यादवेन्द्र का आलेख 'हमारी मनुष्यता बची रहेगी'

 

अख़्तर मोहिउद्दीन



एक अजीब सी विडम्बना है कि सत्ताधीश सारी समस्याओं का समाधान युद्ध के जरिए खोजने की कोशिश करते हैं। युद्ध तात्कालिक निदान भले ही निकाल दे लेकिन यह कोई अंतिम निदान नहीं निकाल पाता। अगर ऐसा होता तो आज युद्ध की स्थिति आने ही नहीं पाती। हर युद्ध के पश्चात हमेशा शांति की बात की जाती है। युद्ध अगर सिद्धान्त पक्ष है तो शान्ति व्यवहारिक पहलू। वैसे किताबी ज्ञान हमें सिद्धांतो से परिचित कराता है जो हमें सीमित करता है। इसीलिए किताबी ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान अत्यन्त जरूरी होता है और यह व्यवहारिक ज्ञान ही किताबी ज्ञान को उसका वास्तविक मायने प्रदान करता है। आजकल पहली बार पर हम प्रत्येक महीने के पहले रविवार को यादवेन्द्र का कॉलम 'जिन्दगी एक कहानी है' प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके अन्तर्गत वे किसी महत्त्वपूर्ण रचना को आधार बना कर अपनी बेलाग बातें करते हैं। कॉलम के अंतर्गत यह सातवीं प्रस्तुति है। इस बार अपने कॉलम के अन्तर्गत यादवेन्द्र ने अख़्तर मोहिउद्दीन की एक उम्दा कहानी "कछुए" के बहाने महत्त्वपूर्ण इशारे किए हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यादवेन्द्र का आलेख 'हमारी मनुष्यता बची रहेगी'



'हमारी मनुष्यता बची रहेगी'



यादवेन्द्र 


तीन-चार साल बीतते नहीं कि भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा पर तनातनी अपने उबाल पर होती है और दोनों ओर से जोर-जोर से बिगुल बजा बजा कर युद्धघोष किया जाता है कि तुम्हारी ऐसी की तैसी, हिमाकत दिखाई कि ईंट से ईंट बजा देंगे। बचपन में देखी.आज़ादी के पहले बनाई व्ही. शांताराम की शानदार फ़िल्म "पड़ोसी" के कुछ दृश्यों की रह रह कर याद आ जाती है जिसमें बांध बनाने के लिए ज़मीन कब्जाने की ख्वाहिश रखने वाले रईस को सामूहिक रूप से गांव वाले खाली हाथ लौटा देते हैं। फिर उसने चिर परिचित चला चली, सदियों से प्रेम से रहने वाले गांव वासियों के बीच हिंदू मुसलमान का बंटवारा करा दिया।गांव के दो प्रभावशाली और सम्मानित बुजुर्गों पंडित और मिर्जा के बीच साथ-साथ उठना बैठना और बोलना बतियाना बंद हो गया। कुछ दिन उनके दालानों पर सन्नाटा रहा, फिर उनके बदले बैठकर उनके परिवारों के बच्चे चौपड़ खेलने लगे। उम्र भर दोस्त रहे दोनों बुजुर्ग भी धीरे-धीरे बच्चों के पास पहुंच लिए और खुद तो एक दूसरे के साथ खेल नहीं सकते थे - बच्चों के पीठ पीछे बैठ कर उन्हें अपने-अपने गुर सिखाते हुए जीतने के लिए प्रेरित करने लगे। यहां इस दृश्य की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि दुनिया की बड़ी प्रतिद्वंद्वी ताकतें भारत और पाकिस्तान की पीठ पीछे बैठ कर पंडित और मिर्ज़ा की तरह उतावले और फ़नफनाते दोनों मुल्कों को युद्ध के लिए उकसाने में लगी हुई हैं। जाहिर है युद्ध उनकी धरती पर तो होना नहीं है सो उसकी विभीषिका उन्हें कुछ झेलनी नहीं। फायदा यह कि उनके हथियार बिकेंगे। इन स्थितियों पर सरहद के आर पार रहने वाले दो बड़े कवियों की पंक्तियाँ याद आती हैं:


यह एक ज़बरदस्त फ़ौजी इंतज़ाम की

क़ामयाबी का पक्का सबूत है

कि बंदूक हाथ में लेते ही

हमें चारों तरफ़ दुश्मनों के सिर

अपने आप नज़र आने लगते हैं।

                     

कुंवर नारायण


***.    ***.    ***. 


 अम्न किसलिए लाएं

ख़त्म किसलिए कर दें

ये जो अरबों का कारोबार क़ायम है

जंग की बदौलत 

जो हम नियाज़मंदों का रोज़गार 

क़ायम है।

           

फ़हमीदा रियाज़


हद तो तब हो जाती है जब भारत पाकिस्तान दोनों एक दूसरे को धमकाते हुए परमाणु बम हमले की धमकी देते गरजते हैं। इन भड़काऊ हालातों में सरहद के आसपास रहने वाले आम जन को पल पल कड़ी परीक्षा के दौर से गुजरना होता है - जीवन और भविष्य निरंतर दाँव पर लगा रहता है और उन्हें हर हाल में सुरक्षित पार उतरना होता है। मनुष्यता के बुनियादी सरोकारों में शांतिपूर्ण जीवन यापन सबसे ऊपर है और हर दौर में सभी समाजों में ऐसे रचनाकार कलाकार रहे हैं जिन्होंने इन मूल्यों की मशाल जलाये रखी है।

 

विडंबना यह कि आज फिर से युद्धोन्माद सिर चढ़ कर बोल रहा है। बात इस बार भी कश्मीर से ताल्लुक रखती है इसलिए मुझे बेहद प्रिय एक कश्मीरी कहानी पर बात करता हूँ। इस पृष्ठभूमि में मुझे कोई पचास साल पहले साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत और प्रकाशित अख़्तर मोहिउद्दीन के कश्मीरी कथा संकलन "सात शिखर" (हिंदी शीर्षक) की एक छोटी सी कहानी याद आ रही है। कश्मीरी में मूल पुस्तक 1955 में छपी थी और 1958 में पहली बार उसे कश्मीरी साहित्य की श्रेष्ठ कृति के तौर पर साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया - जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, हिंदी अनुवाद शशि शेखर तोषखानी ने किया था। अन्य कहानियाँ तो अब याद नहीं आ रहीं पर इस पतले से संकलन की एक छोटी सी कहानी "कछुए" मेरे मानस पटल पर इस तरह अंकित हो गयी कि दुनिया में जब जब भी तनातनी बढ़ती है और तृतीय विश्व युद्ध की दुंदुभी बजाई जाने लगती है मुझे यह कहानी बड़ी शिद्दत से याद आती है।

 

यह कहानी इस बात से शुरू होती है कि "हमारे देश में कछुए नहीं होते"..... फिर भी यह उस देश के ही एक कछुए की कहानी है।दर असल कथानायक ने पहली बार कछुए आगरा की जमुना नदी में देखे थे - काले कुरूप, छोटी छोटी टाँगें लिए हुए, पीठ पर एक औंधी पड़ी ओखली जिसके नीचे वे अपने सिर पाँव छिपाए रहते हैं मानो कोई गंभीर चिंतन कर रहे हों। अब्दुल करीम, एम. ए., एल-एल. बी. मानव शरीर में रहने वाला वह कछुआ है जिसने कश्मीर से अलीगढ़ जाकर एम. ए. और एल-एल. बी. की डिग्री हासिल की - इस ऊँची तालीम ने अपना अच्छा ख़ासा समय रसूल दर्जी की दूकान पर मोहल्ले भर के लोगों के साथ बिताने वाले हर दिलअजीज़ नौजवान को सिर से पाँव तक बदल कर रख दिया। वहाँ जा कर उसने बहुत सारी किताबें पढ़ लीं - अब्दुल करीम को मुगालता हो गया कि डारविन के विकासवाद  से लेकर हिटलर के जर्मन जंग तक, अरस्तू अफ़लातून के फलसफ़े से लेकर अणु शक्ति के विज्ञान तक की जानकारी उसे बड़े विश्वविद्यालय में पढ़ कर हो गयी जिसका रत्ती भर भी ज्ञान अपने घर और आस पड़ोस वालों को नहीं है। उसे कानून के बड़े बड़े मसले पूरी तरह से समझ आ गये हैं। उसने शेक्सपियर के समस्त नाटक कंठस्थ कर लिए हैं। ताज महल, लाल किला, क़ुतुब मीनार, अजंता की गुफाओं का चप्पा चप्पा उसने छान लिया है। यहाँ तक कि अवंतीपुर और पट्टन के प्राचीन नगरों के अतीत के बारे में भी उसको तमाम जानकारियाँ हासिल हो गयी हैं। इतनी विशिष्ट जानकारी रखने वाले अब्दुल करीम एम. ए., एल-एल. बी. और घर मोहल्ले के मूढ़, जाहिल और सारी दुनिया से बेखबर लोगों क बीच भला क्या तुलना - कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली! तभी तो अपने पिता के बारे में वह कहता है : "उस जाहिल को क्या पता कि शिक्षा होती क्या है .... उसने कभी अजंता की गुफ़ा कभी देखी  थी ? उसे मालूम था कि दुनिया का पहला कहानीकार कौन था? कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर पट्टी चढ़ाये उसने सारी जिंदगी गुजार दी थी।" अब्दुल करीम की अपनी माँ के बारे में यह राय थी : "सारी उम्र इसने आखिर देखा क्या है? जीवन के पचास साल बेकार गँवा दिए .... उसे यह भी नहीं मालूम कि (कश्मीर के) इस बूढ़े महाराज से पूर्व कश्मीर का बादशाह कौन था। 


जब माँ पिता के बारे में उसकी यह राय थी तब मोहल्ले वाले कहाँ ठहरते - "इन लोगों से भला क्या बात करें ? मोहल्ले में ऐसा कौन है जिसमें रत्ती भर भी अक्ल है ? कौन है जिसे दुनिया के बारे में कुछ भी आता पता है? कोई यहाँ पढ़ा लिखा नहीं है, सभी बस कछुए जैसे हैं .... औंधे ऊखलों के नीचे सिर पाँव छुपाये हुए सारी दुनिया से बेखबर।"


ऊँची तालीम के लिए अलीगढ जाने से पहले रसूल दर्जी की दूकान पर लोगों के साथ मेल मुलाकात में अच्छा खासा समय बिताने वाले अब्दुल करीम सबकी इस राय से इत्तिफ़ाक रखते थे कि (दूसरे विश्व युद्ध में) हिटलर हार जायेगा .... जो देश अपने स्वार्थ के लिए संसार की शांति को भंग करे उसका अंत में हार जाना निश्चित है क्योंकि दुनिया के सभी लोग उसके विरुद्ध हुआ करते हैं। 


पर एक दिन सारा मामला अचानक उलट  पलट हो गया। तालीम लेकर आने के बाद सबसे कट गए "परम ज्ञानी" अब्दुल करीम एम. ए. एल. एल. बी. ने अखबार में अमेरिका के उद्जन बम (लोकप्रिय भाषा में हाइड्रोजन बम) बनाने की खबर पढ़ी तो उसके हाथ पाँव सुन्न पड़ गए, तबियत बिगड़ गयी - उसको समझ आया, अमेरिका युद्ध छेड़ने पर तुला हुआ है क्योंकि वहाँ की सरकार युद्ध पर ही टिकी हुई है .... अब ऐसे खतरनाक हथियार के हाथ आ जाने से वह सारी दुनिया को नष्ट कर देगा। अब्दुल करीम ने गहन आत्ममंथन किया और आसन्न मृत्यु की आशंका के कारण किसी से मिलना जुलना और खाना पीना छोड़ दिया, अपने आपको कमरे में बंद कर लिया। वह  दूर से किसी का गाना बजाना सुनता तो गालियाँ देने लगता : "इन बेवकूफ़ों को क्या पता कि कल ही सबको मर जाना है ..... सालों, अगर एक भी बम गिरा तो सबके प्राण पखेरू उड़ जायेंगे।"

 

लेखक ने इस सन्दर्भ में एक बुलबुल को कहानी का  किरदार बनाया है - "एक बुलबुल उड़ती हुई आयी और खिड़की पर बैठ कर चहचहाने लगी। मिस्टर अब्दुल करीम उठे और उसे उड़ा दिया। 


"अरे बेचारी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो इसे उड़ा दिया?", उनकी माँ ने कहा : "शायद आज कोई मेहमान आएगा।"


"हुँह, मेहमान आएगा।  अरी, अब जल्द दुनिया फ़ना हो जाएगी। फिर आते रहें तेरे मेहमान ..... आज युद्ध छिड़ा तो समझना कल दुनिया में कोई भी जीवित नहीं होगा अम्मा।"

 

शुष्क किताबी ज्ञान और अव्यावहारिक मूढ़ता से सिर से पाँव तक ढँके अब्दुल करीम की हताशा का उसकी अनपढ़ माँ ने बड़े विश्वास और सहज भाव से निश्छल सा जवाब दिया : "ऐसा कैसे हो सकता है ?आज तक इतने युद्ध हुए, आखिर वे ही लोग मर खप गए जिन्होंने उन्हें छेड़ा था .... (अमेरिका ने) बम बनाया है तो क्या हुआ? दुनिया के लोग उसे उसका विस्फोट करने देंगे भला?"


माँ की बातें सुन कर अब्दुल करीम हँस पड़ा कि देखो तो इस दुनिया की अक्ल!


पर तीन दिन बाद मृत्यु की प्रतीक्षा करते अब्दुल करीम की साँसें दुबारा लौटीं ..... वह अपनी जाहिल अनपढ़ माँ के पीछे पीछे यह पूछते हुए भागा कि तुम्हें कैसे पता चला कि अमेरिका को वे बम गिराने नहीं देंगे? दरअसल हुआ यह था कि दुनिया भर के वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, श्रमिकों और सामान्य व्यक्तियों के सामूहिक दबाव ने अमेरिका को  विनाशकारी मंसूबे बदलने के लिए मजबूर कर दिया।


परम ज्ञानी अब्दुल करीम एम. ए., एल-एल. बी. तमाम पोथियाँ बाँच कर मनुष्यता की जिस किरण को देख नहीं पाए उसकी अनपढ़ माँ ने बगैर कोई पोथी पढ़े उस जीवनदायी उजाले को देख लिया - उन्होंने सिर के  बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये थे बल्कि समाज की धड़कन वे पहचानती पकड़ती थीं अब्दुल करीम की ओढ़ी हुई तालीम ने उसे सच नहीं देखने दिया। माँ को मनुष्यता के शाश्वत मूल्यों पर अटूट भरोसा था - यह भरोसा लोगों से कट कर बंद कमरे में बैठ कर नहीं बल्कि मिल जुल कर ही आ सकता है।


लेखक यहाँ पिछली शताब्दी के छठे दशक के मध्य 1954 में अमेरिका द्वारा हाइड्रोजन बम के परीक्षण की बात करता है जिसके विरोध में दुनिया भर के वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी जगह जगह लामबंद हो कर बम विरोधी जनमत बनाने लगे। इस जनप्रतिरोध का ही परिणाम है कि सत्तर साल बाद भी हम हाइड्रोजन बम की विभीषिका से बचे हुए हैं - जापान पर गिराए गए एटम बम की तुलना में इसकी विनाशक क्षमता यह हज़ार गुनी तक है।


ऐसी रचनाएँ हमारा भरोसा मनुष्यता पर बनाए रखती हैं इसीलिए उन्हें बार बार सुना सुनाया जाना चाहिए।


यादवेन्द्र



सम्पर्क 



मोबाइल : 9411100294

टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छी कहानी का सुन्दर और प्रभावी तरीके से विश्लेषण किया गया है. युद्ध का अपना बाजार है. सामान्य मनुष्य सदैव युद्ध के विरुद्ध रहा है. प्रश्न यह है कि मुट्ठी भर लोग अशांति को बढावा दे रहे हैं तो क्या करोड़ों लोग शांति के प्रयास में क्यों सफल नहीं हो सकते. बुद्धिजीवी तो लगभग इस कहानी के नायक की भूमिका में ही नजर आ रहे हैं.

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