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मार्कण्डेय का आलेख 'मेरी कथा यात्रा'

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किसी भी रचनाकार के लिए अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बात करना बहुत आसान नहीं होता. समय का एक-एक रेशा चुपके से किसी भी लेखक के लेखकीय व्यक्तित्व की निर्मित्ति में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता चला जाता है. और इसी धरातल पर वह वितान निर्मित होता है जिसे हम रचनाकार के नाम से जानते हैं. इस प्रकार किसी भी लेखक के ‘ लेखन ’ में उसके ‘ देखन ’ की अहम भूमिका होती है. नयी कहानी आंदोलन के प्रणेताओं में से एक मार्कन्डेय जी खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनके लेखन में कल्पना की जगह अनुभव यानी ‘ देखन ’ का हमेशा प्रमुख स्थान रहा. यही इस नयी कहानी आंदोलन की खासियत भी थी. एक अरसा पहले इलाहाबाद के महत्त्वपूर्ण दैनिक पत्र ‘ अमृत प्रभात ’ में हमारे प्रिय कहानीकार मार्कन्डेय जी ने सारगर्भित लेख ‘ मेरी कथा यात्रा ’ के माध्यम से अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में विस्तृत प्रकाश डाला था. किसी भी नए-पुराने रचनाकार के लिए यह आलेख एक धरोहर की तरह है. २ मई को उनके जन्मदिन के अवसर पर हम तीन कड़ियों में उन पर सामग्री प्रस्तुत करेंगे. इसी क्रम में पहली कड़ी के अंतर्गत प्रस्तुत है खुद मार्कण्डेय जी की ज़ुब

भरत प्रसाद

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भरत प्रसाद ने आलोचना के साथ-साथ कविताएँ और कुछ कहानियां भी लिखीं हैं. ‘का गुरू’ भरत की एक नवीनतम व्यंग्परक कहानी है जिसमें उन्होंने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त दुराचारों को अपनी कहानी का विषय बनाया है. भरत खुद भी पूर्वोत्तर विश्वविद्यालय शिलांग में हिन्दी के एक प्रोफ़ेसर हैं और वे इस बुद्धिजीवी समुदाय में व्याप्त अनाचारों दुराचारों से भलीभांति अवगत हैं. किस तरह ये प्रोफ़ेसर शोध कराने के नाम पर अपनी शोध छात्राओं का शोषण करते हैं इसकी एक बानगी इस कहानी में प्रस्तुत है. का गुरू ! आपने, उसने, हम सब ने गुरू की एक से बढ़कर एक परिभाषाएँ पढ़ी, सुनी और कंठस्थ की होंगी। मसलन गुरूर् ब्रह्मा गुरूर् विष्णु, गुरूर् देवो............। या फिर ‘गुरू, गोविन्द दोऊ ख़ड़े..........। जरा ठहरिए एक सेकेण्ड तो......... भक्त सूरदास ने भी गुरुजी पर रमकर गाया है - ‘श्री बल्लभ नख-चन्द्र छटा बिनु, सब जग माहीं अंधेरो।’ मगर वे तो हुई पुरानी बातें, गयी-बीती कहावतें। अब कहाँ ऐसे शिष्य, और कहाँ ऐसे...........? आजकल गुरु लोग बनिया हो गये हैं - रुपया गिनते हैं। दुकानदारी चमका लिए हैं - बुद

विपिन चौधरी

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आज का हमारा यह दौर रचनात्मक रूप से इतना उर्वर दौर है जितना पहले शायद कभी नहीं रहा. विपिन चौधरी युवा कविता और कहानी के क्षेत्र में एक ऐसा ही नाम है जिन्होंने अपनी रचनाधर्मिता से गहरे तौर पर प्रभावित किया है. यह विपिन जी के कवि मन की सामर्थ्य ही है कि आज जब सभी चकाचौंध के पीछे बेतहाशा भाग रहे हैं, वह एक रफूगर के हूनर को देख कर सृजित करता है फटी चीजों से बेइंतिहा प्रेम. कुछ अलग होने का जोखिम ही तो किसी को भी सामान्य से अलहदा बनाता है. आज जब संवेदनाएं दिन-ब-दिन छीजती जा रहीं हैं, ऐसे में वह रसूल रफूगर जैसे सामान्य जीवन जीने वाला व्यक्ति ही है जो अपनी अंटी से पच्चास रुपया निकाल कर राम दयाल पंडित को बेहिचक देता है और अपने फांके की छांह में सुस्ताने चला जाता है. यह रफूगर अपने काम को इतनी संजीदगी के साथ करता है कि फटे कपडे के दो छोर रफू के लिए मिलाते हुए वह धर्मगुरुओं के मैत्री सन्देश से आगे बढ़ जाता है. विपिन की कविता ‘रसूल रफूगर का पैबंदनामा’ पढते हुए यहाँ हमें सहज ही याद आते हैं भक्त कवि रैदास, जो अपने काम में मशगूल हो कर कह उठते हैं ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा.’ दरअसल सामान्य क

केशव तिवारी

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लोक धर्मी कविताओं की जब भी बात आती है केशव तिवारी का नाम जरूरी तौर पर लिया जाता है. केदार नाथ अग्रवाल की जमीन बांदा में रहते हुए केशव ने कविता की जो जोत जला रखी है उसका प्रकाश अब दूर दराज तलक दिखाई पडने लगा है. केशव के अब तक दो कविता संग्रह ‘ इस मिटटी से बना ’ और ‘ आसान नहीं विदा कहना ’ प्रकाशित हो चुके हैं. इस कालम ‘ समालोचना ’ के लिए हमने केशव की कविताओं पर अपने एक अन्य कवि मित्र महेश चंद्र पुनेठा से टिप्पणी लिखने का आग्रह किया जिसे उन्होंने बेहिचक स्वीकार कर लिया. केशव की कविताओं का चयन भी उन्हीं का है. इसके पीछे हमारा यह मंतव्य है कि हम अपने समय के एक कवि के बारे में दूसरे कवि के विचारों से अवगत हो सकें. अगली कुछ पोस्टो में भी हम इस परम्परा को जारी रखेंगे.                 केशव तिवारी युवा कवियों में मेरे सबसे अधिक प्रिय कवि हैं। उनके यहाँ मुझे वह सब कुछ मिलता है जो मेरे दृष्टि से एक अच्छी कविता के लिए जरूरी है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए पता चलता है कि कविता की तमाम शर्तों को पूरा करते हुए भी कैसे कविता सहज संप्रेषणीय हो सकती है। कैसे नारा हुए बिना कविता विचार

विमल चन्द्र पाण्डेय

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कुछ नए कहानीकारों जिन्होंने इधर कहानी को फिर से साहित्य की मुख्य विधा के रूप में स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है, उसमें विमल चंद्र पाण्डेय का नाम अग्रणी है. इनके कहानी संग्रह ‘डर’ को ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिल चुका है. जीवन के सरोकारों से जुडी हुई विमल की कहानियाँ पढते हुए बराबर यह एहसास होता है कि अरे यह तो हमारी ही कहानी है. किस्सागोई इनकी कहानियों के मूल में होती है, जो पाठक को लगातार अपने से बांधे रहती है. और कहीं क्षण भर के लिए भी उबन पैदा नहीं करती. प्रस्तुत कहानी ‘उत्तर प्रदेश की खिडकी’ भी ऐसी ही कहानी है जो बड़ी बारीकी से हमारी सामाजिक विडंबनाओं के साथ साथ राजनीतिक विडंबनाओं की पडताल करती है. कहानी के अलावा विमल ने कुछ बेहतरीन कवितायें, फिल्मों पर गंभीर आलेख और समीक्षाएँ भी लिखीं हैं. मूलतः पत्रकारिता के पेशे से जुड़े हुए विमल आजकल फिल्मो के निर्माण में व्यस्त हैं. उत्तर प्रदेश की खिड़की (प्रिय मित्र सीमा आज़ाद के लिए) प्रश्न - मेरे घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं है और मेरे पिताजी की नौकरी छूट गयी है। वो चाहते हैं कि मैं घर का खर्च चलाने के