नन्द किशोर आचार्य की कविताओं पर पंकज पराशर का आलेख ‘पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे कोई’



नन्द किशोर आचार्य


पंकज पराशर युवा आलोचक और कवि हैं। कवि और कविता को समझने की जो समझ पंकज पराशर ने अर्जित किया है उससे हम हिंदी आलोचना के भविष्य के प्रति आश्वस्त हो सकते है। उर्दू शायरी के मूल तक पहुंचने का उनका हुनर उन्हे औरों से अलग करता है। नन्द किशोर आचार्य की कविता विराट अनुभव और  गहन अध्ययन का संगम है। एक लम्बे समयान्तराल ने इस अनुभव और अध्ययन को वह गहराई प्रदान किया है जो उनकी कविताओं को अन्य सामयिक कवियों से अलग कर देता है। आचार्य की कविता पढ़ते हुए हमें अक्सर दर्शन का भी आस्वाद मिलता है। पंकज ने आचार्य की कविताओं की परम्परा आलोक में गहन पड़ताल किया है। हाल ही में कवि नंद किशोर आचार्य की कविताओ पर पंकज ने एक आलेख लिखा है जो मधुमति नामक पत्रिका में प्रकाशित है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है पंकज पराशर का आलेख पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे कोई         


पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे कोई

(संदर्भः नंद किशोर आचार्य की कविताएँ)


पंकज पराशर


पिछले कुछ वर्षों में जब से हिंदी में उत्तर-आधुनिकता का दबाव बढ़ा है और वास्तविक से अधिक आभासी दुनिया में सोशल होने और छवि-निर्माण की चिंता आत्मरति की हद तक जा कर सताने लगी है, तब से समकालीनता की आलोचना को वास्तविक/ प्रासंगिक आलोचना कहने का चलन कुछ ज़्यादा ही बढ़ा है। समकालीनता भी ऐसी कि जिसका अर्थ-संकुचित हो कर कथा-साहित्य तक सिमट गया हो और कथा-साहित्य भी वह जो आज और अभी का एकदम टटका लेखन हो! नतीज़ा यह कि विश्वविद्यालयों में नब्बे फीसदी से अधिक शोधार्थी केवल कथा-साहित्य में/पर ही शोध(?) करते हैं। कविता, आलोचना, साहित्येतिहास, आदिकालीन और भक्तिकालीन मुद्दों पर शोध करना मानो निहायत पिछड़ेपन की निशानी हो। चूँकि जो संशिलष्ट है उसकी व्याख्या करनी पड़ती है, सो उसके पाठ, पठन और व्याख्या के लिए जरूरी मानसिक श्रम कौन करे? कक्षा में अधिकांश अध्यापकों और विद्यार्थियों का काम जब किसी लेखक, कवि, विचार, वाद, प्रवृत्ति के बारे में महज परसेप्शनऔर यंत्रों-तंत्रों द्वारा निर्मित छवि से चल जाता हो, तो फिर कौन इतनी ज़हमत करे कि मूल पाठ को ध्यान से पढ़े, कहे से अधिक दो पंक्तियों के बीच के अनकहे को समझे और इतनी मशक्कत के बाद कवि और उसकी कविता के बारे में एक स्वतंत्र राय कायम करे! तुरंता चर्चा से अर्जित तुरंता प्रतिष्ठा से मुदित होने के दौर में अब इस बात का भला क्या कीजै कि अब क्यों नहीं कोई मल्लिनाथ, ब्रजनाथ, वासुदेव शरण अग्रवाल और सीता राम चतुर्वेदी जैसे विद्वान होते हैं, जो क्रमशः कालिदास, घनानंद, जायसी के पदमावतऔर रामचरितमानस के मूल पाठ से जूझते हैं! यह अकारण नहीं कि वर्तमान आलोचना कोई नया निकष, नया अनुसंधान और नया प्रतिमान रचने की जगह पिष्ट-पेषण और चरबा-प्रस्तुतिकरण को ही मूल्यांकन का पर्याय बना देने पर आमादा है! तो दूसरी ओर, आलोचना में लेखकप्रियता के दबाव ने भी अपना इहलोक-परलोक सुधार लेने की क़ीमत पर अनभै साँच और ईमानदार विश्लेषण के दम पर अर्जित की जाने वाली विश्वसनीयता की अनदेखी की है।


हिंदी लोकवृत्त में जबसे परसेप्शन और छवि-निर्माण के प्रभाव/दबाव में आलोचना होने लगी है, ख़ास तौर पर विमर्शपरक आलोचना, तबसे अनेक संकटों से जूझ रही हिंदी आलोचना के संकट में एक और इजाफा हुआ है। एक बार किसी लेखक के बारे में यदि कोई राय बना दी जाती है और परवर्ती आलोचक उसे अनेक बार लिख-बोल देते हैं, तो उन बनी हुई राय और लिखे-बोले को अपनी नज़र से देखने, अपने निकष पर परखने की ज़हमत आम तौर पर कोई करना नहीं चाहता। हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के लेखकों पर लिखते हुए आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद के लेखन और उनके विचारों की चर्चा जिस रूप में हिंदी साहित्य का इतिहास में की, उसी को परवर्ती आलोचक दोहराते और आगे बढ़ाते रहे। जिसके कारण राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद की ऐसी छवि बनी कि वे वर्षों तक खलनायक बने रहे। वीर भारत तलवार से पहले किसी ने बनी-बनाई राय/छवि के पुनः परीक्षण की जरूरत महसूस नहीं की। जबकि हमारी परंपरा में जहाँ एक ओर वादे वादे जायते तत्वबोधः की बात की गई है, वहीं तुलसी दास ने लिखा है,

सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ॥

संकट दोतरफा है कि परंपरा का ठीक से अवगाहन परंपरावादी भी नहीं करते, वहीं कथित आधुनिकतावादियों के लिए परंपरा में कुछ भी ग्राह्य नहीं होता। यहाँ इन बातों की चर्चा करने का प्रसंग यह है कि नंद किशोर आचार्य ने चार-पाँच दशकों में काफी कविताएँ लिखी हैं और लिखने का क्रम निरंतर बना रहा है, इसके बावज़ूद उनके बारे में एक परसेप्शन बनाया गया कि वे वस्तुतः कलावादी कवि हैं। फूल-पत्ती, मौसम, रंग, जन्म-मृत्यु जैसी दार्शनिक चीजें ही उनकी कविता का विषय बनती है। जगत गति उन्हें नहीं ब्यापती। मानो जगत गति ब्यापना ही कविता की सार्थकता और उत्कृष्टता का एकमात्र पैमाना हो। इन पंक्तियों के लेखक को इस बात का खेद है कि इस परसेप्शन ने अन्यों के अतिरिक्त कहीं-न-कहीं मेरे मानस पर भी कुछ असर डाल रखा था। लेकिन एक साथ जब उनकी सैकड़ों कविताओं के पाठ से गुजरना हुआ, तो न केवल हिंदी लोकवृत्त में बनी नंद किशोर आचार्य की कवि-छवि के बारे में, बल्कि सही मायने में सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअपर अमल करते हुए उनकी कविताई, उनकी आलोचना और उनकी अन्य रचनाओं के बारे में बारहा सोचने को मज़बूर हुआ।


यह बेवज़ह नहीं कि उनकी कविताएँ पढ़ते हुए मिर्ज़ा ग़ालिब याद आए,

हुस्न-ए-फ़रोग़-ए-शम्मा-ए-सुख़न दूर है 'असद'
पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे कोई

दिल-ए-गुदाख़्ता के बग़ैर क्या कोई उन विषयों पर कविता लिख सकता है, जिन विषयों पर नंद किशोर आचार्य ने लिखते हुए सहजता का नया सौंदर्यशास्त्र ही रच डाला है? क्या यह बताने की ज़रूरत है कि गणित से ले कर जीवन तक वक्रता के विरुद्ध सरलता ही हमेशा कठिन रहा है? उनकी अधिकांश कविताएँ छोटी-छोटी साँसों की कविता है, जो मनुष्य की नश्वरता और क्षणभंगुरता जैसी अवधारणा ही नहीं, छोटी-छोटी खुशी और ग़म के अतिरिक्त छोटे-छोटे दृश्यों, छोटे-छोटे अनुभवों और छोटी-छोटी बातों से निकली किसी बात को लेकर लिखी गई हैं! जिनके असर का अंदाज़ा उनकी लघुता या दीर्घता से नहीं, घाव करे गंभीर जैसे उसके असर से लगाया जाना चाहिए। बिंब और प्रतीकों से उभरते अर्थों में नंद किशोर आचार्य दरअसल कविता का नया रूपक बनाते हैं। काव्य-भाषा के साथ काव्य-वस्तु में जो कुछ अव्यक्त और अनकहा है, उसे अभिव्यक्त और अभिव्यंजित करती उनकी कविताएँ दरअसल कविता की कलात्मक खोज भी है। इस खोज में परंपरा-बोध तो है, लेकिन जड़त्व को तोड़ने का प्रयास भी सन्निहित है। इस संदर्भ में क्रिस्टोफर कॉडवेल ने विभ्रम और यथार्थ में कविता की उत्पत्ति, सामाजिक उपादेयता और तकनीक का विस्तृत विवेचन करते हुए लिखा है कि साहित्य के सब से प्रारंभिक रूप में कविता मनुष्य की साधारण भाषा का उन्मेषीकरण थी। उस काल की कविता केवल रागात्मक न हो कर इतिहास, धर्म, दर्शन, तंत्र-मंत्र, ज्योतिष और नीति संबंधी ज्ञान का भी वहन करती थी। उसे उन्मेष प्रदान करने के लिए संगीत, छंद, तुक, मात्रा या स्वराघात, अनुप्रास, पुनरावृत्ति, रूपक इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। बाद में सभ्यता के विकास, समाज के वर्गीकरण, श्रम विभाजन और उद्बुद्ध साहित्यिक चेतना के कारण पहले की उन्मेषपूर्ण भाषा भी विभक्त हो गई। कविता ने अपने को रागों की उन्मेषपूर्ण भाषा के रूप में सीमित कर लिया और विज्ञान, दर्शन, इतिहास, धर्मशास्र, नीति, कथा और नाटक ने साधारण व्यवहार, अर्थात् कथ्य की भाषा को अपनाया। कॉडवेल के अनुसार इस मायावी सृष्टि के द्वारा शब्द शक्ति बन जाते थे। कविता सामूहिक भावों और आकांक्षाओं का प्रतिबिंब थी।  इसलिए कविता का सूक्ष्म कथ्य-उसके तथ्यों की वस्तु-नहीं, बल्कि समाज में उसकी गद्यात्मक भूमिका-उस के सामूहिक भावों की प्रस्तुति कविता का सत्य है। बकौल हर्बर्ट रीड, कविता में चिंतन के दौरान शब्द बार बार नया जन्म लेते हैं, इसलिए अनेक भाषाओं में कवि के लिए उचित ही स्रष्टा शब्द का प्रयोग किया जाता है। 




नागार्जुन ने अनेक कविताओं में दिवंगत ही नहीं, अनेक जीवित कवियों और व्यक्तियों को अपनी कविता का विषय बनाया और अविस्मरणीय और मार्मिक कविताएँ लिखीं। नंद किशोर आचार्य मीर-ओ-ग़ालिब की अनेक काव्य-पंक्तियों को उठाते हैं और उससे अलग एक नया और मार्मिक काव्य-दृश्य उपस्थित कर देते हैं! उर्दू में यह काव्य-परंपरा है कि कोई शायर अपने से बड़े और उस्ताद शायर की ग़ज़ल से कोई एक शेर उठाता है और उसी ज़मीन पर बाकी के शेर कहता है। नज़ीर अकबराबादी की का एक शेर है-

इस्लाम छोड़ कुफ़्र किया फिर किसी को क्या
जीवन था मेरा मैंने जिया फिर किसी को क्या

नज़ीर की इस ज़मीन पर निदा फाज़ली का शेर देखें,

जो भी किया, किया न किया, फिर किसी को क्या
ग़ालिब उधार ले के जिया फिर किसी को क्या

इसी प्रसंग में आगे देखें कि लखनऊ में एक शायर हुए अर्सी लखनवी। मुशायरों में उनका एक शेर काफ़ी मक़बूल हुआ,

कफ़न दाबे बगल में घर से में निकला हूँ मैं ऐ अर्सी
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए

यह शेर अच्छा है, लेकिन इसी ज़मीन पर बशीर बद्र ने अपने फ़न का कमाल दिखाया। ऊपर का मिसरा हटाया और बहुत शाइस्तगी से अपना नया मिसरा लगाया,

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए

नतीज़ा यह निकला कि अर्सी लखनवी का शेर तो उतना मक़बूल नहीं हो पाया, लेकिन उनकी ज़मीन पर कहा गया बशीर बद्र यह शेर आगे चल कर उनकी पहचान से ही जुड़ गया।


बड़े और उस्ताद शायर की ज़मीन पर कविता लिखने की परंपरा में ज़रा तरमीम करते हुए नंद किशोर आचार्य ने उस भाव-भूमि को आधार बना कर हिंदी में अनेक कविताओं की रचना की है। जिसे पढ़कर भला किसी कमबख़्त को उर्दू की उस परंपरा की याद न आएगी! हिंदी में ऐसी कुछ कविताएँ राजेन्द्र कुमार के यहाँ मिलती हैं और नंद किशोर आचार्य के यहाँ भी! मीर तक़ी मीर का एक शेर है,

हस्ती अपनी हबाब की-सी है
ये नुमाइश सराब की-सी है

इस शेर को आधार बना कर लिखी गई अपनी एक कविता दीवानगी उस की में नंद किशोर आचार्य कहते हैं,

सराब की-सी सही नुमाइश
मीर जी यह
पर वह सार्थक होगी
बेकली जब कोई
दीवानी हो कर भटकती होगी
मुझ को पाने
दीवानगी उस की हक़ीक़त
कर देगी मुझको।  

जरूरी नहीं होता कि शब्द का सामने से नजर आ रहा वही एक अर्थ ही उसका अर्थ हो। किसी अच्छे या बड़े शेर के शब्दों में अर्थ तह-दर-तह निहित होते हैं। उन निहित अर्थों तक पहुँचने के लिए पाठक को कवि के युग, युगीन परिस्थितियों, विसंगतियों, संवेदनाओं तथा मूल्यों के प्रति भी सजग होना होता है, तब जा कर ही पाठक न केवल शेर का पूरा लुत्फ उठा पाता है, बल्कि इससे उसकी अपनी समझ को भी विस्तार प्राप्त होता है। ख़ुदा-ए-सुख़न कहे जाने वाले शायर मीर के बारे में लोग कहते हैं कि अब तक उन्होंने जो कहा है उसमें से तीन-चार फ़ीसदी ही अच्छा शेर कहा है, लेकिन हमारी समझ की हक़ीक़त यह कि हमने मीर की संस्कृति को अपने हाथों से गंवा दिया। लोग बिल्कुल भूल गए कि उस ज़माने में प्रेम करना कैसे होता था, शायर-कलाकार का समाजी असर क्या था, उठने-बैठने के तरीक़े क्या थे, शायरी से लोग क्या अपेक्षा करते थे, दुनिया को किस नज़रिए से देखते थे। मीर ने जिंदगी के तमाम जज्बात को अपनी कलम की स्याही में डुबो कर कुछ इस तरह नुमाया किया कि उनका जादू कभी कम नहीं होता। मीर की शायरी में वो मोहब्बत है जो इंसान का इंसान से होती है। उर्दू के मक़बूल शोअरा के अशआर के बहाने जिस कैफ़ियत में वे अपनी रचना करते हैं, उसकी समृद्ध परंपरा हालाँकि उर्दू में तो है, लेकिन उर्दू में काव्य-रूप में कोई फ़र्क नहीं आता। आचार्य जी उस परंपरा से भाव ग्रहण करने के बावजूद अपनी रचना हिंदी की प्रकृति के अनुसार करते हैं और रचना के बाद उसे अपनी भाषिक प्रवृत्ति जैसा बना देते हैं। ये एक महत्वपूर्ण और रेखांकित करने वाली बात है। दूसरी बात यह कि उर्दू शायरी और उनकी सर्जनात्मकता से आचार्य जी का बहुत गहरा जुड़ाव नज़र आता है। मीर की शायरी से वे इस कदर प्रभावित हैं कि मीर के अनेक शेर को उन्होंने अपनी कविता की आधार-भूमि बनाया है,

कहें क्या जो पूछे कोई हम से मीर
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले,

जिसमें मीर व्यक्तिगत जवाबदेही और समाज के सवालों को ही नहीं, सबसे ऊपर आत्मालोचन की प्रक्रिया को रखा है। इस आधार-भूमि पर बहुत छोटी, लेकिन एक कमाल की कविता आचार्य जी रचने में सफल होते हैं,

किसे फुरसत है
हम से पूछने की मीर
ये क्या कम है
दुनिया के बेमानी शोरोगुल में
अपनी चीख़
जाए नहीं की हम ने!

वस्तुतः भारतीय कविता की आत्मा, भाषा और लिपि के बंधनों से मुक्त एक ऐसी साझी आत्मा है, जिससे आचार्य जी न केवल सहजता से जुड़ते हैं, बल्कि उर्दू की ज़मीन से उठाए गए किसी शेर के बहाने उस भाव को एक अलग नज़रिये से बिल्कुल नया मोड़, मुकम्मल विस्तार देते हैं। या कहें कि देखने का नया एक अलहदा तरीक़ा ही फ़राहम करा देते हैं।  


ग़ालिब का एक शेर है,

कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख कर घर याद आया

इस शेर को पढ़ने के बाद आचार्य जी एक कविता लिखते हैं,

नहीं असद भाई
कुछ फर्क है वीरानियाँ दोनों
 एक वीरानी
खुद बस गई है मुझमें
आबाद है पर एक वीरानी
अपने में बसा कर मुझको
नाता ही बदल गया प्यारे
कहीं वीरानी से मैं हूँ
कहीं वीरानी है मुझसे।

ग़ालिब के शेर से निःसृत भाव से अलग आचार्य जी, ग़ालिब के शब्दों और अनुभवों को अपनी सोच और अनुभवों से पाने की कोशिश करते हैं। ग़ालिब के अनेक शेर के बहाने उन्होंने अनेक कविताएँ लिखी हैं, जिससे ग़ालिब के प्रति उनके प्रेम ही नहीं, ग़ालिब के वक़्त के साथ अपनी कविता-समय के मुठभेड़ से एक नई चिंगारी पैदा करते हैं। ग़ालिब की शायरी कला और दर्शन के संयोजन का एक चमत्कारिक रूप है। यह बात कम-अज़-कम उर्दू शोअरा में ग़ालिब के अलावा किसी और को हासिल नहीं है। ग़ालिब की कामयाबी का राज़ यही है और यही वो सचाई है जो कविता और दर्शन के आपसी संबंध को स्पष्ट करता है। ग़ालिब के यहाँ इस आपसी संबंध से जो कैफियत पैदा हुई वह न तो कला है, न दर्शन, बल्कि इनके बीच की चीज़ है जिसे ग़ालिब के अलफ़ाज में शेर कह सकते हैं। ग़ालिब का एक शेर है,

हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ ग़ालिब दुश्मन आस्माँ अपना।

अब शेर पर ग़ालिबियत के उस्ताद आचार्य जी फरमाते हैं,

बेसबब नहीं है ग़ालिब
दुश्मन हो जाना उस का
अपने शब्द से कर पाया
केवल एक सृष्टि ही वह।  

अगर ग़ौर से देखा जाए तो मालूम होगा की ग़ालिब की शायरी का कमाल उनके इसी रमज़िया अंदाज़-ए-बयां में पोशीदा है। उर्दू के प्रायः सभी आलोचकों ने इस बात को स्वीकार किया है। शौकत सब्ज़वारी अपनी किताब फलसफा-ए-कलाम-ए-ग़ालिबमें लिखते हैं, ग़ालिब का कलाम सर से पांव तक रम्ज़ियत के लिबास में रचा हुआ है और यह उनके आर्ट (कला) का वह पहलू है, जिसको नज़रअंदाज़ कर देने से उनकी सोच में पाई जाने वाली नुदरत (नवीनता) की तमाम खूबसूरती बर्बाद हो जाती है। हैरत यह देखकर होती है आचार्य जी की नज़र ग़ालिब की उन तमाम-ख़ूबियों पर जाती है, जिस पर अक्सर उर्दू के बड़े-बड़े आलोचकों तक की नज़र नहीं जाती-ग़ालिब के बहाने लिखी उनकी कविताओं को पढ़ कर इस बात का साफ़ पता चलता है। अब इस चीज़ को देखिये, ग़ालिब ने तंज़ व ज़राफत से खूब काम लिया है जिसकी तह में फनकार की अनानिय्यत (खुदी, घमंड) मौजूद होती है। यही वह सचाई है जिसने ग़ालिब को हरदिल अज़ीज़ शायर बना दिया। वह किसी का भी मज़ाक उड़ाने से नहीं बाज़ आते-फरिश्तों, हूरों, जन्नत और खुद महबूब को भी मज़ाक का निशाना बनाते हैं। आचार्य उस्ताद शायर ग़ालिब की इस ख़ूबी को अपने व्यक्तित्व के साथ मेल करता हुआ नहीं पाते, लिहाजा इस प्रवृत्ति से जुड़े हुए शेर को वे अपनी कविता का विषय नहीं बनाते।  



नंद किशोर आचार्य इस मुआमले में वे मीर-ओ-ग़ालिब की शायरी तक ही महदूद नहीं रहते। हैदराबाद दक़न के शायर मख़्दूम मुहिउद्दीन के एक शेर,

रात भर दीदा-ए-नमनाक में लहराते रहे
साँस की तरह आप आते रहे, जाते रहे

को विषय  बना कर आचार्य जी ने एक कविता लिखी है, रुक भी जाना कभी। इस लघु कविता में वे लिखते हैं,

आना
जैसे आती है साँस
जाना
जैसे वह जाती है
पर रुक भी जाना
कभी
कभी जैसे वह
रुक जाती है।  

मख़्दूम के तसव्वुर का ऐसा सराहनीय विस्तार कि मुर्दा दिल भी वाह-वाह कह उठे! आचार्य जी हिंदी और उर्दू की साझी विरासत और साझी संवेदना को जिस तरह बरतते और व्यक्त करते हैं, उससे सहसा शमशेर का यह कहा सार्थक हो उठता है कि

मैं हिंदी और उर्दू का दोआब हूँ
मैं वह आईना हूँ जिसमें आप हैं। 

गौरतलब है कि दोआब की इस ज़मीन पर अनेक शोअरा के हवाले से आचार्य जी अपनी कविताई को एक नये रंग-ओ-बू से लबरेज करते हैं। नासिर काज़मी का एक शेर है,

इस शहर-ए-बेचराग़ में जाएगी तू कहाँ
आ ऐ शब-ए-फ़िराक़ तुझे घर ही ले चलें

और इसी ख़याल को कुछ अलहदा अंदाज़ में उन्नीसवीं सदी के बड़े उर्दू शोअरा में शुमार मोमिन ने कुछ यूँ बयान किया है,

तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख़्वाब-ए-अदम में शब-ए-हिजराँ होंगे। 

अब ख़्वाब-ओ-ख़याल की इस ज़मीन पर आचार्य जी की कविता यह सोच कर की पंक्तियाँ देखिये,

कल कहाँ ठिकाना
कर लेगी वह अपना
शबे-फ़िराक़ को यह सोच कर
ले आया घर अपने
लेकिन जाने का नाम ही
अब नहीं लेती वह
और मैं हूँ कि चुप हूँ
अख़लाक़न
मेहमान को कैसे कहूँ
जाओ
तुम क्या कहती हो?

बकौल शमशेर कवि घंघोल देता है। उर्दू कविता की ज़मीन से हिंदी कविता की नई अनुभूतियों से घंघोल कर नंद किशोर आचार्य ने क्या कमाल पैदा किया है, उसको दिखाने के लिए इन चीज़ों पर तफ़सील से गुफ़्तगू जरूरी थी। अब उनकी कविताई की दीगर चीज़ों पर तब्सरा करना मुनासिब होगा।

 
अपने समय का हर बड़ा कवि सिर्फ मनुष्य और मनुष्य के सुख-दुख और उसकी समस्याओं तक ही अपने कबित-बिबेक को सीमित नहीं रखता, बल्कि भाषा और कविता की अभिव्यक्ति की समस्याओं से भी अवश्य दो-चार होता है। जय शंकर प्रसाद ने चंद्रगुप्त में चाणक्य के मुँह से कहलवाया है, मेरे पास पाणिनि में सर खपाने का समय नहीं। भाषा ठीक करने से पहले मैं मनुष्यों को ठीक करना चाहता हूँ।यह और बात है कि मनुष्य को ठीक करने के बाद चाणक्य ने बाद में भाषा को भी ठीक किया और अर्थ-नीति को भी व्यवस्थित किया। भाषाओं के संदर्भ में संतकवि तुलसीदास की एक चौपाई को देखना चाहिए,

आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥

यानी कवि जब रचना करता है तो उसे भाषा को बरतते समय नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छंद रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष से दो-चार होना पड़ता है। रघुवीर सहाय अपनी एक कविता में कहते हैं,

आज भाषा ही मेरी एक मुश्किल नहीं रही
एक मेरी मुश्किल जनता है
जिससे मुझे नफरत है सच्ची और निस्संग।

नंद किशोर आचार्य के यहाँ भाव-विचार और शब्द-विचार ही नहीं, अपनी संपूर्णता में विद्यमान भाषा-विचार को भी लक्षित किया जाना चाहिए। भूले हुए शब्द की तरह में वे कहते हैं,

एक शब्द की तरह
याद आऊँगा मैं तुम्हें
किसी भूले हुए शब्द की तरह
संदर्भहीन
और तुम छटपटाओगे
निश्चय ही मेरी ख़ातिर नहीं
उस संदर्भ की ख़ातिर
मुझ में किसी अर्थ तक
जो पहुँचा दे तुम्हें।

कवि के अनुसार तुम्हें की जो छटपटाहट है, दरअस्ल वही कवि का अर्थ है। कोई कवि अपनी अभिव्यक्ति के लिए परंपरा और समाज से मिली भाषा को अपनी अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल बनाने के क्रम में उसका पुनः संस्कार या कहें पुनर्नवा तो करता ही है, सटीक अभिव्यक्ति के लिए भी जूझता है। वे मानते हैं कि भाषा और संरचना का बदलाव यथार्थ के नए रूपों और नई उद्भावनाओं को संभव बनाने के क्रम में भी होता है।


बेख़ुद बुत में उनकी इन पंक्तियों को देखना समीचीन होगा,

नहीं, कविता नहीं करता मैं
अपने शब्दों से
छील कर ख़ुद को
बेख़ुद बुत बनाता हूँ-
कभी जो नहीं दिखायी दे!  

प्रभात त्रिपाठी ने इस चीज़ को लक्षित करते हुए लिखा है, नंद किशोर भाषा को सार्वकालिक और सार्वभौमिक निरंतरता में पहचानने वाले कवि हैं और भाषा में अंतर्निहित अनुभूति की संस्कृति में, स्वयं अपनी अनुभूति को पाने और जोड़ने की खरी विकलता के कवि भी। भाषा के जीवन से उनकी कविता का संबंध, उनकी रचनात्मक प्रतिभा का संबंध कुछ इस तरह का नहीं है कि उनके पास जो है, उसे वे भाषा में लिख दें और इस तरह एक काम के उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हुए मुक्त हो जाएँ। सचाई यह है कि भाषा की जीवंतता में जिस विकलता से, जिस अंतर्निष्ठा से, उसके साथ जाहिर तौर पर जुड़े रहे हैं, वहाँ उनके आत्म की सजगता, बल्कि उनके वज़ूद की अपनी सजगता और सक्रियता का एक बोध है जरूर, पर वह भाषा के बिना नहीं है, नहीं थी और नहीं होगी, जिसमें वे इस विशिष्ट होने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।इस बात की तस्दीक करती हुई उनके लेखन के शुरुआती दौर की एक कविता है, मैं ही तो हो गया हूँ शब्द, जिसमें अपने तास्सुरात का इज़हार उन्होंने कुछ इस तरह किया है,

नहीं, कविता रचना नहीं
सुबूत है कि
मैंने अपने को रचा है।
मैं ही तो हो गया हूँ शब्द
फुफकारते समुद्र में लील लिया जा कर भी
सुबह के फूल-सा खिल आता हुआ।  


कहना न होगा कि कोई कवि जब अपनी भाषा की परंपरा में लिखता है, तो उस कवि को पढ़ते हुए स्वाभाविक रूप से उस कवि-परंपरा के कवि और उनकी कविताएँ याद आती हैं। आचार्य जी जब कहते हैं मैं ही तो हो गया हूँ शब्दसहसा शमशेर बहादुर सिंह की यह काव्य-पंक्ति याद आती है,

जा उठा के पढ़ ले काग़ज जिस पे मेरा शेर है
देखना वह शेर है या दूसरा शमशेर है ...

और घनानंद तो कह ही गए हैं,

लोगहिं लागि कवित्त बनावत,
मोहि तो मेरे कवित्त बनावत। 

रोचक यह है कि उर्दू से लेकर हिंदी तक भारतीय कविता पूरी काव्य-परंपरा, भाषा और संवेदना के अनके स्तरों के प्रकटीकरण के साथ उनके यहाँ दृष्टिगोचर होती है।


द्विवेदी युग, छायावाद से ले कर प्रगतिवाद और कमोबेश प्रयोगवादी दौर तक हिंदी के कवियों ने प्रकृति और प्रकृति के सौंदर्य की इतनी उपेक्षा नहीं की थी, जितनी पिछले दो-तीन दशक की कविताओं में दिखाई देता है। जबकि आज हमारे समाज में वस्तुओं के अंधाधुंध उपभोग और उत्पादन के तौर-तरीकों से पर्यावरण नष्ट हो रहा है, बहुत सारे जीव-जंतु लुप्त होते जा रहे हैं। प्रकृति ही मनुष्य जाति के लिए जीने के साधन जुटाती रही है और मनुष्य जाति का पालन करने के लिए पृथ्वी पर साफ पानी, साफ हवा और वनस्पति तथा खनिज उपलब्ध कराती है, लेकिन आज वही प्रकृति और पर्यावरण खतरे में है। इस संदर्भ में एक हैरत की बात यह है कि आज से सौ बरस पहले जब पर्यावरण पर कोई संकट नहीं था, तो बेहतरीन प्रकृतिपरक कविताएँ लिखी जा रही थी। अब जब कि नभ, जल और मिट्टी तीनों में प्रदूषण का स्तर ख़तरनाक स्तर पर पहुँच गया, तो प्रकृति और उसके सौंदर्य से संबंधित कविताएँ न के बराबर लिखी जा रही हैं। नंद किशोर आचार्य की बहुतेरी प्रकृतिपरक कविताएँ समकालीन हिंदी आलोचना की इस थीसिस के विरुद्ध एक एंटी-थीसिस रचती हैं और आलोचना की इस चिंता को दूर करने का प्रयास करती है,

सूखकर फट गया था तल
जिस तलैया का
उसमें भर गया है जलः
भेंट-बरसों बिछुड़े बेटे को
सूखी रोहिणी माँ
जिस तरह हरखाय
प्राणों में आशिष भर आय। 

रोहिणी माँ अर्थात् रोहिणी नक्षत्र में बारिश न होने के बाद तलैया के सूखे हुए तल में भरे हुए जल को देख कर कवि जिस तरह आशीष से भरे पुलकित होते हैं, उसे देखकर सहज रघुवीर सहाय की यह पंक्ति याद आ जाती है, मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं!बादल, वर्षा और प्यार के जल के लिए उमगते आचार्य जी के हृदय से ऐसी अनेक कविताएँ फूटती हैं,

बरसो, और बरसो जल
ताल को भरा कर दो
द्वीपिका को हरा
उगे थोड़ी घास
कोई गाछ
कुछ फूल-फल
बरसो, प्यार के जल! 

हिंदी कविता के इतिहास में निराला, नागार्जुन, केदार-शमशेर, अज्ञेय सबके यहाँ विपुल संख्या में प्रकृतिपरक कविताएँ मिलती हैं। कहते हैं कि अज्ञेय और हजारी प्रसाद द्विवेदी को सैकड़ों वनस्पतियों के बारे में अच्छी जानकारी थी, लेकिन आज की कविगण कुछ इस तरह जगत गति के चक्र में फँसे हैं कि प्रकृति उनके रचनात्मक दायरे से जैसे बाहर ही हो गई है। मगर आचार्य जी देखते हैं सूखे पत्ते भीकिस तरह

विलय हो जाते हैं
धरती में रचने
उस की लय
आकाश की ख़ातिर।’ 



यही नहीं, अपने स्वभाव से हमेशा देने की प्रवृत्ति किस तरह प्रकृति में होती है, इसका नमूना एकदम हाल की लिखी उनकी कविता में भी दिखाई देती है,

पेड़ अब प्रतीक्षा में हैं
हरे की नहीं
लकड़हारे की-
अपनी मृत्यु को भी सार्थक करने।  

प्रकृति, भाषा और प्रेम को विषय बना कर लिखी गई आचार्य जी की कविताओं की भाषा में अनुभूति की जो शुद्धता है, दो अर्थों के भय से मुक्त भाषा की जो पारदर्शिता और चमक है, वह अनेक कारणों से विरल है। वे जिस भाषा में अपनी कविता संभव करते हैं, उसकी पवित्रता और निर्मलता की निरंतरता आरंभ से अंत तक बनी रहती है, लेकिन यदि भाषिक वैविध्य और शिल्प-वैविध्य के लिहाज से देखें, तो उस मेयार पर आम तौर पर उनकी कविता में यकसांपन दिखाई देता है। हिंदी-उर्दू काव्य-परंपरा में जितने बड़े कवि हुए हैं, उन सब में भाव और अंदाज़-ए-बयाँ ही नहीं, भाषा के भी अनेक संस्तर पाए जाते हैं। वह चाहे निराला, नागार्जुन, अज्ञेय, शमशेर हों या मीर-ओ-ग़ालिब, फ़ैज़, फ़िराक़ से लेकर अहमद फ़राज़ तक। भाषा के इस्तेमाल के मुआमले में सब के सब अनेक स्वरों और अनेक स्तरों पर बात करते हैं, लेकिन न जाने क्यों नंद किशोर आचार्य के यहाँ इस बात की कोई कोशिश प्रायः नहीं नजर आती।


मसलन जिन निराला को मुक्तछंद में कविता लिखने के कारण द्विवेदी युग और छायावाद युग में किसके-किसके बोल नहीं सहने पड़े, वे निराला अपनी पुत्री पर लिखी कविता सरोज-स्मृति में छंद पर पूरे अधिकार के साथ लिखते हैं,

धन्ये, मैं पिता निरर्थक था
तेरे हित न कुछ कर सका
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित काय।

वही निराला अपनी भाषा, अपनी शिल्प को तोड़ते हुए एकदम इस भाषा में कविता लिखने लगते हैं,

अबे, सुन बे, गुलाब
भूल मत जो पाई खुशबु, रंग-ओ-आब
खून चूसा खाद का तूने, अशिष्ट
डाल पर इतराता है केपीटलिस्ट!  

यही नहीं, निराला गीत भी लिखते हैं और ग़ज़ल भी। निराला की गलें एक प्रयोग के तहत लिखी गयी हैं! उर्दू शायरी की एक चीज उन्हें बहुत आकर्षित करती थी ! वह भी उसमें पूरे वाक्यों का प्रयोग! उन्होंने हिंदी में भी गलें लिख कर उसे हिंदी कविता में भी लाने कप्रयास किया! आज हिंदी में जो गले लिखी जा रही हैं, उनके पुरस्कर्ता निराला ही हैं! उनकी एक गल का एक शेर है,

तितलियाँ नाचती उड़ाती रंगों से मुग्ध कर-करके
प्रसूनों पर लचक कर बैठती हैं, मन लुभाया है!

उर्दू के बड़े शायरों में शुमार फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने मख़्दूम की ग़ज़ल की ज़मीन पर जो कहा है, उसके क्या कहने,

जो न आया उसे कोई ज़ंजीरे-दर
हर सदा पर बुलाती रही रात-भर
एक उमीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात-भर,  

यही फ़ैज़, जो अपने इंकलाबी शायरी के लिए जाने जाते हैं, अपने भीतर के शायर को तोड़ते-फोड़ते हुए बिल्कुल ठेठ पंजाबी में उतर आते हैं,

उट्ठ उतांह नूं जट्टा
मर्दा क्युं जानैं
भुल्या, तूं जग दा अन्नदाता
तेरी बांदी धरती माता
तूं जग दा पालन हारा
ते मर्दा क्युं जानैं। 


अब इन उदाहरणों के बरक्स जब नंद किशोर आचार्य की कविताओं पर विचार करते हैं, तो पाते हैं कि भाषिक तोड़-फोड़, भाषा के अलग-अलग स्तर और अलग-अलग स्वर दृष्टिगोचर नहीं होता। शिल्प के मुआमले में भी उनके यहाँ बहुत अधिक वैविध्य नज़र नहीं आता है। लगता है जिस भाषा और शिल्प को उन्होंने साध लिया है, उसी में क़ैद हो कर रह गए हैं। अब यह जान पाना थोड़ा कठिन लगता है कि वर्तमान में जैसी भाषा और शिल्प उनके पास है, उस पर अधिकार के कारण वह कुछ नया करने, नया तोड़ने-फोड़ने से बचना चाहते हैं या इसके पीछे कहीं मानस में जोख़िम न लेने से उपजा रचनात्मकता विरोधी आलस है? जो भी हो, उनकी कविताओं में बड़े कवियों की तरह भाषा और शिल्प का वैविध्य नज़र नहीं आता।  


दिल्ली को ले कर मीर तक़ी मीर ने अनेक शेर कहे हैं। मसलन,

दिल्ली में आज भीक भी मिलती नहीं उन्हें
था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज-ओ-तख़्त का!

दिल्ली से संबंधित उनके अशआर देख कर लगता है कि जैसे उनकी शायरी में संतूर की तरह दिल्ली धीमे-धीमे बजती रहती है,

अमीर-ज़ादों से दिल्ली के मिल न ता-मक़्दूर
कि हम फ़क़ीर हुए हैं इन्हीं की दौलत से।

दिल्ली हिंदुस्तान के आसमान का एक चमकदार सितारा होने के साथ-साथ पुरानी शान-ओ-शौकत और गंगा-जमुनी तहज़ीब का मर्कज़ भी है। इसके गली-कूचे इतिहास की बेरहम सच्चाइयों के गवाह रहे हैं। यहीं के शायरों ने अपने कलाम में दिल्ली का ज़िक्र जिस जज़्बाती अन्दाज़ में किया है, वह पढ़ने से ज़्यादा महसूस करने की शय है। दिल्ली की शायरी इसके माज़ी और हाल की ऐसी तस्वीर है, जो उर्दू की शायरी के सिवा कहीं और बहुत कम मिलती है। इसी तरह हमेशा देश-दुनिया में विचरण करने वाले मैथिली के यात्री और हिंदी के नागार्जुन को अपना गाँव बहुत याद आता है,

याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते धान याद आते कमल, कुमुदनी और ताल मखान
याद आते शस्य श्यामल जनपदों के रूप-गुन अनुसार ही
रखे गए वे नाम।

मीर, नागार्जुन वग़ैरह अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि (कल्चरल लैंडस्केप) इस कदर शतधा आबद्ध हैं कि उनका भूगोल एक आकुल पुकार की तरह उनकी अनेक कविताओं में तानपुरा की तरह धीमे-धीमे बजता हुआ सुनाई देता है। इस संदर्भ में नंद किशोर आचार्य की कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि वे बीकानेर में जितना बसे हुए हैं, उससे कहीं अधिक बीकानेर ने उनके हृदय-स्थल को घेर रखा है। शायद इसलिए रावरे रूप की रीति अनूप नयो-नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिए की तरह बीकानेर की काव्य-छवि पूरी श्रृंखला के रूप में प्रकट हुई है,

पूरा शहर मानो एक छत है
आँगनों से बँटी
या कि आँगन एक
जिसको जोड़ती है छतें।  

बीकानेर शहर के इस रूप से वाक़िफ कवि नंद किशोर आचार्य बहुत बारीकी से यह भी लक्षित करते हैं,

ढहते जाते हैं
हौले-हौले बतियातीं, मुस्कातीं
काही से काली पर सावन में हरियाती
दीवारों वाले घर वे-
खुलते जाते हैं बाज़ार
व्यग्र, शोरिदां, चमकीले।
किस धज, किस ढब से
यह शहर
बेघर हुआ जाता है! 


कवि के शहर बीकानेर की इन दोनों छवियों के बीच में पसरे हुए दर्द और मार्मिकता को बहुत ध्यान से देखने की जरूरत है। एक तरफ शहर वह छवि कवि प्रस्तुत करता है जब पूरा शहर एक छत की तरह लगता था और धीरे-धीरे शहर की स्थिति यह हरियाती दीवारों वाले घरों में सज-धज के साथ तरह-तरह की दुकानें खुलती हैं और दुकानें खुलने के साथ आता बाज़ार एक छत जैसे लगते शहर के इन घरों में अपार शोर-ओ-गुल और चिल्ल-पों के साथ जिसके कारण बाजार तो बसता चला जाता है, लेकिन बीकानेर जैसा शहर बेघर होता चला जाता है! अपने समृद्ध इतिहास खान-पान की विविधता और वैशिष्ट्य के लिए ख्यात बीकानेर के बारे में एक बार किसी विद्वान ने कहा था कि यह शहर कविता कहता नहीं, बल्कि कविता को जीता है। विशेष रूप से पापड़, भुजिया और मिठाइयों के लिए मशहूर बीकानेर पापड़ बेलती स्त्रियों के इस चित्र को देखें,

लंबी साँस भर
दो घूँट जल पी कर
बेलने लगती अपना पापड़ फिर
उमसते, सर झुकाये हुए
यह नगरी।

बीकानेर पर लिखी उनकी कविताओं की भाषा इस मायने में बेहद विशिष्ट है कि वे सिर्फ़ भाषा नहीं, रंग-भाषा और चित्र-भाषा का इतना बेहतर इस्तेमाल करते हैं कि शब्दों के माध्यम से पूरा दृश्य पाठक की आँखों में खचित हो जाता है। इस प्रसंग में दूसरी बात यह कि उनकी कविताओं में उनका शहर बीकानेर ही नहीं, बीकानेर अंचल के रेत, तलैया, ताल, प्रकृति और मरूस्थल बार-बार आता है। मरूथली का सपना में वे कहते हैं,

तुम्हारी आँख में क्या
-एक बूँद ही सही
जल भरता नहीं है?
मरूथली! तुम भी कभी
सपना देखती होगी।

ऐसी कविताओं के अतिरिक्त अन्य कविताओं में उनका लोकेलइस तरह भाषा में गुँथ कर बहुत बारीक रूप में अभिव्यंजित होता है, जिसे सहजता से पकड़ पाना सबके लिए आसान नहीं। जैसे निराला की कविता को समझने के लिए थोड़ा काव्य-प्रशिक्षित मस्तिष्क चाहिए, तकरीबन उसी तरह आचार्य जी की कविताओं में व्यक्त भाव और उसके मर्म को आम कविता की तरह सहजता से नहीं पकड़ सकते। अपनी आँखों में हमेशा सुंदर का स्वप्न संजोए कवि की आँखों में जितना शहर होता है, उतना ही शहर के बनने-बिगड़ने, उठने-गिरने की लय भी होती है और गिरने-उठने के किसी भी मरहले में कवि शहर से अपने को अलग नहीं कर पाता। आख़िर अपनी दिल्ली को लेकर मियाँ ज़ौक यूँ ऐसा नहीं कह गए, इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न/ कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर। 

  
अख़ीर में एक बात कहना बेहद ज़रूरी है कि नंद किशोर आचार्य की कविताओं से गुज़रते हुए संगदिल इंसान को भी यह पता चल जाता है कि वे बेहद संवेदनशील कवि हैं, जिनके भीतर जुनून की हद तक कविता में परफेक्शनलाने की ज़िद है। अपनी समृद्ध साझी भाषिक परंपरा की गहरी समझ के साथ-साथ उससे अपनी नई आँख और नये समय के साथ संवाद करने की गहरी उत्सुकता है और उस्ताद शायरों के ख़याल से नये ख़याल को पैदा करने का बेहतरीन हुनर है। उर्दू-हिंदी के बड़े शायर ही नहीं, महाभारत के श्लोक को पढ़ते हुए भी उनके ज़ेहन में अनेक तरह के ख़याल आते हैं और वे ख़याल कविता में ढल कर प्रकट होते हैं। गोया अपने पूर्व पुरुषों के अधूरे छूट गए पक्षों और ख़यालों को पूरा करना उनकी बड़ी ज़िम्मेदारी हो जैसे। आचार्य जी भारतीय कविता के मूल चरित्र और चित्र दोनों को जिस शाइस्तगी से उठाते हैं और अपनी कविता में बिल्कुल नये रंग में प्रस्तुत करते हैं, वह कीमियागिरी अज्ञेय के बाद शायद ही किसी अन्य कवि के यहाँ दिखाई देती है। 

पंकज पराशर

  
  
सम्पर्क

हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,
अलीगढ़-202 002 (उत्तर प्रदेश), 

फोन-9634282886.  

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