भारतीय राष्ट्रीयता का विचार साथ-साथ चलता रहा। 'बंगला नवजागरण' की कृति 'वंदे मातरम' की अखिल भारतीय लोकप्रियता इसका प्रमाण है। लेकिन 'हिंदी पट्टी' की बोली उर्दू-हिंदी में विकसित हुई और "इन भाषाओं का उत्थान एक स्तर पर बहुत सहज और स्वस्थ ढंग से हुआ। लेकिन एक दूसरे स्तर पर उसने साम्प्रदायिक रूप ले लिया।" 

 

यानी, भाषा आधारित राष्ट्रीयता के साथ-साथ अखिल भारतीयता भी चलती रही। अगर भारतीय सभ्यता का कोई वजूद है तो वो इसी वजह से है। 'बंगला नवजागरण' और 'हिंदी पट्टी' के संदर्भ से यह स्पष्ट है कि विचारणीय लेख में कम से कम दो अलग-अलग भाषा आधारित राष्ट्रीयताएं हैं। इनमें अखिल भारतीयता का समावेश करने का श्रेय लेखक ने बंगला नवजागरण की कृति 'वंदे मातरम' को दिया है। ध्यान दें कि इस मामले में हिंदी और बंगला के बीच हिंदी आलोचना में स्पर्द्धा रही है। रामविलास शर्मा 'हिंदी नवजागरण' के पक्षधर हैं, तो नामवर सिंह 'बंगला नवजागरण' को भारतीय आधुनिकता का उन्नायक मानते रहे हैं। लेखक यहां बड़ी ख़ामोशी से 'बंगला नवजागरण' की तरफ़दारी कर रहा है, और 'हिंदी पट्टी' की भाषाओं को किसी न किसी प्रकार सांप्रदायिकता से जोड़ रहा है। इसके बाद वह भाषा का प्रश्न छोड़कर हिंदू-मुसलमान की धार्मिक पहचान के राजनैतिक पहचान में बदलने की वजह पूछते हुए कहता है कि इस सिलसिले में औपनिवेशिक राज्य की भूमिका "फूट डालो और राज करो की उस बहुचर्चित रणनीति तक सीमित नहीं थी, जिसके उदाहरणों के रूप में बंग भंग से लेकर कैबिनेट मिशन तक की बातें सामने रखी जाती हैं।" 

 

यहां से लेखक के तर्कों पर ख़ास तौर पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। भाषा और धर्म, दोनों ही स्तरों पर साम्प्रदायिक पहचान का विकास औपनिवेशिक परियोजना का परिणाम था जिसे लोकप्रिय ढंग से 'फूट डालो और राज करो' या 'डिवाइड ऐंड रूल' की नीति कह दिया जाता है। लेखक की उपरोक्त टिप्पणी इस मामले में भ्रामक है। इससे ऐसा लगता है कि वह सामान्य समझ से अलग कोई बात कहने जा रहा है, और 'फूट डालो और राज करो' की बात कोई अनावश्यक-सी बात है। बंग-भंग और कैबिनेट मिशन से जुड़ा वाकया भी ऐसा ही है। बंग-भंग की कोई व्याख्या हिंदू-मुसलमान के बीच फूट डालने की औपनिवेशिक नीति के बग़ैर नहीं की जा सकती, जबकि कैबिनेट मिशन के बारे में ऐसी कोई वैध या लोकप्रिय राय नहीं है। पूरे लेख में आशुतोष कुमार की यही शैली है। वे ज़मीन-आसमान के कुलाबे मिलाते हैं, और फिर थक-हारकर वापस वहीं पहुंचते हैं जहां से चले थे। लेकिन इस बात को स्वीकार कभी नहीं करते। फिर वे कोई नया सत्य उद्घाटित करने की मुद्रा बनाते हैं, और वही प्रक्रिया दुहराते हैं। 

 

बहरहाल, हिंदी-उर्दू के सेकुलर चरित्र के बावजूद अगर इनमें किसी सांप्रदायिक आयाम की घुसपैठ हुई तो उसकी जड़ सन अठारह सौ में कलकत्ता में स्थापित फोर्ट विलियम कॉलेज में है, जहां पहली बार हिंदी-उर्दू को अलगाया गया। 19वीं सदी का हिंदी-आंदोलन और गोरक्षा आंदोलन उत्तरोत्तर मुस्लिम-विरोधी, साम्प्रदायिक आयाम ग्रहण करता गया, क्योंकि उसकी घुट्टी में औपनिवेशिक इतिहास-चेतना थी। लेखक को भी इसका पता है क्योंकि इसके बाद तुरंत ही वह इसका ज़िक्र करता है--- "शायद इनसे कहीं अधिक प्रभावशाली थी, औपनिवेशिक ज्ञान-निर्माण की प्रक्रिया। भारतीय अतीत की हिन्दू काल और मुस्लिम काल के रूप में पुनर्रचना। इसे सबसे पहले जेम्स मिल के 'हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया' में सूत्रबद्ध किया गया। हिन्दू और मुस्लिम गौरव की सारी प्रेरणाओं का स्रोत औपनिवेशिक इतिहास लेखन है। इस इतिहास लेखन ने मध्यकाल के भारतीय इतिहासबोध को बदल दिया।" 

 

ध्यान दें कि यहां इतिहास की औपनिवेशिक-साम्प्रदायिक चेतना को सीधे संबोधित न करके लेखक उसे एक गरिमायुक्त नाम देता है 'औपनिवेशिक ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया'। इसकी बुनियाद वह जेम्स मिल की किताब 'हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया' को मानता है। ज्ञान निर्माण जैसे भारीभरकम जुमले से बेपरवाह यह किताब औपनिवेशिक इतिहास-बोध की एक आरंभिक अभिव्यक्ति भर थी। उस 'ज्ञान-निर्माण' की हक़ीक़त एक-दो वाक्यों से आगे नहीं चल पाती और लेखक को बाध्य होकर शैतान को उसके नाम से पुकारना पड़ता है---'औपनिवेशिक इतिहास लेखन'। यहां भी वह 'बोध' या 'चेतना' जैसे इस संदर्भ में अधिक प्रचलित शब्दों की जगह 'लेखन' का प्रयोग करता है। आगे चल कर वह इस लेखन के परिणामस्वरूप पैदा हुए बोध का ज़िक्र करता है। लेकिन इस प्रक्रिया में औपनिवेशिक इतिहास बोध ग़लत क़िस्म के लेखन का कारण नहीं परिणाम होकर रह जाता है, और उस बोध के पीछे सक्रिय ऐतिहासिक-सामाजिक वास्तविकताएं गुम हो जाती हैं। इस तरह वह ख़ुद उन 'गहनतर प्रक्रियाओं' के उद्घाटन की राह का रोड़ा बन जाता है, जो बंटवारे के लिए ज़िम्मेदार थीं।

 

बहरहाल, इस प्रक्रिया में लेखक मानता है कि भारतीय 'इतिहास-बोध' बदल गया और हिंदू-मुसलमान दो शत्रु सेनाओं के रूप में आमने-सामने खड़े पाए गए। मध्यकाल हिंदू पराजय का युग और आधुनिक काल हिंदू गौरव की पुनर्स्थापना का युग है। इस प्रकार अपने ही तरीक़े से उपनिवेशवाद का 'विरोध' कर चुकने के बाद वह भारतीय समाज की, जन्मगत पदानुक्रम से जुड़ी बुराई को निशाना बनाने का 'साहसिक' काम करता है---

 

"हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य का सारा ठीकरा उपनिवेश के माथे पर ही नहीं फोड़ा जा सकता। इस वैमनस्य का देसी स्रोत था भारतीय जाति-व्यवस्था। इस्लाम की वैचारिक उपस्थिति और मुसलमानों की भौतिक निकटता जाति-व्यवस्था के सामने एक जीवंत चुनौती की तरह उभरती हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन 'मुसलमानों' द्वारा पराजित 'हिन्दुओं' की कातर प्रार्थना के रूप में दिखाई देता है। हिन्दू-मुसलमान संघर्ष को मध्यकाल के मुख्य द्वंद्व के रूप में रेखांकित करना भारतीय इतिहास लेखन की औपनिवेशिक पद्धति को हिन्दी साहित्य के इतिहास पर लागू करना है। इसका प्रभाव 'दूसरी परम्परा की खोज' करने वाले आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के ऊपर भी है। वे भक्ति आन्दोलन को इस्लाम की चुनौती के समक्ष हिन्दू कोंसिलिडेशन की कोशिश के रूप में देखते हैं। अपनी पुस्तक 'कबीर' में साफ़-साफ़ कहते हैं कि इस्लाम भारतीय जाति-व्यवस्था को मिली पहली गम्भीर चुनौती थी, जिसने हिन्दू समाज को झकझोर दिया था।"

 

इस संदर्भ में देखें तो जाति-व्यवस्था में जो तबक़े वर्चस्व की स्थिति में थे, इस्लाम की मौजूदगी से उन्हें भले ही झटका लगा हो; जो इस शिकंजे को तोड़ना चाहते थे, उन्होंने 'जाति-व्यवस्था को चुनौती देने वाले' इस्लाम को शत्रु नहीं, मित्र शक्ति के रूप में ही देखा था। ताराचंद जैसे इतिहासकारों ने इस मसले पर पथप्रदर्शक काम किया है। स्पष्ट है कि इस प्रसंग में मध्यकाल को उच्चजातीय हिंदू और इस्लाम के टकराव के रूप में तो देखा जा सकता है, हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के युग के रूप में नहीं। लेखक हिंदी का शिक्षक है और इन बहसों से बख़ूबी वाक़िफ़ है। रामचंद्र शुक्ल तो समूचे भक्ति-काव्य को हिंदुओं के पराजित मन की अभिव्यक्ति मानते ही हैं, हजारी प्रसाद द्विवेदी के अपेक्षाकृत बेहतर सूचनात्मक कथन को उद्धृत करने के बावजूद लेखक उसकी व्याख्या आचार्य शुक्ल की औपनिवेशिक लाइन पर ही कर पाता है। सवाल यह है कि 'जाति-व्यवस्था' के मुद्दे को उठाने के बावजूद वह हिंदू-मुस्लिम 'वैमनस्य' के मुद्दे पर ऐसी लीपापोती क्यों कर रहा है। किस चीज़ की पर्दादारी है।


(2) 

 

लेख में आगे हम देखते हैं कि आशुतोष कुमार 'सवर्ण हिंदू' श्रेणी का प्रयोग करते हैं, लेकिन इसके पीछे भी उनका मक़सद कुछ और ही ठहरता है। देखें-

 

(1) "मुसलमान के प्रति सवर्ण हिन्दू की असहजता का कारण यह है कि उसने भारत में प्रवेश करने वाले अन्य जातीय समुदायों की तरह हिन्दू जाति-व्यवस्था में ख़ुद को समाहित नहीं किया। लेकिन मध्यकाल के किसी हिन्दू आचार्य या कवि ने इस चुनौती का उल्लेख नहीं किया। यह असहजता निश्चय ही उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के लेखकों की खोज है।"

(2)"सवर्ण हिन्दू की यह असहजता सवर्ण (अशराफ़) मुसलमान के मन में हिन्दू वर्चस्व के भय में रूपान्तरित हो जाती है। जिन्ना का कथन, कि अगर हिन्दुओं के हाथ में सत्ता आई तो वे मुसलमानों को हमेशा के लिए शूद्र बना देंगे, इसी भय की अभिव्यक्ति है। यह भय कि जातिवादी सवर्ण हिन्दू मुसलमान को म्लेच्छ समझते हैं।"

(3)"भारत की हिन्दू-मुस्लिम समस्या एक स्तर पर सवर्ण हिन्दुओं और अशराफ़ मुसलमानों के बीच की सत्ता प्रतियोगिता थी, जिसे राष्ट्रीय समस्या का रूप दे दिया गया।"

 

ध्यान दें कि पहले पैराग्राफ़ के अनुसार वर्ण-व्यवस्था की पक्षधर शक्तियों के लिए इस्लाम से पैदा हुई कठिनाई का उल्लेख अगर सचमुच किसी मध्यकालीन कवि ने नहीं किया तो यही मानना होगा कि उस समय उन्हें इस्लाम से कोई परेशानी नहीं थी, जैसा कि 'उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के लेखकों' ने खोज निकाला है। अगर यह बात है तो इससे नतीजा यह निकलता है कि तत्कालीन समाज में सवर्ण-अवर्ण बंटवारा वैसा नहीं था जैसा कि पिछली दो शताब्दियों में हम समझते रहे हैं। इस तरह सर्वग्रासी हिंदू एकता की राह खुलती है, और हिंदू-मुस्लिम संघर्ष की थीसिस मज़बूत होती है।

 

दूसरे पैराग्राफ़ में सवर्ण हिंदू की 'असहजता' को सवर्ण मुसलमानों (अशराफ़) के मन में स्वतः ही हिंदू-वर्चस्व के भय के रूप में बदल जाने का ज़िक्र है। इस गुत्थी को समझने की ज़रूरत है। लेखक ने पहले जो कुछ कहा उसका अभिप्राय यह निकला कि सवर्ण हिंदुओं का मुसलमानों से 'झकझोरा जाना' हिंदू-मुस्लिम 'वैमनस्य' का कारण है। यानी सवर्ण हिंदू ही समूचे हिंदू समुदाय का प्रतिनिधि है। अब वह कह रहा है कि सवर्ण मुसलमान (अशराफ़) सवर्ण हिंदू-वर्चस्व की आशंका से ग्रस्त हुआ। इस पैराग्राफ़ में इसके बाद आए 'कथन' से भी पता चलता है कि यहां संदर्भ समूचे मुसलमानों का है। लेकिन लेखक मनमाने तरीक़े से इसे महज़ अशराफ़ तक सीमित करने की घोषणा करता है। पहले सवर्ण हिंदू समूचे हिंदू समुदाय का पर्याय बनकर आया। फिर सवर्ण मुसलमान का समूचे मुसलमानों पर स्वतःसिद्ध दावा लेखक ने कर दिया। इसके बाद मानो किसी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप में परस्पर भय का तबादला सवर्ण हिंदू मानस से सवर्ण मुस्लिम मानस में कर दिया।

 

हिंदू जातिवाद और मुस्लिम डर

 

ज़ाहिर है, यह लेखक की सवर्ण-केंद्रित दृष्टि का ही कमाल है। तत्कालीन समाज में सवर्ण हिंदुओं की नज़र में मुसलमानों और शूद्रों में अगर कोई समानता थी तो वह थी दोनों का अछूत होना। जैसे वह किसी शूद्र के हाथ का छुआ पानी नहीं पीता वैसे ही मुसलमान का छुआ पीने से भी उसके धर्म की हानि होती थी। इस मामले में वह अशराफ़ और ग़ैरअशराफ़ में फ़र्क़ नहीं करता था। यह एक बड़ी और जायज वजह इस आशंका की थी कि अंग्रेजों के जाने के बाद मुसलमानों के साथ हर मामले में शूद्रों जैसा व्यवहार करने की कोशिश हो सकती है। यही नहीं, शूद्र तो हिंदू समाज का अंग थे और अनेक प्रकार से उसकी परम्पराओं और मान्यताओं से जुड़े हुए थे। समय के साथ वे भी मुसलमानों के प्रति सवर्णों के पूर्वाग्रहों में हिस्सा बंटा सकते थे। आज़ाद भारत के इतिहास के अध्ययन से इस आशंका की पुष्टि ही होती है। आज शूद्रों के एक बड़े तबके में ख़ुद को ज़्यादा हिंदू जताने की होड़ दिखाई पड़ती है। ऐसे में, मुस्लिम समुदाय के भय और आशंकाओं को पूरी तरह से अनदेखा किए बिना उनकी मांगों को दोनों समुदायों के ताक़तवर तबकों की सत्ता के लिए प्रतियोगिता कहना संभव ही नहीं है। न्यूनतम लोकतांत्रिक चेतना से भी दूरी बनाए बग़ैर कोई व्यक्ति किसी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति इतना असंवेदनशील नहीं हो सकता। वह भी तब जब वह समुदाय इतिहास के एक नाज़ुक मोड़ पर असुरक्षा की आशंका से जूझ रहा हो।

 

लेखक ने 'जाति-व्यवस्था' को 'हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य' का कारण बताकर कुछ ऐसी मुद्रा बनाई थी मानो वह इन दोनों बुराइयों को एक-दूसरे को मज़बूत करने वाला बताना चाहता हो। जबकि उसके कथन ने व्यावहारिक रूप से सवर्णों को समूचे हिंदू समाज के प्रतिनिधि के रूप में वही हैसियत दे दी, जिसकी वे कामना करते हैं। उसका यह रवैया वर्तमान में, हिंदीभाषी समाज में चल रहे 'जातिवाद-विमर्श' के अनुरूप ही है। हिंदीभाषी समाज में फ़िलहाल जातिवाद के विरोध को ऊंची जातियों के वर्चस्व के विरोध के रूप में नहीं देखा जाता। ऊंची जातियों ने दलित-पिछड़ों के उभार का मुक़ाबला साम्प्रदायिक-चेतना का झंडा बुलंद करके किया है। इस प्रक्रिया में उन्होंने अपने जातिवाद को तो 'वैदिकी हिंसा' की तर्ज पर अमान्य कर दिया है, और दलित-पिछड़ों की संगठित राजनैतिक अभिव्यक्तियों को उनका 'जातिवाद' बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह वैसे ही है जैसे 'गोरों' के रंगभेदी निज़ाम का विरोध करने वाले 'कालों' को ही रंगभेदी ठहरा दिया जाए, क्योंकि वे अपने रंग के आधार पर संगठित होते हैं। इसका नतीजा है कि आज हिंदीभाषी इलाक़े में 'जातिवादी' का विशेषण दलित-पिछड़ों की पार्टियों के लिए आम हो चुका है। ऐसी स्थिति में दिखावे के लिए 'जाति-व्यवस्था' को हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य के लिए ज़िम्मेदार ठहराना और चुपके से बाजी ऊंची जातियों के पक्ष में पलट देना सुविधासंपन्न तबक़ों की जानी-पहचानी रणनीति है।

 

यहां 'जाति-व्यवस्था' के बजाय अगर 'वर्ण-व्यवस्था' को इस वैमनस्य के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता तो बात कुछ और होती। उसे इतनी आसानी से उसके ऐतिहासिक चरित्र से अलगाना संभव न होता। ग़ौरतलब है कि इस लंबे आलेख में लेखक ने सिर्फ़ एक बार 'वर्ण-व्यवस्था' का ज़िक्र किया है, वह भी यह बताने के लिए कि "बराबरी का सन्देश देने वाले इस्लाम ने भारत में अपनी एक स्वतन्त्र वर्ण-व्यवस्था बना ली थी।" अन्य प्रसंगों में एक बार वह बिना नाम लिए इस ऐतिहासिक सचाई के नज़दीक जाता है, लेकिन हमेशा की तरह उसका वास्तविक आशय कुछ और होता है---

 

दुमुंहेपन के नए आयाम

 

"क्या सचमुच ‘भारतीय सभ्यता' जैसी कोई चीज़ थी? अनगिनत जातियों, भाषाओं और संस्कृतियों में विभाजित इस देश में क्या सचमुच कोई ऐसी बात थी, जो इसकी एक साँझा पहचान बनाती हो? क्या भारतीय सभ्यता की 'निरन्तरता' जाति, धर्म, जेंडर और वर्ग जैसी श्रेणियों पर आधारित शोषण के एक ख़ूबसूरत बारीक मकड़जाल का ही दूसरा नाम है? क्या 'भारतीय सभ्यता' एक मिथक मात्र नहीं है, जिसे कथित राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान, ख़ास तौर पर, हिन्दू भद्रवर्गीय बुद्धिजीवियों के द्वारा गढ़ा गया, ताकि उपनिवेश-विरोधी आन्दोलन के शामियाने में अपने लिए स्वायत्तता माँग रहे अल्पसंख्यक और दलित समुदायों को हाशियों तक महदूद रखा जा सके ?"

 

देखा आपने, 'जाति, धर्म, जेंडर' के साथ यहां तक कि 'वर्ग' के आधार पर हुआ शोषण भी आ गया, लेकिन वर्णगत शोषण की याद नहीं आ सकी। अल्पसंख्यकों और दलितों की समर्थक भंगिमा में कहा दरअसल ये जा रहा है कि दलितों और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध किसी भद्रवर्गीय परियोजना की बात करने का मतलब है 'भारतीय सभ्यता' की हक़ीक़त से इन्कार करना। विरोधी विचारों को विकृत करके प्रस्तुत करना उस ब्राह्मणवाद की बहुत पुरानी नीति रही है, जिसकी ख़ुशामद यहां लेखक कर रहा है। कहना होगा कि उसने दुमुंहेपन की पारंपरिक शैली को समयोचित नए आयाम दिए हैं।

 

कांग्रेस और लीग

 

जहां तक तीसरे पैराग्राफ़ में आई सत्ता-प्रतियोगिता का सवाल है, कांग्रेस के लिए भले ही यह अंग्रेजों के जाने के बाद भारत की केंद्रीय सत्ता पर निरंकुश वर्चस्व क़ायम करने की जंग रही हो, लीग के लिए आत्मरक्षा का उपाय ही थी। स्वाधीनता आंदोलन के आरंभिक दौर में मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्रों को लेकर और बाद में प्रस्तावित संघीय व्यवस्था के अंतर्गत मुस्लिमबहुल राज्यों का समूह बनाने को लेकर उनके आग्रह की कोई और व्याख्या नहीं हो सकती। जवाहर लाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में कांग्रेस ने शुरू से ही इन मांगों के प्रति असंवेदनशीलता दिखाई। लेखक का नज़रिया भी ऐसा ही है। बंटवारे जैसे विषय पर बात करते हुए वह किसी भी मामले में अल्पसंख्यकों की चिंताओं को रत्ती भर भी तरजीह नहीं देता और बहुसंख्यकवादी कॉमन सेंस का समर्थन करता है। ऊपर उद्धृत 'जाति-विमर्श' से संबंधित अंशों के तुरंत बाद वह 'आनन्द मठ' को राष्ट्रीय चेतना की प्रमुख अभिव्यक्ति साबित करने के लिए लिखता है-

 

(1)"1876 के आसपास रचे गए और 1882 में ‘आनन्द मठ' उपन्यास में शामिल कर प्रकाशित किये गए गीत 'वंदे मातरम' में भारत माता की परिकल्पना देवी के रूप में की गई थी। इस देवी की छवि बंगाल में प्रचलित दुर्गा या शक्ति से मिलती-जुलती है। उपन्यास में भारतमाता को बंदिनी बनाने वाले आततायी अंग्रेज़ नहीं, मुसलमान ज़मींदार दिखाए गए थे! इन दो कारणों से इस गीत को मुसलमानों के लिए अनुपयुक्त समझा जाता रहा है।" 

(2)"लेखक ने स्वयं इस तथ्य का उल्लेख किया है कि यह उपन्यास संन्यासी विद्रोह पर आधारित था, जो बंगाल में अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हुआ था। उपन्यास में अंग्रेज़ों को निशाना न बनाने का कारण इसके सिवा कुछ और नहीं हो सकता कि सरकारी नौकर होने के नाते लेखक अंग्रेज़ी राज पर सीधा हमला करने से बचना चाहता हो।"

(3)"उपन्यास का समूचा तेवर राजनीतिक है। धार्मिक या साम्प्रदायिक नहीं। उपन्यास और गीत की प्रचंड लोकप्रियता का कारण है : शक्ति की मौलिक कल्पना। बंगालियों की कल्पना में दुर्गा की जगह भारतमाता को बिठा देना असली सांस्कृतिक क्रान्ति थी। यह मुस्लिम विरोधी न थी। इसका सबसे स्पष्ट प्रमाण यह है कि इसमें भारतमाता की सात करोड़ सन्तानों को उनकी शक्ति के स्रोत के रूप में चित्रित किया गया है। उस समय बंगाल की समूची जनसंख्या सात करोड़ के आसपास थी। इसमें हिन्दू-मुसलमान, दोनों शामिल थे। 'वंदे मातरम' राजनीतिक सन्देश और राष्ट्रीय काव्य के रूप में बहुत समय तक हिन्दुओं और मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय रहा।"


 (3)

 

'आनंद मठ' की 'राष्ट्रीयता'

 

आशुतोष कुमार पहले ही भारतीय सभ्यता के अस्तित्व के प्रमाण के रूप में 'वंदे मातरम' की लोकप्रियता का हवाला दे चुके हैं। उनका कहना है कि 'आनंदमठ' नामक उपन्यास में भारत माता को बंदी बनाने वाले अंग्रेज नहीं मुसलमान जमींदार हैं इसलिए इस गीत को मुसलमानों के लिए 'अनुपयुक्त' समझा जाता है। तथ्य यह है कि उपन्यास में शुरू से आख़िर तक मुसलमानों पर हमले संगठित करने और उनकी बस्तियों को जलाने का आह्वान किया गया है। उपन्यास के नायक 'संतानों' की कारस्तानी का एक नमूना देखें:

 

"इसके बाद ये लोग गांव-गांव में अपने गुप्तचर भेजने लगे। पर लोग जहां हिंदू होते थे, कहते थे 'भाई! विष्णु-पुजा करोगे!' इसी तरह बीस-पच्चीस संतान किसी मुसलमान बस्ती में पहुंच जाते और उनके घर में आग लगा देते थे; उनका सर्वस्व लूटकर हिंदू विष्णुपूजकों में उसे वितरित कर देते थे। लूट का भाग पाने पर लोगों के प्रसन्न होने पर उन्हें संतानगण मंदिर में लाकर विष्णुचरणों पर शपथ खिला कर संतान बना लेते थे। लोगो ने देखा कि संतान होने में बड़ा लाभ है।"

 

यह धर्मांध नज़रिया आशुतोष कुमार के लिए क़तई ग़ौरतलब नहीं है। यहां तक कि इस मामले में वे औपनिवेशिक इतिहास-बोध को भी याद नहीं करना चाहते। 'आनंदमठ' को उपनिवेश-विरोधी रचना साबित करने के लिए वे दो तर्क देते हैं--- स्वयं लेखक ने उसे अंग्रेजों के विरुद्ध हुए सन्यासी विद्रोह पर आधारित माना था जिसे अंग्रेजों की जगह मुसलमानों के विरुद्ध चित्रित करने का कारण इसके सिवा कुछ और नहीं हो सकता कि सरकारी नौकर होने के नाते लेखक अंग्रेजी राज पर हमला करने से बचना चाहता है। ठीक है, लेकिन दंगाई हो जाने के अलावा भी नौकरी बचाने का कोई और तरीक़ा हो सकता था या नहीं? अगर यह मान भी लें की यह कृति सन्यासी विद्रोह पर आधारित है तो इससे यह तथ्य कहां बदलता है कि इसमें अंग्रेजों को देवदूतों की तरह देखा गया है, जो शैतान मुसलमानों से छुटकारा दिलाने आए हैं। एक नमूना इसके अंतिम पेज से देखते चलें, जिसे इसके प्रमुख पात्र सत्यानन्द के बहाने सभी पाठकों को दिया गया संदेश कहा जा सकता है:

 

"महात्मा ने कहा---“सत्यानंद कातर न हो । तुमने बुद्धि विभ्रम से दस्युवृत्ति द्वारा धन संचय कर रण में विजय ली है। पाप का कभी पवित्र फल नही होता। अतएव तुम लोग देश-उद्धार नहीं कर सकोगे। और अब जो कुछ होगा, अच्छा होगा। अंगरेजों के बिना राजा हुए सनातन धर्म का उद्धार नही हो सकेगा। महापुरुषों ने जिस प्रकार समझाया है, मै उसी प्रकार समझाता हूं- ध्यान देकर सुनो ! तैंतिस कोटि देवताओं का पूजन सनातन धर्म नहीं है। वह एक तरह का लौकिक निकृष्ट-धर्म, म्लेच्छ जिसे हिंदू धर्म कहते हैं- लुप्त हो गया । प्रकृत हिंदू-धर्म - ज्ञानात्मक कार्यात्मक नहीं। जो अन्तर्विषक ज्ञान है- वही सनातन धर्म का प्रधान अंग है। लेकिन बिना पहले बहिर्विषयक ज्ञान हुए, अन्तर्विषयक ज्ञान असंभव है । स्थूल देखे बिना सूक्ष्म की पहचान ही नहीं हो सकती। बहुत दिनों से इस देश मे बहिर्विषयक ज्ञान लुप्त हो चुका है इसीलिए वास्तविक सनातन धर्म का भी लोप हो गया है। सनातन धर्म के उद्धार के लिए पहले बहिर्विषयक ज्ञान प्रचार की आवश्यकता है। इस देश में इस समय वह बहिर्विषयक ज्ञान नही है- सिखानेवाला भी कोई नही, अतएव बाहरी देशों से बहिर्विषयक ज्ञान भारत में फिर लाना पड़ेगा। अंगरेज उस ज्ञान के प्रकाण्ड पंडित है- लोक शिक्षा में बड़े पटु हैं। अतः अंगरेजों के ही राजा होने से, अंगरेजी की शिक्षा से स्वतः वह ज्ञान उत्पन्न होगा! जब तक उस ज्ञान से हिंदू ज्ञानवान, गुणवान और बलवान न होंगे, अंगरेज राज्य रहेगा। उस राज्य में प्रजा सुखी होगी, निष्कंटक धर्माचरण होंगे।"

 

यह इतिहास-बोध आज भी देश के बहुसंख्यक साम्प्रदायिक मानस का निर्माण करता है। अगर इसके बावजूद किसी को लगता है कि यह उपन्यास उपनिवेशवाद-विरोधी है तो उसका कुछ नहीं हो सकता। सच तो यह है कि यह 19वीं सदी की सर्वाधिक संकीर्ण और सांप्रदायिक रचनाओं में से एक है। अगर इसके बावजूद इसे बंगला नवजागरण और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में अग्रणी जगह मिली तो इससे सिर्फ़ यह पता चलता है कि हमारा राष्ट्रीय आंदोलन अल्पसंख्यकों के मसलों के प्रति किस क़दर असंवेदनशील था।

 

इस उपन्यास के मुस्लिम-विरोधी न होने का एक और तर्क देते हुए लेखक महोदय कहते हैं--- "इसका सबसे स्पष्ट प्रमाण यह है कि इसमें भारत माता की सात करोड़ संतानों को उसकी शक्ति के स्रोत के रूप में चित्रित किया गया है। उस समय बंगाल की आबादी सात करोड़ के आसपास थी। इसमें हिंदू-मुसलमान सब शामिल थे।" ऐसे ही लचर तर्कों के कारण बार-बार यह लगता है कि लेखक का वास्तविक एजेंडा कुछ और ही है। इस तर्क के मुताबिक़ तो आज आए दिन 'एक सौ तीस करोड़ भारतीयों' के नाम पर कसम उठाने वाले राजनेताओं को सच्चा धर्मनिरपेक्ष और देशभक्त मानने से नहीं बचा जा सकता। सीधी-सी बात है कि किसी बड़ी अल्पसंख्यक आबादी के विरुद्ध सांप्रदायिक घृणा का प्रचार करने वाले ऑन द रिकॉर्ड कभी नहीं कहते कि उन्हें उन सभी से समस्या है। वे बस उनके विरुद्ध शंका और अविश्वास फैलाते हैं, और सही साबित होने के लिए उनके सामने कुछ शर्तें रखते हैं। इस तरह वे उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाना चाहते हैं। उनकी आबादी को समूची जनसंख्या से घटा कर वे अपनी संख्यात्मक ताक़त में कमी करना पसंद नहीं करते।

 

वाइज़ का वाज़ छोड़ा

 

'वंदे मातरम' को 1937 में बनी कुछ कांग्रेसी सरकारों ने स्कूलों और दफ़्तरों में अनिवार्य कर दिया था। इसे मुस्लिम लीग ने सरकार की हिंदूवादी प्रवृत्ति का प्रमाण माना था। वजह यही थी कि उसमें देश की कल्पना देवी के रूप में की गई है जिसके सामने सजदा करना मूर्ति पूजा के समतुल्य है। पहले तो आशुतोष कुमार बिना कोई साक्ष्य दिए कहते हैं कि 'वंदे मातरम' राजनीतिक संदेश और राष्ट्रीय काव्य के रूप में बहुत समय तक हिंदुओं और मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय रहा। फिर यह ताना देते हैं कि "लीग के ध्यान में यह नहीं था कि उनके प्रेरणा-पुरुष और अध्यक्ष मुहम्मद इक़बाल भी देश की मिट्टी की वंदना देवता के रूप में कर चुके थे"-

 

"पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है

 ख़ाके वतन का मुझको हर जर्रा देवता है"

 

यानी देवी-देवता की वंदना से परहेज करने की ज़रूरत नहीं है। जब इक़बाल कर चुके हैं तो मुस्लिम लीग को एतराज क्यों होना चाहिए? आइए ज़रा इस नज़्म को फिर से देखें और पता लगाने की कोशिश करें कि इसका आशय क्या सचमुच वही है जो लेखक हमें बताना चाहता है। ये पंक्तियां इक़बाल की मशहूर नज़्म 'नया शिवाला' से ली गई हैं। इनसे पहले की कुछ पंक्तियां देखें जो नज़्म का आरंभिक हिस्सा है-

 

"सच कह दूं ऐ बिरहमन गर तू बुरा न माने

तेरे सनमक़दों के बुत हो गए पुराने

 

अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा

जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने

 

तंग आके मैंने आख़िर दैर-ओ-हरम को छोड़ा

वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने"

 

आशय यह कि धर्म चाहे वह हिन्दू हो या इस्लाम, उसने परस्पर वैरभाव ही बढ़ाया है। इस मामले में 'बुत' और 'ख़ुदा' दोनों की भूमिका यही रही है। इसलिए मंदिर और मस्जिद के साथ साथ 'वाइज़' और 'बिरहमन' के संदेशों की भी उपेक्षा कर देनी चाहिए।

 

लेखक ने जिन पंक्तियों को उद्धृत किया है उसका भी आशय वह नहीं है जो वह बताना चाहता है। यहां शायर महज़ ये कह रहा है कि 'तू जिस देवता को मंदिर और मूर्तियों में खोजता है उसे देश के कण-कण में देख।' कण-कण पर ज़ोर है, देवता पर नहीं। देश की मिट्टी और उसके लोग महत्वपूर्ण हैं। देश की मिट्टी के कण-कण की आराधना करने में किसी देवी-देवता का तसव्वुर नहीं है। इसके बाद की पंक्तियों से यह बात पूरी तरह से साफ़ हो जाती है-

 

"आ ग़ैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें

बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें

 

सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती

आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें"

 

इक़बाल की यह नज़्म बिला शको-शुबहा हिंदू-मुस्लिम के बीच एकता की पुनर्स्थापना के लिए धर्म की दीवारों को गिरा देने के आह्वान तक जाती है। इसका यह अंदाज़ कबीर और मीर की परंपरा के अनुरूप है। लेकिन अगर आशुतोष कुमार की व्याख्या-शैली का सहारा लें तो इसके हवाले से 'देवपूजा' ही नहीं, धर्म में 'पुनर्वापसी' और 'मंदिर-निर्माण' के अभियान का समर्थन भी किया जा सकता है।


(4) 

 

आशुतोष कुमार आगे चल कर 1930 में मुस्लिम लीग की इलाहाबाद कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता करते हुए इक़बाल ने जो प्रसिद्ध भाषण दिया था, उससे एक अंश उद्धृत करते हैं। अंग्रेज़ी से अनुवाद उन्हीं का है-

 

"अगर भारत में सहयोग का कोई असरदार सिद्धान्त तलाश लिया गया तो वह इस प्राचीन भूमि में शांति और पारस्परिक कल्याण-भाव को सम्भव करेगा, ऐसी प्राचीन भूमि जिसने लम्बे समय तक यातना सही है, अपने लोगों की किसी अन्तर्निहित अक्षमता के कारण उतना नहीं जितना इतिहास-परिसर में अपनी अवस्थिति के कारण। और वह सहयोग का सिद्धान्त, लगे हाथ एशिया की समग्र राजनीतिक समस्या को भी हल करेगा।… ऐसा कहने में सचमुच कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि भारत दुनिया का एकमात्र देश है, जहां एक जन-निर्मात्री शक्ति के रूप में इस्लाम ने श्रेष्ठतम कार्य किया है।… भारत के भीतर एक एकीकृत मुस्लिम राज्य की ज़रूरत इसलिए है कि भारतीय इस्लाम को अरबी साम्राज्यवाद के ठप्पे से बचाया जा सके।" इस पर लेखक की कुछ टिप्पणियां देखें:

 

(1)"भारत में संस्कृतियों, भाषाओं, परम्पराओं, जातियों, धर्मों और आस्थाओं की इतनी बहुलता है, और हर इकाई अपनी स्वकीयता को लेकर इतनी आग्रही है कि उन सबकी उन्नति, और सबके साथ भारतीय समग्र की उन्नति केवल पारस्परिक सामंजस्य और सहयोग से ही सम्भव है। विविधता में छुपी हुई किसी एकता की नेहरूवी खोज से उतनी नहीं, जितनी अनेक के इक़बाली, समन्वय से।"

(2)"इक़बाल ने इस भाषण में इस भारतीय कल्पना के जिन दो महान स्वप्नदर्शियों का उल्लेख किया है, वे हैं, कबीर और अकबर । यहीं यह दुःख भी प्रकट किया है कि हम उस स्वप्न को पूरी तरह साकार न कर सके। यह अकारण नहीं है कि इक़बाल ने कबीर का नाम लिया। तुलसीदास का नहीं। जबकि समन्वय की चेष्टा का लोकनायक तो तुलसीदास को कहा गया है। कबीर तो सबको डाँटने-फटकारने वाले माने जाते हैं। हमारे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तो साफ़ कहते थे कि हिन्दुओं और मुसलमानों के हृदयों को जोड़ने का काम कबीर से नहीं सधा। लेकिन कबीर और तुलसीदास की समन्वय-चेष्टा में एक बहुत बड़ा फर्क है। तुलसी का समन्वय पदानुक्रम पर आधारित है, कबीर का बराबरी पर। टिकाऊ समन्वय बराबरी के आधार पर ही हो सकता है। कबीर जिस सहजता से अल्लाह और राम दोनों के नाम ले सकते हैं, तुलसीदास नहीं। तुलसी का समन्वय वर्चस्व की एक व्यवस्था पर आधारित है। सही मायने में, वह समन्वय नहीं, प्रतिपालन यानी 'पैट्रनाइजिंग' है।"

 

तुलसी बनाम कबीर

 

बहुत ख़ूब। ऐसा लगता है कि लेखक ने देर से ही सही मसले को समझने में कुछ कामयाबी पाई है। लेकिन तुरंत ही वह अपने रंग में वापस आ जाता है। पहले वह मानता है कि इक़बाल ने कबीर का उल्लेख भारत के महान स्वप्नदर्शी के रूप में किया तुलसी का नहीं, क्योंकि तुलसी का समन्वय पदानुक्रम पर आधारित है, कबीर का बराबरी पर। टिकाऊ समन्वय बराबरी के आधार पर ही हो सकता है यानी समन्वय समन्वय में भी भेद है। तुलसी वर्ण-व्यवस्था जैसी 'वर्चस्व की एक व्यवस्था' के आधार पर छोटे और बड़े के बीच समन्वय करना चाहते हैं जबकि कबीर वर्ण-व्यवस्था का आक्रामक रूप से खंडन करते हुए मनुष्य मात्र की बराबरी के आधार पर समन्वय के समर्थक हैं। इस प्रकार के समन्वय से पहले की तोड़फोड़ भी रचनात्मक और सकारात्मक है, क्योंकि वह पुरानी जड़ता से हमें बाहर निकालती है। ज़ाहिर है, इक़बाल का संकेत यह भी था कि हिंदू-मुसलमान के बीच बराबरी और सम्मान के आधार पर स्थापित समन्वय ही भारतीय संस्कृत के अनुरूप है। इस आवश्यक विचार-भूमि पर पहुंचकर आशुतोष कुमार का एक बार फिर 'भ्रमित' हो जाना देखें-

 

"युग की विडम्बना यह है कि एक तरफ़ गांधीजी हैं, दूसरी तरफ अल्लामा इक़बाल। दोनों ही समन्वय के महान स्वप्नद्रष्टा। वे आपस में ही समन्वय कायम नहीं कर सके। यह भारतीय इतिहास की एक ऐसी गुत्थी है, जिसे हल किए बिना भारतीय उपमहाद्वीप की भविष्य यात्रा शुरू नहीं हो सकती। विभाजन इस गुत्थी के अनसुलझे रह जाने का परिणाम था। और जब तक यह गुत्थी नहीं सुलझती, हम विभाजन के निरन्तर जारी विनाश-चक्र से मुक्त नहीं हो सकते।"

 

इक़बाल ने अपने व्याख्यान में कबीर और अकबर को महान स्वप्नद्रष्टा कहा था। आशुतोष कुमार ने मोहनदास करमचंद गांधी और इक़बाल को महान स्वप्नद्रष्टा बताया। कबीर की तरह इक़बाल भी समानता और स्वायत्तता का आग्रह कर रहे हैं, जबकि गांधी की भूमिका उनके प्रतिपक्ष की है। वर्ण-व्यवस्था, रामराज्य के आदर्श और 'पेट्रोनाइजिंग' पर आधारित समन्वय; किसी भी पैमाने पर देखें तो गांधी की समानता कबीर के बजाय तुलसी से ही ठहरती है। अब आशुतोष कुमार ने इक़बाल और गांधी के बहाने मानो कबीर और तुलसी का समन्वय न हो पाने को विभाजन का कारण मान लिया है। यह समन्वय क्यों नहीं बन सका, लेखक ने इसकी जो छानबीन की है, वह दिलचस्प है:

 

"इक़बाल अपने समन्वय स्वप्न की पूर्ति के लिए भारत में ख़ास तरह के संघीय गणराज्य की कल्पना करते है, जिसमें एक एकीकृत मुस्लिम बहुल प्रान्त भी होना चाहिए। इस कल्पना की व्यावहारिक झलक कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव में दिखाई देती है। इस प्रस्ताव में मुस्लिम बहुल राज्य दो हो जाते हैं, तीसरा शेष भारत है। इन तीनों का एक परिसंघ बनना है, जिसमें केन्द्र की शक्तियाँ रक्षा, विदेश नीति और संचार तक सीमित रहनी हैं। इस प्रस्ताव पर पाकिस्तान के लिए आन्दोलन करने वाली मुस्लिम लीग तो राजी हो जाती है, लेकिन कांग्रेस सहमति देने के बावजूद दुविधा से मुक्त नहीं हो पाती। दुविधा कुछ और नहीं, केन्द्रीयता और संघीयता के दो सिद्धांतों की है।" 

 

केन्द्रीयता बनाम संघीयता

 

यहां आ कर यह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस और नेहरू का मॉडल केंद्रीयता का था और इक़बाल का संघीयता का। अनेकता में एकता का सिद्धांत अनेकता को एकता के मातहत रखने वाला था, जिसके बरक्स इक़बाल राज्यों की बराबरी पर आधारित संघीय व्यवस्था क़ायम करना चाहते थे। मजबूत केंद्र की अवधारणा एक सामंती-औपनिवेशिक अवधारणा है। आधुनिक जनतांत्रिक युग में तो शक्तियों के विकेंद्रीकरण की दिशा को ही उचित माना जा सकता है। कांग्रेस के नेताओं को 'समन्वय' करना था, लेकिन मजबूत केंद्रवादी व्यवस्था के माध्यम से। संघीय व्यवस्था में कम से कम कुछ राज्यों में अपनी बड़ी संख्या के आधार पर राष्ट्रीय स्तर के अल्पसंख्यकों को भी सत्ता में समुचित भागीदारी का अवसर मिल सकता था। सांप्रदायिक आधार पर बंटे हुए समाज में मतदान से बनने वाली केंद्र सरकार बहुसंख्यक वर्ग के हाथों नियंत्रित होने को अभिशप्त है, जिसकी बानगी हमें बंटवारे और आज़ादी के बाद से ही देखने को मिलती रही है। ज़ाहिर है, उत्तर-पश्चिमी मुस्लिम बहुल राज्यों को मिलाकर एक बड़ा राज्य भारतीय संघ के भीतर ही बनाने की इक़बाल की मांग बहुसंख्यक हिंदू वर्चस्व वाले भारत के अंदर ही एक इलाक़े के मुसलमानों को कुछ सुरक्षा और स्वायत्तता मुहैया कराने की कोशिश से अधिक कुछ नहीं थी।

 

इक़बाल के इस सुझाव की दूरदर्शिता और प्रासंगिकता को इस बात से समझा जा सकता है कि ढेरों कसरत के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा 1946 में अब तक के सर्वाधिक अधिकार-संपन्न अभियान के रूप में भेजे गए कैबिनेट मिशन ने भी इसी दिशा में भारत के साम्प्रदायिक प्रश्न को हल करने की कोशिश की। इसे हम अनिवार्य समूहीकरण की योजना के नाम से जानते हैं। आइए देखें आशुतोष कुमार इस बारे में क्या कहते हैं--- "विभाजन के दस्तावेजों को देखने से पता चलता है कि लीग और कांग्रेस के बीच सबसे बड़ी फाँस प्रान्तों के अनिवार्य समूहीकरण के बारे में थी। कांग्रेस को लगता था कि यह प्रान्तीय स्वायत्तता का निषेध है। प्रान्तों के पास अपना समूह चुनने का विकल्प होना चाहिए। उसे उम्मीद थी कि अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान का उत्तर पश्चिम सरहदी प्रान्त किसी मुस्लिम समूह का हिस्सा नहीं, बनना चाहेगा।"

 

राज्यों के अनिवार्य समूहीकरण की योजना कैबिनेट मिशन प्रस्ताव का एक अंग थी। इसके मुताबिक़ एक भारतीय संघ के अंतर्गत सभी राज्यों को तीन समूहों में बांटा जाना था। एक समूह में पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत था। दूसरे में बंगाल और असम था। तीसरा समूह शेष राज्यों का था। इसमें पहले दो समूहों में मुसलमानों की आबादी इतनी थी कि वे संविधान सभा के लिए होने वाले चुनाव में निर्वाचित होने की, या कभी बहुमत में आने की भी आशा कर सकते थे। इसके बाद वे राज्य अपने लिए संविधान के प्रावधान बना सकते थे, या अपने समूह से बाहर होने के लिए भी नवनिर्वाचित विधानसभा के बहुमत से फैसला कर सकते थे। इस तरह उन राज्यों के मुसलमानों को बराबरी की हैसियत मिल सकती थी, और किसी प्रकार के दबाव के बिना वे अपना सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन बिता सकते थे। कांग्रेस ने लीग की दो प्रमुख मांगों 'सरकार में समान भागीदारी' और 'भारतीय मुसलमानों के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में लीग की मान्यता' को पहले ही ठुकरा दिया था। ऐसे में 'समूहीकरण' के प्रस्ताव के आधार पर ही मुहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान की मांग से पीछे हटे थे, लेकिन कांग्रेस और नेहरू को यह मंज़ूर नहीं था। वे हमेशा से मज़बूत केंद्र के ब्रिटिश-औपनिवेशिक मॉडल के समर्थक थे। इसी वजह से वे सिर्फ़ रक्षा, विदेश और संचार विभागों को संघीय सरकार के अंतर्गत रखने और अवशिष्ट शक्तियां राज्यों को देने की संघीय योजना का विरोध कर रहे थे। इस योजना को असफल करने के लिए ही उन्होंने प्रांतीय स्वायत्तता के समर्थक का बाना धारण किया था। 


(5)

 

कांग्रेस ने उत्तर पश्चिमी सरहदी प्रांत के नाम पर प्रांतीय स्वयत्तता का जो झंडा बुलंद कर कैबिनेट मिशन की संघीय योजना का विरोध किया था, और इस तरह एकीकृत भारत की अंतिम संभावना को भी नष्ट कर दिया था, उसकी असलियत पर एक नज़र डालना उपयोगी होगा-

 

स्वतंत्र पख़्तूनिस्तान का सवाल

 

मुस्लिम बहुल उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत के मुद्दे को कांग्रेस ने जोर-शोर से उठाया क्योंकि वहां अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। लेकिन इस मुद्दे के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और ईमानदारी का पता इस बात से चलता है कि जब देश के बंटवारे का प्रस्ताव आया तो उन्होंने अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान के तमाम विरोध के बावजूद उनके प्रांत के भविष्य के निर्णय के लिए जनमत-संग्रह को स्वीकार कर लिया। इससे पहले वे भारत या पाकिस्तान में आए किसी एक को चुनने के लिए किसी भी राज्य की जनता की राय लेने के किसी भी तरीक़े के पूरी तरह ख़िलाफ़ थे। इस मामले में उन्होंने सहमति के साथ यह शर्त भी लगा दी थी कि भारत या पाकिस्तान के अलावा किसी तीसरे विकल्प की बात जनमत संग्रह में नहीं होगी। ग़ौरतलब है कि कुछ ही समय पहले बंटवारे की मांग का विरोध करके, इसी मुद्दे पर हुए चुनाव में लीग को हराकर कांग्रेस वहां सत्ता में आई थी। अब जबकि उसने ख़ुद ही बंटवारे को स्वीकार कर लिया था तो यह प्रांत भारत में रहेगा या पाकिस्तान में, इस मुद्दे पर होने वाले जनमत-संग्रह में लीग को हराना नामुमकिन था। अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान जनमत संग्रह की दशा में स्वतंत्र पख़्तूनिस्तान का विकल्प चाहते थे, लेकिन उसे कांग्रेस ने वीटो कर दिया, क्योंकि माउंटबेटन ऐसा ही चाहते थे। अन्य राज्यों में विधानसभा के बहुमत के आधार पर भारत या पाकिस्तान का निर्णय हुआ लेकिन उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत के मामले में इसे पलट दिया गया। स्पष्टतया ये भेदभाव का मामला था और कांग्रेस अगर इस पर अड़ती तो यह प्रान्त भारत के साथ बना रह सकता था। यह अकेला मुस्लिम-बहुल प्रान्त था जहां दो बार कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी, लेकिन अब कांग्रेस की रुचि 'सीमांत गांधी' के प्रांत में ख़त्म हो चुकी थी। इस घटनाक्रम पर अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान की आत्मकथा 'मेरा जीवन मेरा संघर्ष' (नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली) से उनका एक वक्तव्य देखें:

 

"जिस समय लार्ड लुई माउंटबेटन और काँग्रेस के प्रमुखों के मध्य में हमारे ऊपर सौदा हुआ, सौदा इस पर हुआ कि लार्ड माउंटबेटन ने उनसे कहा कि मैं पंजाब और बंगाल आपको तकसीम कर दूंगा, परन्तु आप इसके बदले सूबे-सरहद को छोड़ दीजिये और वहाँ जनमत स्वीकार कीजिये। फिर तीन जून 1947 को हिन्दुस्तान विभाजन की घोषणा कर दी गयी और यह भी कहा कि सरहद में लोगों से पूछेंगे, मगर आप तो इन अँग्रेजों के इस ज़ुल्म और बेइन्साफ़ी को देखिये कि पंजाब तक़सीम कर देंगे, बंगाल तक़सीम कर देंगे, वहाँ लोगों से नहीं पूछेंगे, बल्कि असेम्बली से पूछेंगे और यहाँ हमारे सूबे-सरहद में असेम्बली से कोई प्रश्न नहीं करता है और लोगों से पूछेंगे। हाल यह है कि हमारे चुनाव तो महीने पहले हिन्दुस्तान और पाकिस्तान पर हो चुके थे, लोगों ने तो राय दे दी थी, दोबारा कुछ क्या आवश्यकता थी? यदि काँग्रेस के प्रमुखों ने हमारे साथ बेवफ़ाई नहीं की होती और विभाजन के विषय को माना नहीं होता तो सूबे सरहद में हिन्दू, सिक्खों और हमें इतना जान-माल का नुकसान न होता और न हिन्दू, सिक्ख इतने तबाह और बर्बाद हुए होते।" (पेज 545)

 

इस समूचे प्रकरण का महत्वपूर्ण लेकिन ओझल कर दिया गया पहलू यह है कि तीन चौथाई से अधिक हिंदू आबादी वाले, धार्मिक आधार पर वर्गीकृत देश में मतदान से बनने वाली केंद्र सरकार में हिंदुओं का वर्चस्व की स्थिति में आना लगभग तय था। इसीलिए कांग्रेस मज़बूत केंद्रवादी व्यवस्था की मांग करती थी और लीग स्वायत्त राज्यों के संघीय ढांचे की। यही वास्तविकता थी जिस पर पर्दा डाल कर कांग्रेस अपनी कथित सैद्धांतिक राजनीति कर रही थी। 1937 के चुनाव के बाद बनने वाली सरकारों में, ख़ास तौर पर यू.पी. में जिस तरह उसने मुस्लिम पक्ष को विरोध में धकेला था, और पूरी तरह से हिंदुओं की सरकार का नेतृत्व किया था, उससे देश के मुसलमानों के मन में जो आशंका पैदा हुई थी उसे अनुचित नहीं कहा जा सकता।

 

बहरहाल, हमारे सामने इक़बाल, नेहरू और पटेल के वक्तव्यों के अध्ययन के साथ-साथ आशुतोष कुमार के वक्तव्यों के अध्ययन का अतिरिक्त कार्यभार भी है। यह समझना आवश्यक है कि इतिहास के सर्वविदित तथ्यों को इक्कीसवीं सदी में हिंदी का एक लेखक जब बंटवारे के सन्दर्भ में प्रस्तुत करता है तो उसके कंडीशंड दिमाग़ में कौन सी चीज़ें सक्रिय होती हैं। कैबिनेट मिशन योजना से जुड़े घटनाक्रम पर देखें उनका क्या कहना है:

 

"गांधीजी और जिन्ना दोनों ने साफ़-साफ़ क़बूल किया कि उस वक़्त के हालात में अंग्रेज़ों से इससे बेहतर कुछ पाने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। लीग के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने भी, भीषण अन्दरूनी वाद-विवाद के बाद, भारी बहुमत से इसे मंजूर कर लिया। यह एक ऐसा क्षण था, जो टिका रह जाता तो भारतीय अवाम की सारी जद्दोजहद और कुर्बानियों को सार्थकता मिल जाती। एशिया में एकजुट आजाद भारत का उदय होता तो मनुष्यता की नियति कुछ और होती। लेकिन नियति के साथ जो हमारा समझौता था, उसमें ये शर्त शामिल नहीं थी। 

 

नियति की नीयत

 

7 जुलाई को कांग्रेस कमेटी की बैठक के बाद 10 जुलाई को जवाहर लाल नेहरू ने एक प्रेस कांफ्रेंस की। इस कांफ्रेंस में दिया गया नेहरू जी का वक्तव्य विभाजन और आज़ादी के इतिहास का सबसे विवादास्पद वक्तव्य साबित हुआ। नेहरू ने कहा कि कैबिनेट मिशन प्रस्ताव को मंजूर कूर संविधान सभा में जाने फ़ैसले का यह मतलब नहीं कि कांग्रेस ने उसकी सम्पूर्ण योजना को अन्तिम रूप से स्वीकार कर लिया है। यह एक रहस्य है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के स्पष्ट फैसले के बाद संशय उपजाने वाला यह वक्तव्य किसके दबाव में और क्यों जारी किया गया।"

 

साफ़ ज़ाहिर है कि नेहरू ने कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव पर लीग और कांग्रेस की कार्यसमितियों में बाक़ायदा प्रस्ताव पास करके दी गई सहमति को सबोटाज करने के लिए सिर्फ़ तीन दिन बाद मुंबई में यह वक्तव्य दिया था। अपनी पार्टी में बंटवारे के विरोध में बहुमत होने के कारण वे कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव के समर्थन को नहीं रोक सके लेकिन आगामी कांग्रेस अध्यक्ष और गांधी के घोषित उत्तराधिकारी के रूप में अपने प्रभाव का दुरुपयोग करते हुए उन्होंने एक ऐसा वक्तव्य दिया जिसने मुस्लिम लीग के कट्टर बंटवारा समर्थक तत्वों को मज़बूती दे दी। पाकिस्तान की मांग के रूप में शेर की सवारी कर रहे जिन्ना ने पहले ही बमुश्किल अपने समर्थकों को बंटवारे की मांग से पीछे हटने के लिए मनाया था। इसके बदले में उनके पास कैबिनेट मिशन का यह आश्वासन था कि पंजाब और बंगाल जैसे राज्यों के साथ कुछ और राज्यों को मिलाकर वह राज्यों के दो समूह बनाएंगे जिनमें मुसलमानों को स्वायत्तता और समुचित भागीदारी मिल सकेगी। कांग्रेस की आपत्ति इसी प्रावधान पर थी और नेहरू ने भी इसे ही कैबिनेट मिशन प्रस्ताव के विरोध का बहाना बनाया। नतीजे में जिन्ना ने भी पुनर्विचार की घोषणा की, और कैबिनेट मिशन प्रस्ताव कूड़ेदान में चला गया।

 

अब ज़रा इस प्रकरण पर आशुतोष कुमार का रुख़ देखें। वे संभवतः किसी जासूस की सेवाएं लेना चाहते हैं, ताकि यह पता लगा सकें कि नेहरू ने मुंबई में वह वक्तव्य 'किसके दबाव' में जारी किया। मानो नेहरू कोई बच्चे थे जो किसी न किसी के दबाव में इस तरह की घोषणाएं कर दिया करते थे। क्या ही मज़े की बात है कि नेहरू की तमाम कारस्तानियों के लिए हमेशा कोई न कोई बलि का बकरा खोजने की क़वायद होती रही है। राममनोहर लोहिया ने अपनी किताब 'भारत विभाजन के गुनहगार' में इस पक्ष पर काफी प्रकाश डाला है। आशुतोष कुमार भी यहां इसी सत्ताभिमुख परंपरा का पालन कर रहे हैं।

 

ध्यान दें तो पाएंगे कि कैबिनेट मिशन पर सर्वसम्मति के रूप में इक़बाल की मृत्यु के आठ साल बाद गांधी के साथ उनका वह 'समन्वय' बन गया था, जिसके न बन पाने को आशुतोष कुमार विभाजन का कारण बता चुके हैं। उस 'समन्वय' को नष्ट करने का काम नेहरू ने किया। इस तथ्य की अनुगूंज लेखक के उपरोक्त वक्तव्य में आए इस कथन में झलकती है कि 'नियति के साथ जो हमारा समझौता था, उसमें ये शर्त शामिल नहीं थी।' साफ़ तौर पर इसमें आज़ादी की अर्धरात्रि में दिए गए नेहरू के भाषण में आए शब्दों 'ट्राइस्ट विद डेस्टिनी' की तरफ़ संकेत है। लेकिन यहां तक आकर भी नेहरू की भूमिका पर लीपापोती करके दूसरों को ज़िम्मेदार बताने के लेखक के कृत्य से पता चलता है कि वह जानबूझकर लोगों की आंख में धूल झोंकने निकला है, और 'भारतीय अवाम की कुर्बानियों की सार्थकता', 'एशिया की एकजुटता' और 'मनुष्यता की नियति' के बारे में केवल लफ़्फ़ाज़ी कर रहा है।

 

आगे देखें: "स्वाधीनता संग्राम के सभी नेतागण इस विषय में या तो गहरी दुविधा के या अंतर्विरोधी विचारों के शिकार थे। इस दुविधा की सबसे हैरतअंगेज झलक 'फ्रीडम ऐट मिडनाइट' के प्रसिद्ध लेखक लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियर द्वारा लिए गए लार्ड माउंटबेटन के एक इंटरव्यू से मिलती है। इस इंटरव्यू में माउंटबेटन ने विभाजन का ठीकरा सबसे ज्यादा जिन्ना और फिर सरदार पटेल के माथे फोड़ने की कोशिश की है। माउंटबेटन ने कहा है कि उन्होंने आखिरी दम तक भारत को एक रखने के लिए जिन्ना को मनाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे।" आगे चलकर उसी पेज पर वे यह प्रश्न भी करते हैं कि "क्या इस विवरण के आधार पर माना जा सकता है कि वायसराय का यह दावा सही है कि विभाजन के लिए मुख्य रूप से जिन्ना ही ज़िम्मेदार थे?"

 

सुविधा का तर्क दुविधा की भाषा

 

किसी ने ठीक कहा है कि सुविधा का तर्क दुविधा की भाषा में दिया जाता है। परंपरागत राष्ट्रीय आख्यान के अनुरूप शक की तमाम सूइयों को 'खलनायक' जिन्ना की तरफ़ मोड़ देने के बाद 'कोई कुछ भी माने' कह कर लोगों को अपने नतीजे ख़ुद निकालने की वे मानो छूट-सी देते हैं। यह ऐसा ही है कि एक के अलावा सभी रास्तों को बंद करके कहा जाए कि कोई किधर भी जाए। बहरहाल, इस कुशल घेराबंदी में भी कुछ न कुछ दरारें छूट जाती हैं जिससे सचाई बाहर आ जाती है। विभाजन के हमारे राष्ट्रीय आख्यान का जिन्ना के अलावा दूसरा पारंपरिक खलनायक अंग्रेज है जिसने जाते-जाते भारत को विभाजित कर दिया। आशुतोष कुमार भी इसमें किसी से पीछे नहीं रहना चाहते:

 

"कोई कुछ भी माने, लेकिन इस विवरण से खुद माउंटबेटन की भूमिका बहुत साफ हो जाती है। विभाजन के लिए सबको राजी करने का काम खुद वायसराय ने किया। इस काम में उन्होंने-अपनी सारी शक्ति और मेधा, जितनी उनके पास थी, झोंक दी। इसी इंटरव्यू में वे अपनी इस प्रतिभा की प्रशंसा करने से भी नहीं चूकते। प्रतिभा से ज्यादा उनके पास 'राज' का बल था। भारत के बंटवारे का मुख्य श्रेय उन्हें और उनके ब्रिटिश राज के सिवा किसी और को दिया जाए, यह इतिहास के साथ नाइंसाफी होगी।"

 

ज़ाहिर है, आशुतोष कुमार कम से कम इतिहास के साथ ऐसी नाइंसाफ़ी नहीं होने देंगे। जिस व्यक्ति को वे बंटवारे का 'मुख्य श्रेय' दे रहे हैं, वह अगर 'विभाजन का ठीकरा सबसे ज्यादा जिन्ना और फिर सरदार पटेल के माथे फोड़ने की कोशिश करता है' तो उसकी हरकत संदिग्ध मानी जाएगी। लेकिन अपने विश्लेषण में वे भी इसी नतीजे पर पहुंचते हैं। उनके लेख की शुरूआत में ऐसा लगा था कि वे 'जिन्ना, नेहरू, पटेल और माउंटबेटन के इर्दगिर्द घूमने वाली' तथाकथित राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग कुछ कहना चाहते हैं। लेकिन अब जाकर पता चला कि यह भूमिका सिर्फ़ हबीब जालिब और पाकिस्तान के लोगों को दी गई थी। अगर वे अपने हुक्मरानों का पर्दाफ़ाश करते हैं तो उनकी तारीफ़ की जाएगी। भारत के लोगों को इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। शायद यही वह 'कवि की अंतर्दृष्टि' है जिसकी मांग उन्होंने की थी।

 

 

(6)

 

प्रतिगामी तत्वों का ज़िम्मा

 

बहरहाल, इतनी कसरत के बावजूद कांग्रेस की भूमिका से पूरी तरह इनकार करना संभव नहीं था, इसलिए उसके प्रतिगामी तत्वों को इसका जिम्मा दे दिया गया है। 1946 में फूट पड़ने वाले किसानों, मज़दूरों, सैनिकों और कर्मचारियों के आंदोलनों को याद करते हुए आशुतोष कुमार लिखते हैं: "लीग और कांग्रेस के समझौते में ऐसी भी कोई असम्भव बाधा नहीं थी। अगर कुछ और समय, मिलता तो कामगारों, मजदूरों और नौजवानों के आन्दोलनों के दबाव में उन्हें समझौता करना ही पड़ता। लेकिन इस सूरत में कांग्रेस और लीग के नवपूँजीवादी और सामन्ती तत्वों को राष्ट्रीय नेतृत्व में मजदूरों-कामगारों को भी जगह देनी पड़ती। यहीं वह सम्भावना थी जिससे उपनिवेशियों के साथ-साथ कांग्रेस और लीग का नेतृत्व भी भयभीत था।"

 

जहां तक लीग का प्रश्न है तो बंटवारे की मांग उसी की थी, और वह उस दौर में, जिसकी बात लेखक कर रहा है, एक बार पीछे हटने के बाद फिर उसी मांग पर वापस आ चुकी थी। उसका जो भी स्टैंड था उसके लिए वह सामुहिक रूप से ज़िम्मेदार है। बंटवारे के संदर्भ में उसके प्रतिगामी या अग्रगामी, किसी तत्व की अलग से कोई प्रासंगिकता नहीं है। यह नया उद्घाटन कांग्रेस के 'प्रतिक्रियावादी' तत्वों के बारे में है।

 

आशुतोष कुमार अपने इस संकेत को आगे और स्पष्ट करते हैं: "पटेल विभाजन के माउंटबेटन प्रस्ताव पर राजी होने वाले पहले भारतीय नेता थे। वे इस प्रस्ताव की घोषणा के समय भी माउंटबेटन के साथ थे। 14 जून, 1947 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की उस बैठक की अध्यक्षता भी पटेल ने ही की थी जिसमें विभाजन की योजना को मंजूरी दी गई थी। माउंटबेटन पटेल की उपमा अखरोट से दिया करते थे, जिसका छिलका बहुत कठोर होता है, गरी मुलायम होती है।"

 

आगे वे इस मीटिंग में दिए पटेल के अध्यक्षीय भाषण का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं: "यह देखना कम हैरतअंगेज नहीं है कि सरदार केवल पाकिस्तान के प्रस्ताव को ही नहीं, एक तरह से उसके पीछे की 'टू नेशन थियरी' को भी मंजूर करते लग रहे हैं। और भी हैरतअंगेज यह देखना है कि बँटवारे की बात इस तरह की जा रही है जैसे मातृभूमि नहीं, कोई जागीर बँट रही हो। हम अपने अस्सी फीसद को सँभालेंगे, बाक़ी का जो करना हो, लीग करे! ...प्रस्ताव के समर्थन में महात्मा गांधी और पंडित नेहरू के वोट भी थे। उन्हें मनाने का काम जैसा कि मौलाना अबुल कलाम आजाद कहते हैं सरदार ने किया था।"

 

सफ़ेद झूठ से बदतर

 

ज़ाहिर है कि कांग्रेस के अंदर बंटवारे के तरफ़दार की खोज सरदार पटेल तक जाकर पूरी हुई है। नेहरू को गांधी के साथ अलग खाने में रख दिया गया है, जो हमेशा की तरह किसी ने किसी के दबाव में 'मना लिए जाने' को बाध्य हो जाते हैं। तथ्यों की इस तरह की प्रस्तुति एक अर्धसत्य की ओर ले जाती है, जो सफ़ेद झूठ से भी बदतर है। सच तो यह है कि नेहरू और पटेल दोनों बंटवारे के उत्साही समर्थक हो चुके थे। पटेल खुला खेल खेलते थे इसलिए उनकी पोजीशन पहले ज़ाहिर हो जाती थी। नेहरू ने जब कैबिनेट मिशन प्रस्ताव को पलीता लगाया था तो पटेल ने उसकी आलोचना करते हुए उसे 'भावनात्मक पागलपन' कहा था। नेहरू माउंटबेटन के बेहद निकट संपर्क में थे। हालत ये थे कि दूसरे नेताओं और पार्टियों को दिखाने से पहले माउंटबेटन अपने तमाम प्रस्तावों को गुप्त रूप से नेहरू को दिखाकर उनमें आवश्यक संशोधन कर लिया करते थे ताकि वे नेहरू के समर्थन के प्रति आश्वस्त हो सकें। पटेल को बंटवारे के पक्ष में लाए बिना उन दोनों का काम नहीं चल सकता था। इधर पटेल भी नेहरू की सहमति के ठोस आश्वासन के बग़ैर बंटवारे का समर्थन करने का जोखिम नहीं उठा सकते थे। वे दोनों मिल कर ही गांधी को इस मुद्दे पर झुका सकते थे, जैसा कि उन्होंने किया भी। अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी किताब में बहुत सी ऐसी बातें लिखी हैं जो प्रकट रूप में नेहरू की आलोचना करते हुए भी किसी और के दबाव में काम करने वाले व्यक्ति के रूप में उन्हें लगभग दोषमुक्त कर देती हैं। ध्यान रहे कि अबुल कलाम आज़ाद बंटवारे और आज़ादी के बाद भी नेहरू के घनिष्ठतम सहयोगी बने रहे। नेहरू से संबंधित उनकी राय इतनी विश्वसनीय नहीं हो सकती, जितनी कि सत्ता के विरोध का रास्ता चुनने वाले लोहिया की। उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति की उस बैठक का भी उल्लेख किया है जिसमें विभाजन का प्रस्ताव पास हुआ था। उस बैठक में लोहिया मौजूद थे। वे बंटवारे के प्रति नेहरू-पटेल के घोषित समर्थन पर गांधी की शिकायत का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-

 

"मैं खासकर चाहूँगा कि उन दो बातों की चर्चा करूँ जिन्हें उस बैठक में गाँधीजी ने कहा था, हल्की शिकायत की मुद्रा में (कि) श्री नेहरू और सरदार पटेल ने उसकी सूचना नहीं दी। और इसके पहले कि गाँधीजी अपनी बात पूरी कह पाते, श्री नेहरू ने तनिक आवेश में आकर बीच में उन्हें टोका और कहा कि उनको वे पूरी जानकारी बराबर देते रहे हैं। महात्मा गाँधी के दुबारा दोहराने पर कि उन्हें विभाजन की योजना के बारे में जानकारी नहीं थी, श्री नेहरू ने अपनी पहले कही बात को थोड़ा-सा बदल दिया। उन्होंने कहा कि नोआखाली इतनी दूर है और कि वे उस योजना के बारे में विस्तार से न बता सके होंगे, उन्होंने गाँधीजी को विभाजन के बारे में मोटे तौर पर लिखा था।" (पृष्ठ 28)

 

"इस बैठक में श्री नेहरू व सरदार पटेल, गाँधी जी के प्रति आक्रामक रोष दिखाते रहे। उन दोनों के साथ मेरी कई तीखी झड़पें भी हुईं। उनमें से कुछ की मैं चर्चा करूँगा। उस समय जो बात आश्चर्यजनक लगी और आज भी लगती है, यद्यपि आज मैं उसे कुछ अच्छी तरह समझ सकता हूँ, वह थी अपने अधिष्ठाता के प्रति उसके दो प्रमुख चेलों के अत्यधिक अशिष्ट व्यवहार की। इस बात में कुछ मनोविकार था। ऐसा लगता था कि वे किसी चीज पर ललचा गए थे और जब उन्हें लगा कि गाँधीजी उनके लिए रुकावट बन रहे थे तो वे चिढ़कर जोरों से भौंकने लगे।" (पृष्ठ 29-30)

 

स्पष्ट है, गांधी को मनाया नहीं गया था। उन्हें कार्यसमिति में नेहरू और पटेल ने बंटवारे का समर्थन करने के लिए विवश किया था। बदले में वे इतना ही कह सके थे कि सिद्धांत रूप से इसे स्वीकार करने के बाद अंग्रेजों की मध्यस्थता के बिना कांग्रेस और लीग को आपस में इसके ब्यौरों को तय कर लेना चाहिए। लोहिया ने अपनी किताब में इसे बड़ा दूरदर्शी प्रस्ताव माना है जो बंटवारे को टाल सकता था। लेकिन वास्तव में यह, एक बार फिर, अल्पसंख्यक तबक़ों में घर कर गई आशंकाओं को समझने में नाकाम प्रस्ताव था। लीग की सारी समस्या ही यह थी कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद वे कांग्रेस पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे। कांग्रेस ने हर क़दम पर वह सब कुछ किया था जो उनकी आशंकाओं की पुष्टि कर सकता था। यह प्रस्ताव अगर मान लिया जाता तो यह भी उसमें से एक ही साबित होता।

 

कहने का आशय यह है कि राष्ट्रों के भाग्य का फ़ैसला करने वाले मुद्दों और इतिहास की अनसुलझी गुत्थियों के बारे में लिखते समय सत्य को ही अपना एकमात्र पथप्रदर्शक मानना चाहिए। वह किसके पक्ष में जाएगा, और उसका कौन अपने पक्ष में इस्तेमाल करेगा, इसकी चिंता करने का काम चतुरसुजान लोगों के लिए छोड़ देना चाहिए।

 

इसके बाद बस एक बात कहने की और रह जाती है कि सत्य पर किसी का आधिपत्य नहीं है, न हो सकता है। इसलिए हर विचार को सुनने और उससे लोकतांत्रिक ढंग से पेश आने का कोई विकल्प नहीं है। हमारे देश की ज़्यादातर समस्याओं की जड़ हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में है। हम उसे आज़ादी का आंदोलन कहते हैं, लेकिन वह बंटवारे का आंदोलन साबित हुआ था। अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि हमारे इतिहासकारों ने देश की साम्प्रदायिक समस्या पर ईमानदारी से बात नहीं की है। उनका रवैया कड़वी सचाइयों का सामना होने पर शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर छुपा लेने का रहा है। इस तरीक़े को बदलना होगा। सचाई की खोज में निष्कवच और बेध्य होकर जाना होगा। तभी हम अपनी महान सभ्यता पर छाए विनाश के बादलों का सामना कर पाएंगे, जिसकी चेतावनी इक़बाल ने बहुत पहले दी थी-

 

"वतन की फ़िक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है

तेरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में

 

ज़रा देख उसको जो कुछ हो रहा है होने वाला है

धरा क्या है भला अहद-ए-कुहन की दास्तानों में

 

ये ख़ामोशी कहाँ तक लज़्ज़त-ए-फ़रियाद पैदा कर

ज़मीं पर तू हो और तेरी सदा हो आसमानों में

 

न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो

तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में"


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