रामजी तिवारी की समीक्षा “जो घूमा नहीं, वो फला नहीं .....”
इस दुनिया
को समझने में यायावरी का बडा हाथ रहा है। मनुष्य स्वभावतः घुमक्कड होता है। आज भी उसकी
यह यायावरी और घुमक्कडी जारी है और जारी है इनकी निगाहों से इस दुनिया को जानने समझने
का क्रम भी। अजय सोडानी और उमेश पंत की इस घुमक्कडी पर हाल में नयी किताब आयी है जिसे
देखा पढा है एक और घुमक्कड रामजी तिवारी ने। आज पहली बार पर आप सबके लिये प्रस्तुत
है रामजी तिवारी की समीक्षा “जो घूमा नहीं, वो फला नहीं .....”।
“जो घूमा नहीं,
वो फला नहीं .....”
रामजी तिवारी
किसी भी व्यक्ति के जीवन में परिवार, समाज और
शिक्षा का योगदान सबसे अधिक माना जाता है। इनके बाद यदि तीन और चीजों को चुनने की
मुझे स्वतंत्रता दी जाए तो मैं साहित्य, सिनेमा और यात्राओं की भूमिका को रेखांकित
करना चाहूँगा। क्योंकि साहित्य न सिर्फ सभी प्रकार की रचनात्मकताओं से प्रेम करना सिखाता है
वरन यह विवेक भी देता है कि रचनात्मकता का अर्थ अंततः मनुष्यता के पक्ष खड़ा होना
भी होता है। वहीं सिनेमा हमारी आँखों को विवेक से जोड़ कर देश और दुनिया को समझने का रोड-मैप तैयार करता है। और
फिर यात्राओं के जरिए हम उन तमाम जाने-अनजाने लोगों से प्रत्यक्षतः रूबरू होते
हैं, जिनसे हमारा पूर्व में सीधा साहचर्य नहीं होता। हम इन मुलाकातों में जहाँ एक
तरफ प्रकृति से सीधे जुड़ते हैं, वहीँ दूसरी तरफ यह भी जान पाते हैं कि दुनिया के
हर हिस्से के मनुष्य में प्रेम, दया, क्षमा, करुणा और परोपकार का भाव ही प्रधान
होता है।
यात्राएँ हमें अपने देश की
विविधताओं को बहुत करीब से देखने का अवसर देती हैं। हम जान पाते हैं कि जहाँ
प्रकृति ने इसे करीने से सजाया है, वहीँ समाज ने अपनी विविधता से उसमें और अधिक
रंग भरा है। धर्म, भाषा, वेश-भूषा और रहन-सहन से लेकर रंग-रूप, खान-पान और
उत्सव-त्यौहार तक। हमें भान होता है कि जिस समय जैसलमेर और बाड़मेर में रेत के
टीलों की कटीली झाड़ियाँ अपनी नुकीली पत्तियों में पानी की आखिरी बूँद को बचाने का
संघर्ष कर रही होती हैं, उस समय ‘चेरापूंजी’ और ‘मासिनराम’ की धरती पर बादलों
द्वारा निसदिन प्रेम-गीत लिखा जाता है। जब मध्य-भारत की जमीन ‘विषुवत-रेखीय’
तापमान को छूने की तरफ बढ़ रही होती है, तब हिमालय की वादियों का तापमान
‘साइबेरियाई’ गहराईयों में डूबने के लिए बेकरार रहता है। जब चेन्नई की उमस हमारी
‘एड़ियों’ को ‘सर’ के पसीने से नहला रही होती हैं, उस समय दिल्ली की होठों पर परी
‘फेफरी’ को सुखाने के लिए जीभ पर पानी तलाशना पड़ता है।
साहित्य ने हमारे लिए दुनिया का एक बड़ा दरवाजा
खोला है। इसके पास किसी भी अन्य रचनात्मक विधा को आधार देने की सलाहियत होती है।
मसलन उसके आधार पर सिनेमा भी खड़ा हो सकता है और यात्राएं भी। और जैसे ही साहित्य
के साथ कोई अन्य विधा जुड़ती हैं, हमारे सामने जानने और समझने की एक बड़ी दुनिया भी
जुड़ जाती है। हमारी देखने समझने की सीमाओं में वह अनंत विस्तार हो जाता है, जिसकी
कल्पना वह व्यक्ति नहीं कर सकता, जो इससे किन्हीं वजहों से महरूम है।
मसलन साहित्य और यात्राओं के मिलन ने कितनी सारी
भाषाओँ में देश और समाज के कितने सारे पहलू उजागर किये हैं। यहाँ यदि हम अपने आपको
हिंदी तक भी सीमित करते हैं, तब भी हमारा विस्तार एक बहुत बड़े दायरे तक जाता है।
राहुल सांकृत्यायन की यायावरी को कौन भूल सकता है, जिन्होंने देश और दुनिया के कई
अनछूए पहलूओं को उजागर किया । निर्मल वर्मा के जरिये हम पूर्वी यूरोप से परिचित
होते हैं तो अज्ञेय के साथ यायावर बन
कर असम से पेशावर तक की यात्रा करते हैं। कृष्ण नाथ की हिमालय यात्राओं ने लद्दाख, हिमाचल और अरुणाचल के
दुर्गम इलाकों से हमारा परिचय कराया है, तो अनिल यादव के जरिये हमने पूर्वोत्तर को
जाना और समझा है। हम अमृत लाल बेगड़ के साथ चलकर ही यह
जान पाए हैं कि अमरकंटक से निकल कर खम्बात की खाड़ी में
गिरने वाली नर्मदा को ‘सौन्दर्य की नदी’ क्यों कहा जाना चाहिए। असगर वजाहत की
यात्राओं ने पाकिस्तान का अर्थ भी समझाया है और उन्हीं के जरिये हम यह जान पाए हैं
कि ईरान सिर्फ वही नहीं है, जो पश्चिमी मीडिया हमें बताता है। वरन ईरान वह अधिक
है, जो हमें माजिद मजीदी और अब्बास किआरोस्तामी के सिनेमा में दिखाई डेता है।
हम ओम थानवी के साथ मुअनजोदड़ो भी घूम आते हैं और
पुरुषोत्तम अग्रवाल के साथ आर्मिनिया-अस्त्राख्यान भी। हम उर्मिलेश के साथ
डेनमार्क से ले कर दक्षिण अफ्रीका तक को
देखते हैं तो ओमा शर्मा के साथ स्टीफन ज्वाईग की जमीन ‘वियना’ को। हमने राकेश
तिवारी के साथ ‘डोंगी’ में बैठ कर दिल्ली से बंगाल तक की
नदी-यात्रा भी की है और दिनेश कर्नाटक के साथ दक्षिण भारत में भी कुछ दिन बितायें हैं।
एक सजग सामाजिक कार्यकर्ता की यात्राएं भी कितनी सजग होतीं है, हमने चंडी प्रसाद
भट्ट के साथ ‘पर्वत-पर्वत बस्ती-बस्ती’ घूमकर जाना है। और फिर ‘असहमति के साहस और
सहमति के विवेक’ वाले पंकज बिष्ट को हम कैसे भूल सकते हैं, जिनके यात्रा लेखन में
भी सच कहने की वही ‘खरामा-खरामा’ ताकत है, जो उनके कथा लेखन और वैचारिक लेखन में है।
हमने भोला भाई पटेल के साथ हिमाचल से
ले कर केरल तक की यात्राएं की
हैं और अनुराधा बेनीवाल के सहारे यूरोप को भी एक सरसरी निगाह से देखा-जाना है।
और फिर जैसा कि हमेशा से होता आया है कि लिखते
समय दस को पकड़ने की कोशिश में सैकड़ों और हजारों को छोड़ कर आगे बढ़ जाना होता है, तो मैं भी यहाँ ‘आदि-आदि’ लगा कर अब उस मूल बिंदु की तरफ मुड़ना चाहता हूँ, जिसके लिए
मैंने आपसे यह भूमिका बाँधी है। तो मूल बात यह है कि भारत में लगभग हर यात्री ने
हिमालय को जरुर ही किसी न किसी तरह से देखा है या देखना चाहा है। उसमें भी अधिकतर
लोगों की संख्या ऎसी रही है जो मेरी तरह ही सड़क के रास्ते पर चलते हुए वहां पहुंचे
हैं। लेकिन कुछ विलक्षण और साहसी यात्रियों ने हिमालय की उन दुर्गम यात्राओं को भी
अंजाम दिया है, जिन पर जाने की कल्पना मात्र से ही बदन में झुरझुरी उठने लगती है। यहाँ
हम ऐसी ही दो यात्राओं से रूबरू होने जा रहे हैं।
एक - (दरकते
हिमालय पर दर-ब-दर)
पहली यात्रा है डा अजय सोडानी की। बल्कि यहाँ
‘सोडानी परिवार’ कहना अधिक मुनासिब होगा, क्योंकि इन यात्राओं में डा अजय सोडानी
के साथ उनकी पत्नी अपर्णा सोडानी और उनके बेटे अद्वैत सोडानी का भी संग-साथ रहा है।
तो इस परिवार ने पिछले दो दशकों में बीसियों हिमालय यात्राओं के जरिये हिमालय का
दर्रा-दर्रा छान मारा है। और सुखद यह कि इस मैराथन प्रयास को डा अजय सोडानी ने
कलमबद्ध भी किया है। हमने देखा है कि वर्ष 2014 में, जब उनकी हिमालय यात्रा की
पहली किताब ‘दर्रा-दर्रा हिमालय’ प्रकाशित हुई थी, तो उसने अपने प्रकाशन के साथ ही
पाठकों का दिल भी जीत लिया था। उनकी उस किताब में दो पद-यात्राएँ दर्ज थी। पहली
यात्रा में जहाँ वे गंगोत्री से चल कर ‘दर्रों के सिरमौर’ कालिंदी खाल होते हुए
बद्रीनाथ तक पहुँचते हैं। वहीं दूसरी यात्रा में वे गंगोत्री से शुरू करके ‘आडेन
काल’ दर्रा होते हुए केदारनाथ तक की यात्रा करते हैं।
अपनी हिमालय यात्रा की इस दूसरी किताब “दरकते
हिमालय पर दरबदर” में वे ‘धूमधारकांडी अभियान’ के लिये निकलते हैं। इस यात्रा में
उन्हें हर्षिल से धूमधारकांडी पास होते हुए रुनसारा ताल के रास्ते से चल कर हर की दून घाटी में
पहुँचना होता है। चुकि इस अभियान में उन्हें दुर्लभ फूलों को देखना है इसलिए वे
बरसात के मौसम का चुनाव करते हैं। यह जानते हुए कि बरसात का मौसम आज के उत्तराखंड
में कितना जानलेवा है। उनका पहला पड़ाव उत्तरकाशी से आगे हर्षिल क़स्बे के निकट का
झाला गाँव होता है। वे यात्रा के आरम्भ में ही नोट करते हैं कि जिस उत्तरकाशी में
सालो-साल सर्दी रहती थी, अब उसी उत्तरकाशी में लोग-बाग़ अपने घरों में एयरकंडीशंड
लगा रहे हैं।
जैसे ही वे झाला गाँव को छोड़ते हैं, हिमालय में
दखल की हुई हमारी दुनिया भी छूट जाती है। अब वह दुनिया शुरू होती है, जो दुर्गम
चोटियों और दर्रों वाली हिमालय की विशुद्ध दुनिया है। हिमालय का यह करीबी साहचर्य
उन्हें समझने में मदद करता है कि वह आज किस हाल में है। उसका दुख क्या है, उसका
दर्द क्या है। इस यात्रा में एक तरफ वे कई बार रास्ता भूलते हैं, दरबदर भटकते हैं,
जहाँ हर अगले पल मृत्यु उनके कन्धों को आजू-बाजू से छूते हुए निकलती है। तो दूसरी
तरफ हिमालय अपने भीतरी दुःख को सुनाने के लिए उन्हें लगातार आवाज देता रहता है। वह
उन्हें पास बुला कर कहता है कि आओ ...मेरे
और करीब आओ .... देखो ..... और हमारे इस सुख-दुःख को दुनिया वालों से भी सांझा करो।
और वे एक संवेदनशील सहयात्री का फर्ज निभाते हुए उस दर्द को दुनिया के सामने रखते
हैं कि वह कैसे दरक रहा है। साहस और संवेदना के मिलन की यह दास्तान पाठकों के मन को
भी रोमांच से भर देती है।
एक सजग और संवेदनशील यायावर की तरह डा अजय
सोडानी न सिर्फ प्रकृति के सुख-दुःख को ही बांचते हैं, वरन जैव-विविधता के तमाम
अनछुए पहलूओं को भी हमारे सामने रखते हैं। वे बताते हैं कि मनुष्य ने अपने स्वार्थ
में जिस तरह से प्रकृति का दोहन शुरू किया है, उसके कारण सिर्फ शहर और क़स्बे ही
नहीं कराह रहे हैं, वरन उसके कारण पूरा हिमालय भी कराह रहा है। वही हिमालय, जो
उत्तरी भारत की सबसे महत्वपूर्ण ‘जीवन-रेखा’ है। वही हिमालय, जहाँ से सारी
महत्वपूर्ण नदियाँ उत्तरी भारत के मैदानों की प्यास बुझाने के लिए निकलती हैं। वे
आगाह करते हैं कि अंधाधुंध दोहन का यह रास्ता एक दिन हिमालय के साथ-साथ मानव जाति
को भी तबाह कर देगा।
डा अजय सोडानी |
यह किताब वैसे तो यात्रा की ही किताब है, लेकिन
यह उससे कुछ अधिक भी है। इसके सहारे एक तरफ मिथकीय किंवदंतियों को समझने का प्रयास
किया गया है, तो दूसरी तरफ उन्हें आधुनिक सन्दर्भों से जोड़ने की कोशिश भी दिखाई
देती है। इसमें इतिहास और मिथकों के मिलन बिंदु की शिनाख्त की गयी है। मिथकों का
मजाक उड़ाने के बजाय यह जानने पर जोर दिया गया है कि वे हमें इतिहास को जानने में
कितनी मदद करते हैं और कितना भटकाते हैं। इसलिए किताब का आग्रह है कि उनकी मददों
को अपनाया जाय और उनके भटकावों को छोड़ा जाए।
किताब बताती है कि अनियोजित विकास की कीमत सिर्फ
मानव जाति ही नहीं चुकाती, वरन वहां के जीव-जंतु, पशु-पक्षी और पेड़-पौधे भी उस दंश
को भोगते हैं। इसमें स्थानीय समाज की दास्तानें भी दर्ज हैं, तो घुमंतू लोगों के
जीवन का हाल-चाल भी। यह किताब जहाँ एक तरफ शहराती मध्य वर्ग के उस अहं को भी तोड़ती
है, जो अपने ज्ञान को सामने वाले पर उड़ेल कर नंबर बनाने के चक्कर में रहता है, तो
दूसरी तरफ उन गुमनाम लोगों की दास्तान को भी बांचती है, जो बिना किसी शोर शराबे के
मनुष्यता के मानदंड को हमेशा ऊँचा रखते हैं। इसमें धर्म और अध्यात्म के बीच की वह
पुरानी बहस भी है, जिसमें धर्म आदमी के व्यक्तित्व को सहेजने के बजाय सार्वजनिक दिखावे
की चीज बन जाता है, और प्रार्थना की जगह पर कीर्तन होने लगता है।
किताब पढ़ते हुए डा बशीर बद्र की दो पंक्तियां
याद आती है जिसमें वे कहते हैं कि
“दीवानों की नगरी
में कुछ यार भी बसते हैं
रखते हैं ताल्लुक भी
आवाज भी कसते हैं।”
जब सोडानी परिवार यात्रा का मसौदा बना रहा होता
है, तो एक कमेंट हवा में तैरता हुआ उनकी तरफ यह भी आता है कि “हिमालय पर जाना यथार्थतः
डाक्टर की, अपनी बीबी को हिमालय में छोड़ आने की जुगत है। बात बन नहीं रही है इसलिए
ये बार-बार जाते हैं।” इस अमानवीयता के बरक्स इस किताब में ‘माँ-बेटे’ के उस साहचर्य
का भी जिक्र है जिसमें डा सोडानी अपनी पिछली यात्राओं को याद करते हैं कि कैसे उनका
बेटा अपनी माँ के साथ साए की तरह से चिपका हुआ रहता था। उसका ख्याल रखता था, उसकी
देखभाल करता था। इस यात्रा में बेटे की अनुपस्थिति से चिंतित डा सोडानी अपने आपसे
यह सवाल करते हैं कि अपनी पत्नी से अथाह प्रेम के बावजूद क्या वे अपर्णा को वही
साहचर्य दे सकेंगे ....?
डा. सोडानी आत्मप्रवंचना और आत्मदया की दोनों
अतियों से अपने आपको बचाते हुए आत्मस्वीकार की तरफ बढ़ते हैं। वह जो हम सभी
मध्यवर्गीय शहराती लोगों का आत्मस्वीकार है। वे लिखते हैं कि “समाज की मुख्यधारा
(शहरी समाज) से दूर रहने वाले लोग (पहाड़ी, आदिवासी, बनवासी) वह ‘मैटेरियल’ हैं,
जिन्हें ‘सुधारना’ हमारा परम कर्तव्य है। जंगलों में धस इनको सुधारो, एन.जी.ओ.
बनाओ, इनको संवारो। शुरू में मेरी हिमालय यात्रा करने की ईच्छा भी कदाचित इसी दंभ
से पनपी कि विश्वविद्यालयीन शिक्षा प्रदत्त वैशिष्ट्य मुझे इसका आकलन करने का हक़
देता है। गिद्ध सी निगाह लिए ढूंढता था कोई दरार इनकी जीवनचर्या में, कि उसमें
अपनी समझ के पंजे फंसा सकूं। पर पहाड़ी सोहबत ने हिया को यों उलीचा कि सारा दर्प
धसककर भूमि पर गिर पड़ा। भीतर घट रही महाभारत खुल कर सामने आ गयी । इन बीहड़ों में
ही बचा है ‘भा-रत’ देश, सौ टंच स्वर्ण, खालिस अपमिश्रण रहित।”
इस किताब को पढ़ते हुए यह बात और पुष्ट होती है
कि इस दुनिया का पलड़ा मनुष्यता के पक्ष में अधिक झुका हुआ है। जैसे कि आदमी के
भीतर प्रेम, करुणा, दया, क्षमा और परोपकार जैसे सद्गुण होते हैं, तो इर्ष्या,
द्वेष, घृणा और लोभ-लालच जैसे अवगुण भी। लेकिन वह आदमी तभी कहलाता है जब उसके भीतर
सद्गुणों की प्रधानता और दुर्गुणों की न्यूनता हो। यानि कि सद्गुणों का पलड़ा भारी
होने पर ही हम किसी व्यक्ति को मनुष्य का दर्जा देते हैं। इसी तरह दुनिया को देखने
के बाद लगता है कि जैसे मनुष्य के भीतर सद्गुणों की प्रधानता है उसी तरह दुनिया
में भी अच्छे मनुष्यों की प्रधानता है। लेकिन चुकि सही लोग अधिकतर चुप रहते हैं,
जबकि गलत लोग अधिक हल्ला करते हैं, तो हमें भी यह भ्रम होने लगता है कि इस दुनिया का
पलड़ा गलत लोगों के पक्ष में झुक गया है। हमारे आसपास का नकारात्मक माहौल हमारे
भीतर के संशय को हवा देने लगता है। जबकि यह बात सही नहीं है। सही बात तो यह है कि तमाम
नकारात्मकता के बावजूद इस दुनिया का पलड़ा मनुष्यता के पक्ष में अधिक झुका हुआ है। यायावरी
को समर्पित यह किताब मनुष्यता में इसी भरोसे को पुनः-पुनः रेखांकित करती है।
दो ..... (इनरलाइन
पास)
इस श्रृंखला की दूसरी किताब है यायावर उमेश पन्त
कि ‘इनरलाइन पास’। यह यात्रा भारत और चीन की सीमा रेखा पर स्थित एक ऐसे क्षेत्र की
यात्रा है, जो सुरक्षा, पर्यावरण और संरक्षित क्षेत्र होने के नाते बेहद संवेदनशील
समझा जाता है। उत्तराखंड में आदि कैलाश पर्वत के नाम से विख्यात इस यात्रा में
उमेश पन्त का साथ उनके पत्रकार मित्र रोहित जोशी ने दिया है। यह यात्रा रोमांचक तो
है ही, साथ ही साथ हिमालय के विभिन्न आयामों को समझने में मददगार भी है। संयोगवश
दोनों यात्री पहाड़ से आते हैं और वे दोनों ही जीवन-यापन की तलाश में पहाड़ से निकल कर
किसी महानगर में व्यतीत हो रहे होते हैं। ऐसे में जीवन जब उन्हें अपनी जड़ों से
जुड़ने अवसर देता है तो वे इसे दोनों हाथों से लपकते हैं। और फिर यह एक ऐसी
संवेदनशील मन की यात्रा भी हो जाती है, जिसमें उनके भीतर का पहाड़ पूरी शिद्दत से
दिखाई देता है। एक ऐसा जीवन, जो अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी दुनिया को
सिखाता है कि उसके भीतर का आदमी कैसा है और उसे कैसा होना भी चाहिए।
कुमायूं क्षेत्र के धारचूला क़स्बे से आरम्भ उनकी
यह पद-यात्रा 18 दिनों में लगभग 200 किलोमीटर का सफ़र तय करती है। एक तरफ वे जहाँ
समुद्र तल से 3000 फीट की ऊंचाई से शुरू करते हुए लगभग 16000 फीट की ऊंचाई तक
पहुँचते हैं। तो दूसरी तरफ उनकी यह यात्रा 40 डिग्री तापमान वाली
दिल्ली से निकल कर शून्य डिग्री तापमान में ‘आदि कैलाश’ पहुँचने की कहानी भी बयां
करती है। दिल्ली से निकलते समय उमेश के मन का उत्साह साफ़-साफ़ दिखाई देता है। जिस
दिल्ली में वे रहते हैं, उसमें रहना उनका चुनाव नहीं वरन उनकी मजबूरी है। अन्यथा
उनके जैसे हजारों-लाखों लोग पहाड़ से निकल कर इस महानगर में खर्च होते हुए रोज-दिन
भीतर ही भीतर थोड़ा मर भी रहे हैं। उन्हें महसूस होता है कि दिल्ली में जीवन-यापन
का ‘यापन’ ही अधिक है, उसमें आया ‘जीवन’ काफी कम। जबकि जिस पहाड़ से वे आते हैं,
वहां पर ‘जीवन’ तो यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरा है, मगर ‘यापन’ लायक दशाएं बहुत कम बची
हैं।
उमेश पन्त धारचूला पहुंच कर इतिहास और भूगोल के
उन सवालों से भी टकराते हैं कि कैसे किसी दौर का समाज किन्ही कल्पित रेखाओं के
माध्यम से मानव जाति को भी विभाजित कर देता है। राष्ट्र की सीमाएं यदि हमें एक तरफ
जोडती हैं तो दूसरी तरफ उनके द्वारा एक विभाजन भी पैदा किया जाता है। मसलन आदि
कैलाश के इस क्षेत्र को ही लिया जाए, तो इतिहास में कभी यह क्षेत्र नेपाल और
तिब्बत का हिस्सा हुआ करता था। मगर समय ने उसे भारत के साथ जोड़ दिया है। बेशक कि
प्रकृति आज भी उस पूरे इलाके को एकसूत्र में ही पिरोती है।
लगभग 200 किलोमीटर की यह पद-यात्रा मैदानी
क्षेत्र के लिए भी एक चुनौती है, जाहिर है पहाड़ी दुर्गम इलाके के लिए तो है ही। और
फिर लम्बे समय से पहाड़ से कटे होने के कारण इस चुनौती का विस्तार आसानी से समझा जा
सकता है। लेकिन यात्रा की शुरुआत में ही पहाड़ी जीवन से उन्हें प्रेरणा मिलने लगती है।
उमेश पन्त सोचते हैं कि जिस जीवन के पास इतनी मनुष्यता बची हो, उसे देखने में आने
वाली दुश्वारियों को किनारे किया जा सकता है। वे देख सकते हैं कि एक साधारण काम के
लिए भी लोग-बाग़ कैसे दसियों किलोमीटर की चढ़ाई और उतराई को रोजदिन पार करते हैं।
उमेश पन्त |
यात्राओं के बीच हमारी मुलाकात दुनिया के उस
चेहरे से होती है, जो हमारे आसपास होते हुए भी हमसे छूटा रहता है। चुकि यात्राएं
हमारे जीवन में अन्तराल उपस्थित करती हैं, इसलिए हमारे पास अपनी दुनिया के कुछ और
करीब जाने का अवसर होता है। उससे साहचर्य और संवाद स्थापित करने का मौका मिलता है।
अन्यथा आज की भागमभाग वाली जिंदगी हमें अपनी ही दुनिया से काटे रखती है। कुछ इस
तरह कि इसमें होते हुए भी हम इसके साथ नहीं होते। जाहिर है, ऐसे में मानवीय रिश्ते
पीछे छूट जाते हैं। और हमें यह लगने लगता है कि हमारी दुनिया भी मनुष्यता से इतनी
ही खाली हो गयी है, जितना कि हमारे भीतर का आदमी हुआ है। लेकिन जब हम ऐसे लोगों के
बीच पहुचंते हैं, जो बकौल शहराती दुनिया, अभी उतना प्रेक्टिकल नहीं हुआ है तो हमें
यह अहसास होता है कि यह दुनिया भी अभी मनुष्यता से उतनी खाली नहीं हुई है। यह
हमारे भीतर की दुनिया है जो मनुष्यता से रिक्त हो रही है, क्योंकि हमने ऐसा ही
साहचर्य चुना है।
उमेश पन्त वहां की भोटिया जनजाति का जिक्र करते
हुए बताते हैं कि उत्तराखंड के इस उत्तरी हिस्से में एक त्रिकोण बनता है, जिसका
अधिकतर हिस्सा भारत और तिब्बत के बीच आता है। इस त्रिकोण में सात नदी घाटियाँ आती
है, जिसे भोट प्रदेश भी कहा जाता है। इसी भोट प्रदेश की एक घाटी के रहने वाले पहाड़
के सबसे विलक्षण यायावर ‘नैन सिंह रावत’ भी थे। अंग्रेजी शासन ने उनकी प्रतिभा को
पहचानते हुए उन्हें हिमालय के अन्वेषण का कार्य सौंपा। यह कमाल की बात है कि
पद-यात्रा के द्वारा ही उस शख्श ने मध्य एशिया का मानचित्र तैयार कर दिया। अपने
क़दमों से लगभग 13 हजार मील की दूरी नापते हुए उस पूरे इलाके का मानचित्र तैयार
करना कोई मामूली उपलब्द्धि नहीं थी। यह उचित ही है कि हिमालय के इतिहास में
उन्नीसवी सदी का मध्यान्ह उनके इस प्रयास के लिए भी याद रखा जाता है।
उमेश पन्त नोट करते हैं कि इस इलाके में लोगों
का जीवन-यापन स्थानीय रूप से आत्मनिर्भर होता था। उसमें बाहरी हस्तक्षेप बहुत कम
होता था। जरूरतें सीमित थी और जीवन उसके अनुरूप। फिर तिब्बत के साथ व्यापार से भी
जीवन की गाड़ी कुछ आगे बढती रहती। लेकिन अब उनके जीवन पर दोहरी मार पड़ी है। अव्वल
तो व्यापार का फैसला दिल्ली और बीजिंग में तय होता है, जिसमें यहाँ के लोग मात्र
दर्शक बनकर रह गए हैं। और फिर शहरीकरण और पर्यटन से उपजे दबावों ने उनके इलाकों का
पर्यावरण भी असंतुलित कर दिया है। प्रकृति पर निर्भर यह समाज अब उसके कोपभाजन का
निशाना बना हुआ है। अब उससे साहचर्य कम, त्रासदी अधिक मिलती है। जाहिर है वह
त्रासदी उन्हें पलायन की तरफ भी धकेलती है।
और इस यात्रा में वह मंजर भी आता है जो आजकल
पहाड़ की यात्राओं में बहुत आम हो गया है। प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम अब लगभग
प्रति वर्ष किसी न किसी आपदा के रूप में हमारे सामने आता है। जो बातें पहले दशको
या शताब्दियों में होती थी, अब वह नियमित कहानी बन गयी है। दुर्भाग्यवश यह कहानी इस
यात्रा में भी सामने आती है, जब बारिश अपने रौद्र रूप दिखाने लगती है। उमेश अपने
साथी रोहित के साथ रास्ते में फंस जाते हैं। नदियों में उफान आ जाता है और रास्ते
के कच्चे पुल टूटने लगते हैं। ऐसे में एक भयानक रात से उनका सामना होता है, जिसमें
बारिश है, पहाड़ों का गिरना है, अकेलापन है और सामने बिलकुल सामने ही मृत्यु भी
अपनी जीभ लपलपा रही है।
यह किताब इस बात को रेखांकित करती है कि हमारी
अपनी दुनिया में हाशिये का समाज किस तरह से अभी भी अपनी मूलभूत जरुरतों के लिए जूझ
रहा है। सत्ता के केन्द्रों ने उस समाज का सामाजिक और पर्यावरणीय ढांचा बिगाड़ दिया
है। उससे प्रकृति का उसका रिश्ता छीन लिया है। उसकी आत्मनिर्भरता छीन ली है। जहाँ
एक तरफ किसी महानगर में सैकड़ों फ्लाईओवर और अंडरपास बने रहे हैं, तो दूसरी तरफ हाशिये
के समाज के लिए कुछ साधारण पुल भी नहीं बन पाए हैं। ऐसा लगता है कि जैसे व्यवस्था
की यह मंशा हो कि इन लोगों को अपनी जड़ों से उखाड़कर किसी महानगर में पटक दिया जाय।
जहाँ वे उस महानगर के ‘कहांर’ बन जाएँ । और वह महानगर उनके कंधे पर बैठकर ऐश
गांठता फिरे। किताब यह भी बताती है कि हम जिस समाज के लिए इतने अधिक कांटे बो रहे
हैं, वही समाज हमारे जीवन में मनुष्यता की याद दिहानी भी करा रहा है। देखते हैं कि
समाज का यह ब्युत्क्रमानुपति रिश्ता कब तक चलता है।
(बनास जन से साभार.)
समीक्षित
पुस्तकें –
1 - दरकते
हिमालय पर दर-ब-दर
लेखक – डा.
अजय सोडानी
राजकमल
प्रकाशन
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2- इनरलाइन पास
लेखक- उमेश
पन्त
हिन्द-युग्म
प्रकाशन
रामजी तिवारी
|
सम्पर्क
रामजी तिवारी
बलिया,
उत्तर-प्रदेश
मो. न.
9450546312
बहुत सुन्दर
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