प्रज्ञा पाण्डेय का आलेख 'स्त्री की देह भी अपनी नहीं'



प्रज्ञा पाण्डेय




'स्त्री की देह भी अपनी नहीं'





आज के समय में या आज से पहले देह से बाहर स्त्री का कोई अस्तित्व न था और न है! हाँ! पत्थर युग में था! स्त्री तब अपने आदिम गुणों के साथ मौजूद थी।


आज की सामाजिक जटिलताओं में हर जगह स्त्री देह के रूप में ही मिलती है ! निश्चित रूप से समाज के जटिल होने की यह एक बड़ी वजह लगती है! समाज, परिवार, राजनीति, व्यवसाय, नौकरी जहाँ भी स्त्री है वहाँ वह स्वतन्त्र अस्तित्व के रूप में नहीं बल्कि देह के रूप में है! यदि वह देह के बाहर आकर अपनी ऊर्जा से स्वप्न रचना चाहती है, मर्दवादी व्यस्था को तोड़कर सिर्फ मनुष्य बनती है, आकाश कुसुम तोड़ने के लिए अपनी शक्ति और सौन्दर्य से जीवन के ताने बाने रचने का साहस करती है तो रास्ते से हमेशा के लिए हटा दी जाती है यानि मार दी जाती है ! एक नहीं अनेकों बार यही हुआ है, हो रहा है और फिलहाल होते रहने के आसार भी सारे खतरों के साथ हर जगह मौजूद हैं! स्त्री यदि खूबसूरत है यानि दैहिक सौन्दर्य के सारे मानदंड (जो पुरुषों द्वारा बनाये गए हैं) यदि उस पर खरे उतरते हों और इसके साथ ही साथ वह स्वप्न भी पाल रही हो और अपने अधिकारों की बात करने लगी हो उसके लिए बनायी गयीं चौहद्दियों को तोड़ने लगी हो तब तो उसका बचना असंभव है! अपनी देह लिए भागी भागी फिरने के अतिरिक्त उसके पास दूसरा कोई रास्ता नहीं होता है या फिर एक दूसरा रास्ता है यदि वह मनुष्य होने के अपने दावे को छोड़ दे और देह के स्तर पर समझौते कर के समाधान पा ले ! रेशा-रेशा छीज कर वह ऐसा भी करती है जो अनिश्चिकालीन और पूर्णतः असुरक्षित होता है और जिसमें वह सिर्फ देह के रूप में जीवित रहती है! तब क्या करे वह! क्या होगा उसके स्वप्नों और उसकी आकांक्षाओं का! उसके मनुष्य योनि में जन्म लेने का!




पुरुषवादी व्यवस्था में वह दूसरी व्यवस्था कैसे रचे.! एक सत्ता के अधीन होते हुए वह दूसरी सत्ता कैसे बनाये ! यहीं से शुरू होता है उसका संघर्ष ! पुरुष के सहारे के बिना वह कुछ कर भी तो नहीं सकती है! चप्पे चप्पे पर पुरुष है! यहाँ तक कि उसके गर्भाशय पर भी पुरुष का ही कब्ज़ा है! वही पुरुष जिसने उसको सिर्फ देह घोषित किया है! जिसने उसके लिए सोने की भारी-भारी हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ बनवायीं, ऊंची दीवारें बनवायीं और ऐसी वैवाहिक व्यवस्था बनायी जिसमें उसको अपना सर्वस्व देना है ! बदले में स्त्री को पाना है उसकी देह और मन पर किसी भी पुरुष का स्वामित्व!




क्या यह विमर्श का विषय नहीं कि बुद्धिमान स्त्री को बुद्धिमान पुरुष की आवश्यकता होती है! उसे किसी भी पुरुष की आवश्यकता नहीं होती! विवाह की व्यवस्था समाज और देह की व्यवस्था है। यह व्यवस्था किसी भी तरह से स्त्री के पक्ष में नहीं है!




यदि पुरुष सचमुच ईमानदार है तो देह- बल से युक्त होने के बाद भी क्यों नहीं स्त्री की स्वतंत्रता की आचार संहिता भी बनाता है जिसमें वह उसकी देह को और उसके गर्भाशय को आज़ाद करता है ! क्यों नहीं वह उसको अपने स्वप्न रचने के लिए आज़ाद करता है ! एक ओर तो उसको आधी दुनिया की संज्ञा देता है दूसरी ओर उस आधी आबादी को अपना गुलाम भी बनाता है !तब वह आधी आबादी कहाँ है! कैसे है ! यह सारे सवाल पुरुष से ही पूछने ज़रूरी हैं .इनके जवाब उसे ही देने हैं क्योंकि स्त्री उसकी देह-बल के कारण गुलाम है ! स्त्री की गुलामी की सिर्फ इतनी वजह है! जिसकी लाठी है उसकी ही भैंस है!




स्त्री के प्रेम में एकनिष्ठता होती है जबकि पुरुष एक साथ कई स्त्रियों से सम्बन्ध स्थापित करने में कोई गुरेज नहीं करता है!




स्त्री के पास भी बुद्धि,  ज्ञान,  हौसले,  सपने,  चाहतें,  इच्छाएं,  आत्मसम्मान,  स्वाभिमान उसकी अपनी अस्मिता और अपनी निजता के तमाम मायने हैं! उसकी देह देखने के लिए नहीं है, न ही वह कोई तमाशा है जिससे मेले-ठेले में और भीड़ भरी जगहों पर मनोरजन किया जाए! वह देह मात्र है ही नहीं उसकी देह भी पुरुष-देह की तरह स्वप्नों को रचने का माध्यम है . इस दुनिया में वह भी प्राकृतिक रूप से बेहद शक्ति सम्पन्न एक इकाई है! पुरुष -देह की निजता जिस तरह उसकी है उसी तरह स्त्री की देह की भी निजता है! वह खिलौना नहीं है जिसको ललचाई और वासनामय नज़रों से देखने की (नयन सुख की) पुरुष को खुली आज़ादी है! उसकी जाँघों में भी उतनी ही शिराएँ, हड्डियाँ और खून है जितना कि पुरुष की जाँघों में है! बिना उसकी सहमति के सरेआम उसकी देह को देख कर वासनामय हुआ जाए यह भी जघन्य अपराध की श्रेणी में आता है! यह स्त्री की अस्मिता और उसकी निजता का हनन तो है ही पुरुष का भी घोर पतन है! कब प्रकृति ने यह कह दिया कि स्त्री को वासना से भर कर देखो!  क्या प्रकृति ने यह नहीं कहा कि स्त्री सदियों से संतति को जन्म देती आ रही है! नौ माह पेट में उसको रख कर अपना खून और अपनी देह का सत्व दे कर तैयार करती है उसे अपने स्तनों से दूध पिलाती है! इस स्त्री की सत्ता को पुरुष स्वीकार ही नहीं करना चाहता है।




कहते हैं गर्भ के दौरान होने वाली विपरीत परिस्थितियों में भी कन्या भ्रूण के जीवित बचने की संभावना पुरुष भ्रूण की तुलना में अधिक होती है! पुरुष की तुलना में वह धैर्यशील अधिक है! सारे गुणों से संपन्न होने के बावजूद स्त्री पुरुष को वासनामय बजबजहाटों के बीच योनि का आकार मात्र लगती है? ऐसा है तो यह असहनीय और निंदनीय है! पुरुष का पौरुष और उसका शारीरिक बल पशुवत है यदि वह रक्षा करना नहीं जानता है . अपने इस प्रकृति प्रदत्त देह बल का वह भरपूर दुरुपयोग करता है और स्त्री को मात्र योनि मानकर स्वयं को पशु साबित करने के लिए इस नकली ढोंगी और तथाकथित अभिजात्य समाज में बौद्धिकता का जामा पहन कर खुद को पुरुष और मनुष्य कहता है!




इस ब्रह्माण्ड के रहस्यों के ढूँढने में जिस मनुष्य ने प्रकृति का कोना-कोना छाना है! वही मनुष्य स्त्री को रहस्यमय बनाये रखने के लिए कितने कुतर्क गढ़ता है! बात-बात पर अपने तर्कों की दृढ़ता के लिए बिहारी, कालिदास, और विद्यापति जैसे बड़े बड़े कवियों के नामों का हवाला देना और यह कहना कि उन्होंने स्त्री की देह पर कसीदे काढ़े हैं! यह तो मूढ़ मति का परिचायक होने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं!




कालिदास की रचनाओं में प्रेम और सौन्दर्य है! ऐसा ही बिहारी और विद्यापति या अन्य किसी श्रृंगारिक रचना के साथ है ! साहित्य क्या सौन्दर्य के बिना रचा जा सकता है! साहित्य ही नहीं क्या कुछ भी प्रेम के बिना रचा जा सकता है! जिस तरह नवजात शिशु, यह धरती, यह आकाश और पृथ्वी सभी रंग, सारे पक्षी, पर्वत, और नदियाँ सुन्दर हैं जिस तरह इन्द्रधनुष और बादल सुन्दर हैं उसी तरह स्त्री भी प्रकृति की अन्यतम कृति है! पुरुष का देह-सौष्ठव भी प्रकृति की ही देन है! ऐसी स्थिति में एक दूसरे का भरपूर सम्मान करना ही न्यायोचित है।




मनुष्य का स्वभाव ही प्रेम करने का है वह हर सुन्दर चीज़ से प्रेम करता है! खजुराहो प्रेम और सौन्दर्य का प्रतीक है! हमारी तो संस्कृति ही सौन्दर्य और प्रेम पर आधारित है! वासना मनुष्य को पशु में बदल देती है! अपने शिकार पर झपटते हुए उसकी आँखों में भूख और वासना होती है!



आप तब तक स्त्री की देह को देखने का लोभ बनाए रहेंगे जब तक वह सात पर्दों में होगी! उसके चेहरे पर जब नकाब होती है तब उसका नकाब उलट देने की आपकी आदिम इच्छा असहनीय होती है ! .उसकी जांघें और उसकी पीठ जब तक ढकी रहेगी तब तक वासनामय दृष्टि को रोकना कठिन होगा! यह सच है!




स्त्री और पुरुष जिस दिन साथ चलेंगे ..उस दिन न तो देह की बात बचेगी न ही मुक्ति की! तब शायद ये ज़रूर हो पाये कि स्त्री अपने गर्भ और देह की निजता पर स्वयं फैसले कर सके!




सत्ता कभी अच्छी नहीं होती चाहे वह स्त्री की ही क्यों न हो! सत्ता सपनों को मारती है! मातृसत्ता में भी वही खामियां होंगी जो पुरुष सत्ता में हैं! अंततः यह समाज नैतिकता और ईमानदारी की कसौटी पर ही कसा जाएगा! क्यों न पूर्ण मनुष्य बनने का प्रयास किया जाए और स्त्री को भी मनुष्य की श्रेणी में रखा जाए!




कलुषित मानसिकता के दंभ में उलझी पुरुषवादी दृष्टि को सदा के लिए समाप्त करके ही समाज रचनात्मक हो सकेगा! स्त्री को देह मानने का संस्कार छोड़ देना ही उचित है! शायद यह वक़्त बदले और स्त्री अपनी देह और अपने गर्भ पर अपने वाजिब अधिकारों को पा सके!

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं