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तुर्की के कवि फ़ाज़िल हुस्नु दगलार्चा की कविताएँ

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फ़ाज़िल हुस्नु दगलार्चा फ़ाज़िल हुस्नु दगलार्चा ( Fazil Husnu Daglarca) तुर्की के प्रसिद्ध कवि थे , जिनका 15 अक्तूबर 2008 को 94 वर्ष की अवस्था में देहान्त हो गया। इनके     कुल 63 कविता-संग्रह प्रकाशित हुए , जिनमें    हवा में बनी दुनिया ( 1935), तीन शहीदों की दास्तान ( 1949),   हमारी वो वियतनाम की लड़ाई ( 1966), हिरोशिमा ( 1970), पृथ्वी के बच्चे ( 1974), सात भालू (1978), शरारती शब्द ( 1979) जैसे संग्रह पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय हुए।    इन्होने कविताओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं लिखा। शुरुआती दौर में इनकी कविताएँ   मनुष्य और ब्रह्माण्ड तथा प्रकृति और अलौकिक के रिश्तों की पड़ताल करती हैं। 50 के दशक में मनुष्य और समाज के रिश्तों की पड़ताल इनकी कविताओं का मूल आशय है। 60 के दशक में इनकी कविताएँ शोषण और साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रताड़ित जनता के सँघर्ष के साथ खड़ी होती है। बच्चों के लिए भी इन्होंने बहुत सारी कविताएँ लिखी हैं। कविता के बारे में इनका यह मानना है   —  " कविता को उन तत्वों पर बल देना चाहिए जो एक समाज को एक राष्ट्र में तब्दील करते हैं।"

अवनीश यादव की कविताएं

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अवनीश यादव राष्ट्रवाद एक ऐसा टर्म है, जो अपने आप में अत्यन्त संकुचित होने के साथ साथ संकीर्ण भी होता है। धर्म, जाति, भाषा, बोली की तरह राष्ट्र भी ऐसा कारक है जिसके नाम और लोग बिना कुछ सोचे समझे एकजुट हो जाते हैं। इसकी बुनियाद दरअसल उस भय पर  आधारित है जिसके मूल में विरोधी देश का कल्पित डर होता है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में महात्मा गाँधी के राष्ट्रवाद और रवींद्रनाथ ठाकुर के अंतरराष्ट्रीयतावाद के बीच अक्सर टकराहट होती रहती थी। बहरहाल आजादी के पहले के राष्ट्रवाद की प्रकृति से आज के राष्ट्रवाद की प्रकृति बिल्कुल अलग है। आज के हमारे राष्ट्रवाद का मूलाधार उस पाकिस्तान का कल्पित भय है जो खुद कई तरह की समस्याओं से जूझ रहा है। वैसे पाकिस्तानी हुक्मरान भी अपनी जनता का ध्यान हिन्दुस्तान की तरफ केंद्रित कर राष्ट्रवाद को बखूबी भुनाते रहे हैं। यह क्रम आज भी जारी है। कब तक यह ऐसे ही चलता रहेगा, कहा नहीं जा सकता। बहरहाल सुकून की बात है कि हमारे रचनाकारों का एक बड़ा वर्ग राष्ट्रवाद के इस तिलिस्म से भलीभाँति परिचित है। अवनीश यादव उभरते हुए युवा कवि हैं जिनकी कविताओं में एक निखार स्पष्ट रूप से