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गोविन्द निषाद का संस्मरण 'साधू'

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  गोविन्द निषाद पिता पुत्र का सम्बन्ध निरापद होता है। पिता अपने पुत्र को दुनिया की सारी खुशियां दे देना चाहता है। इसके लिए वह दिन रात एक भी कर देता है। दूसरी तरफ पुत्र के लिए पिता हमेशा एक आश्वस्ति की तरह होता है। पीठ पर पिता का हाथ वह सम्बल देता है, जो हमें कहीं और से मिल ही नहीं सकता। लेकिन समय के प्रवाह को कौन रोक पाया है भला। समय ऐसा भी आता है जब पिता अचानक अतीत हो जाते हैं और पुत्र सहसा खुद को निराश्रित महसूस करने लगता है। युवा रचनाकार गोविन्द निषाद के पिता का हाल ही में निधन हो गया। पिता की स्मृति पर गोविन्द ने एक संस्मरण लिखा है। इस संस्मरण इसलिए भी उम्दा है कि गोविन्द ने बेबाकी से इसे लिखा है। कहा जा सकता है कि किसी भी बनावट से दूर खांटी अंदाज में लिखा है। ईमानदारी और सादगी ही इस संस्मरण को और संस्मरणों से अलग और बेजोड़ बना देती है। इस संस्मरण में वह पिता सहज ही दिख जाते हैं जो प्रायः हमारे बचपन के बादशाह हुआ करते हैं। पिता की स्मृतियों को नमन करते हुए आज हम आपको गोविन्द का एक तरोताजा संस्मरण पढ़वाते हैं।  'साधू' गोविन्द निषाद पिता जी को गुजरे महीने हो गये। इस बीच वह बा

बलभद्र का आलेख 'भोजपुरी लोकमानस में राम'

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  बलभद्र भारतीय लोक मानस में राम कुछ इस तरह घुले मिले हैं कि वे उसके बिल्कुल अपने लगते हैं। ये राम उग्र राम नहीं बल्कि सदाशयी राम हैं। ये वे राम हैं जो पत्नी सीता का हरण करने वाले रावण से बवाल नहीं चाहते बल्कि अन्तिम समय तक समझौते के हरसम्भव प्रयास करते रहते हैं। ये वे राम हैं जो भारतीय मानस को हर संकट के समय याद आते हैं। ये राम उन राजनीतिज्ञों के राम नहीं हैं जो सब कुछ मिटा देने पर तुले रहते हैं। लोक के राम उसके तीज त्यौहारों, रीति रिवाजों, परंपराओं से जुड़े हैं। लोक के राम उसके लोकगीतों से जुड़े राम हैं। लोक के राम वे राम हैं जिसमें वह सत्य के दर्शन करता है। बलभद्र ने अपने इस आलेख में इस राम का एक अवलोकन करने का प्रयास किया है। किसी रचना की प्रस्तुति भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। बेहतर रचना अगर इस्तेमाल करने की दृष्टि से छापी जाए, तो वह अपना अर्थ खो देती है। जैसे कि उर्वर बीज को ऊसर भूमि में डाल दिया जाए तो वह अपना अर्थ खो बैठता है। बलभद्र का दर्द भी कुछ इसी तरह का है। बहरहाल यह हमारे समय की नियति है। इसके लिए हम लेखकों को खुद जागरूक रहना होगा। किसी भी यथार्थपरक रचना के गलत इस्तेम

प्रचण्ड प्रवीर का आलेख ‘जजमेंट’ के समर्थन में'

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  किसी भी व्यक्ति को 'जज' करना आसान नहीं होता। समस्या यह है कि जज करते समय हम किन बातों को प्रमुखता दे रहे हैं और किसे उपेक्षित कर रहे हैं। इस तरह जज करना बहुत कुछ हमारे पूर्वाग्रह और दुराग्रह पर आधारित होता है। लेकिन यह स्वीकार करना भी आसान कहां? क्योंकि जज करने वाला व्यक्ति स्वयं को सर्व ज्ञानी मान कर ही चलता है। और ऐसी स्थिति में इस जजमेंट पर ही सवालिया निशान उठ खड़े होते हैं। आम तौर पर आज गंभीर बातों को हवा में उड़ा देने या उपेक्षित करने का चलन ही चल पड़ा है। प्रचण्ड प्रवीर ने इस जजमेंट के बारे में एक गम्भीर आलेख लिखा है। इसके लिए वे उन दार्शनिक विचारों और तथ्यों की तह में गए हैं जहां सामान्य के लिए जा पाना सम्भव ही नहीं। इस आलेख को पढ़ने के लिए पाठकों के भी गम्भीर होने की जरूरत पड़ेगी। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रचण्ड प्रवीर का आलेख ‘जजमेंट’ के समर्थन में'। ‘जजमेंट’ के समर्थन में' प्रचण्ड प्रवीर  इन दिनों यह बात फिल्मों, टी वी शो और अन्य मीडिया के माध्यम से जनमानस में बिठायी जा चुकी है कि हमें किसी को ‘जज’ नहीं करना चाहिए। ‘जजमेंट’ का अर्थ ‘निर्णय’, ‘अच्छ

अरुण शीतांश के कविता संग्रह 'एक अनागरिक का दुःख' पर मीरा श्रीवास्तव की समीक्षा 'विस्मृति के गह्वर से गंवई देशज शब्दों को बाहर निकालने की कवि की जिद'।

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             सार्वभौम होने के लिए स्थानीय होना पड़ता है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि बिना स्थानीय हुए  सार्वभौम नहीं हुआ जा सकता। यह स्थानीयता अपने आप में मौलिक और विविधवर्णी होती है। अरुण शीतांश हिन्दी के ऐसे ही कवि हैं जो गहरे तौर पर स्थानीय हैं। इसीलिए उनकी कविताएं बात करती हुई नजर आती हैं। वाणी प्रकाशन से उनका हालिया कविता संग्रह  ' एक अनागरिक का दुःख' प्रकाशित हुआ है। मीरा श्रीवास्तव ने इस संग्रह की पड़ताल करते हुए समीक्षा लिखी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  अरुण शीतांश के कविता संग्रह    ' एक अनागरिक का दुःख' पर  मीरा श्रीवास्तव की समीक्षा ' विस्मृति के गह्वर से गंवई देशज शब्दों को बाहर निकालने की कवि की जिद'। विस्मृति के गह्वर से गंवई देशज शब्दों को बाहर निकालने की कवि की जिद   ("एक  अनागरिक  का दुःख") मीरा श्रीवास्तव  सर्वसम्मत तथ्य है कि तमाम नाउम्मीदियों के हाशिए से ही कविता जन्म लेती है! गहन चुप्पी जब कान को फाड़ने वाले शोर में तब्दील हो जाती है और हम एकबारगी अपने अपने हिस्से के सच से खाली होते चले जाते हैं तो कविता का अनहद नाद उसी

कालूलाल कुलमी की समीक्षा 'जला दो शाखों पर दीये अब चाँद पर एतबार खोने लगा है'

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  कविता जीवन से गहरे तौर पर जुड़ी होती है। इसीलिए अनुभव इसके मूल में होते हैं। यह अनुभव अपने आस पास के वातावरण, परिस्थितियों, व्यक्ति, विचार आदि से जुड़ा होता है इसलिए इसका संदर्भ व्यापक होता है। इसी क्रम में आपबीती जगबीती में तब्दील हो जाती है। कवि सुनील कुमार शर्मा का काव्य सन्दर्भ व्यापक है। हाल ही में इनका पहला कविता कविता संग्रह 'हद या अनहद' वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की एक समीक्षा की है युवा आलोचक कालूलाल कुलमी ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  कवि सुनील कुमार शर्मा के कविता संग्रह 'हद या अनहद' पर कालू लाल कुलमी की समीक्षा 'जला दो शाखों पर दीए अब चांद पर एतबार खोने लगा है'। 'जला दो शाखों पर दीये अब चाँद पर एतबार खोने लगा है'                                                             कालूलाल कुलमी  कोई भी अच्छा कवि किसी भी आलोचक की गिरफ़्त में पूरा नहीं आता।                                                       विष्णु खरे झरेंगे अंत तक  प्रश्न ही झरेंगे यहाँ। थोड़ी हवा, थोडा प्रकाश थोड़ी उमस में कुछ जवाब  भी उगेंगे यहा