अनिल कुमार राय का आलेख 'कवि के विचार गद्य में समय और साहित्य'



केदार नाथ सिंह


केदार नाथ सिंह न केवल अपने समय के शीर्ष कवि रहे हैं बल्कि उन्होंने हिन्दी साहित्य के चिन्तन पक्ष पर भी शिद्दत से विचार किया है। केदार जी का गद्य पढ़ते हुए हमें काव्यात्मक अनुभूति होती है। कहीं कोई बोझिलता या जटिलता नहीं। वे कठिन से कठिन बात यहाँ तक कि दर्शन की बात तक को आम बोल चाल की भाषा में लिख देने वाले कलमकार रहे हैं। केदार जी के विचार गद्य पर एक महत्वपूर्ण आलेख लिखा है प्रोफेसर अनिल राय ने। यह आलेख साखी के केदार नाथ सिंह विशेषांक में प्रकाशित हुआ है। आज 19 नवम्बर को केदार जी का जन्म दिन है। केदार जी को नमन करते हुए आज पहली बार पर प्रस्तुत है अनिल कुमार राय का आलेख 'कवि के विचार गद्य में समय और साहित्य'  
               



 कवि के विचार-गद्य में समय और साहित्य  

 


अनिल कुमार राय 
      


केदार नाथ सिंह के साहित्य–विषयक विचार-गद्य के सम्बन्ध में साहित्य के अध्येताओं के मन में एक स्वाभाविक-सी उत्सुकता और दिलचस्पी बनी रहती है कि अपने कवि-कर्म से, अपनी दृष्टि, संवेदना और अभिव्यक्ति से अपने रचना–समय और कविता के वातावरण को बहुत गहराई से प्रभावित करने वाले इस कवि के भीतर बैठा हुआ आलोचक कैसा है, वह कविता या साहित्य और समाज को कैसे देखता और व्याख्यायित करता है, साहित्य को अपने समय और समाज से किस रूप में जुड़ा हुआ अनुभव करता है, उसके साहित्य-मूल्य और सर्जनात्मक प्रतिमान क्या हैं!  यह अनुभव आश्वस्तिकर है कि केदार जी का आलोचक इन प्रश्नों के विमर्श में पूरी गंभीरता के साथ प्रवेश करता है।  एक बने-बनाए सरलीकृत ढाँचे के विश्लेषण के रास्ते पर आगे बढने की जगह वह कुछ नया और मौलिक आविष्कृत करने का उद्यम करता दिखता है। इस उद्यम के नये रास्ते में वह स्मृति, इतिहास, परम्परा, आधुनिकता, लोक, संस्कृति और समाज के अनेक सन्दर्भों का आलोचनात्मक साक्षात्कार करता है तथा इनसे उपलब्ध होने  वाले विचार और संवेदन के अनेक मूल्यवान तत्वों से वह एक गहन आत्मीय संवाद बनाता चलता है



शोध-सम्बन्धी आरम्भिक अध्ययन के अतिरिक्त ऐसा बहुत कम है, जिसे केदार नाथ सिंह के साहित्य-चिन्तन के रूप में अलग से रेखांकित किया जाता रहा हो। किन्तु समय-समय पर प्रकाशित उनके संग्रह मेरे समय के शब्द’ और ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ में कई लेख हैं, जिन्हें इस सन्दर्भ में अर्थवान माना जा सकता है। उनके कवि-कर्म की प्रतिष्ठा के आलोचना–वातावरण में उनका वैचारिक लेखन अथवा साहित्य-विचार अदृश्य या महत्वहीन नहीं है।  इन पुस्तकों के अनेक लेखों में अभिव्यक्त साहित्य-विषयक उनका चिन्तन स्थूल तथ्यों और विवरणात्मक सूचनाओं पर आधरित व्याख्या से पृथक एक कवि-आलोचक के अनुभव-संसार और विचार-सम्पदा के सूक्ष्म पर्यवेक्षण से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाता दिखता है। केदार जी के साहित्य-विचार या उनके आलोचनात्मक लेखन में जीवन की गहन अनुभव-राशि की उपस्थिति बहुत जीवंत और स्पष्ट है।  जीवनानुभवों को उपलब्ध करते हुए उनके भीतर से नये विचार-तत्वों के उद्भव और विकास की सम्भावनाएं पैदा करती यह चिन्तन-यात्रा उनके समकालीनों में बिलकुल अलग–सी है। इस चिन्तन-यात्रा में साहित्य-दृष्टि एवं जीवन-दृष्टि के बीच एक स्पष्ट अंतरनिर्भर सम्बन्ध है। दरअसल, यह सम्बन्ध जितना अविरोधी और अनंतराल होता है, रचना और आलोचना उतनी ही प्रामाणिक। ऐसी ही प्रामाणिकता के मद्देनजर रचना को जीवन की आलोचना कहा गया होगा। इस तर्क से देखें, तो आलोचना एक प्रकार से जीवन की रचना कही जाएगी। केदार जी की आलोचना के लिए तो यह पूरी तरह से सच है।



अपने साहित्य–चिन्तन में केदार नाथ सिंह ने हिंदी, अंग्रेजी तथा अन्य कई भारतीय भाषाओँ के अनेक कवियों के मूल्यांकन के साथ साहित्य - विशेषकर, कविता से जुड़े हुए प्रश्नों और समस्याओं को देखने–समझने की कोशिश की है।  इस क्रम में इन  पर विचार करते हुए उन्होंने अनेक मूल्यवान निष्पत्तियां दी हैं और ऐसे कई जरूरी विषयों की ओर हमारा ध्यान खींचा है, जिनका कविता और साहित्य के लिए गम्भीर महत्व है।                                       
             
                                        

एक साहित्य-विचारक के विवेक का एक अत्यंत महत्वपूर्ण आधार है -  इतिहास, वर्तमान और भविष्य-दृष्टि के साथ साहित्य की अन्तःप्रक्रियाओं की पहचान और मूल्यांकन। केदार नाथ सिंह इस सन्दर्भ में अपनी सचेत भूमिकाओं के साथ हमारा ध्यान आकृष्ट करते दिख सकते हैं। उनके अनेक समकालीनों में इस आधार पर विचलन और विभ्रम की स्थितियां बनी दिखती हैं। अपने समय और वातावरण की अनेक भ्रामक व्याख्याओं के प्रभाव में अनेक को यथास्थिति या विपर्यय के पक्ष में भ्रमित होते या रास्ता बदलते देखा गया है। ऐसे माहौल में केदार जी की यह सजगता उनके आलोचकीय विवेक के महत्व को उद्घाटित करती है।  कहना न होगा की केदार जी का यह आलोचकीय विवेक उनके समय और समाज के बोध की उपज है।  वह सामाजिक–सांस्कृतिक प्रक्रिया का परिणाम है।  इस प्रक्रिया के प्रति केदार जी न केवल अपने कवि-कर्म में, बल्कि अपने साहित्य-चिन्तन में भी बराबर संवेदनशील बने रहे हैं। इसीलिए उनकी कविताओं की तरह उनके साहित्य-विषयक वैचारिक परिप्रेक्ष्य में भी सामाजिक-सांस्कृतिक बोध के सृजनशील अवयवों की उपस्थिति दिखती है।  समाज और संस्कृति से निरपेक्ष न रचना सम्भव है और न आलोचना। उन्हें पता है कि इतिहास की विकास-यात्रा में न तो समाज-संस्कृति का यह बोध स्थाई है और न ही साहित्य का स्वरुप। इसलिए, वे चारित्रिक अभिलाक्षणिकतों के आधार पर अपने समय को पहचानते हुए शब्दों की नयी भूमिका परिभाषित कर लेना चाहते हैं। कविता के सन्दर्भ में हिंदी आधुनिकता के अर्थ को खोजने की चिंता के पीछे केदार नाथ सिंह को इतिहास, वर्तमान और भविष्य के परिप्रेक्ष्य में साहित्य और समाज के इस नये बदलते हुए बोध के महत्व का गम्भीर अनुभव है।  इस अनुभव और विचार पर ध्यान दें ‘इतिहास के एक महत्वपूर्ण दौर में आधुनिकता-सम्बन्धी बहसों ने हिंदी–मानस के एक हिस्से को थोड़ा झकझोरा था और इसलिए वह बार-बार पुनरावलोकन का आमंत्रण भी देगा ही --- खासतौर से इतिहासकारों और साहित्य के गंभीर अध्येताओं को। मुझे लगता है कि सिर्फ आधुनिकता सम्बन्धी बहस खत्म हुई है - आधुनिकता की प्रक्रिया अपने ख़ास ढंग से पूरे भारतीय सन्दर्भ में आज भी जारी है।’ केदार जी की नजर में इस प्रक्रिया की एक अत्यंत प्रगतिशील भूमिका है, जिसने हिंदी कविता की विकास-यात्रा को दृष्टि भी दी है, विचार-संवेदना भी और भाषा भी। आधुनिकता की इस प्रगतिशील अवधारणा के बावजूद केदार नाथ सिंह उसकी पश्चिमी अभिव्यक्ति के प्रति सावधान हैं और इससे जुड़ी अपनी चिंता के पक्ष में वे मुक्तिबोध को याद करते है -‘नई हिंदी कविता में जो आधुनिक भाव-बोध है, वह पश्चिमी जगत के व्यक्तिवादी-निराशावादी दर्शन से अनुप्राणित हो, या भारत के अपने भविष्य-स्वप्न से?’ केदार जी इस संकट के मद्देनजर अपने समय और समाज के वर्तमान और भविष्य के सन्दर्भ में आधुनिकता को ‘मुक्ति की आकांक्षा’ से जोड़ते हुए ‘पश्चिमोन्मुख आधुनिकता’ और ‘ठेठ भारतीय आधुनिकता’ के द्वंद्व का प्रश्न उठा देते हैं - ‘मेरी आधुनिकता की एक चिंता यह है कि उसमें लालमोहर कहाँ है? मेरी बस्ती के आखिरी छोर पर रहने वाला लालमोहर वह जीती-जागती सचाई है, जिसकी नीरंध्र निरक्षरता और अज्ञान के आगे मुझे अपनी अर्जित आधुनिकता कई बार विडम्बनापूर्ण लगने लगती है।’ इस अर्जित आधुनिकता के सामने वे ठेठ भारतीय सन्दर्भों में सामन्ती अवशेषों, जाति-संरचना के यथार्थ, हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष, पर्यावरण, गाँव और शहर के फर्क के सवाल उठाते हैं। उनका मानना है कि इन सवालों से टकराते हुए ही हम अपने इतिहास से, अपने ही समाज और संस्कृति के भीतर अपने लिए आधुनिकता का कोई अर्थ तलाश कर सकते हैं - ‘आधुनिकता की जड़ें अपने समय और समाज के संघर्षों की उस लम्बी परम्परा में हैं, जो परिवर्तन की एक दीर्घ प्रक्रिया के अंतर्गत धीरे-धीरे विकसित होती रही हैं।’ केदार जी अपने इतिहास और समकाल, अतीत और वर्तमान, दोनों के बीच आवाजाही रखने वाले विचारक हैं। उन्हें पता है कि साहित्य का चिन्तन अपने इतिहास, परम्परा और समय से विच्छिन्न नहीं हो सकता।



अनेक कवि-आलोचकों की तरह केदार जी भी समकालीनता को रचना और आलोचना के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। अपने समय के शब्दों में अपने समय की बात करने वाला लेखक अपनी समकालीनता से सम्बद्ध है - यह अलग से स्पष्ट करने की शायद जरूरत नहीं। पर, केदार जी के लिए समकालीनता केवल भौतिक–आर्थिक प्रश्नों और समस्याओं का समय–सन्दर्भ नहीं है। कविता और साहित्य के लिए समकालीनता का आशय उन्हें उन जगहों पर ले जाता हुआ दिखता है, जहां सामान्यतः लोग ध्यान नहीं देते। समकालीन कविता और आज के समाज के बीच के रिश्ते पर केदार जी की नजर है और वे अनुभव करते हैं कि इस रिश्ते में फांक आई है तथा पाठक, श्रोता या सहृदय समाज कविता की पहुँच से कहीं दूर छूट गया है।  इस अनुभव के बारे में केदार जी की स्वीकारोक्ति है कि एक समकालीन रचनाकार के नाते यहाँ वे अपनी स्थिति को थोड़ा विडम्बनापूर्ण पाते हैं और लिखते समय अपनी स्थिति के इस दंश को भूलना नहीं चाहते। समकालीन संकटों की चर्चा में बार-बार बाज़ार और उपभोक्ता–समय का सन्दर्भ आता है।  मनुष्य के सामाजिक-भौतिक अस्तित्व, उसकी संस्कृति और संवेदना के लिए वैश्विक स्तर पर जो नई समस्याएँ पैदा हुई हैं, उनके बारे में विमर्श का एक उत्तेजक वातावरण बना हुआ है।  केदार जी को इन संकटों का भी ध्यान है, पर एक कवि के रूप में वे अपनी समकालीनता के भीतर से साहित्य के लिए पैदा होने वाले संकटों को रेखांकित करते हुए उसके जोखिम से परिचित कराते हैं और एक कवि के रूप में अपनी भूमिका को याद करते है – ‘मेरी पहली लड़ाई अपने मोर्चे पर ही है और वह यह कि किस तरह कविता को मानव-विरोधी शक्तियों के बीच मानव-संवेद्य बनाए रखा जाय।’ 



केदार जी साहित्य-चिन्तन में भावुकता के खतरों को पहचानते हैं। वे जानते हैं कि इससे विचार-प्रक्रिया में एक विचलन पैदा होता है।  यह मूल्यांकन और निष्कर्षों की वैधता को भी प्रश्नांकित करता है। इसलिए एक आपेक्षिक वस्तुपरकता उनमें उन क्षणों में भी मौजूद दिखती है, जब वे अपने आलोचना–कर्म के सबसे घनिष्ठ आत्मीय क्षणों में होते हैं। आधुनिक कविता के सन्दर्भ में  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की काव्य-दृष्टि के बारे में विचार करते हुए हिंदी आलोचना के इस पथिकृत आचार्य के अवदान और महत्व के प्रति केदार जी का यह आत्मीय  सम्मान–भाव बहुत प्रकट है - ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल  के आलोचक व्यक्तित्व की दीर्घ छाया किसी-न-किसी रूप में लगभग पूरे आधुनिक साहित्य पर पड़ी है और उनके निधन के तैतालीस वर्ष बाद भी उस व्यक्तित्व की सजीव उपस्थिति साहित्य की कक्षाओं और आलोचना-गोष्ठियों में लगातार महसूस की जाती रही है।’ आचार्य शुक्ल के साहित्य-चिंतन और उनकी व्यावहारिक आलोचना के महत्व की अनिवार्य स्वीकृति के अनेक कारणों और आधारों की चर्चा की यथेष्ट मौजूदगी से भरे हुए साहित्य-वातावरण में, अपने पूरे सम्मान-भाव और अनेक वैचारिक स्वीकृतियों के बावजूद केदार जी अपने कई असुविधाजनक प्रश्नों और टिप्पणियों के साथ शुक्ल जी के सामने खड़े, उनसे उत्तर मांगते देखे जा सकते हैं। वे उन्नीसवीं सदी के बाद की हिंदी कविता में संवेदना और संरचना के धरातल पर होने वाले मुक्त  छंद और प्रगीत–काव्य जैसे कुछ नये प्रयोगों और परिवर्तनों के बारे में शुक्ल जी धारणा का परीक्षण करते हैं और बताते हैं कि शुक्ल जी अपनी काव्यात्मक अभिरुचि और आस्वाद-बोध की सीमाओं के चलते नई विकसित हो रही अनेक सर्जनात्मक सम्भावनाओं के ऐतिहासिक महत्व को सही-सही परिप्रेक्ष्य में ग्रहण नहीं कर सके थे। केदार जी निर्भ्रांत हैं - ‘हम जानते हैं कि मुक्त छंद की जो परम्परा निराला से आरम्भ हुई थी, वह उसके बाद की कविता में अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम -बल्कि एक हद तक कहें तो केन्द्रीय माध्यम बन गयी। शुक्ल जी ने मुक्त  छंद के  इस विकास को कोरी विदेशी नकल मान  कर टाल दिया। पर वास्तविकता यह है कि यदि इसे हम एक विदेशी प्रभाव मान भी लें - जो कि वस्तुतः वह नहीं था – तो साहित्यिक आदान-प्रदान की दुनिया में कोई भी प्रभाव आकस्मिक नहीं होता।’ केदार जी का तर्क देखें। यह तर्क समाज और साहित्य, दोनों की अन्तःप्रक्रियाओं से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध है – ‘यह एक ऐसी दुनिया है, जहां कोई भी प्रभाव तभी सक्रिय रूप से काम करता है, जब उसके लिए ग्राहक समाज की युगीन परिस्थितियां पूर्णतः पर्युत्सुक और परिपक्व हों।’ ध्यान देने की बात है कि आधुनिकता सम्बन्धी अवधारणाओं की व्याख्या के क्रम में ‘पश्चिमी आधुनिकता’ से सचेत दूरी बनाए जाने की जरूरत पर बल और अपनी परम्पराओं से शक्ति ग्रहण करने वाली ‘ठेठ भारतीय आधुनिकता’ के पक्ष में तर्क देने वाले केदार नाथ सिंह का दृष्टिकोण इतिहास के गतिशास्त्र की समझ को महत्व देता है और किसी सार्थक नवोन्मेष में विदेशी प्रभाव की कथित भूमिका को भी निषिद्ध मान बैठने की गलती नहीं करता है। 

                                                                                                                                                                                                                                
साहित्य-चिन्तन के क्षेत्र में ‘प्रतिबद्धता’ कोई अनजाना प्रत्यय नहीं है।  इस  पर खूब विचार किया गया है।  इसके बावजूद केदार नाथ सिंह बार-बार देखे-सुने गये इस विषय को अपने विचार के लिए बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं। जीवन और समाज के साथ साहित्य के घनिष्ठ और अनिवार्य सम्बन्धों की जटिलताओं और उसके विशिष्ट रूपों के विश्लेषण में केदार जी प्रतिबद्धता  के अर्थ और मर्म की तलाश करते हैं। प्रतिबद्धताके सन्दर्भ में जीवन और साहित्य, दोनों में अंतर्प्रवेश के प्रति एक रचनाकार अथवा आलोचक की भूमिका का क्या अर्थ है - केदार जी यह अच्छी तरह जानते हैं। इसके बिना उनके ऐसे वक्तव्य की कल्पना नहीं की जा सकती– ‘एक ऐसे समय में जब मानव–विरोधी शक्तियों और पूरी व्यवस्था की महीन मार कला को धीरे-धीरे निष्क्रिय और निष्प्राण बना देने पर तुली हो, तो उसको बचाए रखने का शायद वह एक मात्र तरीका है’ जीवन में साहित्य की प्रतिबद्धता की चुनौतियों की चर्चा करते हुए इसके आगे उनका कहना है - ‘एक प्रतिद्ध लेखक की रचनात्मक चुनौतियाँ कई गुना बढ़ जाती हैं। क्योंकि अंततः उसकी प्रतिबद्धता आकार पाती है शब्द के द्वारा और शब्द से सामना होते ही लेखक एक बिलकुल नई किस्म के संघर्ष में प्रवेश करता है’ केदार जी प्रतिबद्धताके सन्दर्भ में समय, समाज और साहित्य के बीच के अन्तःसम्बन्धों की राजनीतिक विचारधारात्मक अंतर्वस्तु के महत्व को जानते हैं, इसलिए अत्यंत निर्भ्रान्त हैं – ‘आज के सन्दर्भ में एक लेखक या कलाकार के निकट प्रतिबद्धताउसकी कला का राजनीतिक आयाम है’ यह प्रतिबद्धता की राजनीतिक अंतर्वस्तु की मुखर घोषणा है। यह घोषणा आकस्मिक नहीं है। इसके अपने कारण हैं। कला-साहित्य में इसे ले कर काफी दिनों तक स्वीकृति और निषेध का एक मिला-जुला वैचारिक वातावरण बना रहा है। प्रतिबद्धता  को यदि एक ओर महत्व दिया गया, तो वहीं उसे एक अनपेक्षित विचारधारात्मक नियंता के रूप में व्याख्यायित करते हुए सृजन–विरोधी तक कह दिया गया यही नहीं प्रेम, विश्वास और आस्था को बड़ा मूल्य बताते हुए कला-साहित्य में प्रतिबद्धता की जगह इन्हें प्रतिष्ठित करने का तर्क दिया गया प्रतिबद्धता  के विरोध के ऐसे वातावरण में केदार जी के प्रति-तर्क की यह आवाज़ बहुत तीक्ष्ण और सघन है - ‘प्रतिबद्धताका वही अर्थ नहीं है, जो सामान्यतः हम ‘आस्था’ शब्द से लेते हैं। ये दो अलग-अलग ऐतिहासिक सन्दर्भों से जुड़े हुए मूल्य हैं, जो एक-दूसरे के पर्याय नहीं हो सकते आस्था एक विश्वासमूलक प्रत्यय है, जब कि प्रतिबद्धता एक ऐसी बौध्दिक अवधारणा, जिसका रुख कर्म की ओर है’ प्रतिबद्धता  की धार को कुंद करने और उसे कुछ अमूर्त दार्शनिक वचनों में निस्तेज कर  देने वाली कोशिशों से केदार नाथ सिंह अपरिचित नहीं हैं। वे एक भिन्न राजनीतिक निहितार्थ वाले इस तरह के वक्तव्यों से सजग हैं कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता  तो केवल साहित्य के प्रति हो सकती है, किसी साहित्येतर मूल्य के प्रति नहीं इसलिए वे किसी भी प्रकार के भ्रम के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते और बहुत साफ़ शब्दों में यह बता देते हैं कि लेखक जिस सामाजिक–सांस्कृतिक–राजनीतिक–आर्थिक परिवेश में सृजनरत होता है, उसकी प्रतिबद्धता  उसी से निर्धारित होती है।   




केदार नाथ सिंह के साहित्य-चिन्तन में अंतर्वस्तु और कला के प्रश्न समान रूप से विचारणीय हैं। प्रगतिशील साहित्य की यह बहुत जानी-पहचानी सीमा रही है कि वहां विषय अर्थात समाज और जीवन की संवेदनाओं तथा समस्याओं को ज्यादा महत्व दिया जाता रहा है। वहां बाद में इस दिशा में की गयी कुछ सचेत और विचारपूर्ण कोशिशों के अलावा रूप और अभिव्यक्ति-सौन्दर्य के प्रश्नों पर एक समय में बहुत कम चर्चा हुई है। केदार जी इस सीमा से बाहर खड़े देखे जा सकते हैं। उनके लिए साहित्य में अंतर्वस्तु जितना मूल्यवान है, उसके अभिव्यक्ति-विधान के प्रश्न भी उतने ही महत्वपूर्ण इसीलिए वे दोनों की चर्चा में, दोनों से जुड़े हुए प्रश्नों और समस्याओं के विवेचन में समान दिलचस्पी लेते हैं। विषय–वस्तु, यथार्थ, अनुभव और चेतना को साहित्य के लिए महत्वपूर्ण बताते हुए उनका कहना है कि रचे जाने वाले जीवन या सामाजिक कथ्य तथा  भाव और संवेदना के स्तर पर लेखक की गहरी संलग्नता होनी चाहिए स्पष्ट है कि यहाँ वे साहित्य में वस्तु-पक्ष के महत्व की चर्चा कर रहे हैं। एक जगह वे कहते हैं कि आज की कविता को बार-बार भीड़ के निकट जा कर उसकी बेचैनी को जानने और उसकी मृत संवेदना को जिलाने की कोशिश करनी होगी उस भीड़ के निकट जो हमेशा एक आपाधापी में होती है, सिर्फ भागती जाती है, रुकने का नाम नहीं लेती कविता के विषय से इस तरह की उम्मीद करने वाला यह कवि-आलोचक रूप के महत्व के प्रति अनजान नहीं है, इसीलिए वह अन्तर्निहित लय को बचाए रखने की कला को कविता की एक बड़ी चुनौती मानता है। वह यह भी कहता है कि रूप-विन्यास की भंगिमाओं को आत्मसात करते हुए उसे फिर से रूपांतरित कर लेने की क्षमता कला की सबसे बड़ी ताकत है




केदार नाथ सिंह पर रूपवादी विचारों से प्रभावित होने के आरोप लगाए जाते रहे हैं। कल्पना-तत्व और बिम्ब–विधान पर उनके गंभीर अध्ययन तथा कविताओं में बिम्बों के प्रति उनके गहरे आकर्षण एवं सांकेतिकता और अमूर्तन के शिल्पगत प्रयोगों के साक्ष्यों ने इन आरोपों को बल दिया था किन्तु, यह देखना महत्वपूर्ण है कि केदार जी के साहित्य-चिन्तन में इन आरोपों के प्रत्याख्यान मौजूद हैं। अनेक जगहों पर उन्हें रूपवादी विचार-तत्वों का निषेध करते हुए देखा जा सकता है। जीवन का सत्य उनके लिए बराबर महत्वपूर्ण बना रहा है और कला अथवा रूप के तत्व उनकी दृष्टि में इसी जीवन-सत्य के रूपायन और सम्प्रेषण के साधन के रूप में ही अर्थ पाते रहे हैं। कविता में बिम्ब-प्रयोग की जरूरत और उसकी सीमा के बारे में केदार जी का मानना है - ‘बिम्ब अपने आप में कविता का साध्य नहीं है। वह हर हालत में सम्प्रेषण की एक लम्बे समय से आजमायी हुई विधि है, जो आज के कवि के लिए, जिसके निकट भाषा दिनोंदिन अवमूल्यित होती जा रही है, बहुत महत्वपूर्ण है’ केदार जी बिम्ब या रूप-विन्यास के प्रश्न को कविता के सम्प्रेषण–मूल्य से जोड़ कर अपने ऊपर लगाए जाने वाले रूपवाद के आरोपों को व्यर्थ सिद्ध कर देते हैं।



केदार नाथ सिंह के साहित्य-चिन्तन का यह गद्य प्रचलित और अभ्यस्त आलोचना-भाषा में एक रचनात्मक विचलन है। यह आलोचना–भाषा की स्थापित एकरसता को तोड़ता है। आलोचना के जड़ीभूत अवधारणात्मक भाषा-विधान में यह एक हस्तक्षेपकारी विक्षोभ है। इस आलोचनात्मक गद्य से गुजरते हुए उध्दरणों के पहाड़ नहीं दिखते, बात-बात पर अपने निष्कर्षों के लिए जुटाए गये प्रमाणों के झाड़-झंखाड़ और विभिन्न विचारों–मतवादों के ऊबड़-खाबड़ रपटीले रास्ते भी नहीं यहाँ मन ऊबता नहीं, आलोचना में भी कविता का रसात्मक संतोष प्राप्त करता है। आलोचना–परिसर के एक बड़े अपाठ्य हिस्से से थका-ऊबा मन यहाँ अपनी विश्रांति के लिए एक सुंदर–सी जगह तलाश कर सकता है।



एक पूर्णकालिक पेशेवर आलोचक सिध्दान्तों और विचारों की दुनिया में जिस तरह की जटिल आवाजाही सम्भव करता है, विचार-सूत्रों और अवाधारणात्मक प्रत्ययों से जैसे खेलता है, ध्वंस और निर्माण की वैचारिक कारवाईयों में उसका शब्द-कर्म जैसे आकार प्राप्त करता है, केदार नाथ सिंह के यहाँ वैसा कुछ नहीं होता यहाँ तो कवि-कर्म की तरह ही एक खुली हुई दुनिया है, जहां सब कुछ स्पष्ट, निर्भ्रान्त, पारदर्शी और आत्मीय है। केदार जी आलोचना में कोई दावेदारी नहीं प्रस्तुत करते एक विनम्र रचनाकार कविता, साहित्य, समाज, जीवन और इस पूरी सृष्टि के विस्तार में इन सबके बीच के सम्बन्धों को, उसकी गति और विकास को जैसा समझता है और अपनी भूमिका, या अपने सरोकारों को जैसे परिभाषित करता है, वही सब कुछ इनके आलोचनात्मक लेखन में मौजूद है। केदार जी के प्रसंग में यह देखना निश्चय ही काफी दिलचस्प होता है कि अपनी कविताओं में भाव-तत्वों से काम लेने का प्रायः आभास कराने वाला एक कवि किस तरह तर्क और विचार की जटिल बौध्दिक दुनिया में प्रवेश करता हुआ साहित्य और जीवन के प्रश्नों के बारे में कैसे वस्तुपरक हो जाता है! केदार जी के यहाँ जो बातें बहुत सीधे–सादे ढंग से कह दी गयी होती हैं, उनकी भी गहराई में वैचारिक द्वंद्वों और टकराहटों की मौजूदगी का अनुभव किया जा सकता है। केदार जी अपनी विचार-प्रक्रिया में सामान्यतः बहुत शांत और स्थिरचित्त आगे बढ़ते दिखते हैं। पर, अनेक प्रश्न उनके सामने कई बार ऐसे प्रतिपक्ष के रूप में उपस्थित होते हैं, जिनके साथ वे पूरी मुस्तैदी से बहस में टकराते और उलझते हैं, तर्क करते हैं और उसका प्रत्याख्यान करते हैं। यहाँ उनकी बेचैनी और वैचारिक आवेग का एक अलग ही रूप सामने आता है। पर, ज्यादातर ये बड़ी-से-बड़ी बात भी बहुत सहज ढंग से उठा देते हैं। साधारण भाषा में असाधारण प्रश्न करते हुए उसके सर्जनात्मक समाधान की ओर इन्हें बढ़ते देखना एक भिन्न तरह का अनुभव है। शायद यह भी सादगी के सौन्दर्य का अपनी तरह का एक अलग संस्करण है। यह किसी गहन शास्त्र-अनुशीलन से निःसृत हुआ हो, प्रायः इनके यहाँ ऐसा नहीं दिखता जीवन और साहित्य, दोनों से गहरी संवेदनात्मक संलग्नता, दोनों का अनुभव और विचार ऐसी चिन्तन-प्रक्रिया का स्रोत है। हिंदी साहित्य-चिन्तन में जिस मानवीय चिंता और संवेदना की उपस्थिति को बराबर रेखांकित किया गया है,  उसका अत्यंत घनीभूत, किन्तु पारदर्शी रूप केदार जी प्रस्तुत करते हैं। सारी चिंताएं, सारे प्रश्न घूम-फ़िर कर, साहित्य में मनुष्य की खोज के रचनात्मक सरोकारों तक आकर पूर्णता प्राप्त करते हैं। यह केदार जी के साहित्य-विचार की पृष्ठभूमि में उपस्थित सर्वोच्च मूल्य है। यह उनके समग्र विचार–उद्यम की मूल प्रेरणा है।



भावुक श्रद्धांजलि समझे जाने की आशंकाओं के बावजूद यह कहने का साहस किया ही जाना चाहिए कि केदार नाथ सिंह ने अपने समय की हिन्दी आलोचना के अनेक पूर्णकालिकों से कहीं ज्यादा अर्थवान लिखा है। समाज और साहित्य को अपने समय के शब्दों में पहचानने की केदार जी की ये कोशिशें बेहद महत्वपूर्ण हैं। इन शब्दों की यह आवाज़ बहुत दूर तक और बहुत दिनों तक सुनी जाती रहेगी



अनिल कुमार राय






सम्पर्क 


प्रोफेसर अनिल कुमार राय

हिंदी विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय,

गोरखपुर

 

मोबाईल : 09415080500

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