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श्रीविलास सिंह की कहानी 'अलाव'

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  अक्सर यह कहा जाता है कि स्त्री और पुरुष एक ही गाड़ी के दो पहिए की तरह होते हैं जिनसे जीवन की गाड़ी आगे बढ़ती है। लेकिन यह सच कुछ तिलिस्मी सा लगता है। दरअसल महिलाओं का जीवन अंतहीन संघर्ष का जीवन होता है। शोषण और उत्पीड़न उनके जीवन की कहानी होती है। पुरुषवादी सोच हमेशा आधिपत्यवादी नजरिए से सोचती और महसूस करती है। श्री विलास सिंह एक बेहतरीन कवि और कथाकार हैं। उन्होंने दुनिया के उस साहित्य को सामने लाने का काम किया है जिससे हिंदी की दुनिया अपरिचित थी। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  श्रीविलास सिंह की कहानी 'अलाव'। 'अलाव' श्रीविलास सिंह  "मेरा नाम कमली है। उम्र चौबीस साल। बाप का नाम दशरथ और  पति का नाम रमेश। गाँव रजापुर, थाना घसिया। इस गाँव में मेरी ससुराल है।” “पहले मेरी ससुराल के अधिकांश लोग गाँव के जमीदार विक्रम सिंह के यहाँ ही काम करते थे। लेकिन मेरा पति रमेश अपनी थोड़ी सी खेती बाड़ी करने के  बाद खाली समय में शहर में काम करता है। मेरा जेठ ददन और उसके घर वाले अभी भी विक्रम सिंह के यहाँ ही काम करते हैं।" उसने अपने बारे में विवरण दिया।  अपना बयान दर्ज कराते हुए व

विकास डोगरा की कविताएं

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  विकास डोगरा कवि की कल्पना उसे औरों से अलहदा बनाती है। रोशनी के जन्म के बारे में तो हम सब जानते हैं लेकिन अंधेरे का जन्म कैसे होता है? यह सवाल जब किसी कवि के मन मस्तिष्क में कौंधता है, तो यह अपने आप में स्पष्ट कर देता है कि कवि और उसकी सोच औरों से बिलकुल अलग है। सवाल करना सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। सवाल कैसा है और किस प्रवृत्ति का है यह कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। विकास डोगरा के पास सवाल के साथ साथ कवि का धैर्य और संयम है। वे चुपचाप कविताएं लिखते रहे हैं। छपने की कोई हड़बड़ी उनके पास नहीं। कवि मित्र कमलजीत की नजर विकास के कवि कर्म पर पड़ी और तब उनकी कविताएं हमें प्राप्त हुईं। विकास एक उम्दा फोटोग्राफर भी हैं। उनकी कविताओं के साथ हम उनके फोटोग्राफ्स भी यहां पर दे रहे हैं। विकास की इन कविताओं के साथ हम कमलजीत चौधरी की एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी भी दे रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विकास डोगरा की कविताएं। ये कविताएँ; एक ऐसे सुन्दर छायाकार और जीव विज्ञान के प्राध्यापक की हैं, जो अच्छी कविताओं को घण्टों सुन सकते हैं। उन पर बड़ी सूक्ष्मता और स्नेह से बात कर सकते हैं। उनका स्वभा

मनोज शर्मा द्वारा की गई समीक्षा 'समय के साख़ी : विशेषांक पर एक टिप्पणी'

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आज के समय में खुल कर खुद को अभिव्यक्त कर पाना एक दूभर सी बात है। खासकर बात जब कवियों की हो, तो यह मुश्किल और बढ़ जाती है। हर व्यक्ति की अपनी सीमा होती है इस आप्त वचन को स्वीकार करते हुए भी जो सीमाओं को तोड़ने का साहस करता है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। मनोज शर्मा खुद एक कवि हैं और उन्होंने समय के साखी के विशेषांक को अपने नजरिए से देखने की एक महत्त्वपूर्ण कोशिश की है। कई जगह उनका बेबाकपन अचंभित करता है। बहरहाल उनकी समीक्षा से आप असहमत भी हों तो उसे इसलिए पढ़िए कि अपनी असहमतियां किस तरह मजबूती के साथ दर्ज कराई जा सकती हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं मनोज शर्मा द्वारा की गई समीक्षा 'समय के साख़ी : विशेषांक पर एक टिप्पणी' समय के साख़ी : विशेषांक पर एक टिप्पणी मनोज शर्मा हिन्दी कविता की दुनिया में साहित्यिक पत्रिकाओं के विशेषांक आते रहते हैं। आमतौर पर यह विशेष कवियों तक सीमित रहते हैं। मगर कई बार महत्वपूर्ण अंक भी देखने में आते हैं। आरती जी के संपादन में निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका; 'समय के साखी' का युवा कविता (इक्कसवीं सदी के कवि) विशेषांक आया है। यह अलग-अलग राज्यों