उषा राय की कहानी ‘नमक की डली’
दुनिया को यह समझने में बहुत समय लगा कि समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी सोच
आम पुरुष और महिला से अलग हो सकती है. ऐसे लोगों को समलैंगिक कहा गया. अब कई एक देशों
ने इस समलैंगिक वर्ग की रुचियों-अभिरुचियों को मान्यता देना शुरु कर दिया है. साहित्य
में भी इस वर्ग की उन दिक्कतों को सामने लाने का उपक्रम शिद्दत से शुरु हो गया है जो
हमारा समाज ही उनके सामने खडा करता रहता है. इस वर्ग की चिंताओ को ले कर इस तरह की
कहानियां लिखना हमारे यहाँ आसान नहीं. लेकिन रचनाकार तो वही होता है जो अपने समय की
चुनौतियों को न केवल स्वीकार करता है बल्कि अपनी रचनाओं में उसे दर्ज भी करता है. कहानीकार
उषा राय ने ‘नमक की डली’ शीर्षक से एक कहानी लिखी है. आज पहली बार
पर प्रस्तुत है उषा राय की कहानी ‘नमक की डली’.
नमक की डली
उषा राय
“लड़की देखने आए इन लड़के वालों का दिमाग खराब रहता
है. मैं तो ये हूँ मैं तो वो हूँ, मैं बाहर का कुछ नहीं खाता, तुम्हें तो अच्छा
खाना बनाना आना ही चाहिए.... और माँ की फरमाइशों का तो
अन्त नहीं! मैडम, हमारे स्कूल की लड़की है मालविका... उसने बहुत सही जवाब दिया.”
“अच्छा.... क्या जवाब दिया?”
“बच्चू एक बार शादी हो
जाने दो, फिर देखती हूँ तुम्हें और तुम्हारी माँ को. तुम्हें सदर के
गोलगप्पे, बसंत के समोसे और
अमीनाबाद की कुल्फी न खिलाई तो मेरा नाम भी मालविका नहीं.”
“पर उन दोनों का तो अफेयर
था शायद?” मैंने पूछा.
“हाँ मैडम! पर उसकी माँ आई थी न लड़की देखने के लिए, तो उन दोनों के सवालों से परेशान हो कर मालविका ने धीरे से लड़के से कहा था. ”
सुन कर मैं मुस्कुरा
दी. स्टाफ रूम में इस तरह की चर्चाएँ माहौल को हल्के-फुल्केपन की बरकत देती हैं.
वरना अपनी ही उलझनों और लड़कियों की और उनके बारे में आने वाली तरह-तरह की
शिकायतों में सिर खपाते-खपाते इंसान पागल हो जाए. अभी कल ही तो हॉस्टल में रहने
वाली लड़कियों के आपसी संबंधों के बारे में कैसी तो बात हो रही थी. इन लड़कियों की
प्रेम की अजब-गजब कहानियाँ हैं. कैसे-कैसे वाकये हैं.
लम्बे नाखून बढाए, स्कूल बैग में छिपा कर मेकअप की चीजें ले आने वाली लड़कियों को किसी गलती पर
हल्की सजा देकर छोड़ देना और बात है, इनकी मानसिकता को
समझना और समझाना दूसरी बात. हमारे पास पढाई से जुड़ी समस्याएँ ही इतनी होती हैं
कि इन बातों के लिए समय नहीं रहता. पर कभी-कभी ये बातें इतना परेशान करतीं कि उनके
जवाब ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मैं बार-बार खुद के पक्ष में और खिलाफ होने को मजबूर हो जाती. फिर दोपहर होते-होते
ये समझ में आता कि इन लड़कियों को उम्र की यह दहलीज पार करते हुए अनुभवों के ये
कसैले घूँट तो पीने ही होंगे.
लड़कियाँ तो लड़कियाँ, अध्यापिकाओं के मामले भी कम नहीं थे. इस बीच एक अध्यापिका आई थी जो जाने-अनजाने सबकी उत्सुकता का केन्द्र बन गई थी.
वह जहाँ जाती फुसफुसाहटों के घेरे उसके साथ चलते. अपनी वेशभूषा, भाषा और व्यवहार से वह कहीं से भी अध्यापिका जैसी नहीं थी. मैंने उसे पहली बार
तब देखा था जब वह खाने के बाद दवाएँ ले रही थी. वह सामान्य कद की बहुत बोलती आँखों वाली लड़की थी. उसके होंठ मोटे
और आकर्षक थे. उसे ले कर स्टाफरूम में
फुसफुसाहटें शुरू हों गईं.
“कितनी दवाएँ खाती है!”
“पागल है!”
“क्या?”
“हाँ और नहीं तो क्या.”
“अरे.. इसके दिमाग का
इलाज चल रहा है.”
“ओ.... देखने से तो लगता है जैसे इन्होंने कभी दुख-तकलीफ देखा ही नहीं होगा.”
“फैशन के तो सातवें आसमान
पर है.”
“कुछ भी कहो .. बात है
इसमें.”
आखिरी बात कहने वाली मेरी
मित्र आराधना थी. उसने मुझे बताया कि इसका नाम रेबिना है. नई स्पोर्ट्स टीचर और
ताइक्वांडो की ब्लैक बेल्टर, शायद फैशन डिजाइनिंग का
कुछ कोर्स-वोर्स किया है. कुछ साल पहले ही यहाँ रहने आई है. मालविका के घर के
आसपास ही कहीं घर लिया है. यही वजह है कि इसकी बातें जाने-अनजाने स्टाफ रूम तक
पहुँचती रहती हैं. इतनी सारी जानकारी देती आराधना को देख कर मैंने एक मुस्कराहट परोसी और कॉपियाँ चेक करने लगी. तभी उसने
मुझ से पूछा-
“सुनो, हिन्दी की दुर्दशा के लिए कौन लोग जिम्मेदार हैं?”
“जो पुरस्कार देते और लेते
हैं.”
“वो कैसे?”
“पुरस्कार देने का मतलब है
कि हिन्दी की स्थिति अच्छी है, और पुरस्कार लेने का मतलब है कि उन्होंने अच्छा लेखन किया है- इसका मतलब दुर्दशा नहीं है. और अगर दुर्दशा
है तो इसका मतलब कि ये लोग मानने को तैयार नहीं.तो जिम्मेदार कौन हुआ, तुम ही बताओ?” आराधना का
वाद-विवाद में बहुत मन लगता है. वह तुरन्त बोली-
“हाँ बात तो तुम सही कहती
हो पर हिन्दी तो मैं ही अच्छा पढ़ाती हूँ.”
“तभी तो दुर्दशा पर बात कर
रहे हैं.” मैंने कहा तो उसने आँखें तरेरीं, और मुझे सफाई में कहना पड़ा- “मेरा मतलब है कि
इसमें क्या शक है.”
मेरे मान लेने पर वह खुश
हो गई. अपनी पानी का बोतल मेरी ओर बढ़ाया. मेरे बोतल पकड़ते ही फिर पूछ बैठी-
“सुनो सेलरी कब मिलेगी?”
मैं बोतल वापस करने लगती
हूँ तो वह मुस्करा कर कहती है- “अच्छा पी लो!”
धीरे-धीरे रेबिना भी स्टाफ
रूम के इस वातावरण का हिस्सा हो गई. लड़कियों को आत्मरक्षा के गुण सिखाने में वह
माहिर थी. उनके बीच वह मस्त रहती और काफी लोकप्रिय. परन्तु उसके स्वभाव में एक तरह
की अवहेलना थी जो ज्यादातर लोगों को अच्छी नहीं लगती थी. इम्तहान के दिनों में
उसकी ज्यादा शिकायतें आने लगतीं. एक दिन अचानक बिना किसी सूचना के वह मेरे घर आई.
“इला मैम, प्लीज मेरे साथ चल चलिए! बैंक का कुछ
जरूरी काम है, आप के सिवा मैं किसी पर भरोसा नहीं कर सकती.” वह इत्मीनान से अन्दर आ
गई.
“हाँ हाँ क्यों नहीं. आओ
बैठो, चलते हैं थोड़ी देर में.” रेबिना को देख कर अच्छा लगा मुझे. वह काफी खुश और उत्साहित लग
रही थी.
“मैंने आपको अपना बेस्ट
फ्रेंड बना लिया है, आपको कोई ऐतराज तो नहीं?”
“नहीं नहीं, तुम मुझे इला कह सकती हो.”
“थैंक्यू इला! यू आर सो
स्वीट.” कहते हुए उसने मेरा हाथ
चूम लिया. एकबारगी मुझे थोड़ा अजीब-सा लगा. एक अजनबी अहसास की तरह उसका यह व्यवहार देर
तक मेरे साथ बना रहा.
उस रोज के बाद अभी कुछ ही
दिन बीते थे कि रेबिना फिर आई. उसने चहकते हुए बताया कि उसकी शादी तय हो गई है.
फिर तो वह अक्सर ही मेरे घर आ जाती. उसके हाथ में लम्बी-चौड़ी लिस्ट होती. आज यहाँ
की शापिंग तो कल वहाँ की. रेबिना अपने पापा की गाड़ी चलाती थी. उसके पापा रेलवे में
थे. घर में माँ नहीं थी. वह माँ के बारे में बात करने से बचती थी, पर उसने जो कुछ बताया उससे यह समझ में आया कि उनकी मृत्यु किन्हीं रहस्यमय
परिस्थितियों में हुई थी. घर में छोटा भाई है जिसके लिए वह कभी-कभार कुछ चीजें ले
जाती थी. रुपए-पैसे की कमी नहीं थी. रेबिना ही अपना घर सँभालती थी. छाया उसकी
विश्वासपात्र थी जो उसके न रहने पर सबकी देखभाल करती. इस बीच मैं भी कई बार उसके
घर जा चुकी थी.
एक दिन रेबिना ने कहा- “इला, आज होटल ‘मेरा दिल’ चलना है, मैं तुम्हें लेने आऊँगी. रेबिना आई तो, लेकिन कुछ पेपर
रखना भूल गई थी, इसलिए हम फिर उसके घर गए. उसके घर के बाहर गाड़ी पार्क करने में बड़ी दिक्कत
होती थी. उसके घर के बाहर काफी शोरगुल रहता था, पर भीतर उतना ही
अजब-सा सन्नाटा पसरा रहता. हम जैसे ही बाहर निकले उसकी पड़ोसन निक्की दीदी मिल गईं
और छूटते ही उन्होंने कहा-
“अरे रेबिना! कहाँ जा रही
हो?”
“बस दीदी ऐसे ही कुछ काम
था.”
“बस काम ही करती रहोगी कि
शादी-वादी भी करोगी?”
“कर लूँगी... कोई ढंग का
लड़का भी तो मिले.”
“अरे लड़का नहीं तो कोई
लड़की ही ढूँढ़ लो.”
रेबिना का चेहरा लाल हो
रहा था. “बदतमीज कहीं की....अपने तो ससुराल से भगाई गई है पर दूसरों के मामले में टांग
जरूर अड़ाएगी.” कह कर उसने
एक्सीलेटर पर पैर रखा और एकदम से स्पीड बढ़ा दी. उसके सामान को सँभालते हुए मैंने
तुरन्त कहा- “अरे छोड़ो, तुम अपना मूड
खराब मत करो.” मेरे कहने पर वह मुस्कराई
और सामान्य भाव से गाड़ी चलाने लगी. फिर बोली- “इला! कुछ लोग होते हैं न, जिन्हें अपने
जीवन के उतार-चढ़ाव से कोई मतलब नहीं होता, वे केवल दूसरों की आलोचना करके ही जीते हैं.”
“हाँ हमारे देश में तो
ज्यादातर लोग ऐसे ही हैं.” और इसी तरह की बातें करते हुए हम होटल पहुँचे. हमने सारी बुकिंग कराई. कहीं कोई दिक्कत नहीं हुई. सब कुछ रेबिना की पसंद से
हो रहा था. रेबिना ने बैंक से जितने पैसे निकाले थे उस हिसाब से खर्चे भी लगभग ठीक थे. हम लोग एक-दूसरे को देख कर मुस्कराए.
रेबिना ने बड़े ठसक से मैनेजर से कहा-
“मिस्टर मैनेजर, हमने आपको इतना
बडा ऑर्डर दिया और आपने हमें कुछ खिलाया-पिलाया भी नहीं.”
मैनेजर आधा झुक गया और एक मुस्कान ओढ़ते हुए बोला-
“प्लीज मैडम आप लोग बैठिए, मैं अभी भेजता
हूँ. आप लोगों ने जो आइटम पसंद किए हैं मैं कोशिश करता हूँ कि उनमें से काफी कुछ टेस्ट करवा सकूँ.” हम लोग होटल के
लॉन में बैठ गए. लॉन खूब हरा-भरा था. तरतीब से काटे गए धुले-पुँछे पेड़ कुछ वास्तविक कुछ प्लास्टिक के थे. उन पर रंग-बिरंगी लट्टुओं
की खूबसूरत झालरें झूल रही थीं. पानी के फव्वारे रोशनियों के इशारे पर नाच रहे थे.
मैं सोच रही थी कि कभी-कभी हम कृत्रिमता और वास्तविकता में फर्क करना नहीं चाहते.
कृत्रिमता में हम आँखें झपका सकते हैं लेकिन वास्तविकता तो आँखें खोलने पर मजबूर
करती है. जो भी हो, इस खूबसूरत पल में हम हल्की-फुल्की बातें कर ही रहे थे कि युवा मैनेजर बेयरे
के साथ आता हुआ दिखा.
“ये खास तौर से आप लोगों
के लिए.” कहते हुए मैनेजर
हाथ बाँधे खड़ा हो गया और बेयरा स्नैक्स सर्व करने लगा. हमने जैसे ही खाना शुरू किया वैसे ही एक
लम्बी-चौड़ी स्त्री काया हमारी तरफ आती दिखी, जिसे देखकर रेबिना असहज हो गई. वह झट से उठी और लपक कर उसके पास पहुँच गई. जब तक मैं कुछ समझती वे दोनों उस तरफ बढ़ गए जहाँ हमने
मेहमानों के लिए छोटे-छोटे कॉटेजनुमा गेस्ट हाउस बुक कराए थे. मैंने थोड़ी देर तक
मोबाइल पर टाइम पास किया, फिर खीझ होने लगी. मैं रेबिना के बारे मे सोचने लगी-- कुछ
तो गड़बड़ है. उसे जो करना है करे, लेकिन मेरा समय क्यों बर्बाद कर रही है. थोड़ी ही देर बाद वह जल्दी-जल्दी आती
हुई दिखी. ऐसी चाल मैंने उन लड़कियों की देखी है जो भारी कदमों से तेज चलती हैं या
दूसरे शब्दों में कहें तो कम समय में ज्यादा पाने का दमखम रखती हैं. मेरी निगाह उस
पर टिक गई—अभी-अभी तो ठीक थी, अभी क्या हुआ....
चेहरे पर हड़बड़ाहट, बिखरे हुए बाल, अस्तव्यस्त कपड़े, पूरा मुँह लाल जैसे लाल अबीर छिटक दिया हो किसी ने, होंठ कुछ बहके
कुछ सँभले. मैं उसे बेवकूफों की
तरह ताक रही थी. मुझे ऐसे देख कर वह बोली-
“वह मेरी सहेली थी.”
“अच्छा!...तो रोका क्यों
नहीं, हमारी थोड़ी मदद
हो जाती.”
“नहीं इला, वह हमारी मदद के
लिए नहीं आई थी.”
“तो फिर?”
“वह मेरी शादी जोड़ने नहीं
तोड़ने आई थी.”
“क्या मतलब?”
“हाँ! वह मेरी शादी
रुकवाने आई थी.”उसने धीरे से एक लम्बी साँस ली और चुप हो गई. मैं उसकी आँखें देख रही थी जहाँ हर्ष और
विषाद के अबूझ रहस्य का समंदर हिलोरें ले रहा था. वहाँ एक निश्चिंत-सी चिन्ता थी.
यह सब कुछ मेरी समझ से परे था. कई सवाल उछल रहे थे. मेरा दिमाग कई सनाके खा चुका
था. पहली बात तो उसकी सहेली, जो सहेली की शादी
रुकवाने चली आई. आखिर क्यों? वह क्यों नहीं
चाहती कि रेबिना किसी की दुल्हन बने, अपने ससुराल जाए? खैर.... दूसरी
बात मैंने उसे देखा है, पर कहाँ? और तीसरी बात रेबिना के बिखरे बाल. मैं दिमाग पर जोर डालने लगी. अरे हाँ! इसे तो
मैंने रेबिना के घर पर ही देखा है. इन्चार्ज की गलती की वजह से मेरी कक्षा के
बच्चों के इम्तहान की क्रासलिस्ट उसके घर चली गई थी. उस दिन वह स्कूल नहीं आई थी, मजबूरन मुझे उस
कड़क दोपहरी में उसके घर जाना पड़ा. कॅालबेल बजाने पर एक लम्बी-चौड़ी लड़की ने दरवाजा
खोला और मुझे घूरती हुई निकल गई. उसके पीछे रेबिना आई. उसने मुझे ऐसे देखा जैसे
उसे मेरा आना नागवार गुजरा हो.
“कल रिपोर्ट कार्ड देना है
इसलिए क्रासलिस्ट मुझे अभी चाहिए थी. तुम्हें डिस्टर्ब तो नहीं किया रेबिना?” मैंने कहा था. लेकिन मेरे कहने पर भी वह सहज नहीं हुई थी. मुझे बिठाने और पानी का गिलास देने
तक वह सहज नहीं थी, जैसे कि अपनी किसी दुनिया में हो जहाँ से बाहर आना नहीं
चाहती या जैसे किसी सपने में किसी खोह में विचरण कर रही हो.
ये सब पिछली बातें याद करते हुए मैं
भी मानो किसी गुफा में पहुँच गई थी कि तभी मेरे कानों में रेबिना की डूबती हुई
आवाज पहुँची- “क्या करूँ, मैं क्या करूँ! मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा. वह धमकी दे कर गई है इला!
उसने साफ कहा है कि अगर यह शादी हुई तो वह सब कुछ बर्बाद कर देगी.” और हताशा में वह सिर नीचे किए हुए पता नहीं क्या-क्या बोलती जा रही थी.
“देखो रेबिना, एक लड़की, वह भी तुम्हारी सहेली.... शादी क्यों रुकवाएगी भला?
और तुम मुझे बताओगी कि वह कौन है उससे तुम्हारा क्या संबंध
है.” मुझे लगा मेरी आवाज
कहीं दूर से गूँजती हुई आ रही है.
“वह मुझसे प्यार करती है.”
“वह तो ठीक.... क्या?” मेरा मुँह खुला
का खुला रह गया. स्टाफ रूम में हॉस्टल में रहने वाली लड़कियों पर हुई चर्चा मेरे
कानों में गूँजने लगी. ....तो क्या रेबिना....?
“हाँ, वह मुझसे जी-जान
से प्यार करती है. हमारा संबंध पाँच साल पुराना है. मेरा एक्सीडेंट हुआ था, तब उसने दिन-रात एक कर दिया और मेरी मदद की. अगर वह न होती तो मैं कब की मर
चुकी होती. उसकी तमाम कोशिशो से मैं ठीक हो पाई.”वह एक साँस में
सब कह गई.
“फिर?”
“फिर क्या? हमने खूब मस्ती की, साथ-साथ घूमना, खाना-पीना-सोना. वह मुझसे बहुत प्यार करती थी. वह जो-जो
कहती मैं वही-वही करती. एक दिन सूनी दोपहरी में गुदगुदी करते-करते उसकी उँगलियाँ
मेरे शरीर से खेलने लगी थीं. मैं एक नई जमीन पर कदम रख रही थी इसलिए आनन्द और
रोमांच से अभिभूत थी. उस दिन वह जाने कैसी-कैसी-सी हो रही थी. मैं ‘हाँ’ और ‘ना’ के झूले में झूल रही थी. लेकिन मेरा कोई बस नहीं चला. उसने आदेश दिया कपड़े उतारने का और अपने तरीके से वह सब किया जो वह चाहती थी.
यह वर्जित था यह मैं भी जानती थी लेकिन उसने इतना
प्यार और भरोसा दिया कि कोई गिल्ट मेरे भीतर आया ही नहीं.”
“.......?”
“हमें ऐसे ही साथ रहते कई
साल बीत गए. हम तो बहुत खुश थे.... बल्कि साथ रहने की योजनाएँ भी बनाने लगे थे.
लेकिन निक्की जैसे लोगों ने हमारा जीना दुश्वार कर दिया. जब हम बाहर निकलते तो लोग
हमें कितनी घृणा से देखते थे इला, मैं बता नहीं सकती. जब वह आती तो ये लोग कमेंट पास करते, ताक-झाँक करते, और कभी-कभी तो
पत्थर के टुकड़े भी हमारे घर में फेंकते. वह नाराज होती. उसकी नाराजगी से मुझे
परेशानी होती, लेकिन मैं कर भी क्या सकती थी. फैशन डिजाइनिंग से वह एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट की
दुनिया में मशगूल होने लगी थी, और इस काम में उसकी मदद करते तुषार वैभव. इधर हमारे झगड़े होने
लगे थे और उधर वह तुषार के साथ डेटिंग पर भी जाने लगी थी.”
“अरे... फिर....?”
“ऐसा नहीं है कि मैंने इस
रिश्ते से बाहर निकलने की कोशिश नहीं की.... पर उसने मुझे धमकी दी थी कि अगर मैंने
किसी को कुछ बताया और उसका कहना नहीं माना तो वह अपनी नस काट लेगी. इला, इसी तरह प्यार करते- करते उसने मेरे उपर कब्जा कर लिया था, और हक जमाने लगी थी.”
“ताज्जुब है. जब कोई लड़की
पुरुष की जबरदस्ती ज्यादा दिन नहीं सह सकती तो एक लड़की भला दूसरी लड़की की जबरदस्ती
कैसे सह सकती है.”मुझे नहीं पता कि मेरे स्वर में एक उदास किस्म की सख्ती
कैसे आ गई थी. उठते हुए मैंने कहा- “रेबिना, तुम्हारी जिन्दगी, तुम्हारे संबंध और तुम्हारी इच्छाएँ तुम ही समझ सकती हो.
फिलहाल मुझे देर हो रही है, मैं चलती हूँ.” मैंने झटके से पर्स उठाया
और चलने को तैयार हुई कि वह सामने आ कर खड़ी हो गई और उसने मेरा हाथ पकड़ लिया.
“इला प्लीज मेरी बात सुनो!
मुझे छोड़ कर मत जाओ. मुझे तुम्हारी जरूरत है. केवल तुम ही मुझे बचा सकती हो.
देखो.... मैं जिस रास्ते पर हूँ मेरा मरना तय है, चाहे रोग से मरूँ, पति के हाथों मरूँ या फिर वही आए और अभी मेरा गला दबा दे.
क्योंकि वह तो मनमानी कर के गई है और धमकी भी दे के गई है. प्लीज इला, मुझे बचा लो!”
मैं पिघल गई... बल्कि
शायद अपने रवैये पर शर्मिंदा भी हुई. मुझे मेरा व्यवहार उसके रिश्ते जैसा ही जटिल
लगने लगा. और उसी वक्त दिमाग उन सब खबरों को याद करने लगा जिन्हें कभी अखबार में
पढ़ा या न्यूज चैनलों पर देखा था कि आस्ट्रेलिया की राजधानी कैनबरा में ऐसे
विवाहों को न सिर्फ मंजूरी मिल चुकी है बल्कि दुनिया भर से ऐसे लोग वहाँ जा कर
शादी भी कर सकते हैं. इससे पहले न्यूजीलैंड सरकार ने इसकी मंजूरी दे दी थी. मंजूरी
देते हुए यह भी कहा गया था कि ऐसे संबंधों वाले लोग हमारे समाज का एक हिस्सा और
हमारे अपने हैं इसलिए भेदभाव करना गलत है. मैं सोचने लगी एक इंसान की चाहतों और
समाज की बंदिशों के बीच की घुटन को सचमुच में वही जान सकता है जो इसे भोगता है.
अगर ऐसा है तो है—दूसरे किसी को क्यों हक होना चाहिए उस पर उँगली उठाने या फैसला देने का. और उसे एक रूप भी दिया जाना चाहिए जब कि हमने अभी तक इसे विवादास्पद
मुद्दा बना रखा है. मुझे याद आया एक बार मैं एक गाँव में मेहमान थी. वहाँ आम का
बहुत बड़ा बगीचा था, जिसमें ताड़ के पेड़ भी थे जहाँ सुबह-सुबह घर के सारे बच्चे
चोरी-छुपे ताड़ी पीने जाते. एक रोज रात को हल्ला मचा. घर की औरतों ने डंडा उठाया और
दौड़ा लिया था मर्दों को, जो आम की रखवाली
करते-करते कुछ और ही कर रहे थे. सुबह को सब बराबर. कहीं कोई चर्चा नहीं. लेकिन
मुझे पता था कि उन मर्दों के संबंध अपनी पत्नियों से सहज नहीं थे. वे लोग बात-बात पर कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ते थे. मैंने रेबिना की तरफ देखा तो
वहाँ एक गहरी घुटन अवसाद का रूप लेकर पसरी हुई थी. मैंने वापस बैठते हुए कहा-
“ठीक है रेबिना, फिर पूरी बात बताओ मुझे.” वह सामने बैठ गई. मैंने उसे तसल्ली दी और फोन को साइलेंट मोड पर लगा कर उसके संतरे की फाँक जैसे
मोटे होंठों से निकलने वाले शब्दों को सुनने लगी. वह कहानी जो सरसों के तेल की तरह
झरार, काली मिर्च की तरह तुर्श और खारे नमक की तरह गला देने वाली थी.
“मालूम, एक साल पहले इसने शादी कर ली और मुझे धोखे में रखा. जब पता चला तो मुझे
जबरदस्त डिप्रेशन हो गया. किसी काम में मन नहीं लगता था. सर दर्द-बुखार तो रहता ही
था मेरे यूट्रेस में भी प्राब्लम हो गई थी. अब क्या बताऊँ, मेरे अपने देह और
मन ही मेरी बीमारी का कारण बन गए. मैंने तो जीने की उम्मीद ही छोड़ दी थी. पापा, जो माँ के जाने के बाद से खुद बीमार रहने लगे थे, मुझे लेकर डॉक्टर
के पास गए. डॉक्टर ने कई तरह की जाँच करने के बाद बताया कि इलाज के बाद मैं नार्मल
जीवन जी सकती हूँ. इलाज लंबा चला, पर सब ठीक हो
गया. कुछ दवाएँ तो अभी भी चल रही हैं.”
“ऐसा क्या था रेबिना कि
तुम इतनी डिप्रेस हो गई थीं?”
उसने मेरा हाथ पकड़ लिया.
यह मेरे लिए फिर एक अजीब-सी मार्मिक अनुभूति थी, जिससे मैं उसके
भीतर के राग को महसूस करने लगी थी. वह अपनी रौ में कहती जा रही थी-
“इला, मुझे जो मिला वह थी सुख की अनुभूति! एक अदभुत आवेग! एक उमंग, प्रेम और विश्वास! और जिन्दगी में क्या चाहिए भला? मेरी देह वीणा बन जाती जिसके एक-एक तार को वह झंकृत कर देती थी. उसकी तरंग में
हम घंटों अपनी एक अलग ही दुनिया में बेसुध रहते. दिल दिमाग और देह सब एक दिशा में.
हम हँसते भी तो एक दूसरे पर लोटपोट हो जाते. हमारे इस सुख से दुनिया का क्या नुकसान
था भला! और इसीलिए उसका जाना मुझे
बर्दाश्त नहीं हुआ, मुझ पर दौरे पड़ने लगे थे. मैं दिन-रात उसकी यादों में खेाई
रहती. मुझे लगता कि उसके बिना जीवन में कुछ नहीं है.” वह थोड़ी देर चुप रही. फिर
बोली-
“इला, अगर तुम बुरा न मानो तो....” तब तक बेयरा आया और पूछने लगा कि कुछ और लाऊँ.
“हाँ, कोल्ड ड्रिंक लाओ... चिल्ड और जल्दी.” उसने कहा.
“तुम कुछ कह रही थीं....?” मैंने उसे याद दिलाया. मानो
वह किसी जासूसी उपन्यास की नायिका हो, और किसी घटना से
जुड़ा कोई राज फाश करने जा रही हो.
वह सिगरेट सुलगा रही थी.
बोली- “एक मिनट प्लीज!” मैंने सिर हिला
दिया. थोड़ी देर में वह सामान्य स्थिति में आ कर बोलने लगी- “ये सब तब की बातें थीं जब वह मुझे बेइन्तहा चाहती थी, और उसकी दुनिया केवल मेरे ही तक थी. लेकिन अब वह प्रेम कहाँ? वह तो आदमियों जैसी हो गई
है- कठोर! स्वार्थी! और हुकुम चलाने वाली! जो सिर्फ अपनी सन्तुष्टि चाहती है. वह
जैसी हो गई है इला मैंने सपने में भी नहीं सोचा था.”
इस बीच बेयरा कोल्ड ड्रिंक
रख गया था. वह चुपचाप सिप करने लगी और थोड़ा रुक कर बोली-
“वह तो मुझे छोड़ कर चली गई
थी न.... मालूम कितनी मुश्किल से मैंने अपने आपको सँभाला था. मैं तो जीना नहीं
चाहती थी. इला, तुमने पापा को देखा है न, मैं केवल उनकी
खुशी के लिए ये शादी कर रही हूँ. पर वह अब भी नहीं चाहती कि मेरा घर बसे.”
“कमाल है रेबिना! अगर वह
तुमसे इतना प्यार करती थी तो फिर शादी क्यों की? मान लो अगर उस
समय किसी दबाव में तुम्हारी शादी हो गई होती तब वह क्या करती?”
“वह क्या करती....? मुझे या मेरे मंगेतर को
जान से मार डालती. उसने कभी तुषार वैभव से मुझे नहीं मिलवाया. अभी, जब कि उसने अपना घर बसा लिया है, फिर मुझे शादी
करने से क्यों मना कर रही है. वह लगातार मेरे मंगेतर की बुराई कर रही थी और धमकी
दे रही थी. वह चाहती है कि मैं हमेशा उसके इस्तेमाल के लिए बैठी रहूँ.”
उसकी बातें मेरे लिए कई
उलझे सवालों का वृत्त बनाती जा रही थीं. न जाने कितनी-कितनी बातें थीं जिन्हें
लेकर रेबिना अकेले घुट रही थी. उसकी किसी बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था. लेकिन
मुझे लग रहा था कि जो हुआ सो हुआ, अगर रेबिना शादी
के लिए तैयार हुई है तो बस यह शादी हो जाए किसी तरह. आखिर वह कुलीग है, सहेली है मेरी. उसके हालात की असहायता ने मुझे भीतर से कहीं बेचैन कर दिया था.
वह सारा कुछ बता चुकी थी, इसलिए हमारे बीच मौन पसर आया था. थोड़ी देर वैसे ही बैठे रहने के बाद मैंने
कहा- “चलें?”
उसके रहस्यमय होंठों पर
बाहर मुस्कान और अंदर की ओर तकलीफ साफ दिख रही थी.
“हाँ.” वह बोली और अपने आँसुओं
को झटकारते हुए मुस्करा दी. हमारे बीच अनकहे ढंग से ही जैसे कहीं कुछ तय हो चुका
था.
उस दिन बेशक असमंजस में
हम अपने-अपने घरों को लौट आए थे, लेकिन उसके बाद
शादी की तैयारी में जोर-शोर से जुट गए. रेबिना की पसंद की हमने एक-एक चीज चुन-चुन
कर खरीदी- शादी के कार्ड से लेकर पंडित तक का पूरा इन्तजाम. आखिर वह दिन आ ही गया
जिसका हमें इन्तजार था. रेबिना का दूल्हा होटल ‘मेरा दिल’ में अपने दोस्तों के साथ
हँसी-मजाक के जलवे बिखेर रहा था. ब्यूटीशियन ने रेबिना को दुल्हन के रूप में सजा
दिया था और अब फूलों के जेवर पहना रही थी. मुझे देखते ही वह मुस्कराई. दूसरे ही पल
उसके चेहरे पर डर और चिन्ता की काली रेखा घिर आई.
“इला, मुझे घबराहट हो रही है.” उसने फुसफुसाते हुए कहा. डर तो मुझे भी लग रहा था किसी
अनहोनी की आशंका से, लेकिन मैंने उसे तसल्ली दी. ये सारी परेशानी देख कर मैं
उससे कहना चाहती थी कि तुम्हें और तुम्हारी सहेली को शादी नहीं करनी चाहिए थी. ऐसे
ही लड़ते रहना था दुनिया का सामना करते हुए. दुनिया को धोखा देने के चक्कर में तुम
लोगों ने एक-दूसरे को धोखा दिया. दुनिया से तालमेल बिठाने के चक्कर में एक-दूसरे
के लिए मुसीबतें खड़ी कीं. तुम्हारा अपना प्यार ही जीने का सबब क्यों नहीं बन सका
एक-दूसरे के लिए!--लेकिन ये बातें मैं नहीं कह पाई. अब यह सब सोचने और कहने से
फायदा भी क्या था. रेबिना जयमाल ले कर स्टेज पर पहुँच रही थी, जहाँ दूल्हा उसका इन्तजार कर रहा था. एक जयमाल मेरे हाथ में था और दूसरा उसके
छोटे भाई के हाथ में. उसी समय उसकी ‘वो’ भी अपने पति के साथ आई. उसने रेबिना पर एक नजर डाली. बधाई देना तो दूर दूल्हे को देखा तक नहीं, फिर खाने-पीने की जगह की ओर बढ़ गई. मैंने भी राहत की साँस ली. जयमाला की रस्म
ठीक से संपन्न हो गई थी. रिश्तेदार वर-वधू के आसपास जमा हो गए थे. ऐसे में मैं भी
अपने स्कूल की शादी में आई अध्यापिकाओं के अपने परिचित समूह की ओर बढ़ गई. लेकिन
वहीं से थोड़ी देर बाद मैंने देखा वह रेबिना के पास पहुँची हुई थी और उसके कान में
कुछ कह रही थी. मेरा दिल धड़क उठा था. जब तक मैं वहाँ जाती वह रफूचक्कर हो गई थी.
रेबिना की शादी को दो
महीने हो गए थे. शादी के लिए उसने स्कूल से लंबी छुट्टी ली थी. एक रोज उसका फोन
आया. उसकी बातों और स्वर में उदासी और झुँझलाहट भरी थी, जिससे लग रहा था कि वह जिन्दगी से खुश नहीं है. उसने कहा कि वह जल्दी ही आने
वाली है. इधर बच्चों के इम्तहान शुरू हो गए थे, हम सब अपने-अपने
काम में धुआँधार तरीके से जुट गए. एक दिन लड़कियाँ बार-बार स्टाफ रूम में झाँक-झाँक
कर जा रही थीं. आराधना नहीं रहा गया. सो पूछ बैठी.
“क्या है?”
“मैम, रेबिना मैम आएँगी क्या?”
“नहीं! सुना नहीं कि उनकी
शादी हो गई है.”
“मैम वे वापस आ गई हैं.
आपको नहीं पता? आप भी कभी प्लेग्राउंड में आया करिए मैम.” उनकी दबी हँसी चुगली कर
रही थी.
“अच्छा. तुम लोगों को बड़ी
खबर रहती है. चलो, जाओ यहाँ से!” वे हँसते हुए भाग
गईं. मुझे भी मुस्कराते हुए देख कर आराधना चिढ़ गई और चुटकी लेते हुए बोली-
“देखा, आ गई न वापस. इतना आसान नहीं है ऐसे लोगों का ससुराल में टिक पाना. अरे उस
टीचर से तो कोई बात भी नहीं करता था, एक आप ही हैं मैडम....”
मुझे उनका ऐसा कहना बुरा
लग रहा था. मुझे चुप देख कर शायद वह यह बात समझ गई. बात बदल कर बोली-
“सुनो! हिन्दी में बच्चे
कम होते जा रहे हैं. क्या होगा मातृभाषा का?”
“वही होगा जो माँ का होता
है.”
“हाँ, जबान सीखी नहीं कि कानून छाँटने लगते हैं बच्चे. माँ और मातृभाषा आउटडेटेड
लगने लगती है.”
“सही बात है. पर उन्हें यह
नहीं पता कि माँ के न रहने से इन्सान क्या से क्या हो जाता है.” कहते हुए मुझे रेबिना की
याद आई, और हमारी बहस मुल्तवी हो गई. शाम को लौटते हुए मैं उसके घर गई. मुझे देख कर वह
बहुत खुश हुई और कहने लगी-
“इला, तुमने मेरा बहुत साथ दिया. और मैं खुश भी बहुत थी. मालूम, वहाँ भी उसका फोन आने लगा. वक्त-बेवक्त फोन करती. विपिन को तो उसके नाम से चिढ़
हो गई थी, फोन आते ही भड़क जाता था.
उसने पापा से शिकायत भी की कि उसे फोन करने से रोका जाए, पर पापा बिचारे क्या करते....” उसकी बातें सुनते-सुनते भीतर से एक बेचैनी जैसी
महसूस होने लगी. लगा, उसके जीवन का
उलझापन कभी खत्म नहीं होगा. झुझला कर मैंने कहा- “तुम्हें क्या हो
गया है रेबिना, तुम समझती क्यों नहीं हो. तुमने उससे बात ही क्यों की?” इस पर वह एकाएक चुप लगा गई. मैंने फिर पूछा- “और क्या तुम
विपिन से उसके बारे में बात करती हो?”
उसके चेहरे पर एक
अपराधबोध-सा घिर आया.
“क्या करूँ इला, मेरा अपने उपर वश नहीं है.” वह बेबस-सी बोली.
“अच्छा छोड़ो. ये बताओ
रेबिना तुम विपिन से खुश हो?”
“कोशिश तो कर रही हूँ पर
विपिन का नहीं पता, क्योंकि हमारे झगड़े बहुत होते हैं. ज्यादातर ‘उसकी’ वजह से. और सच पूछो तो मैं उसे भुला भी नहीं पाई. इला, न विपिन मुझसे
खुश है और न मैं उससे. मैं अपने को छिपा नहीं सकी.”
सुन कर मैंने माथा पकड़
लिया और सोचने लगी कि यह वही लड़की है जो ताइक्वांडो की ब्लैक बेल्टर थी. जिसके
निर्देशन में एक अकेली लड़की छह-सात गुण्डों से एक साथ निपट सकती थी. ये क्या हो
गया इसके साथ!
“उस बिचारे का क्या दोष है
रेबिना, अपनी शादी बचा लो!”
उसकी आँखों में आँसू तैर
रहे थे. मुझे नहीं मालूम था कि यह ‘उनके’ लिए हैं कि ‘उसके’ लिए. रेबिना के पिता मिले, छोटा भाई भी; उनके चेहरे भी ग़मगीन और उदास थे. बाहर अच्छा-खासा उजाला था, लेकिन उस घर के कमरों में भरे रहने वाले अँधेरे के भीतर एक और अँधेरा भरा हुआ
था, जो किसी भी तरह छँटने का नाम ही नहीं ले रहा था. मैंने सोचा था कि उससे कहूँगी
कि अगर सब कुछ सही है तो उसे नौकरी फिर से ज्वाइन कर लेनी चाहिए. लेकिन वह मानसिक
संघर्ष में ऐसी फँसी है कि उसे ऐसी कोई भी सलाह देना व्यर्थ लग रहा है.
आखिरकार उसे उसके हाल पर छोड़ कर मैं लौट आई और अपने काम में व्यस्त हो गई.
एक दिन सुबह-सुबह रेबिना
के पिता का फोन आया- “ इला बेटे, तुम जल्दी से घर
आ जाओ!” किसी अनहोनी की आशंका से भयभीत मैं भागी-भागी उसके घर पहुँची. बीती रात रेबिना
ने नींद की गोलियाँ खा कर आत्महत्या करने की कोशिश की थी. यह तो अच्छा हुआ कि
डॉक्टर रात ही में घर आ गए थे इसलिए वह बच गई. मैंने देखा वह अशक्त-सी बिस्तर पर
पड़ी थी. बेजान चेहरा, निस्तेज आँखें और आँखों मे आँसू. उसने अपने नीले पड़े मोटे
होठों से मुस्कराने की कोशिश की. मैंने अपने भीतर एक शोर का अनुभव किया. कई दबी
हुई आवाजें एक साथ सुनाई दे रही थीं- एक-दूसरी को काटती हुईं. ये आवाजें इंसानी
वजूद की किन्हीं घुमावदार अँधेरी सुरंगों से निकल कर सवालों के रूप में मेरे भीतर
समा गई थीं. पता चला बात तलाक तक आ पहुँची है. वहीं कोने की मेज पर रखी पारदर्शी
कवर वाली फाइल से झाँक रहे पेपर शायद उसी के संबंध में थे. रेबीना इस बारे में
अपने पापा से ‘सॉरी’ बोल चुकी थी.
“ये क्या रेबिना, सबसे जीत कर अपने आप से हार गईं?” मेरे कहते ही उसकी आँखें डबडबा गईं.
आज स्कूल में बच्चों की छुट्टी
थी, लेकिन अध्यापकों की उपस्थिति अनिवार्य थी. सभी रिपोर्ट कार्ड बनाने में मशगूल
थे. मेरी मित्र आराधना मुझे झेलती थी या मैं उसे, पता नहीं. वो
मेरा ख्याल रखती थी, उसने खाने की कुछ चीजें मँगवा ली थीं. मैंने अनिच्छा जताते
हुए कहा कि इनमें नमक ज्यादा होता है इसलिए मैं नहीं खाना चाहती. वो मुस्कराई और
बोली-
“एक बात पूछूँ, खाने में नमक का क्या स्थान है?”
“उससे खाने में स्वाद आता है, और क्या?”
“यदि खाने में नमक ही नमक
हो तो?”
“....... !”
मैं क्या कहती उससे जिसकी
जबान में तलवार की धार लपलपा रही थी. पर उन्होंने अपना वार करने में कोई चूक नहीं
की.
“तो तुम्हारी रेबिना भी
नमक है....बल्कि नमक की डली है. वह एक अच्छी बेटी नहीं, मित्र नहीं, पत्नी नहीं, केवल नमक की डली है जो वक्त से पहले सबकी जिन्दगियाँ खारी करती हुई पिघल गई.”
मैंने आराधना की ओर देखा. एक संतुलित, व्यावहारिक स्त्री वहाँ
उसके रूप में बैठी थी. मैंने उससे कहना चाहा कि हम इंसानों के भीतर यह नमक ही है
जिसकी अलग-अलग मात्रा हमें एक-दूसरे से जुदा बनाती है. चुटकी भर नमक वाला इंसान
डली भर रेबीना की बेचैनी को कैसे जान सकता है? व्यक्ति के भीतर का यह नमक
उसकी नियति की तरह उसकी एक-एक कोशिका से चिपका रहता है. उसे इतना छोटा करके मत
आँको.
मैं आराधना से कुछ नहीं कह पाई. मैंने देखा मेरी
निरुत्तरता का अर्थ तलाशने में उसकी कोई जिज्ञासा नहीं थी. वह अपने किसी
विद्यार्थी के रिपोर्ट कार्ड में झुकी हुई थी.
सम्पर्क –
65, आवास विकास कॉलोनी,
मॉल एवेन्यू, लखनऊ -
1
मोबाईल – 09450246765, 07897484896
ई-मेल
- usharai22@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी
की हैं.)
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