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राम जियावन दास बावला.

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शुभ शुभ, शुभ नया साल हो. बासल बयार ऋतुराज के सनेस देत गोरकी चननिया के अचरा गुलाल हो खेत खरीहान में सिवान भर दाना-दाना चिरई के पुतवो न कतहु कंगाल हो हरियर धनिया चटनिया टमटरा के मटरा के छीमीया के गदगर दाल हो नया नया भात हो सनेहिया के बात हो की एही बिधि शुभ शुभ, शुभ नया साल हो सोहन लाल द्विवेदी स्वागत! स्वागत! मेरे आगत! स्वागत! जीवन के नवल वर्ष आओ, नूतन- निर्माण लिए, इस महाजागरण के युग में जागृत जीवन अभिमान लिए, दिनों दुखियों का त्राण लिए मानवता का कल्याण लिए, स्वागत! नव युग के नवल वर्ष तुम आओ स्वर्ण विहान लिए, संसार क्षितिज पर महाक्रान्ति की ज्वालाओं के गान लिए, मेरे भारत के लिए नयी प्रेरणा, नया उत्थान लिए, मुर्दा शरीर में नये प्राण प्राणों में नव अरमान लिए, स्वागत! स्वागत! मेरे आगत! तुम आओ स्वर्ण विहान लिए! युग-युग तक पिसते आये कृषकों को जीवन-दान लिए, कंकाल मात्र रह गये शेष मजदूरों का नव त्राण लिए, श्रमिकों का नव संगठन लिए पद दलितों का उत्थान लिए स्वागत!स्वागत! मेरे आगत! तुम आओ स्वर्ण विहान लिए! सत्

अरुण माहेश्वरी

रवीन्द्रनाथ की आध्यात्म-आधारित विश्व-दृष्टि यह रवीन्द्रनाथ के जन्म का 150वां वर्ष है। सांस्कृतिक रूप में सजग भारत के किसी भी व्यक्ति को रवीन्द्रनाथ ने आकर्षित न किया हो, ऐसा संभव नहीं है। ऊपर से, यदि आप बंगाल के निवासी है तो रवीन्द्रनाथ की उपस्थिति का अहसास निश्चत तौर पर आप पर बना ही रहेगा। रवीन्द्रनाथ के समूचे व्यक्तित्व पर कोई जितना ही विचार करता है, सबसे पहले उस जीवन और व्यक्तित्व की विशालता और विपुलता का वैभव आश्चर्यचकित करता है। रवीन्द्रनाथ कहीं से ऐसे इंसान नहीं थे जिनमें एक गुलाम देश के नागरिक की किसी भी प्रकार की कुंठा का लेश मात्र मौजूद हो। स्वतंत्रता उनकी कामना नहीं, उनकी नैसर्गिकता थी। तुलसीदास लिखते हैः ‘मति अकुंठ हरि भगति अखंडी’। एक अकुंठ, अखंड और संपूर्ण मानवता को समर्पित रवीन्द्रनाथ के समान विराट वैभवशाली व्यक्तित्व का भारत की तरह के गरीब और गुलाम देश में कैसे निर्माण हुआ, यह किसी के लिये भी विस्मय का विषय हो सकता है। सात मई 1861 के दिन कोलकाता के प्रसिद्ध ठाकुर परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ के पूरे जीवन काल को सिर्फ आधुनिक भारत के इतिहास का ही नहीं, बल्कि सारी

अदम गोंडवी

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अदम गोंडवी का वास्तविक नाम राम नाथ सिंह था. अदम का जन्म गोंडा जिले के परसपुर के आटा गाँव में २२ अक्टूबर १९४७ को हुआ. कबीर जैसी तल्खी और जनता के दिलो दिमाग में बस जाने वाली शायरी अदम की मुख्य धार और उनकी पहचान थी. जन कवि नागार्जुन की तरह ही अदम ने जनता और उसके राजनीतिक संबंधो को अपना काव्य विषय बनाया और सच कहने से कभी नहीं हिचके. जनवादी प्रतिबद्धता के साथ वे जिन्दगी  की अंतिम सांस तक जुड़े रहे और लेखकीय स्वाभिमान के साथ जीते रहे. १९९८ में अदम को मध्य प्रदेश सरकार ने इन्हें दुष्यंत कुमार सम्मान से पुरस्कृत किया. अदम के प्रमुख एवं चर्चित गजल संग्रह हैं- 'धरती की सतह पर' और 'समय से मुठभेड़' लीवर सिरोसिस की बीमारी से जूझते हुए १८ दिसंबर २०११ को अदम का निधन हो गया.  अदम के प्रति श्रद्धांजलि स्वरुप प्रस्तुत हैं कुछ गजलें जो मुझे बहुत प्रिय हैं          तुम्हारी फाईलों में गाँव का मौसम गुलाबी  है तुम्हारी फाईलों में गाँव का मौसम गुलाबी  है मगर ये आंकड़े झूठे  हैं ये दावा किताबी है उधर जम्हूरियत के ढोल पिटे जा रहे हैं वो इधर परदे के पीछे बर्बरियत

विजय गौड़ की कहानी 'होम वर्क'

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होम वर्क गणित के एक सवाल को हल करते हुए न जाने कितने ही सवालों को कर रहे होते हैं हल, हाशिये में छुट जा रहे होते हैं जोड़ घटाव गुणा और भागफल भागफल का मतलब भाग्यफल तो होता ही नहीं मेरी बेटी, बेशक कर्मफल कर्मफल गीता में भी पढ़ सकती हो, पर गीता की तरह, कर्म किये जा फल की चिन्ता न कर नहीं पढ़ा सकता हूं मैं और न ही पढ़ना है तुम्हें तुम्हारी मां का, याकि मेरा भाग्य नहीं, एक स्वर था जिसके सहारे रचा हमने जीवन तुम हो वो पदार्थ मात्र के यांत्रिक एकीकरण से नहीं प्रकृति के संश्लेषण से घटा है रहस्य नहीं, न ही दैवीय चमत्कार अंश-अंश जीवन, बस ऐसे ही जुटा है तने की अनुप्रस्थ काट में दिखती मांस-मज्जा है कोशिकाओं का छत्ता है वलयाकार खाद पानी और उसमें घुली नाईट्रोजन को सोखकर हुआ जाता था चौड़ा और चौड़ा मोटा और मोटा गोल-गोल तना धूप सेंक कर दुर्गंध खींचती पत्तियों ने भी तो रचा है देखो कॉंच के पार अंधेरा नहीं उजाला है कोशिकाओं के भीतर बैठे नाभिक के सिर पर जो खिंचता हुआ धागा है उन युग्मकों के निषेचन पर ही है निर्भर जीवन नर और मादा भी उसक

नीलाभ

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इस दौर में हत्यारे और भी नफ़ीस होते जाते हैं मारे जाने वाले और भी दयनीय वह युग नहीं रहा जब बन्दी कहता था वैसा ही सुलूक़ करो मेरे साथ जैसा करता है राजा दूसरे राजा से अब तो मारा जाने वाला मनुष्य होने की भी दुहाई नहीं दे सकता इसीलिए तो वह जा रहा है मारा अनिश्चय के इस दौर में सिर्फ़ बुराइयाँ भरोसे योग्य हैं अच्छाइयाँ या तो अच्छाइयाँ नहीं रहीं या फिर हो गयी हैं बाहर चलन से खोटे सिक्कों की तरह शैतान को अब अपने निष्ठावान पिट्ठुओं को बुलाना नहीं पड़ता मौजूद हैं मनुष्य ही अब यह फ़र्ज़ निभाने को पहले से बढ़ती हुई तादाद में एक विफल आतंकवादी का आत्म-स्वीकार- 1 परधान मन्तरी जी, बहुत दिनों से कोशिश कर रहा हूँ मैं आतंकवादी बनने की मगर नाकाम रहा हूँ। (यह इक़बाले-जुर्म कर रहा हूँ इस रिसाले के शुरू ही में ताकि कोई परेशानी न हो आपको और आपकी सुरक्षा-सेवाओं को) कई बार कोशिश करने पर भी विफलता ही जीवन की कथा रही शायद वजह यह हो कि जिस तरह आपने टेके घुटने उसी हुकूमत के सामने जिसे अपने मुल्क से निकालने में हज़ारों-हज़ार कुरबानियाँ दी थीं मेरे

भरत प्रसाद

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शेक्सपियर चित्र- शेक्सपियर, (गूगल से साभार)   काल और प्रेम (अनुवाद क - नगेन्द्र) वज्र धातु हो या प्रस्तर हो या दुर्दम सागर, . ये हैं नतसिर सभी सामने क्रूर काल के . तो कैसे वह रूप सहेगा उस प्रहार को ? जिसका लघु अस्तित्व फूल सा मृदु -कोमल है. मधु-वासंती वात आह, कैसे झेलेगी ? बर्फीली ऋतुवों के ध्वंसक आघातों को? जब अभेद्य चट्टान वज्रद्दृढ लौह द्वार ये. होते विवश विलीन काल के खर प्रवाह में ? कैसे रक्षित रह पायेगा बंद काल की मंजूषा में. यह अमूल्य वरदान प्रकृति का दिव्य रत्न यह ? उसके बढ़ते कदम कौन कब रोक सकेगा - मधुर रूप का नाश क्रूर उसके हाथों से ? केवल एक उपाय, अमिट लिपि में अंकित वह,  मेरे निश्छल अमर प्रेम का मोहक जादू.  (सौजन्य - विश्व काव्य चयनिका , संपादन- नगेन्द्र,  वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली)   गोएथे चित्र- गोएथे , (गूगल से साभार) पता नहीं प्यार तुम्हें है या नहीं पता नहीं प्यार मुझे है या नहीं, देख लूँ पर तुम्हारा चेहरा कहीं, आँखों में     झाँकूँ एक बार भरपूर, हो जाय इस दिल का सारा दुःख दूर, कैसा यह सुख, जाने ईश्वर वह

उमेश चन्द्र पन्त

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उमेश चन्द्र पन्त का जन्म 30/10/1985 को उत्तराखंड के  पिथौरागढ़ जिला के गंगोलीहाट के   चोढीयार ग्राम में हुआ. शिक्षा स्नातक तक. उमेश की कहीं भी प्रकाशित होने वाली ये पहली कवितायेँ हैं.  रूचि-कवितायेँ पढ़ना एवम लिखना ,सिक्का-संग्रह, तबला वादन, संगीत उमेश की कविताओं में स्पष्ट रूप से काव्य तत्त्व देखे जा सकते हैं. किसी भी कवि की तरह प्रेम में आस्था रखने वाले उमेश को जुनून है अपने प्रेम को अमरता देने का. और इसके लिए यह कवि किसी भी हद तक जाने को तैयार है. उमेश का कवि मन अपने गाँव की प्रातः बेला में अप्रतिम सौंदर्य देखते हुए यह कहते कहीं नहीं झिझकता कि यह मेरा गाँव है. लेकिन कवि दुखी है. अपने गाँव से हो कर बहने वाली पहाड़ी नदी के पांवो में विकास के नाम पर बनाये जा रहे प्रोजेक्ट रुपी बेड़िया बाधने से आहत है कवि. वह जानता है अब उस कल-कल बहती नदी का क्या हश्र होना है. आज भी हम विकसित होने का वह तरीका इजाद नहीं कर पाये हैं जिसमें प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना आगे बढ़ सकें. वह प्रकृति जिसके साथ जुड़ा है हमारा अपना और इस पूरी धरती का अद्भुत जीवन लोक. ऐसे में प्रेम के इस कवि के मन में बची

अरुण माहेश्वरी

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भारतीय वामपंथ के समक्ष कुछ जरूरी मुद्दे: वामपंथ के पुनर्गठन का एक प्रस्ताव {“आत्मालोचना क्रियात्मक और निर्मम होनी चाहिए क्योंकि उसकी प्रभावकारिता परिशुद्ध रूप में उसके दयाहीन होने में ही निहित है। यथार्थ में ऐसा हुआ है कि आत्मालोचना और कुछ नहीं केवल सुंदर भाषणों और अर्थहीन घोषणाओं के लिए एक अवसर प्रदान करती है। इस तरह आत्मालोचना का ‘संसदीकरण हो गया है’।”(अन्तोनियो ग्राम्शी: राजसत्ता और नागरिक समाज)} 1. सशस्त्र नवंबर क्रांति ने 1917 में रूस में जो नयी व्यवस्था कायम की वह 70 वर्ष चली। 1989 में उसका पतन कुछ इस प्रकार हुआ जैसे कोई सूखा पत्ता पेड़ से अनायास ही गिर जाता है। उस सत्ता परिवर्तन के अंतिम दिन जब सोवियत सत्ता की ओर से सड़कों पर टैंक उतारे गयें, तब वही टैंक येलत्सीन की वीरता के प्रदर्शन के मंच बन गये। क्रांति और प्रतिक्रांति के अनिवार्य रूप से हथियारबंद और हिंसक होने अर्थात इतिहास में बलप्रयोग को लेकर एक प्रकार की अंधआस्था वाले मस्तिष्कों को उस घटना ने चौकाया था, क्योंकि मार्क्स की समझ के ठीक विपरीत उन्होंने सिर्फ इतिहास की ही नहीं, ऐतिहासिक परिघटनाओं के स्वरूपों अर