स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'शोला सा लपक जाए है आवाज़ तो देखो'।

 


 

बीते 6 फ़रवरी 2022 को पार्श्वगायिका लता मंगेशकर का निधन हो गया। लता जी एक ऐसी आवाज़ थीं, (बल्कि हैं कहना ज्यादा मुनासिब है) जिनकी अपनी अलहदा पहचान थी। गायकी उनके लिए आराधना थी। इसीलिए उनकी गीतों से एक बड़ा जनसमुदाय जुड़ाव महसूस करता था। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने लता जी को याद करते हुए एक भावपूर्ण संस्मरणात्मक आलेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'शोला सा लपक जाए है आवाज़ तो देखो'

 

 

शोला सा लपक जाये है आवाज तो देखो

         

स्वप्निल श्रीवास्तव

 

 

 

उस गैरतनाहीद की हर तान है दीपक

शोला सा लपक जाये है आवाज को देखो

 

इस गजल का  यह शेर सैकड़ों साल  पहले गालिब और जौक के समकालीन शायर मोमिन  ने  लिखा था। जब भी लता मंगेशकर को सुनता था, यह शेर याद आता था। आज यह शेर  शिद्दत से याद या रहा है। मोमिन वह शायर थे जिसके एक शेर

 

तुम मेरे पास होते हो गोया

जब कोई दूसरा नहीं होता। 

 

इस शेर के गालिब अपना दीवान कुर्बान करने को तैयार थे। किसे पता था कि कभी कबीर के पद  कुमार गंधर्व गा करके उनके पदों को नया अर्थ दे  देगे, बेगम अख्तर लोक में प्रचलित ठुमरी, दादरा और गालिब की गज़लों को गा कर अमर कर देगी। चीजें एक दूसरे से इस  कदर जुड़ी होती है कि उनका पता बहुत दिन के बाद लगता है। जो बहुत पहले कहा या  लिखा गया है उसे जब गाया जाएगा तो हमें उनके महत्व का पता चलेगा।

 

लता मंगेशकर को अपनी यह आवाज आसानी से हासिल नहीं हुई थी, उसके लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा था। तेरह साल की उम्र में उनके सर से पिता का साया उठ गया था और इस  जीवनसमर में उनकी आवाज ही थी जिसके जरिए उन्होंने तीन बहनों और एक भाई की  परवरिश की थी। फिल्मों में छोटेछोटे रोल करने के बाद उन्हें गाने का मौका मिला और  धीरेधीरे उनके गाने की लौ बढ़ती गयी। लता का नाम उन गायिकाओ की फेहरिस्त में शुमार है जो कंठ से नहीं दिल से गाया करती है  - जो आवाज  दिल से  निकलती  है, वे दिल को  ही छू जाती हैं। वे आवाजों की जादूगर थीं। जिस गीत को होंठों से छू देती थीं, वह मकबूल हो जाता  था।  उन्होंने जीवन के घनघोर अकेलेपन को अपने  गीतों से आबाद किया।    

 

 उनके गीतों को सुन कर मुझे महादेवी वर्मा के गीत याद आते है

 

मैं नीर भरी दुख की बदली

परिचय इतना इतिहास यही ,

उमड़ी कल थी,

मिट आज चली।  

 

लता के  भी जीवन में दुख के अनेक रंग थे, दोनों ने अपनी पीड़ाएं अपनेअपने ढंग से  व्यक्त की हैं। निराला के सरोज स्मृति कविता की पंक्ति है

 

दुख ही जीवन की कथा रही,

क्या कहूं आज, जो नहीं कही।

 

अज्ञेय ने लिखा है

 

दुख सबको माँजता है

और  

चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना चाहे  वह जाने।

किन्तु

जिनको माँजता है

उन्हें यह सीख देता है कि सबको  मुक्त रखे।  

 


 

दुनिया के कवियोंलेखकों और गायकों ने दुख को अपनीअपनी भाषा और लिपि में रूपांतरित किया है।  लता ने अपने  दुख नहीं समाज की स्त्रियों को अभिव्यक्ति दी है।  

  

मैं कहां लता मंगेश्कर को जानता था, उन दिनों  मध्यवर्गीय परिवारों में  गीत और संगीत सुनने की मुमानियत थी। स्कूल  के दिनों में पंद्रह अगस्त को जब उनका  गीत

 

ऐ मेरे  वतन के लोगों

जरा आँख में भर लो पानी

 

सुना था तो भावुक हो  गया था तभी मुझे मालूम हुआ कि इस गीत की गायिका कोई लता मंगेशकर हैं।  यह गीत भारत पाकिस्तान के युद्ध में शहीद हुए लोगों की याद में श्रद्धाजलि के रूप में गाया गया था। हमें यह बताया गया कि यह गीत दिल्ली के रामलीला मैदान 27 जनवरी 1963 में गाया गया था जिसे सुन कर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की आँखें भर आयी थीं। इस  गीत के रचयिता कवि प्रदीप थे जिस मनोयोग से उन्होंने इस गीत को लिखा था, उस गीत को गा कर लता ने  उसे जीवंत कर दिया था।  फिर उस  आवाज को पान  की दुकानों  में बज रहे  रेडियो और थोड़े अमीर दोस्तों के ग्रामोफोन में खोजता रहा। लता की आवाज मुझे माँ की आवाज की तरह लगती थी जब माँ लोकगीत गाती थी तो उसका चेहरा लता की  तरह लगने लगता था।

 

लता  मंगेशकर को अपनी  महीन आवाज  को सघन  बनाने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी थी, उसके लिए वह रियाज करती थी। वे उस दौर में गायिकी की दुनिया में आयी थी जिस समय नूरजहां और शमशाद बेगम का जमाना था। उनके बीच उन्हें जगह बनानी थी यह उनके  लिए बड़ी चुनौती थी जिसके लिए बहुत रियाज करना पड़ा, इसके लिए उन्हें आग की दरिया से  गुजरना पड़ा।  गीत गाना उनके लिए किसी इबादत से कम नहीं था  - वे रिकार्डिंग  रूम में नंगे पाँव जाती थीं जैसे किसी मंदिर में जा रही हों। वे सफेद परिधान में साध्वी की तरह दिखती थीं।

    

वे अपनी आवाज  की तरह खूबसूरत नहीं थी लेकिन जब गाती थी, वह और सुंदर हो जाती थीं।  संगीत आदमी को सुंदर बनाता है और  जो  भी उसे सुनता है, वह  अंदर से बदल जाता है। संगीत में बदलने की अभूतपूर्व क्षमता है। जब तानसेन दीपक राग गाते थे तो  दीपक जल  जाते थे, मेघ मल्हार गाने के बाद वर्षा होती थी। संगीत हमारे मन को नहीं पर्यावरण को भी बदलते हैं  - जब कभी हम उदास होते हैं तो उदासी दूर करने के  लिए संगीत सुनते हैं, यह एक तरह की थिरेपी भी है। मेरे पिता की पीढ़ी के लोग लता के गीतों के दीवाने थे जब वे  उनके गीत सुनते थे तो अपने आस-पास कुछ ढूँढने लगते थे। पुरूषों में स्वभावतः नारी स्वरों के प्रति लगाव होता है, उससे उन्हें मानसिक रति मिलती है।  

 


 

 

लता की आवाज में बला का  दर्द  था, यह दर्द उनके जीवन की पूंजी थी दर्दीले गीत गाते हुए वह अपने फार्म में होती थीं। किसी गायक के गीत में यह दर्द उसके जीवन से आता है और जब मनमुताबिक गीत मिल जाता है उसमें वे अपनी आत्मा उडेल देते हैं। लता के गीतों में एक गहरी करूणा है। गालिब  ने लिखा है  -

 

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-नीमकश को

वह खलिश कहां से  होती जो जिगर के पार होता

यह थी हमारी किस्मत कि विसाल-यार होता।

 

लता के जीवन में खलिश कम नहीं थी। राज डूगरपुर और सी. रामचन्द्र से उनकी नजदीकियों के चर्चे कम नहीं  होते थे लेकिन ये रिश्ते कभी परवान नहीं चढ़े।  उन्होंने ही गाया था

 

इंसान इस दुनिया में इक बार मुहब्बत करता है

इस दर्द को लेकर  जीता है इस दर्द को लेकर मरता है।   

 

जीवन का अधूरापन कलाकार को  रचनात्मक बनाता है।   शायरों और अदीबो की जिंदगी में यह अपूर्णता शिखर तक ले जाती है। लता उस शिखर तक पहुँच चुकी थीं वहाँ उनकी जगह सुरक्षित है, अब  वहाँ कोई नहीं पहुँच सकता। किसी में उन जैसी कूबत और समर्पण नहीं है।  प्रसिद्ध इकबाल ने लिखा है

 

हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है

बड़ी मुश्किल होता हा चमन में दीदावर पैदा।

 

लता मंगेशकर ने 36 भाषाओं में तीस हजार से  ज्यादा गाने गाए हैं, उसमें से श्रेष्ठ गीतों का चुनाव मुश्किल है। हर गीत की अपनी अलग जगह है उनके गीतों का रेंज बहुत बड़ा है, उसके खुशी और उदासी के अनगिनत गीत हैं। उठाए जा सितम (अंदाज), तुम जाने किस जहां में खो गये (सजा), संसार से  भागे फिरते हो (चित्रलेखा), रसिक बलमा (चोरी-चोरी),  चलतेचलते कोई मिल गया था, इन्ही लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा (पाकीजा), यारा,  आज सोचा तो आँसू  भर आए। मुद्दतों हो गये मुस्कराए (हँसते जख्म), यारा सीली सीली (लेकिन) उनके कुछ यादगार गीत हैं लेकिन उनकी यह तड़प उनकी गज़लों में खूब दिखाई देती है।  वे चुप रहें तो दिल के दाग जलते हैं, रस्म उलफ़त को निभाए तो निभाए कैसे , यू हसरतों के दाग मुहब्बत में धो लिए, माई रे मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की... ,  हम हैं मता कूचा बाजार की तरह जैसी अमर गजलें गायी हैं। मदन मोहन के संगीत निर्देशन में मशहूर गजलें गायी हैं। पी नैयर ने कहा है मैं नहीं समझता कि लता मदन मोहन के लिए बनी हैं या मदन मोहन लता के लिए बने हैं। यह जुगलबंदी अद्भुत है जो एक दूसरे का  पर्याय बन जाता है।

 


 

   

उनके गीतों का  सफर संगीतकार खेमचंद प्रकाश की  फिल्म महल के गीत महल के  गीत आएगा आने वाला आएगा  से  शुरू हुआ था।  उसके बाद अनिल विश्वास की फिल्म् तराना का वह मकबूल नगमा सीने  में सुलगते  हैं अरमा  - उन्होंने  तलत महमूद के साथ गाया था। अनिल विश्वास ने तलत की कांपती हुई आवाज को पहचाना था उनकी  आवाज अन्य गायकों  से एकदम भिन्न थी। इस आवाज में उन्होंने अनमोल गजलें गायी, उसके बाद वे नौशाद, मदन मोहन, शंकर जयकिशन आदि के संगीत निर्देशन में गीत गाए। राजकपूर की  फिल्म बरसात के बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उन्होंने प्राय; सभी संगीत निर्देशकों की अध्यक्षता  में गीत गाए  और फिल्मी जगत के लिए अनिवार्य बनी रही।  

 

 

उनके वक्त के संगीतकार नौशाद ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि वे मदन मोहन की दो गज़लों आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे, है इसी में प्यार की आरजू, मैं वफ़ा करूं, वे जफ़ा करे के लिए अपना काम उनके नाम कर सकते हैं। नौशाद बड़े संगीतकार थे लेकिन मदन मोहन जैसी गज़लों के धुन नहीं बना सके।  यह उसी तरह का  समर्पण भाव था जैसा गालिब ने मोमिन के लिए प्रकट किया था। बड़े लोगों में ईर्ष्या का भाव नहीं होता , वे अपने सोच में उदार होते है कोई किसी से  कम नहीं होता लेकिन उनका प्रेम बड़ा होता है। ये  लोग उस  दुनिया के लोग थे जो एक दूसरे से  प्रेम करना जानते थे।  वे शास्त्रीय पृष्ठभूमि के संगीतकार और गायक से  विभिन्न रागों का  रियाज करते थे तब जो गीत और  गजलें बनती थीं, वे हमारे दिल में पैठ जाती थीं। आज के संगीतकारों में वह दमखम और संगीत के लिए  कोई दीवानगी नहीं है उनके पास रागविराग के लिए समय नहीं है वाद्य यंत्रों का कोई  सम्यक ज्ञान ही है। वे अधेरे में तीर चलाते हैं, उनके बनाए गये गीत, कुछ माह तक चलते है  और फिर भुला दिए जाते हैं पुराने गीत वर्षों  तक हमारी स्मृति में बने रहते हैं।  

 

लता मंगेशकर के गीतों का  परिक्षेत्र व्यापक है, उसके अनगिनत रंग हैं।  वे उदासी के  गीत जिस शिद्दत के  साथ गाती थी ,उसी शिद्दत से खिलदड़पन के  भी गीत गाती हैं। मुगले आजम का वह गीत याद करिए प्यार किया तो डरना क्यागीत जब वह गाती है तो वह मुगल की सत्ता को चुनौती देती हुई लगती हैं। उनकी आवाज मधुबाला की आवाज से मेल खाने लगती है लता की एक विशेषता यह  भी है कि वे  जिस नायिका के लिए गाती, वह उसकी आवाज बन जाती हैं, उन गीतों में मे वह उस भावभंगिमा को एकाकार कर देती हैं। फिल्म गाइड का गीत आज फिर जीने की तमन्ना है / आज फिर मरने का इरादा है। उदास गीत गाने वाली लता के भीतर इस तरह का खिलद्ददपन हमें हैरान करता है। इस गीत में उनकी शोखी प्रकट होती है। रोटी कपड़ा मकान का गीत हाय हाय ये मजबूरी ,यह मौसम और यह दूरी  हो या चाँदनी का  गीत मेरे हाथों में नौ नौ चूड़ियाँ है ये दोनों गीत जिस अंदाज में गाए गये हैं, वे  मुझे बेहद प्रभावित करते हैं।  उनके इस  तरह के बहुत से गीत याद किए जा  सकते हैं।  उनके प्रार्थना गीतों की धज ही अलग है प्रभु तेरो नाम जो धाये फल पाए, (हम दोनों) मनमोहना बड़े झूठे हो (सीमा) तुम्ही हो पिता हो, तुम्ही ही बंधु सखा हो, ज्योति से  ज्योति जलाते चलो। यशोदा मैया से पूछे नंदलाला।

 

वे जिन फिल्मों में गीत गाती थी, वह फिल्म हिट हो जाती थी अगर फिल्म सफल नहीं होती  थी तो उनके गीत जुबान पर चढ़ जाते थे। हर फिल्मकार चाहता था कि उनके गीत उसकी फिल्म में शामिल हो। फिल्मों में उनका उच्चारण स्पष्ट होता था कम गायिकाओं में यह साफ़गोई मिली  है, गीत के किस स्थल जोर देना हो, किसे मध्यम स्वर में गाना है, यह कला वह जानती थी। दिलीप कुमार की  सलाह पर उन्होंने उर्दू सीखी और मशहूर शायरों की शायरी पढ़ी।   उनकी पृष्ठभूमि शास्त्रीय थी, रागों का उन्हें ज्ञान था इसलिए उनके गीतों में माधुर्य था। गीतों  में अद्भुत प्रवाह होता था। वे बड़े गुलाम अली खा की तरह गाना चाहती थीं जिन्होंने उनके लिए कहा था कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती। के. आसिफ का यह संस्मरण तो गीत प्रेमियों   को याद ही होगा फिल्म  मुगले आजम मे बड़े गुलाम अली ने गाने से मना  कर  दिया  था  फिर उन्होंने उसकी इतनी बड़ी कीमत मांगी ताकि के. आसिफ उसे अदा कर सकें। के. आसिफ तो के. आसिफ थे उन्होंने पच्चीस हजार की रकम अदा कर दी।  उस समय गायकों को  हर गीत के पाँच सौ रूपये दिए जाते थे।   

 

उन पर यह आरोप भी लगाए जाते है कि उन्होंने अपने  एकाधिकार को कायम रखने के लिए सुमन कल्याणपुर, शारदा जैसी गायिकाओं का रास्ता रोका था। हर व्यक्ति अपने अस्तित्व की रक्षा करता है, लता इसकी अपवाद नहीं थी। पूर्णता किसी व्यक्ति में नहीं होती, जीवन में कई कमजोर स्थल भी होते हैं।  हम किसी को देवता बना कर उसकी पूजा नहीं कर सकते।  यह भी कहा जाता है कि वे सत्ता से जुड़ी रही।  बाल  ठाकरे, अटल बिहारी बाजपेयी और वर्तमान प्रधानमंत्री से उनके संबंध सार्वजनिक हैं। कुछ भी हो वह अपने क्षेत्र में अद्वितीय थी। वे सरहद के  पार के इलाके  में जानी जाती थी उनके प्रशंसक दुनिया भर में फैले हुए हैं, ये इस बात की गवाही देते हैं कि एक कलाकार किसी जाति और धर्म का नहीं होता बल्कि गीतसंगीत ऐसा क्षेत्र है जो इन संकीर्णताओ से  हमे ऊपर उठाता है, उद्दात  बनाता है।

  

लता मंगेशकर को भारत रत्न  समेत अनेकों सम्मान मिले लेकिन वे इन सम्मानों के ऊपर थीं, जो संस्थायें या लोग उन्हें सम्मानित करते थे, प्रकारान्तर से वे ही सम्मानित होते थे। असल बात है जनगण के बीच कलाकार की स्वीकृति यही कलाकार का वास्तविक सम्मान है। सार्त्र ने नोबल पुरस्कार को आलू का एक बोरा कहा था, गांधी को नोबल पुरस्कार नहीं मिला था,  इससे उनका महत्व कम नहीं हुआ था। पुरस्कारों के पीछे कोई कोई राजनीति काम  करती है। कलाकार या बौद्धिक इससे परे होते हैं, बस समाज को बेहतर बनाने में लगे रहते हैं।

   

लता  मंगेशकर इस दुनिया में बानबे साल तक उपस्थित रही, हम उनके गीतों की बारिश में भीगते और गुनगुनाते रहे। उनके गीतों की उम्र उनकी उम्र से हजार गुना बड़ी होगी वे सदियों तक याद की जाती रहेगी। गुलजार की यह गीत याद करिए जिसे उन्होंने गाया है

 

नाम गुम जाएगा, चेहरा यह बदल जाएगा

मेरी आवाज ही पहचान है।

 

लता हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके गीत आने वाली  पीढ़ियों  दोहराती  रहेगी।  जिन्होंने लता को देखा, सुना है , वे खुशनसीब है बाकी के लिए फिराक का यह शेर पढ़ा जाएगा

 

आने वाली नस्लें तुम पर फक्र करेगी हम असरों

जब उनको ध्यान आएगा तुमने फिराक को देखा है।

 

 

 


 

सम्पर्क

 

स्वप्निल श्रीवास्तव

510 – अवधपुरी कालोनी अमानीगंज

फैजाबाद – 224001

मोबाइल -9415332326           

      

टिप्पणियाँ

  1. स्वप्निल जी! ये सब जानकारियाँ तो हैं हमारे पास, मगर आपने बड़े सलीके से लिखा है। अच्छा लगा। एक चीज बराबर खटक रही है कि मुद्रण में बहुत दोष आ गये हैं, जिससे भाषा की तबीयत गड़बड़ हो गयी है। शुरुआत से आप खु़द देख लीजिए, ग़लतियों की फे़हरिस्त लम्बी होगी।

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