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फ़रवरी, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चार्वी सिंह

चार्वी सिंह २१ वीं सदी की गंगा का दर्द........!!!!! सदियों से लोगों के पापों को धोती, गंगोत्री से लेकर गंगासागर की गहराई तक, हर कुम्भ महाकुम्भ की मूक गवाह, हर मोड़ और ढलान पर छली गई, आज तक इंतज़ार करती रही..... कोई तो आए............. दो बूंद सच्चाई की अपनी अखियों में भर , कोई तो आए........... बहुत आसान है............... हर पाप करने के पश्चात, माँ की गोद में छिपना, माँ छिपाती.....भी हैं क्योंकि वो माँ होती है ...... पर उस अपनत्व में, माँ आत्मग्लानि से भरी होती है, ना जाने कितनी बार दुनिया ने, भागीरथी जाह्नवी को राह चलते छला....... और मन भर जाता है जब....... अपने जाने पापों से मुक्ति हेतु, माँ की शरण में जाते हैं. लेकिन............ माँ को इंतज़ार हैं , उसका ........ जो उनको मोक्ष प्राप्ति कराए,  माँ के ऐसे लाडलों से, आज गंगा की सिसक सुनाई देती हैं ..... हर पल..हर......लहरों पर आखिर कब तक.... हम अपने बुरे कर्म से, मुक्ति के लिए, उनका सहारा लेगे आखिर कब तक....... हम अपने पापों से उनको तारेगे, इस नव वर्ष भी ना जाने कितने, हरि..... हरिद्वार

शेखर जोशी

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हमारे पसंदीदा कहानीकार शे खर जोशी ‘कोसी का घटवार’, ‘दाज्यू, ‘बदबू’ जैसी कालजयी कहानियों के लिए जाने जाते हैं। इधर पिछले दिनों शे खर दा बीमार पड़े। पता चला मस्तिस्क में दो जगह ब्रेन हैमेरेज है। आपरे श न के सिलसिले में अस्पताल में रहे। जैसा कि शे खर दा ने बताया कि अस्पताल मे उनके बगल में अवध के एक मुस्लिम किसान भी थे। शे खर दा उनसे बात करने के लिए कोई सूत्र ढूढ रहे थे जो आखिर मिल ही गया। इस कविता में पहाड़ के एक किसान की अवध के किसान से दिलचस्प बतकही है जिसमें कहानी का आनन्द भी है। वैसे यह कविता ‘कथन’ पत्रिका के जनवरी-मार्च 2012 अंक में प्रकाशित हुई है, लेकिन शे खर दा से हुई बातचीत के आलोक में ‘पहली बार’ में इस कविता को साभार प्रस्तुत करने का मोह संवरण नहीं कर पाया। एक और महीन-सी बात जो किसी भी रचनाकार के लिए एक सबक हो सकती है। पहले इस कविता की पॉचवीं पंक्ति में शे खर दा ने ‘बेटी का विवाह’ लिखा था। लेकिन बाद में सम्पादक संज्ञा जी को फोन कर इसमें एक सुधार करवा कर उन्होंने इसे ‘बेटी का निकाह’ करा दिया, जिससे कि जिन्दगी भर यह घटना एक याददास्त के तौर पर तरोताजी बनी रहे। यह

अजय कुमार पांडेय

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बच्चे के दांत   यह जो बच्चा सामने बैठा है मुँह बाये हॅंस रहा है, इसके दो दॉंत  ऊपर, दो दॉंत नीचे उगे हैं - फर्श से उठ कर खड़े  होने की को शिश में हर बार गिरा जा रहा है। कल मैंने इसे खड़ा करने के लिए उॅंगली पकड़ाई इसने पकड़ कर काट लिया मैंने इसके मुँह से झट उॅंगली खींची -हॅंसने लगा आज फिर मुझे देख कर यह हॅंस रहा है और ये अंकुरित दो जो ड़ी बाहर को दिखते शरारती दॉंत जो मेरी उॅंगली में गड़ रहे हैं मॉं की छाती में दूध बन कर बह रहे हैं ।  बच्चे कल दो बच्चों ने खेलते हुए लड़ाई कर ली आज फिर खेल रहे हैं क्यों न यह दुनिया इनके हवाले कर दें !  बेटी आई है बेटी मायके आई है मॉं के ऑंचल में बहने लगी है नदी। सोच मैं सोचता हूँ बिना सोचे कुछ नहीं होता मैं सोचता हूँ सिर्फ सोचने से कुछ नहीं होता।  नई साजि श किसी ने कहा- तुम मुस्कुराती हो तो फूल खिलते हैं और हॅंसती हो तो मोती झड़ते हैं।. किसी ने  तुम्हें कमलनैनी कहा तो किसी ने मृगनैनी। किसी को तुम्हारी नासिका सुग्गे की चोंच सी लगी तो किसी को तुम्हारे होठ म

रामजी तिवारी

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बुखार हरीश बाबू की पहचान धुनों के पक्के आदमी की थी । अपने मित्रों के बीच वे इसी नाम से जानें जाते। हाँलाकि हरीश बाबू इन विशेषणों को बहुत महत्व नहीं देते और बड़ी सादगी से कहते - ‘‘ईश्वर ने हमें आदमी बनाया है और हमें वही रहना है न उससे अधिक और न उससे कम।’’ लेकिन देखने वाली बात यह थी कि जिस प्रकार हरीश बाबू अपने मित्रों द्वारा नवाजे गये विशेषणों पर ध्यान नहीं देते , उसी प्रकार उनके मित्र भी बगैर उनकी परवाह किये उनके नाम के आगे और पीछे अपने दिमाग द्वारा गढ़े गये विशेषणों को चिपका ही देते। रेल की नौकरी में रहते हुए उनकी एक धुन बहुत प्रसिद्ध हुयी भी। ‘‘शराफत और ईमानदारी की धुन’’। मजाल क्या कि इसकी कभी कोई लय, कोई ताल या कोई मात्रा उनसे छूटी हो। इन्हें बजाने का जब भी अवसर आता, वे पूरी तन्यमता से निभाते। परन्तु आस्तीने तो मित्रों के भीतर भी होती है, किसी ने ऊँचा आसन दिया तो किसी ने उसी के नीचे आग सुलगा दी। ऐसी ही एक आग उन्हें बेहद सालती थी। ‘‘यह समय शरीफ और ईमानदार लोगों का समय नहीं है।’’ हरीश बाबू को लगता ‘‘किसी ने उनकी आत्मा के ऊपर अँगार रख दिया हो।’’ उन्होंने इसका जवाब द

राजेश जोशी

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नाम में क्या धरा है चेहरे याद रहते हैं और आजकल लोगों के नाम मैं अक्सर भूल जाता हूँ वह जो कुछ देर पहले ही मिला बहुत तपाक से और बातें करता रहा देर तक पच जाता है दिमाग पर उसका नाम याद नहीं आता मन ही मन अपने को समझाता हूँ कि इसमें कुछ भी अजीब नहीं दुनिया के लगभग सारे कवि भुलक्कड़ होते हैं कवि का काम है सृष्टि की अनाम रह गयी चीजों को नाम देना पहले ही रख दिये गये नामों को याद रखना मेरा काम नहीं कवि तो कभी भी अपनी एक रहस्यमयी भाषा में पेड़ों परिन्दों और मछलियों से जब चाहे बतिया सकता है वह हवा की दीवार पर दस्तक देकर पत्थरों से कह सकता है कि दरवाजा खोलो और मुझे अंदर आने दो वह मक्खी की उदासी को पढ़ सकता है और लौट कर जाती हुई चीटिंयों की कतार से उनके घर का रास्ता पूछ सकता है लगभग तीस बरस बाद मेरे घर आया बचपन का एक दोस्त दरवाजे पर खड़ा है और रट लगाये हुए है कि पहले मेरा नाम बता तभी मैं आऊँगा घर के भीतर मैं बताता हूँ उसे बचपन की दर्जनों बाते कि हम स्कूल में साथ साथ पढ़ते कि तूने गणित की कापी का पन्ना फाड़ कर हवाई जहाज बना दिया था कि तेरी उस दिन बहुत पिटाई हुई

कैलाश झा किंकर

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कैलाश झा किंकर की ग़ज़लें परिचय कैलाश किंकर का जन्म बिहार के खगड़िया जिले में १२ जनवरी १९६२ ई को हुआ. शिक्षा एम ए, एल एल. बी. प्रकाशित कृतियाँ- 'सन्देश', 'दरकती जमीन', 'चलो पाठशाला' (सभी कविता संग्रह), 'कोई कोई औरत' (खंड काव्य) 'हम नदी के धार में', 'देख कर हैरान हैं सब', 'जिंदगी के रंग हैं कई' (सभी गजल संग्रह), देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं और गजलों का प्रकाशन. संपादन- 'कौशिकी' त्रैमासिक और 'स्वाधीनता सन्देश' (वार्षिकी) का संपादन. दुष्यंत कुमार के पश्चात हिंदी गजल को एक नया आयाम प्रदान करने में कैलाश किंकर का नाम महत्त्वपूर्ण है. सरल भाषा में तीखी से तीखी बात कह देना किंकर की खासियत है. किंकर एक आम आदमी की ही तरह चुनाव और लोकतंत्र की विडम्बनाओं से भलीभाति परिचित हैं. वे बड़ी साफ़गोई से कहते हैं की मोल भाव का समय आ गया है. जाति पांति के जूनून को उभार कर लोगो को जातीय तौर पर उकसाने का समय है. जिस लोकतंत्र का सपना हमारे पुरखो ने देखा वह हमारा आज का लोक तंत्र तो नहीं ही हो सकता. कही

विस्लावा शिम्बोर्स्का

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वि स्लावा   शिम्बोर्स्का   (चित्र- विस्लावा सिम्बोर्सका, गूगल से साभार )  मृत्य पर , बिना अतिशयोक्ति -------------------------- झेल नहीं सकती एक कहकहा ढूंढ नहीं सकती कोई तारा बुनाई , खनाई , खेती का इसे कुछ पता नहीं जहाज बनाने या केक पकाने का तो सवाल ही नहीं लेकिन कहना न होगा कि कल की हमारी सारी तैयारियों पर आख़िरी मुहर उसी की होती है इसे तो कुछ उन कामों का भी शऊर नहीं जो इसी के बिजनेस का हिस्सा है जैसे कब्र खोदना कफ़न बनाना और अपने तशरीफ लाने बाद की साफ़ सफाई जूनून में खून भी करती है हबड़ तबड़ में ढब नहीं, कोई ढंग नहीं , जैसे हम में से हर एक पहिलौठा शिकार हो उस का जरूर, कई निशाने अचूक होते हैं लेकिन चूक भी जाते हैं अनगिनत देखिये देखिये वे टेक- रीटेक खम्भे नोचना कई दफे तो मक्खी तक उडाये नहीं उड़ती इल्लियां तक चकमा दे जाती हैं तितलियाँ बन कर देखिये ये तमाम बिखरी हुयी घुन्डियाँ , फलियाँ , स्पर्शक , मछलियों के पखुड़े, खाइयां , शादियों के मौर , ऊन के रोयें ... आधे अधूरे मन से किये गए नाकाम कामों के निशान हम भी आखिर कितनी मदद

प्रज्ञा पाण्डेय

प्रज्ञा पाण्डेय स्त्री की देह भी अपनी नहीं आज के समय में या आज से पहले देह से बाहर स्त्री का कोई अस्तित्व न था और न है ! हाँ ! पत्थर युग में था! स्त्री तब अपने आदिम गुणों के साथ मौजूद थी. आज की सामाजिक जटिलताओं में हर जगह स्त्री देह के रूप में ही मिलती है ! निश्चित रूप से समाज के जटिल होने की यह एक बड़ी वजह लगती है ! समाज, परिवार, राजनीति, व्यवसाय, नौकरी जहाँ भी स्त्री है वहाँ वह स्वतन्त्र अस्तित्व के रूप में नहीं बल्कि देह के रूप में है ! यदि वह देह के बाहर आकर अपनी ऊर्जा से स्वप्न रचना चाहती है, मर्दवादी व्यस्था को तोड़कर सिर्फ मनुष्य बनती है, आकाश कुसुम तोड़ने के लिए अपनी शक्ति और सौन्दर्य से जीवन के ताने बाने रचने का साहस करती है तो रास्ते से हमेशा के लिए हटा दी जाती है यानि मार दी जाती है ! एक नहीं अनेकों बार यही हुआ है, हो रहा है और फिलहाल होते रहने के आसार भी सारे खतरों के साथ हर जगह मौजूद हैं ! स्त्री यदि खूबसूरत है यानि दैहिक सौन्दर्य के सारे मानदंड (जो पुरुषों द्वारा बनाये गए हैं) यदि उस पर खरे उतरते हों और इसके साथ ही साथ वह स्वप्न भी पाल रही हो और अपने अधिका