कौशल किशोर की कविताएं

कौशल किशोर



रोज की आपाधापी में हम जीवन की उन मूलभूत बातों से दूर होते जा रहे हैं जिससे हमारे जीवन का अस्तित्व है. रचनाकार ऐसे ही सवालों से जूझता और टकराता है. इसी क्रम में कवि कौशल किशोर इस सवाल से टकराते हैं कि क्या है आज सबसे दुर्लभ/ हमारे जीवन में?’ इस सवाल का जवाब मिलता है बच्चे की एक ऐसी हरकत में जिसे देख कर घर परिवार के लोग लोटपोट हो जाते हैं. मानव इस धरती के कुछ उन चुनिंदा प्राणियो में से एक है जो हंस सकता है. दुर्भाग्य से आज हर जगह यह हंसी गायब होती जा रही है. कौशल किशोर ऐसे ही कई मानवीय सवालो और मुद्दो से टकराने की कोशिश करते हैं. आज पहली बार पर प्रस्तुत है कौशल किशोर की कविताएं.
     
   


कौशल किशोर की कविताएं



गौरैया


गौरैये की चहल
उसकी उछल-कूद और फुदकना
मालिक-मकान की सुविधाओं में खलल है

मालिक-मकान पिंजड़ों में बन्द
चिड़ियों की तड़प देखने के शौकीन हैं
वे नहीं चाहते
उनके खूबसूरत कमरों में गौरैयों का जाल बिछे
वे नहीं चाहते
गौरैया उनकी स्वतंत्र जिन्दगी में दखल दे

और यह गौरैया है
उनकी इच्छाओं के विरुद्ध
तिनकों की राजनीति खेलती

मालिक-मकान की आंखों में नींद नहीं
मलिका परेशान हैं
राजकुमार गुलेल संभाल रहे हैं
उनके ड्राईंग रुम के शीशों पर
गौरैयों का हमला हो रहा है
उनके गद्देदार बिस्तरों पर
गौरैया बीट फैला रही है

वे कोशिश में हैं
वे गौरैये को आमूल नष्ट कर देने की
कोशिश में हैं

और यह गौरैया है
उनकी कोशिशों के विरुद्ध घोसले बनाती
अण्डे सेती
अपने चूजों को चलना सिखाती
उछलना सिखाती
उछल-उछल उड़ना सिखाती
यह गौरैया है।

(1978)

चिड़िया


चिड़िया उड़ती है
अपने कोमल-कोमल पंखो के सहारे
आकाश को प्यार से चूम लेती है

वह सोचती नहीं है
कि उड़ जाती है
अपने सुदूर ठिकानों की तरफ

यह नन्हीं सी जान
कहीं भी पहुँच सकती है
धरती के इस पार
या आकाश के उस पार
हमारी छत की मुड़ेरों पर
देखते-देखते घर के झरोखें पर
आंखमिचौली खेलती हुई
कभी हमारे बहुत करीब
फिर उतनी ही दूर
अपनी इच्छा शक्ति के बल पर
यह नन्हीं सी जान
कहीं भी पहुँच सकती है

वह झुण्डों में उड़ते हुए
रात के घिरने की खबर देती है
अपनी चहचहाहट से
सोये आदमी को जगाती रहती है

इसीलिए बहेलिये
इसका पीछा करते हैं दिन रात
पिंजड़ा और जाल लिये
उन्हें पसन्द नहीं है
सोया आदमी जागे
उसे रात के घिरने की खबर हो।

(1978)

चिड़िया और आदमी - 1
   
     चिड़ियों को मारा गया
     इसलिए कि
     उनके पंखों के पास था विस्तृत आसमान
     नीचे घूमती हुई पृथ्वी
     और वे
     इन सबको लांघ जाना चाहती थीं

     आदमियों को मारा गया
     इसलिए कि
     वे चिड़ियों की तरह उड़ना चाहते थे उन्मुक्त
     हवा की तरह बहना चाहते थे स्वछन्द
     जल स्रोतों की तरह अपना तल
     स्वयं तलाश रहे थे

     चिड़ियों के लिए
     मौसम ने आंसू बहाये
     आदमियों के लिए
     आंसू बहाने वाले
     गिरफ्तार कर लिए गए।

        (1979)  
    

    चिड़िया और आदमी - 2
     
       
      चिड़िया
      आदमी के बिस्तर पर
      बीट फैला देती थी
      आदमी
      चिड़िया के घोसले
      उजाड़ देता था

      यह उन दिनों की बात है
      जब चिड़िया और आदमी
      दोनों एक दूसरे के दुश्मन थे

      आदमी दिन भर बीट साफ करता
      चिड़िया तिनका-तिनका जोड़ कर लाती
      घोसले बनाती

      एक दिन आदमी ने
      चिड़िया के खिलाफ मोर्चा बांधा
      चिड़िया चीं-चीं करती रही
      आदमी के खिलाफ
      दोनों की आंखों में खून था

      एक बार आदमी ने
      चिड़िया की आंखों में देखा
      दूसरी बार चिड़िया ने
      आदमी की आंखों में झांका

      फिर क्या था?

      दोनों एक दूसरे की आंखों में
      देखते-झांकते रहे
      झांकते और देखते रहे
      और देखते-देखते
      दोनों की आंखों का रंग बदलने लगा
      दोनों की मुद्रा बदलने लगी
      दोनों की भाषा बदलने लगी

       चिड़िया ने पूछा -
       वह कौन है जो मेरे पीछे
       जाल और पिंजड़ा लिये घूमता है
       आदमी ने सवाल किया -
       वह कौन है
       जो हमें पहनाता है हथकड़ियां
       भेजता है जेल

       चिड़िया ने कहा - नहीं
       तुम मेरे दुश्मन नहीं हो
       आदमी ने कहा - प्यार
       मुझे तुमसे प्यार है
         
        (1979)  

       
     
 इन्तजार शीर्षक से चार कविताएं

  
(एक)

सबको है इन्तजार
तानाशाह को है युद्ध का इन्तजार
जनता को है मुक्ति का इन्तजार
सवाल एक सा है दोनो तरफ
कि कैसे खत्म हो
यह इन्तजार?

(दो)


हम इतिहास के कैसे लोग हैं
जिनका खत्म नहीं होता इन्तजार
जब कि हमारी ही बच्ची
दवा के इन्तजार में
खत्म हो जाती है
सिर्फ चौबीस घंटे के भीतर।

(तीन)


हमारा ही रंग   
उतर रहा है
और हम ही हैं
जो कर रहे हैं इन्तजार

कि कोई तो आयेगा उद्धारक
कोई तो करेगा शुरुआत
कोई तो इस धरती को
बनायेगा रजस्वला
किसी से तो होगा वह सब कुछ
जिसका हम कर रहे हैं इन्तजार
अपनी सुविधाओं की चादर के भीतर से झांकते
बच्चों को पढाते
मन को गुदगुदाते
इन्द्रधनुषी सपने बुनते
पत्नी को प्यार करते

फिर इन सब पर गरम होते
झुंझलाते
दूसरों को कोसते
सारी दुनिया की
ऐसी-तैसी करने के बारे में सोचते

हम कर रहे हैं
इन्तजार..............


(चार)

 कहती हो तुम
 मैं प्रेम नहीं करता

 जिंदगी हो तुम
 कैसे जा सकता हूं दूर
 अपनी जिंदगी से

 यह दिल जो धड़कता है
 उसकी प्राणवायु हो तुम

 मेरे अंदर भी जल तरंगें उठती हैं
 हवाएं लहराती हैं
 पेड़ पौधे झूला झूलते हैं
 उनके आलिंगन में
 अपना ही अक्स मौजूद होता है

 चाहता हूं
 तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले
 घंटों बैठूं
 बातें करुं
 बांट लूं हंसी खुशी
 सारा दुख दर्द

 मैं तुम्हारे बालों को
 हौले हौले सहलाऊं
 तुम्हारे हाथों का प्यारा स्पंदन
 अपने रोएदार सीने पर
 महसूस करुं

 बस इंतजार है इस दिन का

 कैसा है यह इंतजार
 कि खत्म ही नहीं होता

 कैसे खत्म हो यह इंतजार
 बस इसी का है इंतजार.......।

 (1982)


पत्थर और रस्सी


तुम पत्थर
मैं रस्सी

हमारा क्या मुकाबला?

तुम ठोस, सख्त और मजबूत
मैं कोमल, मुलायम और लचकदार

तुम्हारे घनत्व की हमसे क्या बराबरी?

तुम मन्दिर में स्थापित
मनों दूध से रोज नहाते
तुम्हारे निशाने पर
डाल से लटकता फल
बैठी है जिस पर भूखी चिड़िया
चोंच मारने को तैयार

फल गिरता है धरती पर
और चीं....चींकरती चिड़िया 
घायल कहीं दूर

यही तुम्हारी खासियत है

चोट देना और प्रहार करना
जख्म देना और लहूलुहान करना

निष्ठूर हो
कठोर हो
फिर भी पूजे जाते हो

तुम कुएँ की जगत पर चित्तान लेटे
अपना चट्टानी सीना फैलाये
और मैं बँधा तुम्हारे सीने से रगड़ खाता

पर जंग तो जंग है
और यह कोई नई नहीं
आदिम काल से चली आ रही

हम दास बनाये गये
और तुम मालिक
हम असभ्य कहलाये
और तुम सभ्य
विभाजन रेखा खींच दी गई हमारे बीच
हम रह गये जहाँ थे
और तुम सब कुछ हड़प
चले गये उस पार

जानता हूँ
मैं नहीं बचूँगा
कुछ भी नहीं बचेगा
नष्ट हो जायेगा मेरा रेशा-रेशा
अस्तित्वहीन हो जाऊँगा
पर किसी खुशफहमी में नहीं रहना
तुम भी नहीं बचोगे साबूत

मिटते मिटते भी
मैं छोड़ जाऊँगा
तुम्हारे सीने पर अपना निशान
रक्तबीज हैं हम
फिर फिर लौटेंगे
स्पार्टकस बन कर
वे धारियाँ जो हमने बनाई हैं
गहराती जायेंगी दिन दिन।
(2012)
 

टप्पल में............

टप्पल में
धरने पर जो बैठे हैं
दरअसल
सरकार के विरोध में
वे खड़े हैं

सरकार चाहती है
धरना खत्म हो
किसान जायें अपने घर
शान्ति आये
ले और दे कर
मामला रफा और दफा हो जाय

पर किसान हैं
बैठ गये तो बैठ गये
पलहत्थी मार जमीन पर
टेक दी है लाठी
रख दिया है गमछा
सज गया है चौपाल

नेता हो या मंत्री
अफसर हो या संतरी
जिसको आना है यहीं आये
हम नहीं हटेंगे

कहते हैं -
साठ साल से हम हटे हैं
हटते ही रहे हैं
हटना है तो सरकार हटे
हम तो डटे हैं
अब यहीं डटेंगे

आखिर क्यों दे अपनी उपजाऊ जमीन
कंपनियों को
कि वे आयें
और बनायें चमचमाती सड़कें
मॉल और मल्टी पलेक्स
सजे उनके बाजार
दौड़े उनकी गाड़ियाँ
भरे उनकी तिजोरियाँ
और वे खेलें
खेल में खेल

उनके इस खेल के लिए
क्यों छोड़े हम खेत
और लगा दें अपने भविष्य पर ताला
मुआवजा तो तैयार भोजन है
खाया और हजम
फिर तो सब खतम
जीवन और सपने सब  

इसीलिए
अब लाठी चले या गोली
पानी की तेज धार हो
या आंसू गैस
हम नहीं हटने वाले

ऐसी ही जिद्द है इनकी
जिस पर अड़े हैं
टप्पल में
धरने पर जो बैठे हैं
दरअसल
सरकार के विरोध में
वे खड़े हैं
           
(2010
टप्पल (अलीगढ़) में यमुना एक्सप्रेस वे के लिए खेती की जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के महाधरना व संघर्ष के दौरान यह कविता लिखी गई।
(प्रकाशित : वर्तमान साहित्य) 


                                        

वह औरत नहीं महानद थी


वह जुलूस के पीछे थी
उछलती फुदकती
दूर से बिल्कुल मेढ़क सी नजर आ रही थी

पर वह मेढ़क नहीं स्त्री थी
जुलूस में चलती हुई
नारे लगाती हुई
उसके कंधे से लटक रहा था झोला
जिसमें थीं कुछ मुड़ी तुड़ी रोटियाँ
एक ग्लास
कंघा और पानी की बोतल

पोलियोग्रस्त उसके पैर धड़ से चिपके थे
दो सियामी जुड़वाँ बहनों की तरह
वे धड़ के साथ उठते
उसी के संग बैठते
दोनों हाथ उसके पैर भी थे
इन्हीं पर अपने पूरे शरीर को उठाती
और आगे हवा में झटक देती

इसी तरह वह आगे बढ़ रही थी जुलूस में
उसने रेलवे स्टेशन के पुल को पार किया था
इसी तरह वह शहीद स्मारक की सीढ़ियाँ चढ़ी थी
वह आई थी गोंडा से
इसी तरह वह कहीं भी आ और जा सकती थी
कठिन जिन्दगी को
इसी तरह उसने बना दिया था आसान

प्रदेश की राजधानी में वह आई थी
समानता और सम्मान के
अपने संघर्ष के सौ साल को सलाम करने
वह आई थी
यह इतिहास चक्रव्यूह ही तो रहा है
इसे तोड़ बाहर निकलने की छटपटाहट के साथ
वह आई थी

वह जुलूस में चल रही थी पीछे-पीछे
नारे जब हवा में गूँजते
जुलूस के उठते थे हाथ
और उसके उठते थे सिर उर्ध्वाधर दिशा में तने हुए
लहरा उठते बाल
मचलती आवारा लटें
हवा में तरंगित स्वर लहरी
वह बिखेर रही थी सौन्दर्य
खुशबू ऐसी जिसमें रोमांचित हो रहा था
उसका प्रतिरोध

भाप इंजन का फायरमैन बनी
अपना सारा कोयला वह झोके दे रही थी
सड़क की दोनों पटरी पर खड़े लोगों के लिए
वह लग रही थी अलग सी
कुछ अजूबा भी
उनके मन में थोड़ी दया
थोड़ा तरस भी था
और हर भाव से संवाद करती
वह बढ़ रही थी आगे आगे.... और आगे

यह जुलूस
रोज रोज की रैली
राजनीतिक खेल और तमाशा
शहरियो के मन में खीझ नफरत
हिकारत भरे भाव
कि जुटाई गई भीड़
पैसे के लालच में आई है यह
अपने पांवो पर चल नहीं सकती
हूँ.......खाक लड़ेगी सरकार से!

इस शहरी अभिजात्य व्यंग्य पर वह हँस रही थी
क्या जाने लड़ाइयाँ
कहाँ कहाँ और कैसे कैसे लड़ी गई हैं
कितनी गहरी हैं जडे
और कितना विशाल है इतिहास

क्या मालूम
कि पैरों से पहले
वह दिल दिमाग से लड़ी जाती हैं
और वह सही सलामत है उसके पास
पूरा साबूत

वह जनसभा में सबसे आगे थी
कृष्णा, ताहिरा, विद्या, शोभा, शारदा, विमल, रेणु.......
अपनी असंख्य साथियों में वह थी
और सब थीं उसमें समाई हुई

पहाड़ी नदियाँ उतर रही थीं
चट्टानों से टकराती
उछाल लेती
लहराती मचलती बलखाती
बढ़ती उसी की ओर
अब वह औरत नहीं महानद थी।

(8 मार्च 2010, अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर लखनऊ में हुई महिलाओं की रैली के बीच इस कविता ने जन्म लिया)


घर बनाते


यह मोहल्ले का कोई पार्क नहीं
बच्चों के खेल का मैदान भी नहीं
मेरा घर है

मैं बन्द रखना चाहता हूँ
बाहर की ओर खुलने वाली
इसकी सारी खिड़कियाँ
दरवाजे
हर झरोखे

सब कुछ सुरक्षित है यहाँ
परदे के अन्दर

मैं रखना चाहता हूँ इन्हें
ढ़क कर
छिपा कर
दुनिया की नजरों से बचा कर
ये कीमती बनी रहेंगी ऐसे ही
हमारी इज्जत का सम्मोहन कायम रहेगा
आपके बीच
हम बने रहेंगे पानीदार

मेरी पत्नी है
इन्हें पसन्द नहीं
बन्द बन्द

उसका जी घुटता है बन्द घर में
मन घबड़ाता है
वह खुला रखना चाहती हैं
खिड़कियाँ और दरवाजे
बेरोक टोक हवा आ जा सके
घर में हो पर्याप्त रोशनी

कहती है
हमारे पास है ही क्या
जिसे छिपा कर रखा जाय जतन से
जीवन से अमूल्य है क्या कुछ
मैं चाहती हूँ खुली हवा में साँस लेना
लहराना चाहती हूँ अपने लम्बे खुले बाल
चिड़िया होने का अहसास जीना चाहती हूँ
महसूस करना चाहती हूँ
अपना होना
ऐसा ही कुछ

इस दुनिया में
मैं बनाना चाहता हूँ अपना घर
पत्नी को भी बेहद प्यार है घर से

पर ऐसा होता है कि
घर बनाते बनाते
हम नदी के दो विपरीत छोरों पर
अपनी अपनी पीठ किये
हो जाते हैं खड़े।

(2011


दुनिया की सबसे सुन्दर कविता


कैसी है वह
कितनी सुन्दर?

इसे किसी प्रमेय की तरह
मुझे नहीं सिद्ध करना है

वह देखने में कितनी दुबली-पुतली
क्षीण काया
पर इसके अन्तर में है
विशाल हृदय
मैं क्या, सारी दुनिया समा सकती है

जब भी गिरता हूं
वह संभालती है
जब भी बिखरता हूं
वह बटोरती है
तिनका तिनका जोड़
चिड़िया बनाती है अपना घोसला
वैसे ही वह बुनती है घोसला
शीत-घाम से बचाती है

मैं कहता हूं
उसके सौन्दर्य के सामने
मेरी नजर में
सब फीके हैं

उसका सौन्दर्य मेरे लिए
गहन अनुभूति है
लिखी जा सकती है उससे
दुनिया की सबसे सुन्दर कविता।

(2012)

क्या है आज सबसे दुर्लभ......?

क्या है आज सबसे दुर्लभ
हमारे जीवन में?

यह सवाल
बच्चों से पूछा गया था
उनके स्कूल में

बच्चे भी हार मानने वालों में नहीं थे
हाथ पाँव मारे
खूब माथा भिड़ाया
पर नहीं मिल सका उत्तर
खोजते ढ़ूँढ़ते चले गये अपने अपने घर

बच्चों में मेरा बेटा भी था
गणित का कोई प्रश्न
न हल हो पाने जैसी परेशानी
झलक रही थी उसके चेहरे पर
और उसने किया मुझसे वही सवाल

बताओ पापा
क्या है आज सबसे दुर्लभ
हमारे जीवन में?

सवाल टँगा था मेरे सामने
हवा में उछलता
क्या हो सकता इसका जवाब?

मैं चुप.....गंभीर.....
छोटा सा
सरल सा दिखने वाला सवाल
क्या हो सकता है इतना कठिन?

बेटा चाहता था तुरन्त जवाब
उसमें हम जैसा धैर्य कहाँ
फिर पता नहीं क्या सूझी
वह उठा लाया
घर के किसी कोने में पड़ी
बाबूजी की पुरानी लाठी
अपने कद से कहीं ऊँची
बाँध लिया सिर पर मुरैठे की तरह
बाबूजी का गमछा
आँखों पर चढ़ा लिया बाबूजी का मोटा ऐनक
लाठी टेक खड़ा हो गया मेरे सामने
बाँया पैर आगे
दाँया पीछे
एक हाथ कमर पर
उसने बना ली थी अपनी मुद्रा अति गंभीर

बोलो ....बोलो....
क्या है वह...
क्या है वह...??
लगा लाठी पटकने

सारा घर जमा था
सब भौचक देख रहे थे यह दृश्य
बांध टूट गया था
रोके नहीं रुक रही थी अपनी हँसी
मक्के के लावे की तरह वह फूट पड़ी

मेरा हँसना क्या था
सब हँस पड़े
छोटा सा घर
सबकी खिलखिलाहट से गूँज उठा
उसकी भंगिमा भी न रह सकी स्थिर
वह भी हँस पड़ा
सबके पेट में पड़ गया था बल

आर्कमेडिज की तरह मैं चिल्ला पड़ा
यूरेका.........यूरेका........
यही तो..........
यही तो........ है वह सबसे दुर्लभ
हमारे जीवन में
यही तो.......यही तो..... 
(2013)
  


कौन जाने......


हम नहीं चाहते
जिन्हें अपने से दूर करना
वे चले जाते हैं
हमसे दूर,  बहुत दूर
समन्दर पार

कौन चाहता है
हमारे बच्चे जायें
अलग बसे उनकी दुनिया
घर-बार

हम चाहते हैं
जिस धरती पर उगे हैं
वहीं वे वृक्ष बने
फले-फूले
वहां की हवा में फैल जाए
उनकी सुगन्ध
उनकी प्रतिभा, कौशल और श्रम से
बगिया लहलहाये, सुवासित हो
हमसे हो वे
और उनसे हो हमारा अस्तित्व
बने हमारा संसार

पर वे छिटक जाते हैं
पेड़ से टूटे पत्ते की तरह
दूर, बहुत दूर, समन्दर पार
बसती है उनकी दुनिया
हम रह जाते हैं इस पार
पहले साल में एक बार
फिर कभी-कभार
और अब तो बस हालचाल

सम्बंधों की नाजुक डोर को थामे
हमारे दिन कटते हैं टक-टकी बांधे
उनके इंतजार में
सांसें चल रही है इसी आस में
वे आयेंगे जिन्दा रहते नही
तो मरने पर ही सही
बस, जीते हैं इसी अहसास के साथ
अपने अकेलेपन में

कौन जाने, वे जीते हैं कैसे?
(2016

यह लखनऊ है


(एक)


यह लखनऊ है
1857 में जहां लड़ी गई
आजादी की सबसे बड़ी लड़ाई
जहां दर्ज है
बेगम हजरत महल से लेकर उदा देवी तक
सिकन्दर बाग से लेकर काकोरी तक
बहुत से गुमनाम
उनके संघर्ष और शहादत की गाथा
चप्पे-चप्पे में
हवा में तैरती
गदर के फूलों की खुशबू
अब भी मिलते हैं दीवारों पर
गोलियों-छर्रों के जीवित निशान

यह इमाम का घर
मस्जिदों, मकबरों, मजारों, मंदिरों से मिल कर
बनी सियामी तहजीब
कहीं अजान तो
वहीं पास गूंजती
घंटियों की आवाज

यह लखनऊ है
जिसके दिल में बसता है
नागर जी का चौक
यही कहीं रहती थी ये कोठेवालियां
देर रात तक फिजा में गूंजती
उनके घुंघरुओं की आवाजें
उनकी सिसकियां
हवा में तैरती
मुंह में पान का बीड़ा दबाये
लोगों की बतकही, दिल्लगी
हंसी-टिठोली, चुहलबाजी

लोग ऐसे
कि पतंगबाजी और कौवेबाजी में
अपनी जान लड़ा देते
एक-दूसरे को मरने-मारने पर उतारु
फिर मिल कर गाते
भंग के नशे में मदमस्त
मीर की मजार है यहीं कही दफ्न
इन गलियों में चहल करते हुए
गलिब ने कई शेर कहे

खण्डहर ही खण्डहर
यह रिफाए-आम-क्लब है
जहां से़ शुरू हुई थी तरक्की पसन्द तहरीक
मुंशी प्रेमचंद ने दी थी वह तकरीर
जो तारीख नहीं तवारीख है
भगवती बाबू की चित्रलेखा
यशपाल का विप्लव प्रेस
ये सब उस पेड़ की डालियां हैं
जिन्हें हमने लखनऊ से जाना है
यह अकथ कथा है
जो शुरू होती है
पर खतम नहीं होती।
(2015)


(दो)


यह लखनऊ है
मुस्कुराइए, आप लखनऊ में हैं

फटी-फटी विस्फारित हैं
आपकी आंखें
कहीं यह कोई भ्रम-जाल
या रामदेव का हास्ययोग तो नहीं
मुस्कुराने की कोई वाजिब वजह तो हो
खामखाह मुस्कुराते रहे
तो पागल भी करार दिये जा सकते हैं

कोलकत्ता, दिल्ली, हैदराबाद, पटना......
इनसे अलग
क्या खासियत रखता है यह शहर
कि इससे रू ब रू हों
पेट में पड़ जाए बल
और आप मुस्कुरा उठे 

जानता हूं जनाब!
फिलवक्त आप शहर-ए-लखनऊ में हैं
आपकों बहुत पसन्द है चिकन कारीगरी
यहां की खूबसूरत अदाकारी
मनमोहक लोगों का अन्दाज
पहले आप, पहले आप
क्या अदाएं हैं इनकी
बिल्कुल नवाबों की
रिक्शे वाले हों या बग्गी वाले
बड़ी मीठी है इनकी जबान
इसीलिए तो आप इन सब के कायल हैं
तनाव और उदासी
जो चिपकी थी आपके साथ
इसके भव्य दरवाजे से दाखिल होते ही
गायब हो गई इस कदर
ऐसे छू-मन्तर
जैसे गर्म तवे पर पड़ी जल-बून्दें
जनाब! इतहास के पन्ने फड़फड़ा रहे है
और इसमें आप कहां खो गये?

पर यह क्या?
बड़े जोर की ठोकर लगी
और अपकी तन्द्रा भंग
आप तो पत्थर की तरह लुढकने लगे
इस ढ़लवां शहर में लुढकते-लुढकते
आप कहां पहुंचे हैं
यह कंक्रीट का कोई जंगल नहीं हैं
लखनऊ है लखनऊ
लखनऊ में लखनऊ

इसके वक्षस्थल पर चल रही है
तरक्की की रेल
सवार है जिस पर मॉल, मल्टीप्लेक्स
ऊँची इमारतें, चमचमाती सड़कें
पोर-पोर में पसरता बाजार
हवा में तैरती
धरती का कलेजा फाड़
चल रही है रेल

तबाह होती बस्तियां, उजड़ते खेत
बजबजाते नाले-नालियां
व्यस्त शहर, भागते लोग
सड़क जाम
बेरोजगारों की भीड़
सफाई, पानी और बिजली के लिए
त्राहि-त्राहि
चारो तरफ हाहाकार
रोज ही लोग नारे लगाते घरों से निकलते हैं
पुतला फूंकते हैं
और करते हैं सरकार का दाह संस्कार

जनाब! चौंकिए नहीं
हांफते, भागते आप जहां पहुंचे है
यह लखनऊ ही है
जितना यह फैल रहा
उतना ही सिकुड़ता जा रहा
गायब हो रही है उसकी मुसकान
बहती है गोमती इसके बीचो-बीच
पतली, पर गहरी
समेटे खदबदाता इतिहास

शहर बड़ा हो
पर वह इतना बड़ा न हो जाए
जैसे पेड़ खजूर 
कि गोमती छोटी पड़ जाय
मछलियों को पानी न मिले
वे तड़पने लगे
वे मरने लगे

पानी पानी रहे
बचा रहे हमारा पानी
वह जहर न बने
बची रहे जीवन-रेखा
और बची रहें मुस्कुराहटें
उनकी जगहें और वजहें

हां, हां जनाब!
यह लखनऊ है
मुस्कुराइए, आप लखनऊ में है
और जब आप यहां से जाये
तो इस संदेश के साथ जायें

गोमती को बचाना, अपने पानी को बचाना है
अपने शहर को बचाना, इस दुनिया को बचाना है।

(2016)


सम्पर्क

एफ–3144  राजाजीपुरम,  लखनऊ – 226017

मो - 8400208031

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)  

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (15-05-2019) को "आसन है अनमोल" (चर्चा अंक- 3335) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर कविताएँ

    जवाब देंहटाएं

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