अवन्तिका राय की कविताएँ
सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए
पर्यावरण अहम पहलू है। दुर्भाग्यवश हम मनुष्यों ने अपने विकास की प्रक्रिया
में पर्यावरण को ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। प्राचीन भारतीय लेखन
परम्परा में प्रकृति का वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलता है। लम्बे अरसे तक
यह सिलसिला चलता रहा। आज जब कहीं अधिक पर्यावरणीय चेतना की जरूरत है, लेखन,
खासतौर पर हिन्दी लेखन में कुछ अपवादों को छोड़कर यह लगभग गायब है। अवंतिका
राय की कविताओं में प्रकृति और पर्यावरण की चिन्ता और मिट्टी की सोंधी
खुशबू महसूस की जा सकती है। अपनी कविता 'चिड़ियाघर' में अवन्तिका लिखते हैं
: 'आदमी को तो प्रकृति ने बनाया था इसलिए/ ताकि वह
जंगल की सत्ता से रु ब रु हो/ समझे जीवन का मोल/ कुछ और आसान बना सके जीवन
को/ सारे के सारे जीवन के साथ।'ऐसा नहीं कि विकास से
इस कवि को कोई वितृष्णा है, बल्कि वह तो जीवन को और आसान बनाए जाने का
पक्षधर है। कवि सर्वांगीण विकास का हिमायती है। वह सारे के सारे जीवन के
साथ आगे बढ़ने का समर्थक है। वह चाहता है कि जीवन की क्यारी किसिम किसिम के
फूलों से सजे-सँवरे। अवंतिका में छपने की कोई हड़बड़ी नहीं दिखती। वे अरसे
से चुपचाप सृजन में लगे हुए हैं। छपे बहुत कम हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है अवन्तिका राय की कविताएँ।
अवंतिका राय की कविताएं
चिड़ियाघर
यह एक बड़ा भू-भाग है
दूर-दूर तक फैले पेड़ हैं
चिड़िया है, हाथी और शेर हैं
हिरन हैं, जिर्राफ और जेब्रा
मछलियां हैं और कुदरत के सबसे कोमल
निरीह, सफेद और भूरे खरगोश
रंग-बिरंगे सांप और अजगर.
जंगल नहीं यह लखनऊ का चिड़ियाघर है
एक बड़े भू-खण्ड को बांधती चारदीवारी के बीच
उड़ने को बेताब चिड़ियों को आसमान में
दस फुट की ऊंचाई पर घेरता लोहे का जाल,
शेर की दहाड़ को सुनती
पत्थर की दीवार,
यहां शिकार शेर नहीं करता
आदमी करता है उसके लिये
विशालकाय हाथी चिंघाड़ते हैं
सीखचों में बंध कर.
यहां बहुत आसान है हुक्कू बन्दर की हूकें सुनना
पर दर्शक कहते हैं
हमने उसकी हुक्कू-उक्कू सुनी है
वह काला नर हुक्कू कुछ दिनों पहले हूंकता हुआ
अकेला छोड़ गया भूरी मादा हुक्कू को.
अजगर के पिंजरे के सामने
मेरा तीन वर्षीय बेटा दहल गया
अजगर को देखकर नहीं
उसके सामने बुत बने तीन सफेद-भूरे खरगोशों को देखकर
उलटता-पलटता वह अजगर धीरे-धीरे
लील रहा था एक जिन्दा खरगोश
बगल के पिंजरे का कोबरा
सरसराता हुआ निकल गया मेरे भीतर
पापा ! चीकू को बाहर निकालो ! पापा !!
इस शीशे के बड़े जार में
दुनिया के सबसे निरीह
घास खाने वाले खरगोशों को कौन डालता है ?
यह सच है कि आदमी मुहैया करा रहा है
इक्कीसवीं शताब्दी में
अजगर का शिकार
यह सारा आयोजन किसलिये है?
इस शैतानी अमानवीयता का प्रदर्शन किसलिये है?
ताकि शहरी गुड्डी और पिन्टू मजा उठा सकें
इन रंग-बिरंगे जानवरों का
ये जिन्दा जानवर नहीं हैं
उन्हें देखने तो जंगली बीहड़ों में
खुद को बचाते जाना होता है
रास्ता बनाते हुए
पेड़ की एक पत्ती को भी न हिलाते हुए.
आदमी को तो प्रकृति ने बनाया था इसलिये
ताकि वह जंगल की सत्ता से रूबरू हो
समझे जीवन का मोल
कुछ और आसान बना सके जीवन को
सारे के सारे जीवन के साथ
पर आदमी ने खरगोश के
बच जाने के भ्रम को भी खत्म कर दिया
सारे जानवरों को डाल दिया उनके त्रासद अलगाव में
अहर्निश जिन्दगी और मौत का रोमांच खत्म हुआ,
यहां एक निश्चितता है
और इस निश्चितता में वे बुतों के मानिन्द हैं.
लड़की और आकांक्षा
मां!
मैं चिड़िया बनना चाहती हूँ
नील आसमान में उनमुक्त उड़ना चाहती हूँ
हर शाख पर बैठना चाहती हूँ
चहचहाना चाहती हूँ
तिनका-तिनका घोंसला बनाना चाहती हूँ
मां!
मैं कोयल की तरह गाना चाहती हूँ
लहलहाती फसलों को देख कर
गुनगुनाना चाहती हूँ
नदी, समुद्र, पहाड़ नापना चाहती हूँ
मां, मैं नभचरों, जलचरों, थलचरों के
इरादे भांपना चाहती हूँ
इस निःसीम से आंखे लड़ाना चाहती हूँ
अपने लिये चिड़ा मस्ताना चाहती हूँ
प्रकृति के हर रंग में नहाना चाहती हूँ
अपने होने पर इतराना चाहती हूँ
मां, मैं चिड़िया बनना चाहती हूँ!
चौराहा इण्डिया, 2004
लखनऊ
ओ. सी. आर. बिल्डिंग के सामने का चौराहा
वाह क्या कहना आहा आहा
चौराहे के बीचो-बीच थोड़ी सी जगह है
जो खाली है
बाकी हर जगह साला है साली है
नेता की दुनाली है
आदमियों की जुगाली है
गीजा है पीजा है
मुलायम का भतीजा है
ठेल है तेल है
मदारी का खेल है
उस थोड़ी खाली जगह पर खड़ा है
ट्रैफिक कन्ट्रोलर
ऐसा लगता है कि
अड़ा है या वहीं पर गड़ा है
चारों ओर भीड़ भड़क्का
धक्कम मुक्का
सबके अपने-अपने वाहन
मैटिज क्वैलिस अलटो पेलियो
सुजकी धुधकी कस के ठेलियो
साइकिल इक्का तांगा भैंसा
स्कूटर मोटर कैसा कैसा
बकरा-बकरी कुत्ता धुंआ
उनमे गड़ गया उनका सूआ
बीमार हिमार ठेला-ठेली
टोका-टोकी ढेला-ढेली
मुलायम मोलायम मोलाई वोलाई
सड़क किनारे गड़ासा दवाई
किन-किन मिठाई मोमफली लस्सी
दोकान किनारे कसाई की खस्सी
लाड़ा लाड़ी लेंढ़ा लेंढ़ी
जाड़ा जाड़ी खेढ़ा खेढ़ी
गू गो
गें गों
गों गों ओं ओं
ओ
ओम
खफछठथचटतव
जै बाबा रामदेव
जै गुरुदेव
जै हो
जे हो
बिहार के मजदूर
वे बिहार के मजदूर हैं
लेह से लखनऊ तक
लखनऊ से कलकत्ता तक
कलकत्ते से अहमदाबाद तक
फैले हुए हैं वे
वे गगनचुम्बी इमारतों पर
एक पैर पर खड़े हो कर
करते हैं काम
जब वे घर से निकलते हैं
एक हुनर ही है
जो होता है उनके पास
और दूसरा
साहस
साहस और हुनर के लेख
लिखते हैं वे देश देश
बिहार के मजदूर इतने
निपुण कैसे होते हैं अपने काम में
दरअसल वे
अन्धकार से प्रकाश तक की
अछोर यात्राएं कर चुके होते हैं
वे अनथक
आनन्दित हो
कुछ यूं करते हैं काम
जैसे जादू दिखा रहे हों
किसी ने पूछा
ये गर्दो-गुब्बार में
कैसे उठाते हैं इतने खतरे
क्या इनको भान नहीं
एक दिन इनके फेफड़े
जवाब दे जाएंगे
मेरे मुंह से निकला-
ये जिन इमारतों को
जिन सड़कों को
जिस देश को
बनाते हैं
उसमें रहने वालों से
बताने तो आयेंगे नहीं
कि अब वे नहीं रहे
उनका बनाया हुआ देश
जरूर यह बताएगा कि
उसे जिन्दा लोगों ने
स्पर्श किया है!
उनका होना
कभी गुस्सा आता है मुझे कि तुम मुसलमान
हो
और इससे भी ज्यादा कि तुम पाकिस्तानी
हो
तुम पाकिस्तान में रहते हो और तुम मेरे
दुश्मन हो
तुम दूर सीमा पार अछूत की तरह लगते हो
मुझे
..... पर तभी मैं अपने बारे में सोचता हूँ
कि तुम क्या सोच रहे होगे मेरे बारे
में
और इस क्रम में मन में कुछ प्रश्न उठने
लगते हैं
कि तुम्हें क्यों गुस्सा आता है कि मैं
हिन्दू हूँ
और तुम यह जान कर हिकारत से क्यों भर जाते हो
कि मैं भारतीय हूँ
कि मैं भारत में रहता हूँ और मैं
तुम्हारा दुश्मन हूँ
कि मैं दूर सीमा पार अछूत की तरह क्यों
लगता हूँ तुम्हें?
इससे पहले कि हम तुम एक दूसरे से यह सब
पूछें
तभी कुछ ऐसा होता है कि दूर कहीं
गूंजते हैं नारे
‘बम भोले!’, ‘अल्लाह हो अकबर!’
गाती हैं टोलियां, ‘वन्दे मातरम’ ‘हमारा पाकिस्तान’
ध्वनि होती है ‘भारत माता की जय’, ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’
और फिर धीरे-धीरे भूलता हूँ मैं
कि तुमसे कुछ पूछना था
वे मेरे चेहरे को देखते हैं फिर
तुम्हारी ओर
कुछ भांपते है, फुसफुसाते हैं अपने में
‘जोर से चिल्लाओ’, ‘नारों की गति बढ़ाओ’
‘खतरा है!’
और फिर उनके कर्णभेदी नारों में
धीरे-धीरे हम दोनों संज्ञाविहीन हो
जाते हैं
चेतनाशून्य हो भहराते हैं वहीं पर
फिर हमारे भीतर समाकृतिक
निकल कर चलने लगता है कोई दूसरा
वह कैसा भारतीय होता है? कैसा पाकिस्तानी?
कैसा हिन्दू? कैसा मुसलमान?
जिनके मन में एक दूसरे के प्रति
हिकारत का हरा पेड़ लहलहा रहा होता है
दरअसल
इस हिकारत के होने से बहुत कुछ का होना
जुड़ा है
हमारा और तुम्हारा दो होना
कैसे हिन्दू और कैसे मुसलमान का होना
भारत और पाकिस्तान का होना
और सर्वाधिक महत्वपूर्ण “उनका” होना
कम्पटीशन वाले लड़के
वे देश के दूर दराज के इलाकों से यहां
आते है,
जगह कोई भी हो सकती है जैसे बनारस, इलाहाबाद या दिल्ली
वे विश्वविद्यालयों में दाखिला लेते
हैं
और हास्टलों या शहर की डेलिगेसियों में
अपना ठिकाना बनाते हैं
उनके कमरों में तखत होते है,
कुर्सियां, टेबल, बर्तन और ढेर सारी
एन. सी. इ. आर. टी. और कम्पटीशन की
किताबें,
कमरे की दीवारों पर
वे माधुरी दीक्षित, उर्मिला या फिर
कैटरीना कैफ के पोस्टर लगाते है,
और देर रात उनका अकेलापन बांटती हैं
ये फिल्मी अभिनेत्रियां,
वे हास्टल की मेस में या शहर के होटलों
में खाते हैं
या फिर कमरे में रोटी, सब्जी और दाल पकाते हैं
पढते समय
उनके कान पर लाल नीली पेंसिलें होती
हैं
जिससे वे किताब के पन्नों पर
लिखी दो पंक्तियों के बीच
तीसरी अदृश्य पंक्ति की खोज करते हैं
उनके सपने में
आती है नीली लपलपवा बत्ती
जिसके सहारे
मकान, माधुरी और माल
की उनकी ख्वाहिश पूरी हो सके
पन्नियां बीनने वाले
उनके बाल आपस में सटे
सनकुट की तरह है,
उनके कपडे धूल और जूठ में लिथडे
पन्नियों की तरह
वे भेडों की तरह नाले के किनारे बनी
बस्तियों से निकल कर
शहर में बनी कालोनियों की
सडकों पर सुबह सबेरे
हाजिर हो जाते हैं,
उनके एक हाथ में मोम की बोरी
और दूसरे हाथ में लकुसी थमा दिया है
सरकार ने
सडक किनारे की पन्नियों को बीनने के लिए
वे कहीं के हो सकते हैं
बांग्लादेश, भारत या पाकिस्तान
पर कूडे का ढेर ही है उनका देश,
वे जूठ और मैल में लिथडी पन्नियों को
निहारते हैं
और निहारते हैं ईंट के चूल्हे पर पकती
रोटी को
पर्यटकों से
आप क्या देखते हैं
जब आप आगरा, दिल्ली, कुल्लू, जयपुर, श्रीनगर या चेन्नई घूमने जाते हैं?
मैं पूछता हूँ
आप पहाड़ घूमने जाते हैं
तो आप क्या देखते हैं?
आप बर्फ से खेलते हैं?
स्केटिंग करते हैं?
किसी पहाड़ी लड़की को
पैसे के जोर पर अपना हमबिस्तर बनाते
हैं
क्या आप पहाड़ पर क्रशर देखते हैं?
ठीक ज्वाला देवी मंदिर के बगल में
एक छोटी बातूनी लड़की के हाथ में
स्लेट की जगह फूल और बतासे देखते हैं?
पहाड़ के लोगों की पहाड़ जैसी जिन्दगी
में
ताक-झांक करना शायद आपकी आदत नहीं
समुद्र के किनारे लेट कर आप
लहरों का मजा लूटते हैं
समुद्र के भीतर हो रही हलचल
से आप वाकिफ हैं?
लहरों से सागर किनारे के बाशिन्दों को
कोई गिला नहीं
पर क्यों उदास रहने लगे हैं कुडुनकुलम
किनारे के मछुआरे
क्या आप देखते हैं?
आगरा में आप ताज को देखते हैं
ताज के चारों तरफ पसरे
पानी को आप चखते हैं?
पटनी-टाप पर आप पलंगतोड़ तम्बाकू का
स्वाद लेते हैं
संगीनों के साये में सांस लेती
घाटी को आप महसूस करते है?
भारतीय गांव पर आप इठलाते हैं
क्या आप गंगा-यमुना-सरजू-घाघरा किनारे
के
गांवों की अर्धविक्षिप्त आवाजों को
सुनते हैं?
बड़ी हसरत से आप मुम्बई जाते हैं
मुम्बई में उन्मादी चीख से रूबरू होते
हैं?
चेन्नई में आप आदमी की मूर्ति के सामने
अपना शीश नवाते हैं?
दिल्ली में आप
कुतुबमीनार की ऊंचाई से अभिभूत होते
हैं
आप उतनी ऊंचाई से दिल्ली को देखते हैं?
क्या आप ट्रेन की पटरी के इर्द-गिर्द
फैले संसार को देखते हैं?
मर्दाना कमजोरी ठीक करने उपाय
और अंग्रेजी सीखने इश्तहारों के ठीक
नीचे
पेशाब और गू से बजबजाती पन्नियों को आप
देखते हैं?
20 रूपये रोज पर हाडतोड मेहनत करते
महिलाओं, बच्चों
और चूने की डिब्बी में चूना भरते
हाथ आप देखते हैं?
पर्यटक! आप इस देश में क्या देखते हैं
जब आप घूमते हैं?
अपवित्र स्त्रियां
मनुष्यों में पवित्र ब्राह्मण!
पशुओं में पवित्र गाय!
पौधों में पवित्र तुलसी!
वृक्षों में पवित्र बरगद!
इन पवित्रों की पूजा करतीं
अपवित्र स्त्रियां!
गाती है,
सुनाती हैं
इन्हीं को
अपनी वेदना
उनके भगवान
ईंट, पत्थर और संगमरमर के बनते हैं
उनके भगवान के घर,
उनके भगवान का घर
इतना छोटा है कि
नहीं है उसमें जगह
वे जो मुसलमान है, ईसाई या कुछ और
वे जो मुस्लिम कहलाते हैं
उनके अल्लाह की गली इतनी संकरी है
कि नहीं अंट पाते हैं
जो यहूदी है, हिन्दू हैं या ईसाई
गिरिजाघर भी कितना बडा है देखने में
पर उसमें भी नहीं समा पाते हैं
नास्तिक, मुसलमान, सिक्ख या अन्य
वे जो आदिवासी हैं
खुले आसमान के नीचे
करम, साल जैसे पेडों में रहता है उनका
भगवान
वे पेडों को दुलार से जिलाते हैं उनकी
उम्र भर
और पेड जो देता है
सूखा डंठल, फूल, फल
वह भगवान का आशीर्वाद है उनके लिए
यहां पशुओं, पक्षियों, महिलाओं और मुसलमानों
सबके लिये जगह है
वर्षों पहले रिहन्द बांध ने घुसपैठ
किया था उनके इलाके में
और अब इतने वर्षों बाद सुना जाता है
वे काटते हैं कभी-कभी पेडों को
और करमा गा-गा कर
जार-जार रोते हैं
(करीब एक दशक पूर्व की रचना है जब हम
तीन – मैं, ज्ञानेश
और वाचू सर सोनभद्र की यात्रा पर गये थे)
अबू भाई
अबू भाई!
ठंड के दिनों में
दूर कश्मीर की घाटी से
मेरे फ्लैट की गली में
तैरती चली आती थी
केसर की खुशबू
तुम्हारे नूरानी चेहरे के साथ,
रिक्शे पर लदा कम्बल
करीने से रक्खी पसमीना शाल
और मेरी आंखों में
तैर जाती थी
डल झील में चलती पतवार
अबू भाई!
कश्मीर से
इस शहर तक
आने में
न जाने कितने
दिन-रात लगे होंगे
कितने झंझावात
और तब इस शहर में
एक कोना
मिला होगा
तुमको
अबू भाई!
मैं कितना स्वार्थी हूँ
कि इस जाड़े में
मेरा बेटा
महरूम रह जायेगा
तुम्हारी गंध से
अबू भाई!
मुझे यकीन है
कि तुम्हारी डल
कोई हल
जरूर निकालेगी
तुम इस मुश्किल समय में
याद कर लेना
हमारी लखनवी
गली को
विधान
आप उन्हें
अल्ल सुबह
उ. प्र. विधान सभा के दरवाजे के ठीक
सामने
रिक्शे पर औंधे पड़े हुए
देख सकते हैं
वे लोग
दिन-रात
रिक्शा खींचते हैं
और रात के किसी वक्त
सड़क किनारे का
कुछ भी खा कर
रिक्शे पर पड़ जाते हैं
उनकी कल्पना कहां तक दौड़ती है?
क्या हैं उनके सपने?
हूजूर, बबलू की मां का इलाज कराना है
मुझे!
मुझे क्या चाहिए?
मुझे एक पटरा चाहिए
जिस पर रात को चैन से सो सकूं
दोनों वक्त की रोटी मिले तो क्या कहने!
और अगर महाजन की जगह
खुद का रिक्शा हो तो
फिर तो कोई बात नहीं!
बबलुआ!
हुजूर, वह बस में खलासी है
देखो
ड्राइवरी कब तक सीख पाता है
सीख जाए तो क्या कहने!
महतारी का इलाज तो करा पाएगा
‘सामने क्या है’
हुजूर, यह छोटकी विधान सभा है
देखो, बड़की लोकसभा में
कब हमारी गोरमेन्ट आती है,
कहते तो हैं
कि बड़की में आने पर
रिक्शा अपना होगा!
पटरा अपना होगा!
चूल्हा अपना होगा!
‘सामने क्या होता है?’
हूजुर, सधुआ कहता है
यहां विधना, विधान लिखता है
बाजार
प्यार भी मुश्किल हुआ बाजार में
जिन्दगी भी मुश्किल हुई बाजार में
कुछ तो ढूंढो रास्ता बाजार का
अब नहीं है वास्ता बाजार से
घिर गया सब कुछ इसी बाजार में
बिक गया सब कुछ इसी बाजार में
कैसे-कैसे पेंचोखम बाजार में
हुए साथी दम से बेदम बाजार में
गढ लिया नायक लुटेरों को इसी बाजार ने
गढ लिया गायक लुटेरों को इसी बाजार ने
कहां छूटा
खेल भी बाजार से
कहां छूटा
तेल भी बाजार से
पहाड का क्या हाल है ये पूछिये
नदी भी बेहाल है मत पूछिये
कितने तंतर में फंसा है आदमी
बाजार का मंतर किसी से पूछिये
आओ अब फरिया के निकलें साथियों
आओ इस दरिया से निकलें साथियों
बाजार का अब ये कहर जाने को है
अब सबेरे का पहर आने को है
कवि-परिचय
उत्त्तर प्रदेश के गाज़ीपुर जिले में 4 जनवरी 1974 को। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर एवं पत्रकारिता एवं
जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा। वर्तमान में उत्तर प्रदेश सचिवालय, लखनऊ मे सेवारत।
पता
108/748
वृन्दावन योजना, लखनऊ।
मोबाइल नंबर : 9454411777
सुंदर रचनाएँ
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविताएं , "लड़की और आकांक्षा " कविता बेहतरीन । काव्य संग्रह के लिए बहुत बधाई ।
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