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मार्च, 2024 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

लैस्लो क्रस्नहोरकई की कहानी 'बाहर कुछ जल रहा है'

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                                        László Krasznahorkai  प्रकृति स्वयं में रचनात्मक है। इसका कण कण इस रचनात्मकता से आप्लावित है। मनुष्य इस प्रकृति की ही सुन्दर रचना है। वह प्रकृति को अपनी तरह से विश्लेषित करने का कार्य करता है। मनुष्य की रचनात्मकता भी अदभुत है। अपनी रचनात्मकता से उसने इस धरती को ब्रह्माण्ड का आधुनिकतम ग्रह बना दिया है। आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं एक हंगेरियन कहानी। कहानीकार हैं लैस्लो क्रस्नहोरकई। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं लैस्लो क्रस्नहोरकई की कहानी 'बाहर कुछ जल रहा है'। इस कहानी का अनुवाद किया है कवि कहानीकार सुशांत सुप्रिय ने। सुशांत सुप्रिय ने विश्व के ऐसे रचनाकारों की रचनाएं सामने लाने का काम किया है जिनकी रचनाओं से हिन्दी समाज प्रायः अपरिचित है। इस अर्थ में उनका काम काफी अलग तरह का है। 'बाहर कुछ जल रहा है'   मूल लेखक :  लैस्लो क्रस्नहोरकई अनुवाद : सुशांत सुप्रिय ज्वालामुखी के गह्वर में स्थित संत एन्ना झील एक मृत झील है। यह झील 950 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और लगभग हैरान कर देने वाली गोलाई में मौजूद है। यह झील बरसात के पानी

रांगेय राघव की कहानी 'घिसटता कम्बल'

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रांगेय राघव मनुष्य का जीवन अपने आप में एक पहेली की तरह है। इस पहेली को बूझ पाना कठिन काम है। जो बूझने का दावा करते हैं वे बूझ कर भी नहीं बूझ पाते। जीवन का संघर्ष कम बड़ा संघर्ष नहीं। गृहस्थ आश्रम को ऐसे ही सबसे कठिन आश्रम नहीं कहा गया है। रांगेय राघव जीवन की इन पेचीदगियों से भलीभांति वाकिफ थे। घिसटता कम्बल ऐसी ही एक संघर्ष भरी कहानी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रांगेय राघव की कहानी  'घिसटता कम्बल'। 'घिसटता कम्बल' रांगेय राघव प्रभात की जिस बेला में कोयल का बोल सुनाई देता है, रागिनी उसे अपने सुहाग का एकमात्र शुभ लक्षण समझ कर हर्ष से गदगद  हो उठती है। दूर एक पेड़ है, वरना उस मुहल्ले में पत्थरों, ईंटों और उनकी कठोरता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। वह दूर-दूर तक देखती है। कहीं कुछ भी नहीं दिखाई देता। लौट कर जाती है, चूल्हे पर पानी रख देती है और घुटनों पर सिर रख कर सोचने लगती है। कुछ भी नहीं है चिंता करने के योग्य, क्योंकि जो है वह चिंता ही है, चिंता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। पानी में से एक आवाज आ रही है। उसकी ओर देखा। कुछ नहीं उबलने की ध्वनि आ रही है। तो क्या इस जीव

सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'आदर्श वाक्यों की गिरफ्त से बाहर'

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  आदर्श किसे शोभा नहीं देता। लेकिन सच कहा जाए तो आदर्श सिर्फ शोभा की वस्तु होता है। व्यावहारिक जीवन से उसका कोई लेना देना नहीं होता।  दुनिया का कोई भी धर्म हो या जाति सब आदर्शों की ही बात करते हैं। दुनिया का कौन सा धर्म कहता है कि किसी की हत्या करो, चोरी करो, असम्मान करो, भ्रष्टाचारी बनो, लेकिन हर धर्म में होता यही है। उस धर्म के समर्थक वही कार्य करते हैं जिसकी प्रायः मनाही होती है। इस तरह आदर्श केवल मुखौटा बन जाता है जिसकी आड़ में लोग जाने क्या क्या किया करते हैं। आलोचक सेवाराम त्रिपाठी ने इन आदर्शों की एक समालोचनात्मक पड़ताल की है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'आदर्श वाक्यों की गिरफ्त से बाहर'। 'आदर्श वाक्यों की गिरफ्त से बाहर' सेवाराम त्रिपाठी  आदर्श वाक्य केवल आदर्श वाक्य होते हैं। वे झुनझुने की तरह बज रहे हैं अनंत  वर्षो से। वे खूंटियों में टंगे सुसज्जित कपड़ों की तरह होते हैं। उससे खूंटे की और कपड़ों की शोभा बढ़ती है। आदर्श वाक्यों और सुभाषितों को बड़ी संजीदगी से गाया बजाया जाता है। पूरा देश और समाज आदर्शो के साथ कनेक्ट हो कर भी डिसकने

प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'शहर में स्टार्ट-अप'

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बाजारीकरण ने आज हमारे जीवन के हर क्षेत्र में अच्छा खासा दखल दिया है। यह काम इसने बड़े तरतीब से किया है। धर्म ही नहीं बल्कि हमारे तीज त्यौहार, हमारी परंपराएं भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। हम चाहें या न चाहें, इनके मकड़जाल में उलझ ही जाते हैं। हमारे वे पर्व जो ऋतु परिवर्तन के साथ जुड़े हुए थे, जो हमारे जीवन में उमंग का संचार करते थे, वे भी इनसे दुष्प्रभावित हुए हैं। होली या दीपावली इसका अपवाद नहीं है। आज होली के अवसर पर पहली बार परिवार की तरफ से सभी को बधाई एवम शुभकामनाएं। आप सबका जीवन रंगों उमंगों से भरा हुआ हो। प्रचण्ड प्रवीर ने कहानी लिखी है जो  इस मौके के लिए एक खास उपहार है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'शहर में स्टार्ट-अप'। 'शहर में स्टार्ट-अप' प्रचण्ड प्रवीर कल की बात है। जैसे ही मैंने घर के बाहर कदम रखा, सुबह-सवेरे मंटू अपनी स्कूटी पर मुस्कुराता खड़ा मिला। उसने कहा, “वीरु भइया भेजे हैं। चलिए हमारे साथ।” अब वीरु की मेहरबानी थी।                 हमारे दोस्त वीरु पूरी दुनिया घूम कर उसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं जो नेपाल का ध्येय वाक्य है

निशान्त का आलेख 'रचनाकार का आलोचक होना'

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  निशान्त को आलोचना का प्रतिष्ठित देवीशंकर अवस्थी सम्मान 2023 उनकी पुस्तक 'कविता पाठक आलोचना' (सेतु प्रकाशन) पुस्तक पर देने की घोषणा हुई है। निशान्त को आज से पंद्रह साल पहले कविता का भी प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार नामवर सिंह ने उनकी एक कविता 'अट्ठाइस साल की उम्र में' के लिए दिया था। इस तरह एक कवि ने अब आलोचना में भी सक्रिय उपस्थिति दर्ज की है। इस साल के देवीशंकर अवस्थी सम्मान के निर्णायक थे - सर्वश्री सुधीर चंद्र, पुरूषोत्तम अग्रवाल, मृदुला गर्ग, अशोक वाजपेयी और कमलेश अवस्थी। यह देवीशंकर अवस्थी सम्मान का 29वां साल है। निशान्त को पहली बार की तरफ से बधाई एवम शुभकामनाएं। इस सम्मान के अवसर पर उनकी पुस्तक से एक संक्षिप्त आलेख यहां हम दे रहे हैं। 'रचनाकार का आलोचक होना'       निशान्त एक किताब (भावन) पढ़ते-पढ़ते मन में प्रश्न उठा कि रचनाकार, आलोचक कब बनता है? कब उसके अंदर आलोचना का जीव द्रव्य हिलकने लगता है। वह कवि, नाटककार, गद्य लेखक से आलोचना की प्रस्तर प्रतिमा का निर्माण करने लगता है। रचना से दूर जा कर आलोचना के राहों का वह रहबर बन जाता है।  रचना और आलोचना

भगत सिंह का आलेख 'युवक!'

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  भगत सिंह  हमारे राष्ट्र की नींव न जाने कितने युवाओं के खून से तैयार हुई है। आजादी की लड़ाई में युवाओं का योगदान अविस्मरणीय रहा है। इन युवाओं में अग्रणी नायक थे भगत सिंह।  भगत सिंह काफी पढ़ाकू थे और लेख लिखते रहते थे। कई मौकों पर तो उन्होंने अपने आलेख छद्म नाम से लिखे। उन्होंने अपना आलेख 'युवक' बलवन्त सिंह के नाम से लिखा था जो ‘साप्ताहिक मतवाला’ (वर्ष : 2, अंक सं. 36, 16 मई, 1925) में प्रकाशित हुआ था। इस लेख की चर्चा ‘मतवाला’ के सम्पादकीय कर्म से जुड़े आचार्य शिवपूजन सहाय की डायरी में भी मिलती है। लेख से पूर्व यहाँ 'आलोचना’ में प्रकाशित डायरी के उस अंश को भी उद्धृत किया जा रहा है। आज भगत सिंह का शहीदी दिवस है। इस अवसर पर भगत सिंह की स्मृति को हम नमन करते हैं।आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  भगत सिंह का आलेख 'युवक!' इस आलेख को हमने   www.marxists.org से साभार लिया है। 'युवक!' भगत सिंह सन्ध्या समय सम्मेलन भवन के रंगमंच पर देशभक्त की स्मृति में सभा हुई। ... भगतसिंह ने ‘मतवाला’ (कलकत्ता) में एक लेख लिखा था : जिसको सँवार-सुधार कर मैंने छापा था और उसे पुस्तक भण्ड