उपासना की कहानी 'कार्तिक का पहला फूल'

उपासना उपासना की कहानियाँ हमें सहज ही आकृष्ट करती हैं । सामान्य जीवन अपने जिस रूपमें होता है उसे शब्द-चित्र में ढालना इतना आसान कहाँ होता है । लेकिन उपासना इसी मायने में तो कामयाब कहानीकार हैं कि वे अपनी काव्यमयी भाषा में सब इतनी आसानी से कह देती हैं कि हम ख़ुद उसमें प्रवहित होने लगते हैं । इसी तरह की कहानी है 'कार्तिक का पहला फूल' । उपासना की कहानियों में देशज शब्द इतने सहज रूप में आते हैं कि जैसे बहुत दिनों से अपनी जुबान पर अंटके हुए हों और उन शब्दों को पढ़ कर जैसे हमारी अभिव्यक्ति को वाणी मिल गयी हो । तो आइए पढ़ते हैं उपासना की कहानी 'कार्तिक का पहला फूल' । कार्तिक का पहला फूल उपासना कमरे में खामोशी की सरगोशियाँ थीं। सरगोशियों में सपनों की छटपटाहट थी। सपनों में स्मृतियाँ ही बचीं थीं अब। बुढ़ापा उम्र का रेस्ट हाउस था। ओझा जी को लगता था कि जिंदगी धागे की एक रील है। जिस दिन पूरी उधड़ जाए उसी दिन खत्म हो जाएगी। घड़ी टिक-टिक की रफ्तार से बढ़े जा रही थी। खिड़की से सूरज का एक नर्म-गर्म टुकड़ा कमरे में बिखरा था। बाहर हल्की हवा के साथ धूल भी थी। कार्...