कोकार्दा सावित्री की इंडोनेशियाई कहानी 'कोख', हिन्दी अनुवाद - श्रीविलास सिंह
कोकार्दा सावित्री |
सरकारों के खिलाफ अक्सर उनके देश में ही कोई न कोई आन्दोलन या विद्रोह चलते रहते हैं। इस क्रम में उसे किसी छोटी से छोटी बात में भी षड्यंत्र महसूस होने लगता है। और अगर सरकार को ऐसा महसूस हो गया तो उस व्यक्ति के प्रति की जाने वाली करवाई का अनुमान भर लगाया जा सकता है। आज पहली बार प्रस्तुत है कोकार्दा सावित्री की इंडोनेशियाई कहानी 'कोख'। इस कहानी को हिन्दी में अनुवादित किया है श्रीविलास सिंह ने। उन्होंने इसका अनुवाद जान एच. मैकग्लेन के अंग्रेजी अनुवाद से किया है।
कोख
कोकार्दा (कोक) सावित्री
(इंडोनेशियन कहानी जॉन एच मैकग्लेन के अंग्रेजी अनुवाद से)
हिंदी अनुवाद : श्रीविलास सिंह
मेरा नाम नागरी है। उम्र तीस वर्ष। स्पष्टीकरण देने की कोई आवश्यकता नहीं; जैसा मैं समझती हूँ।
..... उस रात, स्नान के बाद मेरे बाल अभी गीले ही थे, जब मैंने अपने किराये के कमरे के दरवाज़े पर जोर की दस्तक की आवाज़ सुनी। तीन आदमी मुझे लेने के लिए आये थे। बाहर की ओर खड़ी हुई जीप को देख कर; उसके इंजन की साँझ की हवा से भी हलकी आवाज़ सुन कर; और उनके विनम्र किंतु दृढ़ स्वरों से मैं जान गयी थी कि क्या होने जा रहा है।
वे तीन व्यक्ति मुझे एक ठंडी सी इमारत, जिसका फर्श फिसलन भरा था, में ले कर गए। एक लम्बा गलियारा आमने सामने बने पाँच या उससे अधिक कमरों को अलग करता था। छत इतनी अधिक ऊँची थी कि जब मैं हाल में चल रही थी अथवा तब भी जब मैं स्वयं से फुसफुसा रही थी, दीवारें आवाज़ को विचित्र गूँज के रूप में प्रतिध्वनित करती थी। वह जगह किसी त्याग दिए गए मोटेल जैसी लग रही थी।
मैं एक खुले हुए दरवाज़े के सामने पहुंची। बिना बोले, तीनों व्यक्तियों ने अपने हाथों से मुझे भीतर प्रवेश करने का संकेत किया। मैं जब द्वार को, यह अनुमान लगते हुए कि किस प्रकार के कमरे में मैं हूँ, पार कर रही थी, मुझे किसी विचित्र सी बात की अनुभूति हुई।
कमरे में लोहे और लकड़ी की बनी हुई एक मेज थी- अधिक बड़ी नहीं किन्तु बहुत अधिक छोटी भी नहीं- जिसके दोनों ओर दो दो कुर्सियां रही थी। दीवार पर एक विशाल घडी थी जिसकी एक सुई बीत रहे सेकेंड्स के बारे में बता रही थी, जिसके कारण मेरे ह्रदय का सिकुड़ना और भी तीव्र हो गया। हवा में धूल की गंध भरी थी जिससे मेरे गले में तकलीफ सी होने लगी।
मेरे पीछे दरवाजा तेज हवा के झोंके के साथ बंद हुआ जिससे मुझे महसूस हुआ मानों मैं किसी दलदल की ओर धकेली जा रही हूँ। मेरी गर्दन अकड़ गयी। मेरा सिर भारी महसूस होने लगा। घड़ी की टिक टिक ने मुझे पुनः कपकपा दिया।
उसी क्षण, मैं समझ गयी थी कि वे मुझे इस कमरे में क्यों ले आए हैं।
बस एक हफ्ते पूर्व ही मुझे एक मित्र ने चेतावनी दी थी कि इस प्रकार का कुछ घटित हो सकता है। लेकिन मैंने अपने मित्र की सलाह को विश्वास योग्य न मान कर ख़ारिज कर दिया था। निश्चय ही मैंने औरों के साथ घट रही विचित्र बातों के बारे में सुना था - उदाहरण के लिए, एक मित्र की ऑंखें बांध कर उसे मध्य रात्रि में कुछ व्यक्तियों द्वारा ले जाया गया था - लेकिन मेरे साथ ?
मेरी मित्र को वे आदमी कहाँ ले गए थे, वह यह स्पष्ट कर पाने में सफल नहीं हो पायी। वह केवल इतना जानती थी कि वे लोग लगातार यहाँ वहाँ ड्राइव कर रहे थे, एकदम बिना रुके। उस पूरे समय उसके किसी भी अपहरणकर्ता ने मुंह से एक भी शब्द नहीं निकाला था। एक मात्र आवाज़ जो मेरी मित्र ने सुनी थी वह भारी जूतों की ठक ठक और खाली पिस्तौल के हैमर के रिलीज होने की आवाज़ थी। आप उसे क्या कहेंगे? कोई मज़ाक? आतंक? डराना? मैं इसका कुछ अर्थ नहीं निकाल सकी।
आखिर में, मेरी मित्र ने बताया कि उसे वापस ला कर उसके घर छोड़ दिया गया और कुछ भी नहीं घटित हुआ। उस समय के बाद से वह अपना सामान्य जीवन जीने लगी। इस अनुभव की कथा कहता जो एक मात्र भाव उसकी आँखों में था उससे मुझे यह अनुभूति होती थी मानों मैं खींच कर किसी तूफान की ओर ले जाई जा रही हूँ। अधिक काव्यात्मक तरीके से कहूं तो, मैं कह सकती हूँ कि उसकी पुतलियों में मैं भय की अत्यधिक मजबूत जड़ों वाले एक विशाल वृक्ष को वृद्धिमान देख सकती थी।
निश्चय ही किसी बात के बारे में सुनने और उसे स्वयं अपने साथ घटित होते अनुभव करने में बहुत अधिक अंतर है, उस कहानी में जो मेरी मित्र के साथ घटित हुई और उसे वास्तविकता में परिवर्तित करने के पश्चात् - कोई बात जो किसी और के साथ घटित हो सकती थी लेकिन, जैसा कि मैं दृढ़ता से विश्वास करती थी, मेरे साथ नहीं।
फिर भी यह मेरे साथ भी घटित हुआ, किन्तु, मेरी मित्र के अनुभव का आभार कि, मुझे इस बात का बेहतर पूर्वानुमान था कि क्या होने वाला था। मैंने अपने को जिस कमरे में पाया उसी में इस बात के ढेर से संकेत थे।
मेरा नाम नागरी है, मैंने जवाब दिया। काम? कभी कभार मैं लिखती हूँ, यदा कदा गाती भी हूँ -यदि जो कुछ मैं हाल में करती रही हूँ उसे काम कहा जा सकता है तो। जी हाँ, यही काम मैं करती हूँ - संक्षेप में मैं लोगों का मनोरंजन करती हूँ।
“पता?”
“तुम पहले से ही जानते हो, क्या नहीं ?” मैंने अपने दिल को शांत करने का प्रयत्न किया। अपने सामने बैठे आदमी की आँखों में झाँकने की कोशिश की। उस आदमी में धैर्य की कमी लग रही थी क्यों कि उसने मुश्किल से ही एकाध बार पलकें झपकाईं थी। (सांप की आँखों की भांति। कहते हैं सांप कभी पलकें नहीं झपकाता।)
“यह बस प्रक्रिया है” उसने शांति से कहा “तुम्हारा पता ?” उसने फिर पूछा।
“बोर्डिंग हॉउस नंबर 2212”
उस आदमी ने अपने होठों को गीला किया। वह सफ़ेद कमीज़ और चमड़े की जैकेट पहने हुए था जिसकी बांहें तंग और गन्दी थी। उसके होंठ निकोटिन की अधिकता से बदरंग हो गए थे। उसकी उंगलियां टेढ़ी मेंढी और खुरदुरी थी। किंतु उसका चेहरा, बल्ब के उस प्रकाश में, जो मेरे अनुमान से शायद 25 वाट का रहा होगा, प्रतिबद्धता से चमक रहा था।
“मैं तुम से सहयोग की अपेक्षा कर रहा हूँ ताकि तुम शीघ्र घर वापस जा सको। मैं थका हुआ हूँ। तुम भी थकी हो। इसलिए आओ मिल कर इस सम्बन्ध में काम करें....."
किसी कारणवश, उस व्यक्ति की आवाज़ की ध्वनि और जो बात उसने कही, वे मेरे कानों को किसी कैफे में मित्रों की मजाकिया बातचीत सी लगी। उसकी आवाज की टोन जानबूझ कर निरपेक्ष सी लगी - किसी सरकारी अधिकारी की नम्र आवाज़ जब वह किसी टेलीविजन रिपोर्टर को साक्षात्कार दे रहा होता है।
“तुम्हारी समझ में आया मेरा मतलब क्या है ?” उस आदमी ने एकाएक पूछा।
“नहीं, मैं नहीं समझी !”
उसकी भौंहें टेढ़ी हुई। फिर उसके चहरे पर एक मुस्कान, एक पर्याप्त नम्र मुस्कान, आयी और उसने अपनी कमीज़ की जेब से सिगरेट का एक पैकेट निकला “क्या तुम धूम्रपान करती हो?”
“यदा कदा… “
“आधुनिक महिलाएं अक्सर करती हैं…” उसने धीरे से कहा। उसके नथुने चौड़े हो गए। “मुझे निश्चय है कि तुम समझ रही होगी। मैं ईमानदारी से काम ले रहा हूँ। मुझे ज्ञात है कि तुम एक पढ़ी लिखी महिला हो। बहुत सारे लोग तुम्हारे लिखे की प्रशंसा करते हैं। और तुम्हारे गानों की भी.........” अब उसकी आवाज़ टीवी के प्रस्तोता की सी लगने लगी थी। “मैं भी उन लाखों लोगों में से हूँ जो यदि सुबह को अखबार में तुम्हारा लिखा न पढ़ें तो अपने को खोया हुआ सा महसूस करते हैं।”
फिर उस आदमी ने बल्ब की ओर सिगरेट का धुंआ छोड़ा उसे तरह तरह की अमूर्त आकृतियां, बादलों की, जानवरों की और अपठनीय संकेतकों की, बनाने का अवसर देते हुए।
“एक मित्र के रूप में......... मुझे दुःख है। एक प्रशंसक के रूप में मैं जानना चाहूंगा कि क्या 22 दिसंबर को तुम्हारे हिस्टेरेक्टॉमी ऑपरेशन करवाने के पीछे कोई कारण था ?”
मैंने अपना दिमाग उस आदमी के प्रश्न पर केंद्रित करने का प्रयत्न किया। और तब, जब मैंने इसे पूरी तरह समझा, मैं चमत्कृत रह गयी। तो यह कारण था जिसके लिए मैं यहाँ थी ! धत् तेरे की। स्पष्ट कहूं तो पहले मुझे लगा था कि अखबार में पिछले हफ्ते मेरे लिखे एक लेख के कारण मुझे यह सम्मान दिया गया है। अब जैसा कि सामने था, मैं पूरी तरह गलत थी। मैं नहीं जानती क्यों परन्तु मैं एकाएक निराशा सी महसूस करने लगी। यह सब मेरे विचारों, मेरी सोच अथवा मेरी आलोचनाओं के लिए नहीं था जिसके कारण मैं यहाँ लायी गयी थी बल्कि यह सब 22 दिसंबर की घटना के कारण था !
मैंने पूछा “क्या मतलब है तुम्हारा? हिस्टेरेक्टॉमी? क्या तुम उस ऑपरेशन के बारे में पूछ रहे हो जो मैंने पिछले वर्ष करवाया था ?”
“हाँ, जो तुमने 22 दिसंबर को 11.30 बजे पश्चिमी इंडोनेशियाई समय के अनुसार एक निजी अस्पताल में करवाया था….”
“मेरी समझ में कुछ नहीं आया, श्रीमान..”
“मैं समझता हूँ कि तुम संभवतः नहीं समझ सकती। तुम्हें संभवतः इसका संज्ञान नहीं हैं, अथवा किसी समय तुम ने सोचा हो कि जो कुछ तुम ने किया था बिलकुल सामान्य था, एक मूलभूत अधिकार। और मैं भी यह समझता हूँ। बहुत अच्छे से समझता हूँ।”
वह आदमी एकाएक खांसी का दौरा पड़ने के कारण रुक गया। उसकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं थी।
जब उसने दोबारा शुरू किया, उसकी खांसी अपने आप एकाएक रुक गयी। “एकमात्र बात जो हम जानना चाहते हैं वह है तुम्हारी इस हरकत के पीछे का कारण !”
एकाएक हमें ख़ामोशी ने घेर लिया। मैंने आदमी के चहरे की ओर देखा। 25 वाट के बल्ब के नीचे उसकी त्वचा चमकती सी लग रही थी और इस बात से मेरी कनपटी फड़कने लगी।
पीड़ा की ओर न ध्यान देते हुए मैंने अपना प्रश्न दोहराया : “तुम मेरी हिस्टेरेक्टॉमी के बारे में पूछ रहे हो ?”
“हाँ…” उसकी आवाज़ स्थिर थी और उसकी ऑंखें बस दो काले बिंदु।
उसकी दृढ़ता देख कर मुझे निराशा हुई। अपने ह्रदय की गहराइयों में मैंने कल्पना की थी कि एक दिन मेरे साथ ऐसा कुछ घटित होगा। अखबार खबरों से भरे होंगे, एक गहन बहस का मुद्दा। जब तक यह सब बिना किसी अंत के समाप्त नहीं हो जायेगा, अफवाहें उड़ती रहेंगी। हाँ, अपनी ह्रदय की गहराइयों में मैं अपने को यातना दिए जाते, कल्पना करती थी और सोचती थी कि मेरे रक्त की बूंदें इस बात का साक्ष्य होंगी कि मैंने किसी बात के लिए संघर्ष किया और लोगों के मस्तिष्क में बदलाव के विचार ला सकी।
लेकिन अब, यहाँ, मुझ से एक बीमार गर्भाशय, मेरी कोख के बारे में प्रश्न किया जा रहा था जिसकी दशा ने मेरे भीतर के आत्मविश्वास को समाप्त कर दिया था और एक स्त्री के रूप में मेरी पहचान पर संदेह उत्पन्न कर दिया था।
“वास्तव में मैं आश्चर्यचकित हूँ…”
“मैं जानता हूँ तुम्हें आश्चर्य हो रहा है” मुझे बीच में ही टोकते हुए उसने कहा। उसने मेरी ओर तीक्ष्णता से देखा, मानों उसे मेरी चिंता का भान हो। “आश्चर्य इसलिए कि हम अब इसके बारे में पूछ रहे हैं न कि उसी समय जब तुम्हारी अस्पताल से छुट्टी हुई थी।”
“मैंने ऑपरेशन इसलिए करवाया था क्योंकि मेरे गर्भाशय में एक ट्यूमर था। यह एक चिकित्सकीय प्रक्रिया थी। मुझे विचित्र लगा यह जान कर कि तुम्हें इस में कोई रुचि होगी।"
मेरा स्पष्टीकरण सुन कर उस आदमी के चहरे पर चौड़ी मुस्कान आयी। जैसे ही उसका मुंह अपनी पूरी चौड़ाई में खुला, एक घरेलू छिपकली की तीव्र चीख आयी। सारे कमरे में उसकी प्रतिध्वनि गूंज गयी।
“फिर ठीक है, जैसा कि मैंने पहले ही कहा था, हम इस काम में साथ साथ हैं। तुम जानती हो हम क्या जानना चाहते हैं। तुम स्पष्ट रूप से कह सकती हो। हम इस काम में 1971 से हैं।
मैं कम्पित नहीं होना चाहती थी लेकिन मेरी हकलाहट ने मुझे धोखा दिया “मैं समझी नहीं। हिस्टेरेक्टॉमी की बात से मैं बहुत दुखी हो जाती हूँ।”
“दुखी? क्या तुम कहना चाहती हो कि ऑपरेशन के लिए तुम्हारे साथ जबरदस्ती की गयी ?”
उसे आदमी की कठोर दृष्टि के नीचे मुझे गर्मी सी महसूस होने लगी।
“निश्चय ही मुझे मजबूर किया गया। अन्यथा मैं इसे न करवाती” मैंने धीरे धीरे उत्तर दिया “क्या एक स्त्री स्वेच्छा से अपना गर्भाशय निकलवा देगी !”
“और वह कौन था जिसने तुम्हें मजबूर किया?”
“माफ़ करना ?”
“तुम्हें डरने की कोई आवश्यकता नहीं। हम तुम्हारी तरफ हैं। हमें ग्लानि हो रही है कि हम तुम्हें बचा नहीं सके….”
“क्या मतलब है तुम्हारा ?” मेरी कनपटी में रक्त तेजी से धड़क रहा था।
“कौन था जिसने तुम्हें ऑपरेशन के लिए मजबूर किया ?”
“मुझे किसी ने मजबूर नहीं किया श्रीमान!”
“लेकिन तुमने अभी कहा कि तुम्हें मजबूर किया गया…. बस हमें बताओ वह कौन था जिसने तुम्हें मजबूर किया।”
आदमी की भौंहें फिर चढ़ गयीं। उसके चहरे से चमकता प्रकाश हर तरफ से परावर्तित सा होता लग रहा था। यह व्यक्ति क्या चाहता था? मुझे बुखार सा महसूस होने लगा था। और दीवार पर लगी घड़ी की आवाज़ के कारण मुझे एकाएक अपने किराये के कमरे की याद आने लगी। मैंने खिड़की की सिटकनी नहीं लगायी थी। मैंने रखे हुए पके हुए चावल के बारे में सोचा जिसे गर्म करना था। वे क्यों मेरी हिस्टेरेक्टॉमी के बारे में जानना चाहते हैं? क्यों?
“संकेत जो हमें प्राप्त हुए थे...... और हमने जो तथ्य इकठ्ठा किये थे….उन सब ने हमें सही दिशा की ओर इंगित किया था। तुम जानती हो कि यह गर्भाशय निकालने का ऑपरेशन एक आतंकी आंदोलन में परिवर्तित हो चुका है जिसका लक्ष्य सुधारों को रोकना है। यह बाह्य शक्तियों द्वारा नियंत्रित एक राजनैतिक आंदोलन है। इसलिए हम तुम्हारी सहायता चाहते हैं… यह पता लगाने के लिए कि इसके पीछे कौन है।”
कितना विचित्र! मेरे विचार से दो ऐसी बातों में कोई सम्बन्ध खोजना कितना विचित्र था जो पूरी तरह एक दूसरे से असम्बद्ध थीं। जबरदस्ती कड़ियाँ जोड़ना निश्चय ही संभव था। निश्चय ही संयोग सदैव पाए जा सकते हैं। किन्तु क्या एक बीमार गर्भाशय उन असाधारण घटनाओं से सम्बद्ध होने के लिए पर्याप्त कारण हो सकता था ?
क्या हिस्टेरेक्टॉमी ऑपरेशन द्वारा किसी का जीवन बचाने का कार्य, जो कि बिलकुल सामान्य और साधारण बात थी, को कानून व्यवस्था के लिए खतरे के रूप में देखा जा सकता था, जो कि किसी आतंकी योजना अथवा खाद्यानों की जमाखोरी जैसा कुछ हो ?**
वास्तव में उस आदमी के दिमाग में क्या चल रहा था? क्या यह अत्यधिक कर्तव्यपरायणता का परिणाम था? क्या राष्ट्रीय सुरक्षा ही उसकी एकमात्र चिंता थी? अथवा, मेरे मस्तिष्क ने विरोधी तर्क दिया, क्या इस बात में सच की कोई संभावना थी जो कि उस आदमी ने कहा था? क्या होगा यदि कभी गर्भाशय की जमाखोरी का स्त्रियों का कोई आंदोलन हुआ, किसी गोदाम में उनकी जमाखोरी का आंदोलन, लाखों लाख पुरुष शुक्राणुओं पर बंदिश लगाते हुए, एक प्रकार की गर्भाधान और जन्म देने के काम की हड़ताल। एक अविश्वसनीय विचार ! किन्तु….
“हमारी जाँच के अनुसार, हमें एक ऐसे समूह का पता चला है जो चाहता है कि स्त्रियों के पास गर्भाशय ही न हों ताकि नयी पीढ़ी के जन्म के अवसर को समाप्त किया जा सके। हम इस बारे में बहुत लम्बे समय से पता कर रहे हैं। वर्षों से हम सूचनाएं एकत्र कर रहे हैं। हमने उसका विश्लेषण किया है। हमने आकड़ों का परिक्षण किया है। और क्या तुम जानती हो कि उनका तर्क क्या है?”
उसने तुरंत ही अपने स्वयं के प्रश्न का उत्तर दिया, इतने उत्साह के साथ कि उसके काले पड़ चुके होठों से थूक निकल आया। “ऐसे बच्चों को जन्म देने की बजाय जिनका न तो ठीक से पालन पोषण होगा और जो न ही उचित नियम कायदों से ठीक से संरक्षित ही होंगे, यही बेहतर है कि गर्भाशय ही हटा दिया जाये! तुम्हें इस बारे में पता होना चाहिए, क्या नहीं?”
हे ईश्वर! मुझ पर सचमुच ही वज्रपात सा हुआ था। मैं अपने लिए ऐसी किसी बात को सोच पाने के बारे में कल्पना करने लगी। फटाक ! कोई नया जन्म नहीं। फटाक! मरते हुए सभी वृद्ध। फटाक ! खाद्यान्न अथवा इस उस किसी भी चीज के बारे में और अधिक चिंता की कोई आवश्यकता नहीं क्यों की जीवन भी समाप्त हो जायेगा। बस कल्पना कीजिये कि एक स्त्री का अपना गर्भाशय हटवा देना एक राजनैतिक कार्यवाही है। जनसामान्य के लिए खतरा। आप प्रश्न पर विचार कर सकते हैं : “तुम्हारे इस विचार के पीछे कौन था?”
मैंने अपने शब्दों को शांति और स्पष्टता से संयोजित करते हुए उस आदमी की तरफ देखा। “मैंने ऑपरेशन इसलिए करवाया क्योंकि मेरे गर्भाशय में एक ट्यूमर था। यह मेरा जीवन बचाने के लिए किया गया था, श्रीमान। सच में मैं नहीं समझ पा रही हूँ कि आप मुझसे इस सब के बारे में क्यों पूछ रहे हैं। यह कोई साधारण सी बात नहीं थी। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह आवश्यक और पूरी तरह सामान्य बात थी, श्रीमान।”
आदमी हलके से मुस्कराया और उसने एक कश लिया। पहली बार उसने पलकें झपकायीं। मैंने आते हुए कदमों की आवाज़ सुनी। कुछ क्षणों पश्चात् मेरी पीठ पीछे दरवाजा खुला और मैंने हवा का एक तेज झोंका सा महसूस किया। वे तीनो आदमी जो मुझे उठा कर लाये थे फिर लौट आए थे। बिना एक भी शब्द बोले उन्होंने मुझे कमरा छोड़ने का संकेत किया। फिर वह मकान छोड़ने का।
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अगली सुबह, मैंने कैलेण्डर पर निगाह डाली फिर घड़ी की सुइयों पर। बाहर से अत्यंत तेज चीखों और तालियों की आवाज़ें आ रही थीं। मैंने अपने कमरे की खिड़की खोली और बाहर की ओर देखा जहाँ लोग बैनर लिए नारे लगा रहे थे “दुनिया का भविष्य बचाने को स्त्रियों के गर्भाशय बचाओ!”
एकाएक मुझे अपने पेट में पीड़ा की अनुभूति हुई। तब पुनः मैंने दरवाज़ा खटखटाये जाने की आवाज़ सुनी। मैं उसे खोलना नहीं चाहती थी। मैं तीन आदमियों को अपने कमरे की ओर आते हुए महसूस कर सकती थी।
“हम तुम्हारे कामों का परिणाम देख सकते हैं। अब तुम उन्हें बताओ कि तुमने अपना गर्भाशय जानबूझ कर नहीं हटवाया था। उन्हें बताओ कि जो कुछ भी तुमने किया वह खाद्यानों की बढ़ती हुई कीमत के प्रति सहानुभूति से सम्बंधित नहीं था। और उन्हें बताओ कि भविष्य की पीढ़ियां गर्भावस्था के दौरान उचित पोषण न मिलने के कारण मूर्ख नहीं पैदा होंगी। उन्हें बताओ! उन्हें अपने गर्भाशय हटवाने की आवश्यकता नहीं है -- जैसा कि तुमने किया है।”
मेरे पेट में ऐंठन सी होने लगी। मुझे बहुत तीव्र पीड़ा महसूस हुई। सब कुछ कालिमा में तिरोहित हो गया। मैंने उस कमरे में उसी आदमी की भाषण देती आवाज़ सुनी। जिसकी ध्वनि और घड़ी की टिक टिक से मेरे ह्रदय में दर्द होने लगा।
“शांत रहो। मैंने कहा शांत रहो। नागरी कुछ क्षणों में बेहोश हो जाएगी। मैं कहता हूँ कि तुम यह काम करने का अवसर हमारी टीम को दो -नागरी की सुरक्षा के लिए…”
मैंने अपनी पूरी इच्छाशक्ति के साथ अपनी आँखें खोलने का प्रयत्न किया। मैं उस प्रकाश को पहचानती थी : 25 वाट का बल्ब। मैं उस दीवार घड़ी को पहचानती थी। मुझे वह छिपकली भी याद थी। मैंने एक चेहरा देखा, एक चेहरा जिसे मैं अच्छे से जानती थी।
मैं समझ गयी। कोई स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं। जैसा कि अनेक मित्रों ने बताया था। इस समय में कोई स्पष्टीकरण आवश्यक नहीं था, किसी विवरण की जरूरत नहीं थी। स्पष्टीकरण और कुछ नहीं थे सिवाय कहानी मात्र के।
तभी, धीरे से मैंने एक विचित्र आवाज़ सुनी। मेरा नाम नागरी है। उम्र तीस वर्ष। सभी तरह का लेखन करने वाली। लिंग : स्त्री। कमरा नंबर 2212. अपराध की शिकार। नयी पीढ़ी के विरुद्ध आंदोलनकारियों द्वारा गर्भाशय में छुरा मारा गया।
क्या यह सच था कि मेरा गर्भाशय छुरे से काट कर निकाल लिया गया था? कितना विचित्र। वे इस तरह की बात क्यों कहेंगे? मेरे सभी मित्र, हर कोई जानता था की मेरी हिस्टेरेक्टॉमी मेरे गर्भाशय में ट्यूमर होने के कारण हुई थी।
भगवान बचाये। मैं यह पूछने वाली कौन थी कि मेरे बीमार गर्भाशय के बारे में समाचार किस प्रकार इस तरह की अफवाहपूर्ण कहानी बन गया? टेलीविजन, अखबार और रेडियो सब इसका कवरेज कर रहे थे। एक हफ्ते में ही कोख की राजनीति के सैकड़ों विश्लेषक उत्पन्न हो गए थे।
अपने कमरे के भीतर मैंने प्रसन्नता से चीखने की आवाज़ें सुनी। मैंने यह याद करते हुए अपनी आंखें बंद कर ली कि हो सकता है मैंने अपना बीमार गर्भाशय देखा हो। किन्तु मैं उसकी कल्पना करने में असफल रही। तब भी जब कि एक समय वह मेरी ही देह का हिस्सा था। संभवतः मैं कभी नहीं जान पाऊँगी कि वह बीमार गर्भाशय कैसा दिखता था। मैंने अपने पेट को महसूस किया। मुझे खालीपन का अनुभव हुआ। एकाएक मुझे एक अनिर्वचनीय हानि की अनुभूति होने लगी।
मैंने टेलीविजन चालू किया और बड़े शहरों के लगभग सभी बड़े अस्पतालों के सामने लम्बी लम्बी कतारें देखी। मैंने स्वयं से ही प्रश्न किया “वे किस बात के लिए लाइन में खड़े हैं ?” कोई उत्तर नहीं मिला। वे सब थके लग रहे थे, मानों नाट्यशाला में प्रवेश हेतु अपना नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा में हों।
नागरी ! उम्र तीस वर्ष...... टेलीविजन पर, मैंने अपना स्वयं का चेहरा देखा ! विचित्र ! कितना विचित्र !
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** जमाखोरों द्वारा खाद्यान्नों की अत्यधिक जमाखोरी के कारण 1998 में इंडोनेशिया में खाद्यान्नों के लिए दंगे शुरू हो गए थे। (अनुवादक की टिप्पणी)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
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