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अकिन्वाड़े ओलुबोले शोयिंका की कुछ कविताएँ

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  शोयिंका पश्चिमी दुनिया की इस बात के लिए प्रायः तारीफ की जाती है कि वे स्वतन्त्रता और समानता में विश्वास रखते हैं। लेकिन यह अधूरा सच है। रंग और नस्ल के आधार पर वे खुद को औरों से श्रेष्ठ समझते हैं। सभी अश्वेत उनके लिए काले हैं और काले होने की वजह से असभ्य हैं। इन असभ्य लोगों को कभी सभ्य बनाने का ठेका इन सभ्य लोगों ने ही लिया था और इनके लिए एक टर्म गढ़ा 'व्हाईट्स मैन बर्डन'। खुद को सभ्य कहने वाले  इन यूरोपीय लोगों ने  अपने उपनिवेशों की  खुली लूटपाट की।  अफ्रीका इन औपनिवेशिक देशों की लूटपाट का खुला स्थल बन गया।  अश्वेत अफ्रीका की परंपरा, संस्कृति और धार्मिक विश्वास में युगों-युगों से रचे-बसे मिथकों की काव्यात्मकता और उनकी नई रचनात्मक सम्भावनाओं को शोयिंका ने ही पहली बार पहचाना। प्राचीन यूनानी मिथकों की आधुनिक यूरोपीय व्याख्या से प्रेरित हो उन्होंने योरूबा देवमाला की सर्वथा नई दृष्टि से देखा। सोयिंका की रचनाएं, "संस्कृति और नागरिकता", नागरिकता और संस्कृति के मुद्दों की पड़ताल करती है और यह बताती है कि कला के कार्यों को किसी देश या संस्कृति के लिए कैसे प्रासंगि...

तारसप्तक के कवि प्रभाकर माचवे से विनोद दास की बातचीत

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प्रभाकर माचवे  तार सप्तक का प्रकाशन हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इसमें ऐसे कवियों को शामिल किया गया जिनकी कविताओं में उस समय का स्वर था। तार सप्तक के प्रकाशन का श्रेय अज्ञेय को है हालांकि इसके योजनाकारों में  प्रभाकर माचवे प्रमुख थे। अलग बात है कि आज हम प्रभाकर जी को तार सप्तक के कवि के रूप में जानते हैं।  प्रभाकर माचवे का लेखन विपुल है हालांकि उसका प्रकाशन न हो पाने से वे खुद क्षुब्ध रहे। लगभग दो सौ कहानियां लिखने के बावजूद उनका कोई संग्रह नहीं छप सका। प्रभाकर जी स्पष्टवादी थे। विनोद दास से एक बातचीत में प्रभाकर जी कहते हैं मुक्तिबोध के जीवन काल में उनकी घोर उपेक्षा करने वाले आज जिस तरह उनके नाम पर कमा रहे हैं या उनका झण्डा उठाए हैं और उसे आउटसाइज़ या महामानव सिद्ध कर रहे हैं, यह सब झूठ है। जो लोग उनके जीवन काल में उन्हें जरा सा भी नहीं जानते थे, वे आज सहसा मुक्तिबोध संप्रदाय के पुरोधा कैसे बन गए हैं?' विनोद दास ने प्रभाकर जी से 1982 में एक बातचीत किया था। आज भी यह बातचीत प्रासंगिक है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते ...

विनोद दास की किताब पर शर्मिला जालान की समीक्षा

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  संस्मरण अपने आप में एक दस्तावेज की तरह होते हैं। इसमें उस समय की प्रतिध्वनियां भी करीने से दर्ज होती हैं। विनोद दास के संस्मरणों किताब 'छवि से अलग' हाल ही में प्रकाशित हुई है। इस किताब में अपने समय के पन्द्रह ख्यातनाम लोगों के बारे में विनोद जी के ऐसे संस्मरण हैं जिनसे एक दौर की मुकम्मल तस्वीर गढ़ी जा सकती है। इन आत्मीय संस्मरणों के साथ सन्नद्ध विनोद जी स्वयं तो हैं ही।  शर्मिला जालान ने इस किताब को पढ़ते हुए एक समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विनोद दास की किताब 'छवि से अलग' पर शर्मिला जालान की समीक्षा संस्मरणों की दुनिया में एक आत्मीय यात्रा'। 'संस्मरणों की दुनिया में एक आत्मीय यात्रा' शर्मिला जालान विनोद दास जी की संस्मरणों की नवीनतम पुस्तक 'छवि से अलग' को मैंने उपन्यास की तरह पढ़ा है। उपन्यास में जैसे हम एक नगर बसाते हैं और उसमें तरह-तरह के चरित्रों का सृजन करते हैं-जिनके उजले और स्याह पक्ष होते हैं, सफलताएँ और दुर्बलताएँ होती हैं-वैसे ही यहाँ लेखकों का एक विस्तृत संसार हमारे सामने खुलता है। उनकी विडंबना और अंतर्विरोधों को जान प...

विनोद दास का संस्मरण 'बिना ताले का घर : अशोक सेक्सरिया'

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  अशोक सेकसरिया अशोक सेकसरिया ने समृद्ध घर में जन्म लेने के बावजूद जो सादगी भरा जीवन वरण किया था वह आज किंवदंती सरीखा लगता है। निर्लिप्त हो कर जीवन जीना आसान नहीं होता। अशोक जी ने इसे अपने जीवन में सम्भव किया था। अशोक जी को देख कर मन में सहज ही किसी ऋषि की तस्वीर उभर कर सामने आती है। वे हमेशा सामान्य जन की बेहतरी के लिए सोचने वाले खांटी समाजवादी व्यक्ति थे।  कबीर का एक दोहा अक्सर मेरे जेहन में उमड़ता घुमड़ता रहता है - 'साईं इतना दीजिए जानें कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय।।' आज जब धन लिप्सा लोगों का ध्येय और प्रेय बनी हुई है ऐसे में कबीर का यह दोहा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। अशोक सेकसरिया कबीर के इस पथ के ही अनुगामी थे। कवि सम्पादक विनोद दास को लम्बे समय तक अशोक जी का सान्निध्य मिला। उन्होंने अशोक जी के संस्मरण को आत्मीयता के साथ शब्दबद्ध किया है। कल 29 नवम्बर 2014 को अशोक जी की दसवीं पुण्य तिथि पर हमने शर्मिला जालान का संस्मरण प्रस्तुत किया था । इसी शृंखला में आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं विनोद दास का संस्मरण 'बिना ताले का घर : अशोक सेक्स...