हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ
हरीश
चंद्र पाण्डे अपने समय के अनूठे कवि हैं। उन की कविताओं से गुजरना समय की उन
परतों से गुजरना होता है जो खासी पेचीदी होती हैं। एक कविता को पढ़ते हुए
हम जीवन की तमाम सच्चाइयों से टकराते हैं। विकास की शताब्दी दर शताब्दी
गुजारने के बाद आज भी दिक्कत यही है कि समाज महिलाओं के प्रति एक अजीब
सी कुण्ठा से भरा हुआ है। महिलाओं के साथ बलात्कार ही नहीं सामूहिक बलात्कार
जैसी घटनाएँ अब आम हो चली हैं। ऐसा लगता है जैसे हम संवेदनशून्य हो
गए हैं। ऐसे में हरीश जी इस हकीकत से टकराते हैं और और बलात्कार के अभियुक्त
अवयस्क बेटे से माँ के आत्मसंवाद को क्रिएट करते हैं। यह एक कवि की
कल्पना है जो अन्ततः माँ के मन के साथ होते हुए भी उस नैतिक पक्षधरता का कायल
है जिसमें ऐसे दुष्कृत्यों के लिए कोई जगह नहीं है। आज पहली बार पर प्रस्तुत
हैं हरीश चन्द्र पाण्डे की कुछ नई कविताएँ।
हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं
मैं एक भ्रूण गिराना चाहती हूं
(बलात्कार के अभियुक्त अवयस्क बेटे
से एक मां का आत्मसंवाद)
मैं कैसे कह
दूं तुमने मेरा दूध नहीं पिया था
तुम्हारे
आने से ही मेरा होना सार्थक हुआ था
तुमने बहनों
के आने से हुई रिक्तता भर दी थी
मैं कैसे कह
दूं तुमने मेरा दूध नहीं पिया था
तुमने तो
इतना पिया था
इतना कि
मुझे तीतेपन की साथ शरण तक जाना पड़ा था
तुम्हारे
आने को सूंघते हुए
चला आया था
एक झुण्ड
नाल सूखने
के पहले ही
ले गया अपना
नेग
घटाएं नहीं
वे बहने थीं तुम्हारी
तुम्हारे
चेहरे पर झुकी हुई
सात तालों
के पीछे छुपाई गयीं
वे सोने की
छड़े नहीं तुम्हारे मुंडन केश थे
तुम्हारे
लटपटे बोल के
असंख्य अर्थ
थे हमारे लिए
भाषा के
बाहर रह कर
तुम हमें
अर्थों के जंगल में टहलाते रहे
ज्यों ज्यों
साफ होते गए तुम्हारे बोल
हमारे अर्थ
कयासों की दुनिया सिमटती गई
तुम आंखें
मूदते थे
तो हम सब
सपने देखने लगते थे
तुम्हारे
जल्दी-जल्दी छोटे पड़ते कपड़े
हमारी बढ़ती
खुशी के बैरोमीटर थे
तुम इंच-इंच
जितना पुरुष होते गए
हमारी
वैतरणी का पाट छोटा होता गया
एक दिन
तुम्हारी आवाज, मसें और दोस्त सब
देह की
देहरी पर खड़े हो गए
कहां जा रहे
हो मैंने पूछा नहीं कभी
कहां से आ
रहे हो पिता नहीं पूछा
तुम्हारा
पहली बार रात देर से आना
तुम्हारे
बड़े हो जाने की एक खबर थी
इन देरियों
से एकदम निश्चिंत थे हम
हमारी मांगी
हुई मन्नतें
और गंडा
ताबीज तुम्हारे साथ थे
कलावे थे
हाथ में
कि कोई और
हाथ न उठा सके तुम पर
लेकिन हमारे
पास कोई ऐसा कलावा नहीं था
जो दूसरों
की इज्जत लेने को उद्यत
तुम्हारे
हाथों को रोक सके
तुम्हारी
आंखों के रास्ते
हमें एक
सुंदर दुनिया देखनी थी
तुम्हारे
उठे हाथों में
हमें एक नया
ग्लोब देखना था
तुम्हारे
पांवों में नए-नए रास्ते लिपटे हुए थे
पर यह सब तो
तुम्हें
पशु बनाने
के लिए इकट्ठा हो गए
मैंने
किलकारी का एक पौधा लगाया था
वह अब
चीत्कारों के फल देने लगा है
क्या कमान
से निकला तीर वापस हो सकता है
क्या कोई
अपने भ्रूण-समय में पीछे जा सकता है
मैं एक
भ्रूण गिराना चाहती हूँ।
वसंत के लिए
(चित्रकार अशोक सिद्धार्थ के एक-एक
चित्र को देख कर जिसमें एक सूखे पेड़ के
प्रतिबिंब में उसकी शाखाओं में पत्ते लगे हैं।)
निपट सूख
गया यह पेड़
अपने
प्रतिबिंब में पत्ते पा गया है
प्रकृति का
हो या किसी और का
एकाधिकार
टूटने की आवाज
रंग जैसी भी
हो सकती है
ठूंठ हो
जाने के ठीक पहले के होंगे ये पत्ते
इनका पीलापन
जैसे कह रहा है हम हरे होते तो
समय कुछ और
पीछे हो गया होता
रिवाइंड करो
समय को चित्रकार
हम हरा होना
चाहते हैं
वहां सखा सखा
वनस्पतियां मिलेंगी हमें
पेड़ की जगह
पूरा जंगल मिलेगा
यही हम
यकीनन पेड़ को काटने वाले
हथियार-विचार
भी मिलेंगे
कुछ जीवाश्म
और रक्त का जम कर
कोयला हो
जाना मिल सकता है
पीछे जाने
के इस दौर में
पीछे जाने
के लिए कोई नहीं कहता
यह आम
रास्ता नहीं है
तुम वसंत के
लिए समय को रिवाईंड करो चित्रकार
इस सुख गए
पेड़ के पास
कई वसंतों
का अनुभव है।
सम्पर्क
अ/114
गोविंदपुर कालोनी
इलाहाबाद 211004
उत्तर प्रदेश
मोबाइल : 9455623176
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