सुनीता
इतने दिनों बाद भी प्रेमचंद क्यों प्रासंगिक बने हुए हैं कुछ इसी की तहकीकात में युवा कवियित्री सुनीता ने यह संस्मरण कभी ऐसे ही लिखा था। आज प्रेमचंद जयंती के अवसर पर प्रस्तुत है यह संस्मरण। विमाता,विमाता ही क्यों...? जिस क्षण बचपन के अँगनाई में पहला कदम बढ़ाया था। उस दम माँ का सीना गर्व से प्रफुल्लित हो उठा था। कोमल हाथों ने जब पहली बार उनको महसूस करके एक मजबूत काम-धंधे से कठोर किन्तु इरादों से अटल अँगुलियों का स्पर्श किया था। उस पल दिल के देश-दुनिया में खुशी की नयी किरण फुट पड़ी थी। आँखों में उम्मीद के ढेरों बादल उमड़ पड़े थे.अपने पैईयां-पैईयां चलने की हड़बडाहट में बार-बार गिरते रहे। लेकिन माँ की खूबसूरत,हिरनी सी निगाहें मेरी हर एक हरकत पर लगी रहीं। आज औचक ‘प्रेमचंद’ को याद करते हुए, मेरे यादों के बादल बरस रहे हैं। विमाता की दर्दनाक कडुवाहटें कनक की तरह आँखों के सामने चमक बिखेर रहीं हैं। सोचती हूँ ! वास्तव में दूसरी माँ-माँ नहीं बन पाती हैं तो खुद से उलझ जाती हूँ। भावनायें अपने गति से चलती हैं। दिल धौकनी से धड़कने लगते हैं.उत्तर का कोई स...