नीलकान्त जी का संस्मरण 'इस दस्त में एक शहर था वो क्या हुआ?
इलाहाबाद कभी देश की साहित्यिक राजधानी हुआ करता था। अनेक नामी गिरामी
रचनाकारों पर इस शहर को फ़ख्र हुआ करता था। हिन्दी साहित्य के कई युग
प्रवर्तक इलाहाबाद से ही निकले। नीलकान्त जी ने अपने एक संस्मरण में अपने
गाँव के साथ साथ इलाहाबाद को भी शिद्दत से याद किया है। आज पहली बार पर
प्रस्तुत है नीलकान्त जी का संस्मरण 'इस दस्त में एक शहर था वो क्या हुआ?' इस संस्मरण को हमें उपलब्ध कराया है युवा कवि आलोचक अवनीश यादव ने.
इस दस्त में इक शहर था वो क्या हुआ----?
नीलकान्त
..... तो क्या, ये शहर इलाहाबाद ही था? शायद, वही
था! शायद कि अब नहीं है! उसकी संरचना, इसकी
एकता, रिद्म, हार्मोनी, लय और राग इस कदर बदल गये हैं, या कि बदल दिए गये हैं, कि इसमें, यहाँ के अधिवासी रहते हुए भी, यह अब अपरिचित और मैं इसमें एक अजनवी
जैसा खुद को पाता हूँ। इसकी तान के सारे तार टूट गये हैं, यह चलती रहती हवाओं में, एक बेसुरे तान पूरे की तरह बजता रहता
है, जिसके सुर बेमानी और अर्थहीन होते जा
रहे हैं; तथाकथित आज़ादी के बाद ही, यह सिलसिला रवानी के साथ बढ़ते-बढ़ते एक
विराना, रेगिस्तानी धुन गाने लगा, अफ़सोस कि मैं अकेला इसका गवाह, और श्रोता नहीं था, एक पूरा आलम था, नागरिक समूह था, जो लुटा-लुटा, ठगा हुआ, इस शहर का दर्शक बन कर रह गया है। अब इसे इलाहाबाद कहें, या प्रयागराज? इस नाम की तब्दील पर, मत विभाजन शुरू हुआ, किन्तु शांत हो गया और बेशुमार इसे
इलाहाबाद ही कहते हैं।
इलाहाबाद और संगम, जन-मानस में सदियों से पिरोया हुआ, पानी में नमक की तरह घुल मिल कर, अचेतन-मनस का हिस्सा बन चुका है, उससे आधुनिकता और नई संस्कृति का बोध
होता है। हाईकोर्ट, इलाहाबाद युनिवर्सिटी, कम्पनी बाग, पब्लिक लाइब्रेरी, यहाँ के सांस्कृतिक स्तम्भ हैं और
इन्हें इलाहाबाद के नाम से ही जाना जाता रहेगा। प्रयागराज तो सदियों पहले से ही, पुराणों और तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ में स्पष्ट रूप से मौजूद हैं। ‘‘भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागू‘‘ किन्तु उसे लोग भारद्वाज के नाम से ही
जानते हैं, प्रयाग के नाम से नहीं। ‘इलाहाबादी अमरूद‘ को प्रयाग के नाम से कैसे जोड़ सकते
हैं? ‘प्रयागू
अमरूद‘ कैसा रहेगा! या फिर अकबर इलाहाबादी को, ‘‘अकबर
प्रयागू‘‘ की छाप देने की ही ज़िद करते रहेंगे!
अब तक आपने जो पढ़ा, यह सही है, कि इसे आप भी यह कह सकते हैं कि यह एक
दो-पैरे का आमुख ही है। लेकिन वह निखा़लिस, मौज़ूदा
वक़्त की एक कतरन भी है, एक कोना, ऐसा कि उस जगह से, हम-आप-सभी पिछले दिनों में झाँक सकते
हैं, इलाहाबाद के गये वक़्तो में, उसके आरेख अमिट और चिरंतन तो रहेंगें
ही। यह जो सब, बोल-बोल कर आप लिख रहे हैं, पूछ सकता हूँ, क्या यह स्वगत कथन है, कि एकालाप है, कि स्मृतियों का अंतरंग प्रवाह है? कौन कहाँ? मैं कलम रोक देता हूँ! निमिष भर
कोने-अंतरों में देखता हूँ - नहीं, कोई
नहीं, कोई नहीं, तब ये आवज़ भी तो थी, क्या हुई? दूर, से आती हुई,
झिलमिल नीलिमा की लहरों पर तैरती हुई, तारों से निकल-निकल, बहुत निकट आ कर, कट कट कर, फिर धीमी, मंद स्वर में दूर जा कर अनजान
क्षितिजों में समाती जाती है- एक स्वर फिर गुनगना कर शब्द तरंग बन जाते हैं- मेरा
गाँव, गाँव, मेरा गाँव---- आह!
इलाहाबाद, मैं
उसी गाँव से आता हूँ, जाता हूँ! लेकिन, देखता हूँ, कि वह भी एक सुरीली तान की तरह, दूर बहुत, स्मृतियों में छाप छोड़ता हुआ, कही दूर चला जाता रहा है! मेरा गाँव
अकेले ही नहीं, देखे हुए सारे गाँव, नीले आकाश में, एक कारवाँ की शक्ल में, उदासी में खोए, अपने रंग खोते, कहीं चले जा रहे हैं, कहाँ, क्यों, मुझको इसकी कुछ भी खबर नहीं आती! तो
चलिए फिर वहीं चलते हैं।
लेकिन इस शर्त के साथ, शर्त
यह है, कि देर बिलम्ब, और एक दिन से ज़ियादा ठहरना मुमकिन नहीं
है, जल्दी हम वापसी करेंगे, क्योंकि इलाहाबाद तनिक इतने देर के भी
विछोह को बरदाश्त करने को राज़ी नहीं है! आँख खोलिए, देखिए हम अपने गाँव में आ गए, पहुँच
ही गये, लेकिन, सफर की थकान तो मिटानी ही पड़ेगी। दिन ढल रहा है, किसानों ने गन्ने की पेराई शुरू कर दी
है। जगह-जगह, भठिठ्यो पर कढ़ाहों में गुड़ पकाया जा
रहा है, मादक- मस्त सुगंध का सरूर लिए, सांसों में समीर, घुलता जा रहा है; देखो कितने लोग गिनती में स्वागत के
लिए तैयार हो गये। खाटों, तख़्तों और मचियों की खचाखच मच गई!
एकाएक मैं, चौकन्ना हो गया, कहा, भाइयों, मैं तो अकेला हूँ- बैठने के लिए इतने
साधनों की इतनी ज़रूरत तो थी नहीं! थी! है! है, अभी
और लोग आएँगे, जाज़िम बिछेगा, दरियाँ भी- लो, ये देखिए, रहमुल्ला और रहमुद्दीन तो आ ही गये, अब सुनिए, राम और केवट का संवाद, केवट कहता है, ‘पैर
जब तक नहीं धोऊँगा, नाव पर नहीं बिठाऊँगा, अगर यह भी अहिल्या बन गई तो मेरी
रोजी़-रोटी ही चली जाएगी। क्या बाल-बच्चों को खिलाऊँगा भूखों मर जाएंगे। बिना पग
धोए नाथ नाव ना चढ़ाइहौं!’
रहमुल्ला की हारमोनियम और रहमुद्दीन के
ढोल के बोल-राम और केवट के संवाद मुँह-मुँह बोलने लगते है! गाँव के सिवान, किसानों की जान तो सिवानों में बसती
है। मौसम का मिज़ाज़ जो भी हो, जैसा
भी हो, सुखदायक या दुखदायक हो, इसकी कुछ भी परवाह किसान को कभी होती
ही नहीं, खेतों में अपने-अपने उपजे उनके मेहनत
के अनाज, उनके स्वप्न, उन्हें सिवानों की ओर रोज़ रोज़ खैंचे
लिए चले जाते हैं। फसलों की भी बालों पर, उनकी
निगाहें, जौहरी की तरह टिकती चलती हैं, अनाज की मना कितनी होगी, दाना कैसा है, मज़बूत या पटपर है, उनकी पारखी, नज़रों से, बाएँ नहीं जाता है! अबकी फसल की जोरदार
हुमक, उसकी आमद का अनुमान ले कर, गाँव भर के लोग प्रसन्न और खुश थे, यहाँ तक कि जिनके पास खेत नहीं थे, दस्तकार, धोबी, बढ़ई-लुहार, बरई, धरिकार, दर्जी, सबके चेहरे,
फसलों की तरह, खुश और हरे भरे नज़र आने लगे थे।
गाँव के बाहर, खेतों के फैलाव को सिवान कहते थे, किन्तु
एक ही सिवान, दिशाओं के नाम से जाने जाते थे, इस तरह, पूरब का सिवान, उत्तर
का सिवान, पश्चिम का सिवान और दक्खिन का सिवान एक
ही गाँव में चार सिवान बन जाते थे। कुछ लोग, अचानक
किसी अघट घटना के घट जाने पर, उसी
घटना के नाम पर अपने खेतों का भी रख देते थे। पथरा, सिबंसा, उसरी मतुली, चमरहां, सत्ती, खुशियारी जैसे नामों से खेतों की बड़ी
साफ पहचान भी बन जाती थी। सत्ती, वह
मुखमनी थी, जो कुवाँरी थी और गर्भवती हो जाने के
बाद सरजू शुकुल की चौखट पर जा बैठी थी, और
जब उसकी चोटी पकड़ कर घसीटते हुए, एक
खजूर के वन में, ला कर पटक दिया गया, तो वहीं गिरी पड़ीं- पत्तियों और
लकड़ियों में आग लगा कर आत्मदाह कर लिया था। तब वहाँ के लोग, उस स्थान को ‘सत्ती माई‘ के नाम से पुकारते रहे। इस घटना का
वर्णन, जब छब्बू दादा बयान करते हैं, तो सिहरन के साथ रोम-रोम खड़े हो जाते
हैं।
प्रिय पाठकों, इलाहाबाद प्रस्थान करने से पहले, गाँव
में एकाक दिन और रुक जाने की मजबूरी आन पड़ी है, जिसे
ठुकरा देना नामुमकिन है। मटर और चने की फसलें गदरा गईं हैं, दिन में दोपहर को होरहा के साथ, दही और गन्ने के ताजा रस के स्वाद को, कोई भुला भी कैसे सकता है, और संध्या होते होते, भठ्ठियों पर गुड़ की पकती राब की मदमाती
सुगंन्धा से हवा बावली हो कर गाँव तक ही नहीं सरहदें पार कर माहौल में चारो खाने
विखर जाती है। पथिकों के भी साँसों में समा कर उन्हें भी छन भर के लिए बिलमा लेती
है! कोल्हाड़, गीत-गानों से गूँजने लगता है, रानी सारंगा‘‘ कथा वाचक, जो बलमू‘ के तखल्लुस से जाने जाते थे, उनका असली नाम नन्हकू था, कुछ गद्य में, कुछ पद्य में मिला कर कथा कहते थे।
जगनाथ, को भी ‘जगई‘ उपनाम से ही जानते थे। भुल्लन मियाँ
नोहागर थे, क़र्बला गाते थे- ‘हे जी घोड़े तुम तो आए, असवार तुम्हारा क्या हुआ?--- ‘‘फिरारी साधू‘‘ चनैनी में ‘लोरी और तारा’ की प्रेम-गाथा कर बखान करते करते अपनी
लाठी ले कर उठ खड़े होते, और बिचली उँगली में, लोहे की मुदरी से ठुनक-ठुनक ताल देते
हुए, लाठी को दंडताल में ढाल देते थे। तब
तक एक दो कड़ाहे, गुड़ तैयार हो जाता था। नाँच के साथ, गाने बजाने की धूम मच जाती थी।
धोबियाँ, कहरवा, कजली की लहर हिलोरें लेने लगती थीं समय-समय बदलने के साथ समूह जैसा
गूँज उठता था। जाँतसारी, रोपनी के गीत, कजरी, सुहाग गीतों स्वर चाँदनी रातों को अपने स्वरों में लपेट कर- आसमान के
विस्तार में, ऊँचे-ऊँचे मंडल में पहुँच जाते थे। अब
इन सब घटनाओं की यादें मन की परत-परत में, जो
बस चुकी थी- सतह पर आ कर,
अपनी लीलाएं दिखाती रहती हैं। हाय! वह
आखिरी शाम जब मधुपुर की सिवान से वापस घर की ओर लौट रहा था, तो देखा एक गुलाबी धार, दौड़ती हुई, हरियाली में लुकती छिपती, खेत के दूसरे सिरे से, ओझल हो गईं थी, सांझ की लाली, अपने आँचल समेटती, पेड़ों के उस पार चली जा चुकी थी- वह
कौन था? बता नहीं सकता, नहीं मैंने संगी-साथियों से इसका पता
पूछा---।
कल, हर
हाल में इलाहाबाद चल ही देना है, नहीं
तो यहाँ का जादुई चक्रब्यूह जकड़ में पकड़ कर, इसी
ज़मीन में कई बंधनों में बाँध कर, कुछ
और दिन के लिए रोक ही लेगा...। बलमू चंग पर ताल दे कर, ऊँची आवाज में रियाज़ कर रहे थे-
‘‘सुगना सून पिजड़वा कईके कहाँ परात बा,
हमसे बिछुड़ल जात
बा ना---!”
जब इलाहाबाद पहुँच गया, तो मिलते दोस्तों ने बताया, कि इस बीच अनेक महत्वपूर्ण गोष्ठियां, सम्मेलन और सास्कृतिक सम्मेलनों के
आयोजन पूर्णकाम रहे और ऐसे की अभूतपूर्व भी रहे। इनका ऐतिहासिक महत्व, इलाहाबाद की भूमि पर, वहाँ के स्थापत्यों की तरह, बुनियादी मज़बूती, और कालजयी स्मारकों की तरह कालजयी बना
रहेगा।
सन् १९२० से और स्वाधीनता संग्राम के बाद, दो तीन दशकों तक, इलाहाबाद, शिक्षा संस्कृति और साहित्य की एक अलग
राजधानी ही बना रहा, इसमें सन्देह की कोई बात नहीं। ‘निराला’, प्रेमचन्द, पंत महादेवी वर्मा, भैरव प्रसाद ‘गुप्त’ उर्दू के मशहूर एज़ाज़ हुसैन, अकबर
इलाहाबादी, तेग इलाहाबादी, फिराक़ गोरखपुरी, उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’ जैसे व्यक्ति और कृतिकार, इस
शहर के अलंकरण ही थे, और जनप्रिय लोग थे।
कहते है कि एक बार जब कोई बालक, आंगन से निकल कर, देहरी से बाहर जाकर, बाहरी परिवेश को देखने के बाद, जब दुबारा उसकी वापसी आंगन में होती
है, तो वह पहला आंगन अब बदल कर दूसरा आंगन
हो जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ था, शहर
में कुछ महीने रह कर, जब फिर गाँव गया था, तो गाँव के वो बहुत कुछ आकर्षण लुप्त
और विकृत प्रतीत होने लगे थे, कई स्तरों में अन्धकार की तहें बनी
बैठी थीं, जिनमें अशिक्षा का अन्धकार सर्वव्यापी
था। अंधविश्वास, रूढ़ियों में जकड़ा जन-जीवन दयनीय, दुखाच्छादित तो लगता ही था, और यह भी लगता है कि उनकी मानवता को
प्रेतों ने छीन कर, उन्हें स्थायी रूप से, पशुवत ढाँचे में ढाल दिया है।
फिर शहर में वापसी इस बीच सुना और पढ़ा भी, अनेक गोष्ठियाँ, सम्मेलन और नाटकों का मंचन, जन-जन ने देखा और उनकी पुरजोर तारीफ़ और
समीक्षाएँ भी हुई। अगल-बगल के जिलों तक उसकी चमक और प्रभाव व्यापित हुए। इलाहाबाद
पहुँचने के बाद, दूसरे दिन अख़बारों से खबर मिली कि आज
गवर्मेन्ट प्रेस के विशाल मैदान में एक बडे़ मुशायरे का आयोजन आरम्भ है, और ज़िगर मुरादाबादी जिसकी सदारत
करेंगे। सफाई मजदूरों से ले कर, तांगे
और रिक्शे वालों तक की जु़बान पर, इस
जलसे की चर्चा जहाँ-तहाँ सुनाई देने लगी थी। शाम का बेसब्री से इंतजार था और वह
समय, रफ़्ता-रफ़्ता, करीब आ पहुचा। हर सडक से गलियारे से और
रस्तों से, श्रोताओं का सैलाब उमड़ता हुआ, मैदान में जनसमूह के एक विशाल सरोवर की
तरह लहराने लगा- जैसे भौरों और शहद की मक्खियों की गूँज-अनुगूँज से आसमान गज़ल और
तराने गाने में मगन हो गया था।
मुशायरे का वक्त, ठीक क्षणों को लाँघ चुका था, अभी
तक आगाज नहीं हुआ क्योंकि जिगर, जनाब, मंचासीन नहीं दिख रहे थे, दिखते कैसे, अभी तक वह आए ही नहीं थे! आयोजकों में
घबराहट दिखाई देने लगी, श्रोतागण बेचैन हो उठे-अनेक नामी
गिरामी, शायर गेट की ओर गर्दन घुमा-घुमा कर
देखते फिरे, इलाहाबाद स्टेशन नजदीक ही था, दर्जनों लोग, ‘जिगर’ की खोज में उसी ओर सडक पर दौड़ पडे।
इस खोजी दल में कुछ एक ऐसे लोग थे, जिन लोगों ने कभी पहले भी उन्हें देखा
और सुना भी था। एक पेड़ के नीचे, एक
तरफ एक तॉगा खड़ा था और पास में ही दो आदमी आसनी बिछाए बैठे थे, एक सुन रहा था और वाह-वाह के साथ
मुकर्रर मुकर्रर कहे जा रहा था, जो
पढ़ रहा था ऊँची दीवार की रंगीन टोपी लगाए हुए था और कहे जा रहा था- मिसरा मुलाहिज़
हो- फिर तरन्नुम के साथ गाए जा रहा था- खोजने वालो में से एक ने सब को रोकते हुए
कहा, ‘‘लो!
देखो! हज़रत ज़िगर, यहाँ तख्तनशीन है, शायद ताँगे वाले को अपना कलाम पेश कर
रहे हैं।’’ बात सच ही थी, स्टेशन पर जब ताँगे वाले ने कहा, साहब जल्द करो, आज ज़िगर साहब आने वाले हैं, हम लोग आज सवारियाँ ढोना बन्द कर, उनको सुनने जाएंगें। जल्द करो साहब!
उसी दर पर जब ताँगा पहुँचा तो उसी जगह, शायरे
आजम ताँगा रुकवा कर, वहीं बैठ गए थे, यह बता कर कि वही जिगर है- फिर ग़ज़ल
होने लगी और ताँगे वाला सुनने लगा था, इसी
खातिर देर हो गई थी। तो ऐसी थी इलाहाबादी गंगा-जमुनी की फ़िजा, जिसे हम भूलते-भूलते-भूलते-भूलते ही जा
रहे हैं, क्या होगा आगे-आगे-आगे देखिए होता है, क्या?
ओ. टी. एस. का सांस्कृतिक तीन दिनी जलसा, जो देखे होंगे, भूले नहीं होंगे। यशपाल की षष्टपूर्ति
का जश्न, जो साहित्य सम्मेलन में प्रगतिशील
साहित्यकारों के द्वारा आयोजित था, एक
ऐतिहासिक और यादगार की मीनार ही था। गायकों और वादकों का आयोजन, विजयनगरम हाल में लक्ष्मी टाकीज और
पैलेस थिएटर में आए दिन ही होता रहता था। उदय शंकर भट्ट, बिरजू महराज जैसे नर्तक अपनी कला के
कमाल, यहाँ नुमाया कर चुके थे, जिसके दर्शक हजारों लोग रह चुके हैं।
पंडित जसराज, कुमार गंधर्व, भीम सेन जोशी, बेगम अख़्तर, गिरजा देवी के आलाप की कल-कल तरंगिणी
गंगा-जमुना, की तरंगों में, समाई हुई धारा सागर के ज्वारों से जा
मिलती हैं, आज भी! किशन महाराज, अल्लारखा, अलाऊद्दीन खाँ, ज़ाकिर हुसैन खाँ की थापें, ना धि न ना तबलों के किनारों से उठ कर
सावन के बादलों को छू कर, उन्हीं की गरज-तरज में शामिल हो जाने
के लिए बेताब हो उठती थी। पंडित रविशंकर की उगलियाँ जब सितार के तारों पर विजली की
तरह कौंधती थीं तो झंकारों के सिवाए कुछ भी सुनाई नहीं देता था माइक बाहर तक लगे
रहते थे, बाहर-बाहर कारिडोर में दीवारों से
चिपके खड़े, फर्श पर बैठे, और अगल-बगल के बालकनियों में बैठे लोग
संगीत और वादन में मशगूल, भोर तक सुनते रहते- ऐसे शहर का उसके
परिवेश और माहौल का छीजते और अपरिदित होते जाने को देख कर पूछते ही बनता है, ‘वो नगर इलाहाबाद क्या हुआ.....?’
‘जगाती’, प्रयाग संग्रहालय के मुख्य द्वार से दस
मीटर दूर पर साहित्य की एक बैठका थी, टीन
की छत से छायी हुई, एक छोटी सी जगह, रेस्तराँ, कह सकते हैं कि वह, इलाहाबाद की एक लघु आकारिक हिन्दी
संस्थान ही थी। यहाँ अक्सर हर एक दिन, शहर
के प्रायः सभी साहित्यकार आ कर बैठा करते थे। कभी-कभी यह बैठक गोष्ठियों में रूप
धारण कर लेती थी। प्रगतिशील लेखक संघ और ‘परिमल’ की दोनों खेमें भी एक साथ हो लेते थे।
श्री भैरव प्रसाद गुप्त प्रगतिशीलों के निदेशक तो थे ही, संपादन कला के धुरंधर आचार्य भी थे।
भैरव जी के साथ वहॉ पर, मार्कण्डेय, कमलेश्वर, दुष्यन्त, शेखर जोशी, ओम प्रकाश, ज्ञान प्रकाश आदि बज़ाहिर वहाँ जरूर ही
मौजूद रहा करते थे। आठ नौ बजे, ये
लोग जमा होने लगते थे। सुबह रोज ही जगाती रेस्तराँ में नाशते और चाय की व्यवस्था
अवश्य ही रहती थी। ‘जगाती’ रेस्तरॉ के मालिक का नाम भी जगाती सेठ था, जो साहित्य के अन्यतम प्रेमी और
हितकारी थे। जब शहर में मौजूद होते तो, अज्ञेय, रेणु, राहुल सांकृत्यायन, एकांकी
नाटकों के विख्यात लेखक भुवनेश्वर भी इस स्थान की यादगार में अपनी चमक छोड़ने आ ही
जाते थे।
श्री मार्कण्डेय मेरे बड़े भाई थे, एक दिन मैं भी उनके साथ, जगाती पहुंच गया था। श्री नामवर सिंह, बनारस से चल कर जब इलाहाबाद आते थे
मिन्टो रोड स्थित भाई के घर ही निवास करते थे। उन दिनों शहर की मुख्य सवारी ताँगे
और रिक्शे हुआ करते थे। दुष्यंत और कमलेश्वर एक रिक्शे पर आसीन हो गए, और एक दूसरे रिक्शे पर मार्कण्डेय जी
सीट पर दायें बाजू बैठ गए,
और श्री नामवर जी, जब कई बार उचक-उचक कर रिक्शे की सीट तक
पहुँचने की कोशिश कर रहे थे तो तभी ढीला-ढाला बनारसी काट का भगवा रिक्शे के
मडगार्ड में फँस गया, मुँह के बल जाते जाते सम्हल तो गये लेकिन
भगवा आधी पीठ तक खुल गया। सभी लोग रिक्शे से उतर पड़े और नामवर के इर्द-गिर्द खड़े
होकर पूछने लगे, ‘ कहीं
लगी तो नहीं, कहो....’
तब
रिक्शे वाला भगवा सम्हाले हुए था, इस
पर दुष्यंत ने उसे डाँटा,
कहा, ‘‘ उल्लू के पट्ठे! जानते नहीं कहाँ खोसा
जाता है? वहीं खोंस दे, उल्लू कही का।’’
दरअस्ल में, वह
नहीं जानता था, फिर कमलेश्वर ने इस काम को अंजाम दिया, फिर रिक्शे वाले, ‘ जगाती’ तब कम्पनी बाग (अब आजाद पार्क) की ओर चल पड़े और इन दिनों तो जगाती
इन लोगों की मनपसन्द जगंह थी, किन्तु
शनिवार के दिन ये लोग, काफी हाउस, सिविल लाइन्स जरूर ही जाते थे।
चार-पाँच मेजे जोड़ कर आमने-सामने बैठ जाते और बेयरा, काफी के प्याले, सबके
सामने रखता जाता था। एक तरफ इसी प्रकार ‘परिमल’ के लोग बैठ जाते थे। इसमें प्रोफेसरों
का वर्चस्व था, युनिवर्सिटी में पढ़ाते थे, किन्तु अंग्रेजी प्रोफेसर किसी आरंभ
बहस का समापन करते थे और हिन्दी के प्रोफेसर इनसे यूरोपियन भावबोध की दीक्षा लिया
करते थे। अंगेजी के प्रोफेसर बी. डी. एन. साही थे, हिन्दी के राम स्वरूप चतुर्वेदी, डॉ.
रघुवंश, डाँ. धर्मवीर भारती कुछ हिन्दी के शोध
छात्र भी थे। जो टी. एस. इलियट को पूरी तरह रट डाले- उसका लेख बहुत पापुलर हो गया
था- ‘परम्परा और व्यक्ति प्रतिभा’ उसकी कविता ‘बंजर धरती’ ( वेस्ट लैड) साही को, पूरी की पूरी कंठस्थ थी।
एक दिन कमलेश्वर ने कहा, ‘‘ साही
एक चौपाया छोटा जानवर होता है, जिसका
सारा शरीर काँटो से भरा रहता है, दुश्मन
पर इन्हीं काँटो से वह वार करता है। किसान, जब
उनको शकरकंदी या आलू के खेत में, घुस
कर फसल खाते देख लेता है तो लाठी से उसके सिर पर मारता है या फिर सहरा कर उसके
अगले पैरों पर दे मारता है,
जहाँ काँटे नहीं होते, वरना पीठ पर लाठी चलाते रहिए, वह गिरने वाला नहीं। दुष्यंत ने दुक्कड़
जोडा, ‘‘एक पशु डॉक्टर अंग्रेज इस जन्तु को
अपने साथ लन्दन ले गया, फिर शल्य चिकित्सा से, बिना काँटे का निष्कंटक रूप दे दिया-
अब उससे जो संताने होने लगी निष्कंटक ही होती है। तब तो वह असली साही कहाँ रह ही
गया- हम उसे एग्लो इंडियन साही कह सकते हैं।’’
डॉ. धर्मवीर भारती, अपनी नवेली, कांता भारती के साथ आते थे, जब काफी हाउस आते थे, बाहर एक अच्छी पान की दुकान पर रुक कर
पान खाते थे, फिर अपने घरों की राह लेते थे।
प्रगतिशील लोग भी इसी दुकान पर पान खाया करते थे, संयोग था, दोनों ग्रुप दुकान पर एक हो गया, कमलेश्वर ने कान्ता जी को पान खाने का
निमंत्रण दिया, किन्तु यह कहते हुए, कान्ता दुकान से दूर हो गयीं, एक बार मैंने लक्ष्मी कान्त के कहने पर
खा लिया था निगोड़े ने मेरा गाल काट लिया।’’ दुष्यंत
ने कहा, ‘‘चूना ज्यादा लग गया था’’ तब कमलेश्वर ने कहा, ‘‘चुने की किस्मत, या अल्ला!
और आगे बहुत बाकी है, वह सब अफसाना सा लगता है पढ़ने सुनने
में उन सब के ज़ायकों का कितनी तारीफ़ की जाए कलम की स्याही भी हँसती चलती है, आगे, कहा फिर क्या हुआ, कैसे
दुष्यंत बुर्का पहन कर एक मुगलानी से मिलने के लिए पिछले, मकान की खिडकी तक पहुंच गये थे, लेकिन आहट पा कर घर के लोग जग गये और
पकडे गए, और फिर उनकी अच्छी खासी मरम्मत हुई।
बाद में हिन्दी के वे अच्छे खासे शायर बन गये और लोकप्रियता प्राप्त की। गालिब ने
कुछ ऐसी सूरत में फस जाने के बाद लिखा था-
धौल धप्पा, उस सरापा नाज़ का शेवा नहीं
हम ही कर बैठे
थे, ग़ालिब पेशे दश्ती एक दिन (ग़ालिब)
इलाहाबाद और इलाहाबाद को पलट कर अकबर कहने में
शायद किसी को भी एतराज हो;
यद्यपि उन्होंने, प्रेम विरह और इश्कियॉ शायरी की सैकड़ों
ग़ज़ले लिख डाली हैं, मगर हास्य और व्यंग्य के जिन
तजु़र्वातों को शेरों में पिरोया है, सच
तो यह है कि गुदगुदी और विनोद के लिए ऐसे शेरों के लिए उन्हे बखूबी याद भी किया
जाता है। मिशाल के तौर पर नीचे बूट पर लिखा यह मिसरा-
बूट डासन ने
बनाया, मैंने एक मज़मू लिखा
मुल्क में मज़मू
न फैला, और जूता चल गया
या, प्रतियोगी
आशिकों पर उनका यह मजे़दार शेर, आज
के ज़माने में, इसके चलन पर कितना चस्प बैठता है, आप खुद फैसला कर देखें-
रकीबों ने रपट लिखाई है, जाके थाने में
अकबर नाम लेता है, खु़दा का इस ज़माने में
तल्खी, व्यंग्य
की चोट, उसकी कचोट, रूढ़िवादियों के ज़िगर को छलनी कर देती
है। कचहरी की नोटिस तामिल करने वाला पेशकार दस-पाँच रूपये तो हथिया लेता है मगर
अक़बर लिखते हैं-
शेख़ कुरान दिखाता फिरा, पैसा न मिला
और तोप की ताकत, अख़बार के सामने नपुंसक हो जाती है मज़मुआ देखिए-
न तीर निकालो न
तलवार निकालो
हो तोप मुक़ाबिल
तो अख़बार निकालो
ऐसे अनेक शेरों के नमूने हैं, जिसे हम मज़ाहिया शेरां में बन्द युग
सत्य और बोध के आइने में कहे, तो
कम ही कहते हैं। यह शेर कि- ‘‘लीडरों
की धूम है फालोवर कोई नहीं’’
एक नगीने जैसी चमक के लिए ज़माने की
कमतर मिशाल है- आगे एक बकवादी, आज
के मौज़ूदा ज़माने के नेता पर यह इस मिसरे के अचूक चोट,
‘हिन
हिनाया बहुत, कुछ लीद भी कर’
यह है अकबर और व्यंग्य की उनकी तिरंदाजी जो आने
वाले युग भी याद रखेगें।
सम्पर्क :
देवनगर, लीलापुर
रोड,
झूंसी, इलाहाबाद
मो. : 09695237995
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-07-2019) को "संस्कृत में शपथ लेने वालों की संख्या बढ़ी है " (चर्चा अंक- 3384) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'