स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण 'हापुड़ होते हुए'
दुनिया का हर संस्मरण अपने
आप में एक भरा पूरा इतिहास होता है। अगर यह संस्मरण एक कवि का हो तो
फिर इसके साथ कई अतिरिक्त बातें जुड जाती हैं। इस
संस्मरण में साहित्य, संगीत, संस्कृति
के जरिये समय और समाज हमेशा संवाद करते नज़र आते हैं। स्वप्निल
श्रीवास्तव हमारे समय के ऐसे कवि हैं जो बेहतर कविता लिखने के साथ-साथ उम्दा गद्य भी
लिखते हैं। हाल ही में उनके संस्मरणो की किताब
‘जैसा मैंने जीवन जिया’ लोकोदय प्रकाशन लखनऊ से आयी है। इस
किताब का गद्य अपने आप में एक बानगी है। खुद की एक फेसबुक पोस्ट में स्वप्निल
जी इस किताब की बावत लिखते हैं – ‘इस
किताब को लिख कर मैं यातनामुक्त हुआ हूँ। लिखना थेरेपी का एक हिस्सा है।’ आज
पहली बार पर प्रस्तुत है स्वप्निल श्रीवास्तव इसी किताब का एक अंश।
हापुड़ होते हुए
स्वप्निल श्रीवास्तव
(हर पुस्तक अपने ही जीवन से चोरी की घटना है – मारीना त्स्वेतायेवा)
जिंदगी अच्छी हो सकती है और बुरी भी, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया
जा सकता कि वह बेहद दिलचस्प होती है। जैसे हम अपने उदगमस्थल से आगे बढ़ते
हैं, नये–नये पड़ाव और लोग मिलते हैं। उनसे जान–पहचान
होती है। उनके साथ हम बनते–बिगड़ते हैं।
हमारे जिंदगी की कहानियां बहुत रोचक होती है, उसमें
संकेत और सम्भावनायें छिपी होती हैं। ज्योतिषी कहते हैं, यह
सब प्रारब्ध का कमाल है। लेकिन जीवन की हलचलों को किसी पद अथवा मिथक में नहीं
बांधा जा सकता। जिंदगी में चीजें स्वयमेव घटित होती हैं, अपना
आकार ग्रहण करती है।
बचपन गांव की धूल में
बीता। बाद की पढ़ाई देवरिया जनपद के एक कस्बे में
हुई। उसके बाद की शिक्षा-दीक्षा गोरखपुर में हुई। यहाँ यह बता दूं कि
गोरखपुर से बड़ा शहर इसके पहले नहीं देखा
था। उस समय का गोरखपुर आज के गोरखपुर की
तरह नहीं था। अब वह अत्याधुनिक हो गया है। उसकी देहाती पहचान गुम हो गयी है। वहाँ बाहर से बहुत से
सारे लोग आ गये है, जिन्होने शहर के पर्यावरण को दूषित किया है। इस शहर में
पढ़े-लिखे कवि और लेखको को कोई नहीं जानता।
हाँ, हत्यारो और माफियों के जीवनवृत और बहादुरी
की कहानियों से शहर के लोग परिचित थे। लोग
पीछे से अथवा धोखे से मारने की कला को
बहादुरी का नाम देते थे। मुझे इस शहर के नागरिको पर संदेह होता था। किसी नगर के नागरिक अगर जागरूक हो तो वहाँ
हत्यारों और गुंडो को कोई तरजीह न दी
जाती।
पढ़ाई लिखाई के बाद मनपसंद
नौकरी नहीं मिली। जो नौकरी मिली उसमें कभी मन नहीं लगा। इस दुःख को जीवन भर सहता
रहा। लेकिन इनके बीच सुख की खोज करता रहा।
साहित्य से जुड़ाव ने हमारे दुःख जरूर कम किये। इस सफर में बहुत सारे प्यारे लोग
मिले जिन्होने मुझे खुश रहने के तरीके बताये। नौकरी ऐसी कि
साल दो साल बाद जगहे बदलता रहा। हर जगह कुछ ऐसे लोग मिले जो दूसरी तरह से सोचते
थे। उनसे दोस्तियां हुईं। वह अब भी बरकरार है। इस सफर में हापुड़ जैसा शहर भी आया
और वह इतना अपना हुआ कि उसके बिना जीवन की कल्पना नहीं होती है। यह शहर मेरे लिए
बंदरगाह की तरह है। मुझे कहीं भी जाना हो हापुड़ रास्ते में पड़ता है। भले वहाँ से
होते हुए ये रास्ता लम्बा हो जाए लेकिन वहाँ से हो कर जाना अच्छा लगता है।
बुलंदशहर की सूचना विभाग
वाली नौकरी के बीच ही यह नौकरी हाथ लग गयी
थी। बस पोस्टिंग बाकी थी। सोचा था पोस्टिंग अपने इलाके में हो जाय तो कितना अच्छा हो। घर-दुआर से नजदीक रहूंगा। गांव
से आना जाना होता रहेगा। मुझे घर से दूर रहना अच्छा नहीं लगता था। लेकिन यह सब
अपने बस में तो नहीं था। जिंदगी हमें जहाँ ले जाती है, वहाँ
जाना पड़ता है। नियतिवादी मानते हैं - सब कुछ पूर्व-निर्धारित है। हम कहाँ जाएंगे -
वहाँ किस तरह के लोग मिलेंगे। उनसे क्या
हासिल होगा। मैं नियतिवादी तो नहीं हूं लेकिन जो कुछ जीवन में घटित होता है,
वह
बहुत दिलचस्प है। हमें जीवन में कई तरह की चाही-अनचाही भूमिकायें निभानी पड़ती हैं।
कभी पीछे मुड कर देखना राहत देता है।
लेकिन मेरे शहर में जादू दिखाने वाली एक जादूगरनी ने हमें आगाह किया था कि पीछे मुड कर देखना अच्छी आदत नहीं
है। यह बात उसने स्टेज पर कबूतर उड़ाते हुए कहा था। कबूतर तो उसने उड़ा दिया लेकिन
वह थोड़ी देर बाद गुम हो गया। मैंने एक
बच्चे की तरह पूछा – कबूतर कहाँ गया। उसने कहा— यही तो जादू है। यह स्टेज का
हिस्सा नहीं हमारी जिंदगी का रिवाज है। वह जादूगरनी हर साल हमारे शहर में आती है
और कोई न कोई सूत्र हमें थमा जाती है। उसका जादू देखते हुए एक बात समझ में आयी कि
जीवन के बहुत से सूत्र जीवन में बिखरे हुए हैं। वे तिलिस्म की तरह समय पर हमारे सामने खुलते हैं।
मुझे जो आदेश पत्र मिला। उसमें पिलखुआ गाजियावाद लिखा हुआ था। यह पता
मेरे सोचने के खिलाफ था। सोचा था घर के आसपास पोस्टिंग मिलेगी। थोड़ा झटका लगा, लेकिन यह
सोचा कहाँ मनचाही मुराद पूरी होती है। बाद में इस बात का अफसोस नहीं रहा। मन रम
गया था। हमारा मन शहर से नहीं शहर के लोगों से जुड़ता है। शहर के बेहतर लोग शहर को
बेहतर बनाते हैं। गाजियाबाद जब पहुंचा तो मेरे पास टिन का एक बक्सा जिसमें कुछ
किताबें और एक दो जोड़ी कपडे थे। एक बैग में कुछ बर्तन एक बूढ़ा स्टोप था। जो जलने
के पहले खूब शोर मचाता था। इसके उपयोग के पहले इस कमबख्त स्टोप से लड़ना पड़्ता था।
कभी इतना ऊब जाता था कि बिना खाये सो जाता था।
दिल्ली–गढ़ वाली बस से जब
पिलखुवा बस-स्टेशन पर उतरा तो कोयलरी में काम करने वाले मजदूर से ज्यादा नहीं
दिखता था। मेरे एक हाथ में संदूक थी - कंधे पर बेडौल झोला। इन दोनो के बीच मैं छिप
सा गया था। थोड़ी शर्म भी आ रही थी कि मुझे इस हुलिए में देख कर लोग क्या कहेंगे।
सिनेमा मालिक ने मुझे देख
कर मुंह बिचकाया। वह मुझे कहाँ जानता था। उसने शायद यह सोचा होगा कि कोई सिनेमा
देखने आया होगा लेकिन जब मैंने अपना परिचय
दिया तो वह सावधान मुद्रा में आ गया। बोला
‘सर .. सर.. इधर आइए।’
वह मुझे आफिस में ले गया। मेज पर तमाम
चीजें सज चुकी थीं। उन्हें खाने की ताकत
मेरे पास नहीं थी। मैं उन्हें लगातार मना कर रहा था, लेकिन मेरे प्रति उनका प्रेम भाव जारी था। मैंने
अपने पेट के हिसाब से थोड़ा बहुत उदरस्थ किया। इसके बावजूद उनका इसरार जारी था।
मैंने उनसे रहने के किराये के मकान की बात की। वे बोले – ‘सर कुछ दिन सिनेमा के
गेस्ट रूम में रहें - फिर कहीं न कहीं इंतजाम हो जायेगा।’
पिलखुवा एक छोटा सा कस्बा था जहाँ बुनाई-छपाई का काम होता था।
तालाबों और खाली जगहों पर रंग–बिरंगी चादरें बिखरी हुई थी। जहाँ देखो वहाँ रंग
बिखरे हुए थे। खासकर वहाँ की चादरें और
खेस मशहूर थी। चादरों पर तरह तरह की डिजाइनें बनी रहती थीं। कई बार मैंने चादरें
खरीदी थी। एक चादर पर उगता हुआ सूर्य छपा
था - दूसरे में उड़ते हुए घोड़े थे। बहुत दिनों तक मैंने ये चादरें संभाल कर रखी
थीं। चादरें ज्यों की त्यों नहीं रहतीं, वे मैली हो जाती हैं, उनके धागे उधड़
जाते हैं। दास कबीर ही ओढ़ कर चादर को ज्यों की त्यों रख देते हैं।
सिनेमा का गेस्ट–हाउस ऊपरी मंजिल पर था। वहाँ से सड़क पर चल
रही गतिविधियां दिखाई देती थी। रात के
बारह बजे बाद जब सिनेमाहाल बंद हो जाता था। लोग चले जाते थे। मैं अकेला उस अकेले
कमरे में रात गुजारता था। अचानक शोर थम जाने के बाद का सन्नाटा बहुत भयावह लगता
था। इस सन्नाटे में रहने की आदत हो गयी
थी।
मुझे सुखद आश्चर्य तब हुआ जब पता लगा कि हापुड़ यहाँ से आधे घंटे
की दूरी पर है। मुझे ठीक-ठाक हापुड़ का पता
मालूम नहीं था। हापुड़ के नीचे जिला
गाजियाबाद नहीं लिखा जाता था। बस इतना मालूम था - हापुड़ पश्चिमी उ. प्र.
के इलाके में है। मुझे क्या हिंदी के एक
कवि ने हापुड़ की कल्पना कोलकाता के पास कर
ली थी। नामों के भ्रम के हम कम शिकार नहीं होते। एक अन्य कवि ने सर्वेश्वर की
कविता ‘कुआनों नदी’ को चीन की नदी
कहने का खतरा उठाया। इन लोगों से मेरी मूर्खता कुछ कम जरूर थी। हापुड़ में सम्भावना
प्रकाशन था। वहाँ से ‘पश्यंती’ नाम की पत्रिका निकल रही थी। जिसके सम्पादक प्रभात
मित्तल थे। वे स्टेशन रोड पर ‘प्रेम भवन’ नाम बिल्डिंग में
रहते थे। पश्यंती के पते के रूप में यह पता लिखा था। इस शहर में सुदर्शन नारंग, नफीस आफरीदी, अशोक अग्रवाल जैसे
लेखक थे। मुझे पता नहीं था – अशोक अग्रवाल सम्भावना प्रकाशन के कर्ता-धर्ता थे।
हापुड़ बस कुछ हाथ की दूरी पर है। यह सूचना मेरे लिए आह्लादकारी थी। अंधा क्या
मांगे दो आंखे जैसी बात थी। शुभ काम में देरी क्या? दूसरे दिन ही मैं
दिल्ली-गढ़ वाली बस पर सवार हो गया। आधे घंटे बाद मैं जिस शहर में उतरा वह हापुड
था। उस समय वहाँ इतनी भींड़ नहीं थी, जितना इस समय देखी जा रही है। उन दिनों हापुड़ धीमी
रफ्तार का शहर था। हापुड़ की मंडी बहुत मशहूर थी। वहाँ का पापड़ हापुड़ पहचान में
शामिल था। हापुड़ और पापड़ का तुक भी खूब था। कभी-कभी कुछ चीजें - किसी शहर के
मुहावरों में आ जाती हैं।
प्रभात मित्तल बहुत सहज व्यक्ति थे। वे पहले जबलपुर में पढ़ाते
थे। उनकी हिंदी के कथाकार और ‘पहल’ के सम्पादक ज्ञानरंजन से दोस्ती थी। ज्ञान दा के कई
किस्से उनके पास थे। मैं ज्ञान दा का मुरीद था। उनकी कहानियों का पाठक था। उनकी
भाषा विलक्षण थी। पिता, बहिर्गमन, ‘अमरूद का पेड़’ मेरी पंसदीदा कहानियां थीं। जहाँ तक मुझे याद है, इस पत्रिका के
सम्पादक प्रणव कुमार वंदोपाध्याय और अमृता भारती थी। प्रभात जी ने बताया, अमृता भारती उनकी
बहन हैं। वे पांडुचेरी में है और प्रणव विदेश में, इसलिए वे फिलहाल के लिए इस
पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ‘पश्यंती’ का आगामी अंक
कविता पर केंद्रित है। मैंने उनसे सम्भावना प्रकाशन के बारे में पूछा तो कहा ‘चाय पी लें तो चलें, बस थोड़ी दूर पर
हैं।
सम्भावना प्रकाशन सड़क से थोड़ी दूर गली में था। उस गली का नाम रेवती कुंज था। सम्भावना के सामने लान था। जिसमें
उदारता से धूप आ रही थी। अशोक अग्रवाल मुझसे कोई दो चार साल बड़े लग रहे थे। मेरी
तरह दुबले-पतले लेकिन आंखे दूर तक देखने वाली आंखे थी। इस तरह इन दोनो विभूतियों
से प्रारम्भिक परिचय हुआ। पिलखुआ से हापुड का आना जाना जटिल नहीं था। बस झोला कंधे
पर डालो पर दन्न से हापुड़ पहुंच जाओ। धीरे-धीरे हमारी दोस्ती बढ़ती गई। मैं अशोक
अग्रवाल के समीप होता गया और उनके परिवार का हिस्सा बनता गया। कभी वे रोक लेते कभी
मैं रूक जाता। हम वहाँ के सिनेमाहाल में सिनेमा देखते। साथ-साथ दिल्ली का
प्रोग्राम बनता। वे खूब मौज-मस्ती के न भूलने वाले दिन थे।
एक औघड़ कवि का आगमन
एक दिन प्रभात जी ने बताया - बाबा नागार्जुन को अनिल जनविजय ले
कर आ रहा है। बाबा नागार्जुन मेरे प्रिय
कवियों में थे। उनकी कविता ‘अकाल और उसके
बाद’ बादल को घिरते
देखा है,
सिंदूर
तिलकित भाल, घिन तो नहीं
आती है, नेवला, मंत्र, ‘चंदू मैंने सपना
देखा’ मुझे पसंद थी।
लेकिन मैं उन्हें साक्षात देखूंगा, इस खबर से मैं रोमांचित था। किसी बड़े कवि की
कविताओं को पढ़ने का अपना सुख है लेकिन
उससे कैसे मिला जाय। मेरे पास न ज्ञान था न भाषा। मैं एक पिछड़े शहर से आया हुआ एक
कवि था जो कविता की पाठशाला में वर्णमाला सीख रहा था। मुझे कविता के हेडमास्टर से
मिलना था। ऐसे कवि से मिलने के लिए जो पूंजी चाहिए, वह मेरे पास नहीं थी। मेरे
पास संकोच और भीरूता थी। इस केंचुल को मैं इतनी उम्र होने के बावजूद अपनी त्वचा से
उतार नहीं पाया था। मेरा दिल धड़क रहा था। बाबा के साथ अनिल जनविजय थे। यह नाम मुझे
कुछ अलग सा लगा। मुझे बाद में मालूम हुआ
कि अनिल ने अपना उपनाम अपनी मां के साथ
जोड़ा। मां से उनका अदम्य लगाव था। मां की मृत्यु बहुत पहले हो गयी थी। पिता ने
दूसरी शादी कर ली और अनिल को दरबदर जिंदगी जीनी पड़ी। इन्हीं परिस्थितियों में उनके
कवि रूप का विकास हुआ। अनिल कथा अभी बाद में। इस वक्त हम एक औघड कवि के बारे में
बतकही कर रहे हैं। नागार्जुन साठ के ऊपर
पहुंच चुके थे। उन्हें बाबा कहने की परम्परा शुरू हो गयी थी। बाबा सचमुच बाबा की
तरह थे। गांव के बड़े-बूढ़े उम्र के लोग अपने जीवन के उत्तर काल में बाबा नाम से
विभूषित होने लगते थे। बाबा मुझे किसी औघढ़ की तरह दिखते थे। ऊंटांग-पटांग कोट पहने, सिर पर कुलही
पहने, बेतरतीब दाढ़ी, कत्थई दांत – ऐसी
थी उनकी भेष-भूषा। मेरा परिचय
कोई खास नहीं दिया गया। बस इतना ही कि मैं
कविताएं लिखता हूं और एक छोटी सी नौकरी में हूं। यदा-कदा मेरी कविताएं प्रकाशित हो
रही थीं। कविता की दुनिया में मैं आंखे खोल रहा था। पंख धीरे-धीरे उग रहे थे।
बाबा का हापुड़ में आना-जाना शुरू हो गया था। उनका अड्डा अब अशोक
अग्रवाल के यहाँ बनने लगा। अशोक जी के स्टडी के बगल में उनका आसन लगाया गया। जब वे
हापुड़ आते मैं उनके सान्निध्य का अवसर नहीं गंवाता। दफ्तर के जरूरी काम छोड़ कर उनके इर्द-गिर्द मंडराने लगता था।
उनके पास जीवन और साहित्य के असंख्य किस्से
थे। बाबा जिसके यहाँ जाते - सीधे किचन में पहुंच जाते। मालकिन को तमाम व्यंजनों के
बारे में बताते। उन्हें बच्चे बहुत प्रिय थे। अशोक अग्रवाल के दो बेटे - चिंकू और
मिंकू तब बहुत छोटे थे। उनको वे अपने दाढ़ी के बारे में बताते और कहते - इस दाढ़ी के
बीच से एक सुरंग जाती है। उनके आने के बाद घर में चहल-पहल शुरू हो जाती थी।
जिन्हें साहित्य में कोई दिलचस्पी नहीं थी वे भी बाबा से मिलने आते थे। उनकी
लोकप्रियता बेमिशाल थी। वे सरापा कवि थे। साहित्य के लिए उन्होंने इस जीवन को
स्वाहा कर दिया था। वे घर फूंक तमाशा देखने वाले कवियों में थे। उनकी इस राह पर
चलने वाले कवियों में शमशेर और त्रिलोचन भी शामिल थे। अब हम ऐसी पीढ़ी की कल्पना
नहीं कर सकते।
बाबा के पास एक ट्रांस्जिस्टर था जो बामुश्किल बजता था। वह
समाचार सुनने के काम आता था। उनके पास
काम्प्लान और च्यवनप्रास की शीशियां थी। मैं हैरत में था कि एक बड़े कवि के पास इतनी ही सम्पत्ति है।
लेकिन हिंदी या मैथिली साहित्य में उनका जो योगदान है, उनका मूल्यांकन किया जाना
है। लेकिन यह सोचना हमें करूण बना देता है कि उन्होंने साहित्य के लिए घर–बार को
छोड़ दिया था। वे लम्बी-लम्बी यात्रायें करते रहे। घर से गये तो कई सालों बाद घर
लौटते थे। एक बार मैंने उनके बड़े बेटे शोभाकांत से कहा था –आपको गर्व होना चाहिए
कि आप नागार्जुन जैसे बड़े कवि के बेटे हैं। शोभाकांत जी ने उदास हो कर कहा -
स्वप्निल जी, इसके लिए हमें
बहुत बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी है।
नागार्जुन को याद करने के लिए बहुत से किस्से हैं। बस एक दो
किस्से सुनिए।
अशोक जी के यहाँ कोई स्वामी जी आये हुए थे। उनके आने के कुछ देर
बाद भक्तों से उनका घर भर गया। स्वामीजी सुदर्शन थे। उनका ललाट चमक रहा था। वे बहुत कीमती गेरूआ वस्त्र पहने हुए थे।
वे भक्तों को उपदेश दे रहे थे। हम लोग
बहुत असुविधा में थे। किसी ने उनसे कह दिया कि हिंदी के महाकवि नागार्जुन आये हुए हैं। बाबा तलब किये गये।
पहली दूसरी बार नहीं गये लेकिन तीसरी बार
संकोच में जाना पड़ा। स्वामी ने बिना किसी भूमिका के कहा - अहा कोई कविता सुनाइए।
बाबा कहाँ उनके आदेश को मानने वाले थे। हम लोगों को वे बिना मूड
के कविता
नहीं सुनाते थे। ये स्वामी किस खेत की मूली है। बाबा हाँ हूं करते रहे
लेकिन कविता नहीं सुनाई। हंसते हुए बाहर आये। हम लोगों से कहा – आओ घूमने चलते
हैं।
चोपले (चौराहे) से खूब अच्छे अमरूद खरीदे। बाबा उसे ग्लोब की
तरह घुमा कर देख रहे थे। बाबा दमा के
शाश्वत रोगी थे। अमरूद उन्हें परम प्रिय था। खासकर जाड़े के अमरूद उन्हें बहुत भाते
थे।
बाबा की मंडली में बहुत से लोग शामिल थे। इस फेहरिश्त में वे
लोग भी थे, जिन्हे साहित्य से कोई लेना-देना नहीं था। बाबा
साहित्य की बात बहुत कम करते थे। ऐसी बात करते थे जिसे एक आम आदमी जान-समझ सके।
हमारी मंडली में कथाकार सुदर्शन नांरग के बड़े भाई अमरीक नारंग स्थायी सदस्य थे।
जैसे बाबा आते अमरीक भाई पहुंच जाते थे। वे एक फैक्ट्री के मालिक थे। उन्होंने बाबा
के साथ हम लोगों को अपनी फैक्ट्री में आमंत्रित किया। फैक्ट्री सम्भावना प्रकाशन
से दूर नहीं थी। उसकी दूरी पैदल तय की जा सकती थी। बाबा आगे और हम अनुचर की तरह
उनके पीछे थे। हम लोगों की टोली में सात-आठ लोग थे। बाबा भीड़ में अलग दिखते थे।
लोग उन्हें उचक-उचक कर देख रहे थे। बाबा उन्हें अजूबे की तरह दिखाई दे रहे थे। वे
अपने पहनावे से औघड-तांत्रिक से कम नहीं लगते थे। लोग तो यही सोच रहे थे – कहीं
ओझाई–सोखाई के लिए उन्हें लोग ले जा रहे हैं। बाबा विजयी-भाव से आगे बढ़ रहे थे।
अचानक चोपले पर रूक गये और ठुमक-ठुमक कर गाने लगे।
इंदुजी इंदुजी क्या
हुआ आपको
सत्ता की मस्ती में, भूल गयी बाप को
इंदुजी इंदुजी – क्या
हुआ आप को
बेटे को तार दिया -
वोट दिया बाप को
क्या हुआ आपको
यह
बाबा की प्रसिद्ध कविता थी जिसे बाबा ने आपातकाल के पहले 1974 में लिखा था। इस कविता को सुनने के बाद चमत्कार हो
गया। अचानक सैकड़ो लोग आ गये। बाबा नाच रहे थे। गा रहे थे। उनकी भाव-भंगिमा अदभुत
थी। उसमें अजीब सी नाटकीयता थी। बाबा को इस तरह सुनने-देखने का अवसर नहीं मिला था। यह एक कवि का साहस था। जो लोग यह
कहते हैं कि लोगों को कविताएं नहीं समझ में नहीं आ रही है। उनके लिए बाबा कुंजी का
काम कर सकते थे। बाबा कहते थे कि कवियों को अपनी कविताओं में लोक-रूपो का इस्तेमाल
करना चाहिए।
बाबा का जादू देख कर हम चकित थे। उनके पिटारे में बहुत कुछ था, जो धीरे–धीरे
सामने आ रहा था। उनके पास अनुभव का विपुल संसार था। उनके अनुभव सामान्य नहीं विलक्षण थे। उन्होंने सहज जीवन
नहीं जिया था। जीवन में खतरे कम नहीं
उठाये थे। अपने स्वभाव में वे कबिरहा थे। हमने कबीर को नहीं देखा, लेकिन वे हमें
कबीर की तरह लगते थे। उनके जीवन और रचना के बीच दूरी बहुत कम थी।
हम लोग अमरीक नारंग की फैक्ट्री में पहुंच चुके थे। अमरीक ने
बाबा को अपने दफ्तर की मुख्य कुर्सी पर विराजमान
किया। दफ्तर में एक पगड़ीधारी सिख की फोटो
लगी थी। मालूम हुआ, यह अमरीक के बड़े भाई की फोटो है। उस दिन वे फैक्ट्री में नहीं थे। अमरीक और उनके भाई
सुदर्शन, मोना थे।
उन्होंने बालों से मुक्ति पा ली थी। अन्य
सिखो की तरह उनका परिवार विभाजन का शिकार था। अमरीक ने तफ्सील के साथ अपने परिवार
के दरबदर होने के दारूण किस्से सुनाये। बाबा मुख्य अतिथि थे और हम उनके चेले-चपाटे।
इसका हमें कम गर्व नहीं था। वह बाबा कैसा
जिसके अनुयायी न हो।
बाबा को अमरीक नारंग ने अपनी फैक्ट्री दिखाई। हम लोग भी उनके
साथ लगे हुए थे। अमरीक ने बाबा के सामने
एक डायरी रख कर कुछ लिखने का निवेदन किया।
उनका लिखा हुआ पूरा वाक्य तो याद नहीं है। बस सार यही था मैंने अमरीक नांरग की
फैक्ट्री देखी। वे मेहनती आदमी हैं और पक्के राष्ट्रवादी हैं। बाबा का यह प्रमाण-पत्र
बहुत मूल्यवान था। हमारा मूल्यांकन प्रमाणपत्रों के आधार पर होता है। नौकरी के लिए
ये सर्टिफेकेट जरूरी हैं। लेकिन बाबा ने यह प्रमाणपत्र जारी कर लगता था, उन्हें अभयदान दे
दिया हो। हमारे जीवन में ये कागज कहाँ किस स्थिति में काम आएंगे। धारक को पता नहीं
चलता।
मेरी नौकरी में तबादले खूब होते थे। जैसे किसी जगह जमे कि
ट्रान्सफर के आर्डर आ जाते थे। गाजियाबाद
के तीन कस्बों में कुल मिला कर तीन साल रहा। ये मेरे जीवन के अमूल्य वर्ष थे। यहाँ
पर रह कर जो पूंजी हमने जमा की थी, वह मेरी जिंदगी में अब तक काम आ रही है। हापुड़ में
मेरा आना-जाना बना रहा। वहाँ से दिल्ली
नजदीक थी। वहाँ लोगों से मिलना जुलना होता था। उस समय और आज के समय की दिल्ली में
जमीन-आसमान का अंतर आ गया है। पहले लोग जिस गर्मजोशी से मिलते थे, वह अनुभव पुराना
हो गया है। अब हाथ मिलाते समय ऐसा लगता है कि किसी शव से हाथ मिला रहे हों। ऐसे
लिजलिजे लोगों से हाथ क्या मिलाना।
उन्नीस सौ पचहत्तर का समय भारतीय समाज का उल्लेखनीय समय
था। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार
का बनना। फिर उसका आकस्मिक पतन। राजनीति
में नयी पीढ़ी का आगमन। डान और माफिया का सत्ता में प्रवेश। इन तत्वों ने भारतीय
राजनीति को मूल रूप से बदलने का काम किया। जो युवा वर्ग राजनीति में आया उसका जनता
की सेवा से कोई सरोकार नहीं था। राजनीति प्रोफेशन में बदल चुकी थी। लूट–पाट के
अभिनव तरीके इजाद हो रहे थे। जनता सरकार के पराभव के बाद इंदिरा गांधी की दमदार
वापसी हुई।
इसी समय पंजाब में आंतकवाद की शुरूआत हुई। भिंडरवाला – आतंकवाद
का पर्याय बन गया था। खालिस्तान की मांग
शुरू हो गयी थी। पूरा पंजाब रक्तरंजित हो गया था। बेकसूर लोग मारे जा रहे थे।
स्वर्ण-मंदिर आतंकवादियों का केंद्र बन
चुका था। इंदिरा गांधी ने आपरेशन ब्लू स्टार शुरू किया। जिसकी परिणिति उनकी हत्या में हुई। इन्ही के बीच अंतरराज्यीय
बस अड्डे पर ट्रांजिस्टर कांड हुआ। बस
अड्डे के एक खाली बेंच पर अकेले ट्रांजिस्टर को देख कर एक बच्चा लपक पड़ा। उसे छूते
ही भयानक विस्फोट हुआ। इस घटना में कई लोग मारे गये। इस घटना का मेरे ऊपर गहरा
प्रभाव पड़ा। मैं कई दिनों तक काठ बना रहा। इस दुर्घटना में बच्चे का मारा जाना
मुझे आहत कर गया। लेकिन इस घटना से अमरीक नारंग भयानक संकट में पड़ गये। जेल
जाते-जाते बचे।
इस कांड की तफ्सीस करते हुए न जाने कैसे सी. बी. आई की टीम अमरीक
के पास पहुंच गई। उन्हें ट्रांजिस्टर कांड
से जोड़ने लगी। वे लाख तर्क दें, वे सुनने
को तैयार नहीं थी। वे पसीने-पसीने हो गये। उन्हें धमकी दे कर वह टीम
चली गयी, इस धमकी के साथ कि अभी और
पूछ्ताछ होनी है। अमरीक की नींद गायब थी।
उन्हें मुफ्त में फंसाया जा रहा था। कहाँ दिल्ली कहाँ हापुड़। आखिर सी. बी. आई. को ऐसे सूत्र कहाँ से मिले कि
अमरीक नारंग इस प्रकरण में शामिल हैं। शहर
में यह बात हवा की तरह फैल गयी। चौराहो और नुक्कड़ो पर यही विमर्श चल रहा था। लोग हैरान थे। इतना
अच्छा आदमी -कत्तई ऐसा काम नहीं कर सकता।
उसे फंसाया जा रहा है।
दूसरी या तीसरी बार सी. बी. आई. का बड़ा अफसर आया। उसके तेवर
तल्ख थे। आवाज ऊंची थी। बाहर एक नहीं कई गाड़ियां थीं। उन पर लाल बत्ती तेजी से घूम
रही थी। एक गाड़ी में गारद थी। यानी इस बार अमरीक को ले जाने का पक्का इंतजाम था।
अफसर ने कहा – इधर उधर की बात मत करिये, कुबूल दीजिये। मेरे
पास कबूलवाने के संगीन तरीके हैं। लेकिन
आप इस शहर के अच्छे नागरिक हैं। मैं इसका
लिहाज कर रहा हूं।
-
सर बात मानिये – इस मामले में मेरा कोई रोल नहीं
है। मैं पक्का राष्ट्रवादी हूं। मैं किसी
तरह के आंतकवाद का समर्थक नहीं हूं।
-
आप झूठ बोल रहे हैं। आप डरिये नहीं, मैं आपके साथ हूं।
आपको ज्यादा सजा नहीं होगी। हो सकता है, आपको जमानत मिल
जाये।
अमरीक घिर चुके थे। कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। वे दौड़ते हुए
एक कमरे में गये और वह डायरी ले आये
जिसमें बाबा ने उनके बारे में लिखा था। यह डायरी उनके बचाव का आखिरी अस्त्र थी।
मेज पर डायरी का पन्ना खोलते हुए उन्होंने
कहा – देखिए बाबा नागार्जुन ने मेरे बारे में क्या लिखा है?
सी. बी. आई. अफसर ने बाबा का लिखा गौर से पढ़ा। उसके चेहरे का
तनाव ढ़ीला होने लगा।
आप बाबा को जानते हैं?
-
बहुत अच्छी
तरह से,
वे
अक्सर हापुड़ आते हैं।
-
मैं उन्हें वर्षो से जानता हूं।
अमरीक ने बाबा के
बारे में कई बातें बतायी जिससे यह पुष्टि हो जाय कि वह गलत नहीं बोल रहे हैं।
सी. बी. आई. अफसर को अब कोई और बेगुनाही का सुबूत
नहीं चाहिए था। उन्होंने अमरीक से माफी
मांगी। खाली हाथ दिल्ली लौट गये। शब्द हमारी
कविता को नहीं, जीवन को बचाते हैं।
सम्पर्क
मोबाईल : 09415332326
(पेंटिंग सौजन्य - विजेंद्र जी)
वाह। मज़ा आ गया
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