अजय कुमार पांडेय
बच्चे के दांत
यह जो बच्चा सामने बैठा है
मुँह बाये हॅंस रहा है,
इसके दो दॉंत ऊपर,
दो दॉंत नीचे उगे हैं -
फर्श से उठ कर
खड़े होने की कोशिश में
हर बार गिरा जा रहा है।
कल मैंने
इसे खड़ा करने के लिए
उॅंगली पकड़ाई
इसने पकड़ कर काट लिया
मैंने इसके मुँह से
झट उॅंगली खींची -हॅंसने लगा
आज फिर मुझे
देख कर यह हॅंस रहा है
और ये अंकुरित
दो जोड़ी बाहर को दिखते शरारती दॉंत
जो मेरी उॅंगली में गड़ रहे हैं
मॉं की छाती में
दूध बन कर बह रहे हैं ।
बच्चे
कल
दो बच्चों ने
खेलते हुए
लड़ाई कर ली
आज फिर खेल रहे हैं
क्यों न यह दुनिया
इनके हवाले कर दें !
बेटी आई है
बेटी
मायके आई है
मॉं के
ऑंचल में
बहने लगी है
नदी।
सोच
मैं सोचता हूँ
बिना सोचे
कुछ नहीं होता
मैं सोचता हूँ
सिर्फ सोचने से
कुछ नहीं होता।
नई साजिश
किसी ने कहा-
तुम मुस्कुराती हो तो
फूल खिलते हैं और
हॅंसती हो तो
मोती झड़ते हैं।.
किसी ने तुम्हें
कमलनैनी कहा तो
किसी ने मृगनैनी।
किसी को तुम्हारी नासिका
सुग्गे की चोंच सी लगी तो
किसी को तुम्हारे होठ
मूंगे की तरह
किसी को
तुम्हारी कायिक छवि
चॉंदनी सी लगी तो
किसी को हर आवाज
रागिनी सी।
किसी ने तुम्हारे बालों में
काली घटा की
छटा देखी।
किसी को तुम्हारी कमर
नागिन सी लगी तो
चाल हिरणी की तरह।
किसी ने तुम्हें
गजगामिनी कहा तो
किसी ने तुम्हें नाम दिया
मोनालिसा का।
संस्कृति के सृजनहारों ने
न जाने कितने
नारी सौंदर्य के प्रतिमान गढ़े
पर
सभ्यता के विमर्शकारों !
क्यों नहीं गढ़े पाए
नारी सौंदर्य का कोई
वैवेकिक प्रतिमान ?
जब भी गढ़ते हो
नारी सौंदर्य का
कोई नया प्रतिमान
एक नई साजिश
रच रहे होते हो
उनके खिलाफ।
मॉं के लिए
मैं लिखना चाहता हूँ
एक कविता
मॉं के लिए
जो बचपन में नींद के लिए
दी गई
उसकी थपकियों की
मुलायमियत बताए
जो बताए
लोरी की मिठास में
मिश्री की मात्रा
और मेरे बचपन से
गीले उस ऑंचल को
अभी तक
कोई भी हवा
क्यों न सुखा सकी
यह बता सके।
वह औरत
स्टेशन परिसर के
ताड़ से लम्बे
बिजली के खम्भे के निकट
वह औरत
खड़ी है
अभी -अभी आई है
इसी वक्त
हर वक्त
हर रोज यहॉं आती है
कुछ देर ठहरती है
तलाशती है शिकार
और हो जाती है खुद शिकार ।
फुदकना
चावल चुनते समय
मॉं ने
कुछ चावल
ऑंगन में बिखेर दिए
गौरैये का एक चूजा
अपनी मॉं के साथ
पंख फैलाये
उतर कर
फुदक -फुदक चुगने लगा
मेरे बेटे ने
डसे पकड़ने की कोशिश की
वह वह फुदक -फुदक कर
उसकी पकड़ से बचता रहा
फिर उड़ कर
छत्त की रेलिंग पर बैठ गया
मैं ऑंगन से
छत्त की रेलिंग तक की
उसकी उड़ान देख
आसमान ताकने लगा -
उसका फुदकना
नन्हें डैनों से
आसमान नापने की तैयारी है ।
सपने
सपने तो
सभी देखते हैं
पर याद
कुछ लोग ही रखते हैं
सपने देखने और
याद रखने से
वे आकार लेते हैं ।
सवाल
पहले
यहॉं बच्चे खेलते थे
तितलियॉं पकड़ते
और पतंग उड़ाते -
अब नहीं आते ।
यहॉं
लोगों ने
अट्टालिकाएं बना लीं ।
एक दिन
मेरे बेटे ने
उनकी ओर देखते हुए,
पूछा -हम कहॉं खेलें ?
और
तब से
मैं जवाब तलाश रहा हूँ।
सम्पर्क-
मोबाइल- 07398159483
अजय पाण्डेय की कविताएं दिखने में चाहें जितनी छोटी और सरल प्रतीत होती हैं, लेकिन वे अपने अर्थों में बड़े और जटिल सवालो से जूझती हुई कविताएं है ..|"जब भी गढते हो / नारी सौंदर्य का कोई नया प्रतिमान / एक नयी साजिश / रच रहे होते हो / उसी के खिलाफ " , जैसी पंक्तियां हों या फिर यह "बच्चे के दांत / जो मेरी उंगली में गड रहे है / माँ की छाती में / दूध बनकर बह रहे है " पंक्तियां हो, अजय पाण्डेय हमेशा बड़े सवालो के जबाब तलाश रहे होते हैं ..|..वैसे तो हम उनकी कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढते रहे है , लेकिन "पहली बार" उन्हें पढ़ने का अहसास कुछ और ही है ..उम्मीद करते हैं कि आगे भी उनकी कविताओं का दीदार "पहली बार "पर होता रहेगा...बधाई उन्हें..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविताएँ हैं आपकी, शब्द नहीं हैं मेरे पास, मैं इतनी अभिभूत हूँ। अपनी संवेदनशीलता और गहन अवलोकन को बड़ी सरलता से आपने पेश कर दिया है। बहुत सारी शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंdo ek kavita to vagrth me padhi hai.mujhe khas taur se ma,beti,aur bache par likhi kavita shandar lagi.behad sambhavanashil!---arvind
जवाब देंहटाएंParmanand Shastri बहुत सुन्दर कविताएं है .
जवाब देंहटाएंVivekanand Singh..... Bahut achchhi kavitaye Lagi.
जवाब देंहटाएंअजय पाण्डेय की कविताएं सरल शब्दो में बड़ी बात कह जाती हैं । चाहे वह बच्चे के दांत हों या बच्चे कविताएं। नये नये अर्थ खोलती हैं । इसके अलावा इनकी अन्य कविताएं भी संभावनाओ से लबरेज हैं जो कई सारे सवालों से जूझती दिख रही हैं । कवि को बधाई दी ही जानी चाहिए।
जवाब देंहटाएंरिश्तों के प्रति आपकी संवेदनाए बेहद सराहनीय है ...मैंने आपको आज रामजी भाई के कहने पे पढ़ा है ...इसी तरां लिखते रहे ...बेहद उम्दा ...
जवाब देंहटाएंअच्छी हैं कवितायेँ . बधाई . बच्चे और माँ के सम्बन्ध कुछ ऐसे ही होते हैं. रही बात बच्चों को दुनिया सौंप देने की तो मेरे सहित आप भी मुगालते में हैं की यह दुनिया किसी ऐसे के हाथों में है जो बच्चा नहीं है. जहां तक शिकार करने और होने की बात है यह केवल मन का फेर है दर असल सभी केवल शिकार होते हैं, शिकार कर लेने की बात अगर सोच में आती है तो " दिल को बहलाने का ग़ालिब ये ख्याल अछा है" मुन्ना सिंह 9934510298
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शब्दों में छोटी लेकिन अर्थों में बहुत दूर तक ध्वनित होती कवितायेँ !
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