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मधु कांकरिया की कहानी 'वह भी अपना देश है'

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  मधु कांकरिया            मनुष्य को मनुष्य से जोड़े रखने के लिए एक मजबूत तंतु है 'मनुष्यता'। यह जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र सबसे मजबूत तंतु है। मनुष्यता की राह में इनमें से कोई भी आड़े नहीं आता।  अन्ततः जीत मनुष्यता की ही होती है। मधु कांकरिया एक बेजोड़ कहानीकार हैं। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने एक उम्दा कहानी लिखी है 'वह भी अपना देश है'। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं मधु कांकरिया की कहानी 'वह भी अपना देश है'। वह भी अपना देश है       मधु कांकरिया     वे ढाका के अनमने से दिन थे। बंद दरवाज़े सा बंद जीवन। न कोई दस्तक , न कोई पुकार। सुबह थोड़ी कम सुबह होती। उसका मिजाज गायब रहता। दोपहर बहुत ज्यादा दोपहर होती थी - नीरस , अंतहीन दहकती , कुतरती! बाहर कुत्ता रोता था भीतर   मैं। उदासी की चादर में लिपटी स्याह काली रात बड़ी और नींद छोटी होती थी। न ढले , न बीते , न रीते। कोलकाता में थी तो दोपहर कभी इतनी एकाकी न थी पर ढाका की दोपहर ने मुझे एकदम हताश और एकाकी बना छोड़ा था और उस पर कोरोना का कहर! कुछ बड़े पेड़ गिर गए ...