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शेष नाथ पाण्डेय

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शेष नाथ पाण्डेय से मेरा परिचय बतौर एक कहानीकार रहा है. लेकिन शेष नाथ की कविताएँ पढ कर ऐसा लगा कि इस कहानीकार के अन्दर एक कवि रहा करता है. रोजी-रोजगार के जद्दो-जहद से गुजरते हुए कैसे एक युवा को उस व्यवस्था के तथ्यों के बारे में रट्टा मारना पड़ता है जिससे आम तौर पर वह सहमत नहीं होता. यह राजनीति का ही कमाल है जिसके लिए दिल्ली नजदीक है लेकिन आम आदमी के लिए दिल्ली कोसो दूर. कुछ इसी तरह के मनोभावों को लिए प्रस्तुत है शेष नाथ की नवीनतम कविताएँ. बेदखल अब जब थकी सांसे बची हैं और गुजरना है ज़िंदगी के असली इम्तिहान से! माफ करिएगा और असली की जगह आखिरी पढ़िएगा क्योंकि यहाँ मैं कमाकर लिखने और जीने की बात कर रहा हूँ. खैर! जब गुजरना है आखिरी इम्तिहान से तब ज़रूरी नहीं मैं उन कड़वी घूँटों की शिनाख्त करूं जो तुम्हें पुकारते-पुकारते चीख में बदल गई मेरी छाती की थकान वर्षों से मीलों चलते पैरों की कराह में बदल गई फिर भी यह पूछना पड़ जाता नदी ने अपना रास्ता बनाया या मीठी लय में ठुकरा दी गई कवच युक्त चट्टानों से? जो वक्त, जो उम्मीद, जो सपने खरचने थे अपने कमाने...