प्रतुल जोशी का आलेख 'पिता के बारे में पढ़ते हुये'

 

पिता के बारे में पढ़ते हुये


प्रतुल जोशी


कोई भी पुत्र अपने पिता को जन्म से ही जानता है। पिता यदि एक साधारण गृहस्थ हो तो उन्हें जानना भी आसान हो सकता है। लेकिन पिता ने यदि अपने जीवन में कुछ असाधारण किया हो, तो कई बार पिता के व्यक्तित्व के सभी पक्षों को जानना पुत्र के लिये भी सम्भव नहीं होता। ऐसे में किसी अन्य स्रोत से अपने पिता के बारे में जानने का अवसर प्राप्त होता है तो सुखद आश्चर्य हो सकता है।


कुछ ऐसे ही अनुभवों से गुज़रने का अवसर मुझे मिला जब मुझे पिछले दिनों अपने छोटे भाई के प्रकाशन संस्थान "नवारूण प्रकाशन" से प्रकाशित पुस्तक "शेखर जोशी : कुछ जीवन की, कुछ लेखन की" पढ़ने का मौका मिला। कथाकार, उपन्यासकार एवं एक लम्बे अर्से तक हिन्दी के समाचार पत्रों में सम्पादक रहे नवीन जोशी इस पुस्तक के लेखक हैं। पिछले 09-10 सितम्बर को इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागराज) में सम्पन्न "शेखर जोशी आयोजन" में इस पुस्तक का लोकार्पण भी हुआ था। लखनऊ निवासी नवीन जी का सम्पर्क पिता जी से वर्ष 1979 से प्रारम्भ हुआ था, जब आप लखनऊ में कुमायूंनी संस्कृति के चयन के लिये बनी एक संस्था "आंखर" के सक्रिय सदस्य थे एवं पिता जी की कहानी "दाज्यू" के मंचन के लिये आपने एक औपचारिक पत्र भेजा था। 'दाज्यू' समेत चार कहानियों का मंचन देवेन्द्र राज अंकुर जी के निर्देशन में वर्ष 1984 में लखनऊ में हुआ था।


वर्ष 1979 से स्थापित सम्पर्क में ज्यादा प्रगाढ़ता तब आयी जब वर्ष 1992 से मैं लखनऊ में आकाशवाणी में पदस्थ हो गया और पिता जी का लखनऊ आना-जाना काफी होने लगा। वर्ष 2012 में हम लोगों की माता जी की मृत्यु के पश्चात् पिता जी स्थायी रूप से हमारे परिवार के साथ लखनऊ में आ कर रहने लगे। इस स्थायित्व ने नवीन जी को पिता जी के व्यक्तित्व और लेखन कर्म को बेहद नज़दीक से जानने-समझने का मौका दिया।


समीक्ष्य पुस्तक "शेखर जोशी : कुछ जीवन की, कुछ लेखन की" में कुल जमा एक दर्जन अध्याय हैं। इस किताब की भूमिका भी नवीन जोशी जी ने ही लिखी है। पुस्तक का पहला अध्याय 'परकाया प्रवेश की कुछ दक्षता मुझमें रही। पिताजी का लम्बा साक्षात्कार है जिसे नवीन जी ने उनके देहावसान (दिनांक 04 अक्टूबर, 2022) से कुछ समय पूर्व ही पूरा किया था। इस तरह यह पिता जी का किसी भी लेखक के द्वारा लिया गया अन्तिम साक्षात्कार है। इस साक्षात्कार के माध्यम से पिता जी के जीवन के बचपन से ले कर उनके साहित्यकार बनने तक की पूरी यात्रा लगभग 38 पृष्ठों में समाहित है। इस साक्षात्कार से पिता जी के साहित्य के कुछ अत्यन्त अधूरे पक्षों का उद्घाटन होता है। जैसे उनकी प्रसिद्ध कहानी "कोसी का घटवार" की पूर्वपीठिका क्या है? पिता जी बताते हैं कि उनकी पहली कहानी 'राजे खत्म हो गए' (रचनाकाल : 1951 या 1952) में ही "कोसी का घटवार" का बीज मौजूद था। 'राजे खत्म हो गए' द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका पर आधारित कहानी है। दूसरे विश्व युद्ध का पिता जी पर गहरा प्रभाव पड़ा। जब वह मात्र 09-10 वर्ष के थे तो उन्होंने देखा कि उनके गांव के आस-पास से सैकड़ों नौजवान युद्ध के मोर्चे के लिये जाते थे। इसमें से अधिकांश युद्ध में खेत रहे। जब उन नौजवानों को उनकी मातायें, बहने या पत्नियां छोड़ने जाती थीं, तो एक कारूणिक दृश्य उपस्थित हो जाता।


"जहां-जहां बस्ती थी, देखा कि फौजी जवान अपनी चुस्त वर्दी में खड़े हुये हैं, गाड़ी की प्रतीक्षा में। और, उनको विदा देने के लिये उनके परिवार की बहुत सी महिलायें भी वहां थीं। पुरूष कम दिखायी देते थे। उनमें माताएं होंगी, बहनें होंगी, भाभियां होंगी, किसी-किसी की पत्नी भी होगी। जैसे ही गाड़ी आती, फौजी चट से गाड़ी के अन्दर बैठ जाता अपना सामान ले कर और जैसे ही गाड़ी चलती थी, पीछे जो रूलाई फूटती थी. इतनी दर्दनाक कि मेरे बाल मन में वह अमिट रह गयी और यह एक जगह नहीं हुआ। कई जगह इस तरह के दृश्य देखे। और, जो फौज में गये और कभी नहीं लौटे। गांवों में विधवाएं अधिक हो गईं, बहुत से मानव-गिद्ध मंडराने लगे। वह सब मेरा प्रत्यक्ष देखा हुआ था। तो उस कहानी में मैंने एक चरित्र बुढ़िया का लिया जो अपने बेटे का इंतजार कर रही है। उसके पास हर महीने मनीआर्डर आ रहा है। वह एक भ्रम में है कि बेटा जिन्दा है और (वापस) आयेगा, लेकिन बेटा पता नहीं कब शहीद हो चुका है। गांव में एक मंत्री जी आये हुये हैं। उन्होंने दही खाने की इच्छा व्यक्त की।


लोग दही लेने के लिये बुढ़िया के पास पहुंचे। बुढ़िया ने बड़ी खुशी से दही की हांडी उनको पकड़ाई और कहा "मंत्री आये हैं ना, कभी राजा भी आयेगा, हैं! और, मेरा राजा भी आयेगा।" तो, ये कहानी थी। जो नैरेटर है उसमें वह कहता है कि मैंने उससे (बुढ़िया से) कहा कि राजे तो खत्म हो गये हैं। एक तरह से यह कहानी मेरी प्रसिद्ध कहानी "कोसी का घटवार" का बीज है। क्योंकि जो युद्ध से लौटे थे वह भी अन्दर से इतने टूटे हुये थे, अपराधग्रस्त थे कि जिससे उनको कुछ लेना-देना नहीं। उनको उन्होंने छुरा भोंक दिया, गोली मार दी, मार दिया। उनमें से कुछ शराब के नशे में अपने को भुला रहे थे। गुंसाई ऐसे ही पात्रों में से एक है। (पृष्ठ 44-45)


नवीन जी से साक्षात्कार से हासिल हुई यह जानकारी तमाम पाठकों के लिये तो नई होगी ही, मेरे और परिवार के अन्य सदस्यों के लिये भी बिल्कुल नई थी। संतोष चतुर्वेदी द्वारा संपादित "अनहद" के "शेखर जोशी विशेषांक" में किसी लेखक ने यह जरूर रेखांकित किया था कि जहां "उसने कहा था" प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका के प्रभाव से उपजी कथा है तो "कोसी का घटवार" को द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव से उपजी रचना माना जा सकता है। यह साक्षात्कार इसलिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि यह एक लेखक के रचना कर्म और व्यक्तित्व के उन तमाम अनछुए पहलुओं को उद्घाटित करता है जिससे अधिकांश जन अनभिज्ञ थे। इसी तरह इस साक्षात्कार के माध्यम से पचास के दशक के इलाहाबाद का परिदृश्य भी पुनः जीवित हो उठता है, जब इलाहाबाद हिन्दी साहित्य की राजधानी हुआ करता था।


यहां नवीन जी के एक प्रश्न और उत्तर से इस परिदृश्य को समझने में आसानी होगी।

प्रश्न : इलाहाबाद में पचास के दशक में हुये लेखक सम्मेलन के बारे में बताइये कि क्या उद्देश्य था, कितनी भागीदारी थी, उसका क्या प्रभाव पड़ा।


उत्तर : दिसम्बर, 1957 में 3 दिन का एक अखिल भारतीय अभूतपूर्व सम्मेलन हुआ था। इसका आयोजन इलाहाबाद के प्रगतिशील लेखकों ने किया और बनारस से आयोजन समिति में जुड़े डॉ. नामवर सिंह और केदार नाथ सिंह। इसमें जिन लेखकों को आमंत्रित किया गया था उनको यह सूचित कर दिया गया था कि हम आपके आवास की व्यवस्था नहीं कर पाएँगे। भोजन की व्यवस्था अवश्य हम करेंगे। बहुत बड़ी संख्या में लोग अपने खर्चे पर अपने आवास की व्यवस्था करके, मित्रों के यहाँ, इधर-उधर, सम्मिलित हुये थे। तब नये कवि के रूप में श्रीकान्त वर्मा, मुक्तिबोध जी के साथ आये थे। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह और बनारस से बहुत से नये विद्यार्थी और साहित्य में रूचि रखने वाले शामिल थे। सम्मेलन का उ‌द्घाटन ऐनी बेसेंट हॉल में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने किया था, पहले दिन। उसके बाद संगीत समिति के विभिन्न कक्षों में विभिन्न विधाओं के रचनाकारों की बैठकें हुई थीं। जैसे, कहानी विधा पर गोष्ठी की अध्यक्षता यशपाल जी ने की थी। कविताओं की गोष्ठी अलग हुई थी। नाटक वालों की गोष्ठी अलग हुई, आलोचना वालों की अलग। इसके प्रमुख सूत्रधार अमृत राय थे।' (पृष्ठ 37-38)


नवीन जोशी और पिता जी के लेखन और व्यक्तित्व में कई स्तरों पर समानता भी थी। दोनों ने अपना बचपन पहाड़ में बिताया और विस्थापित हो कर उत्तर प्रदेश के अलग-अलग शहरों में अधिकांश जीवन बिताया। जहां नवीन जी पहाड़ में अपने गांव से निकल कर लखनऊ आये और फिर लखनऊ के हो कर रह गये। (यद्यपि नौकरी के चलते कानपुर और पटना में भी कुछ समय बिताया)। पिता जी अपने ओलिया गांव' से 10-11 वर्ष की आयु में निकले तो फिर केकड़ी (राजस्थान), देहरादून, दिल्ली होते हुये इलाहाबाद में वर्ष 1955 से 2012 तक रहे। दोनों ने ही पहाड़ को आधार बना कर बहुत सी साहित्यिक रचनायें सृजित की। पिताजी ने जहां एक ओर कहानियों, कविताओं, संस्मरण और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में टिप्पणियों के माध्यम से पहाड़ (यानी कुमाऊँ) को अभिव्यक्ति दी। नवीन जी ने कहानियों के अलावा अपने तीन उपन्यासों की आधारभूमि पहाड़ को बनाया 'दावानल', 'टिकटशुदा रुक्का' और 'देवभूमि डेवलपर्स'। इसलिये दोनों को अपने हिस्से का पहाड़ बार-बार याद आता रहा। इस के चलते ही समीक्ष्य पुस्तक के बहुत से लेखों का विषय पिता जी की पहाड़ केन्द्रित रचनायें हैं।


पुस्तक का तीसरा लेख "पहाड़ का खुरदरा यथार्थ और सौन्दर्य" में नवीन जी न सिर्फ पिता जी की कहानियों में वर्णित पहाड़ का जिक्र करते हैं, परन्तु जनवरी, 2021 में नवारुण प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक 'मेरा ओलिया गांव' के कई प्रसंगों को एवम 2019 में प्रकाशित उनके कविता संग्रह 'पार्वती' को भी अपनी लेखनी का विषय बनाते हैं। वे लिखते हैं शेखर जी ने उत्तराखण्ड के अपने ओलियागांव (अल्मोड़ा) में बचपन के जो दिन बिताए उनकी गहन स्मृति 'मेरा ओलियागांव' के गद्य एवम 'पार्वती' की कविताओं में तरह तरह से गूंजती है। इनमें दुलारे गाय-बैल-बकरियों की याद है। उनके लिये घास का पहाड़ उठा कर लाती स्त्रियाँ हैं, घर में देर से छूटे शिशु की याद कर जिनके स्तनों से दूध रिसने लगता है, ओखल में धान कूटती युवतियों का नृत्य है, खेतों में हुड़के की ताल एवं सुरीले गीतों के बीच धान रोपाई के दृश्य हैं और वह 'बाखली' (मकानों की लम्बी कतार) है जहाँ जीवन का हर कार्य व्यापार सबक साझा हुआ करता था।' (पृष्ठ 63-64)


इस आलेख में नवीन जी पिताजी की पहाड़ से जुड़ी कहानियों पर चर्चा करते हुये टिप्पणी करते हैं 'शेखर जोशी की रचनाओं में पहाड़ का प्राकृतिक सौन्दर्य, हिमाच्छादित शिखर, विहंगम दृश्य प्रस्तुत करती घाटियाँ, कल-कल बहती नदियाँ, बुरांश के फूलों से दुल्हन की तरह सजी पहाड़ियाँ, आदि-आदि खोजे से भी नहीं मिलते जो कि पहाड़ के अन्य रचनाकारों के लेखन में बहुतायत से आते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि वह विवरणों के विस्तार में नहीं भटकते। अक्सर तो विवरण में ही नहीं जाते। उनका लेखन बहुत सधा हुआ होता है, विशेष रूप से कहानियाँ। उनमें अनावश्यक कुछ नहीं मिलता। वे चुनिन्दा शब्दों और प्रसंगों का बहुत सोच-समझ कर उपयोग करते हैं। बुरांश के फूल की रंगत या काफल के रस या हिमशिखरों की धूप-छांव में पाठक को भटकाए बिना वे उनका उतना ही दर्शन कराते हैं जितना कथा में जरूरी समझते हैं। दूसरा कारण बड़ा और अधिक महत्त्वपूर्ण दिखता है। वे पहाड़ के जिस पक्ष को कहानियों का विषय बनाते हैं, उसमें प्राकृतिक सौन्दर्य और पर्यटकीय रोमान की जगह ही नहीं होती। 'बोझ', 'व्यतीत', 'कोसी का घटवार', 'हलवाहा', 'समर्पण', 'गलता लोहा', 'कथा-व्यथा', 'रास्ते', 'बिरादरी', 'रंगरूट' 'तर्पण', 'देबिया', 'गोपुली बुबु', 'सिनारियों' जैसी कहानियों में पहाड़ का अतुलनीय सौन्दर्य कहाँ अटाए? ये सभी कथाएँ पहाड़ी आम जन के रोज़मर्रा के सुख-दुख, संघर्ष, रिश्तों की मिठास-खटास एवं उधेड़बुन, जाति दमन, दम्भ एवं वर्चस्व को चुनौती देती स्थितियों, पलायन, गरीबी, लाचारी, अलाभकारी खेती के - संकट आदि स्थितियों का प्रभावशाली - चित्रण करती हैं। इनमें 'नायिकाएँ हैं पर श्रम-श्लथ, उपेक्षित या स्थितियों से टूटी हुयी तथा यथासम्भव लड़ती हुई। 'नायक' हैं, हालात से जूझते या समर्पण करते, बोझा ढोते, जैसे तैसे रिश्ते निभाते, परदेस भागते...। छोटे-छोटे सुख भी हैं। हास्य रस भी है और जीवट भी लेकिन हिम शिखरों पर सूर्योदय और सूर्यास्त का अनुपम-अनिर्वचनीय सौन्दर्य इस जीवन को रंगीन नहीं बना पाता। (पृष्ठ-70-71)।


बहुत सारी कवितायें लिखने के बावजूद पिता जी का कथाकार पक्ष ही अधिकांश समय, आलोचकों और समीक्षकों द्वारा चर्चा में आया। ऐसा प्रायः अधिकांश चनाकारों के साथ होता है कि जब उनकी कुछ चुनिंदा रचनायें, पाठकों के मध्य अत्यंत लोकप्रिय हो जाती है, या बाजार की भाषा में कहें "ब्रांड" बन जाती है तो रचनाकार की अन्य रचनाओं पर अपेक्षाकृत बहुत कम या न्यूनतम चर्चा होती है। मैंने पिता जी पर लिखे अधिकांश लेखों में उनकी आठ-दस कहानियों पर ही चर्चा सुनी। इसमें प्रमुख रहीं हैं "कोसी का घटवार", "दाज्यू", "बदबू", "उस्ताद", "नौरंगी बीमार हैं", "आशीर्वचन" आदि।


CBSE बोर्ड की ग्यारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में लगने के कारण "गलता लोहा" को भी काफी लोकप्रियता मिली है। पिता जी की कविताओं पर आलोचकों समीक्षकों का ध्यान बहुत कम गया है। लेकिन नवीन जी की पैनी दृष्टि (जो उन्होंने पत्रकारिता में चार दशक सक्रिय रहने के चलते अर्जित की है), पिता जी के कवि पक्ष को भी पूरी गंभीरता से सामने लाती है। "पार्वती" कविता संग्रह में पहाड़ से जुड़ी कविताओं का जिक्र करते हुये आप लिखते हैं 'मेरा 

पृष्ठ-73 ।


अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में पिता जी का अपनी मातृ भाषा यानी कुमाऊँनी बोली के लिये विशेष लगाव रहा। और प्रक्रिया के सबसे सशक्त साक्षी रहे नवीन जी। नवीन जी से अपनी घनिष्ठता के कारण ही पिता जी ने मृत्युपूर्ण लिखी अपनी वसीयत में अपनी एक ख्वाहिश यह भी लिखी थी कि उनकी कुमाऊँनी रचनाओं के प्रकाशन का दायित्व नवीन जी का होगा। 'अपने मन की बात' में पिता जी लिख कर गये  कि 'मूल कुमाऊँनी' में लिखी हुयी रचनायें श्री नवीन जोशी के पास सुरक्षित हैं। शब्दचित्र, आलेख, क्वीड़ और कविताओं का यदि एक संकलन 'पहाड़' संस्था (नैनीताल) और डा० बी० के० जोशी द्वारा स्थापित दून लाइब्रेरी एवं रिसर्च सेंटर' (देहरादून) की ओर से प्रकाशित हो सके तो उसे स्कूल-कॉलेज की लाइब्रेरी में निःशुल्क वितरित कर दिया जाये।


इस निमित्त पिता जी ने अपनी सीमित पेंशन से जो धनराशि बैंक में जमा की उसमें से पच्चीस हजार रूपये का प्रावधान पुस्तिका छपाने के लिये कर गये (पृष्ठ-118) ।


इन सारे प्रसंगों को नवीन जी ने आलेख "अपनी दुदबोलि में विस्तार से वर्णित किया है। कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं : शुरुआती दौर में उन्होंने अपनी हिन्दी कथाओं एवम अन्य रचनाओं का कुमाऊँनी में अनुवाद कर के प्रकाशनार्थ भेजे। कुमाऊँनी में मौलिक बहुत कम लिखा। वैसे भी वे बहुत कम लिखते थे। 2012 में पत्नी के निधन के पश्चात वे भीतर से बहुत टूट गए थे और साल भर तक उन्होंने कलम भी न उठाई। 


 धालमेल में हिमालयी नहीं थे। (पृष्ठ-110-111)।


यदि कोई व्यक्ति, किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन के अधिकांश पक्षों से परिचित हो और फिर उसे किताब की शक्ल में सामने ला दें तो ऐसे व्यक्ति को "जीवनी लेखक" (अंग्रेजी में Biographer) कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। पिता जी अपने अत्यंत संकोची स्वभाव के चलते बहुत बातें हम बच्चों से साझा नहीं करते। लेकिन नवीन जी से उनका स्नेह और विश्वास ऐसा था कि अपनी निजी जिन्दगी की बहुत सी बातें बताने में नहीं हिचकते। वर्ष 2012 के बाद लखनऊ प्रवास में उन्होंने नवीन जी से जो अपने ढेर सारे निजी प्रसंग बताये, उसको आधार बना कर नवीन जी ने पुस्तक के दो अध्याय "जीवन और साहित्य में चन्द्रकला" और "टंडन जी का हात्ता, 100, लूकरगंज लिखे हैं। हमारी माता जी (स्व० चन्द्रकला जोशी) और पिता जी का वैवाहिक जीवन का साथ मात्र बावन वर्षों का था। जन 1960-2022.


लेकिन हमारे घर में समीकरण कुछ अलग तरीके के थे। माता-पिता ने अपने बचपन का कुछ समय साथ-साथ गुजारा था। हमारी दादी जी की मृत्यु तब हो गयी थी जब पिता जी मात्र 10 वर्ष के रहे होंगे। कुछ ऐसा संयोग था कि अजमेर से कुछ किलोमीटर दूर केकड़ों नामक स्थान में हमारे पिता जी के मामा जी (स्व० जगन्नाथ शास्त्री) एवं हमारे पिता जी के भावी श्वसुर हमारे मकान में साथ-साथ रहते थे। दोनों वहां अध्यापक थे एवं उनको अध्यापकी का मौका दिया था प्रसिद्ध साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी जी के पिताजी प्रेम वल्लभ जोशी ने, जो अजमेर में शिक्षा विभाग में एक ऊँचे ओहदे पर थे। पिता जी के मामा जी निःसंतान थे और भगवान बल्लभ पंत जी का भरा-पूरा परिवार था।


हमारी दादी जी की मृत्यु तब हो गयी, जब पिता जी लगभग 10 वर्ष के रहे होंगे। गांव में पढ़ाई की समुचित व्यवस्था न हो पाने के चलते पिता जी अपने मामा जी के पास पढ़ने केकड़ी चले गये। नाना जी और हमारे पिता जी के मामा जी का घर एक था। एक ही रसोई थी। पिताजी कुल जमा 04 वर्ष केकड़ी में रहे होंगे। बचपन के परिचय ने परवर्ती वर्षों में माता-पिता को जीवन साथी बना दिया।


इसी तरह इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागराज) के 100, लूकरगंज मोहल्ले में हमारे परिवार ने 50 वर्ष का समय गुजारा। नवीन जी ने अपने लेखों में पिता जी के जीवन के इन पक्षों पर भी कलम चलायी हैं।


पुस्तक में और भी बहुत से पठनीय लेख हैं जिससे एक लेखक के जीवन और साहित्यकर्म के अंतरंग पक्षों का पता चलता है। जैसे "जीवन और लेखन में सौन्दर्य दृष्टि" सोद्देश्य और सार्थक लेखन पर कुछ टिप्स", "हिन्दी के अकेले डांगरीवाले"।


पुस्तक का अन्तिम अध्याय पिताजी के साथ नवीन जी के पत्राचार पर आधारित है। इसमें पहला पत्र 15.07.1979 का है जो आपसी परिचय का पहला दस्तावेज है। आखिरी पत्र अप्रैल, 2006 का है। वर्ष 2006 के बाद मोबाइल फोन आ जाने से पत्र व्यवहार का सिलसिला लगभग खत्म हो गया था। इस पत्राचार के बारे में नवीन जी लिखते हैं:- "ये पत्र प्रिय भाई" से शुरू हुये थे और "प्रिय नवीन" तक शीघ्र ही आ गये थे। बहरहाल इन पत्रों से गुज़रते हुये उनके साथ का एक लम्बा दौर याद आता है।


नवीन जी के विभिन्न आलेखों में अपने प्रिय कथाकार लेखक के लिये जिस तरह की आत्मीयता दिखती है, उसने मुझे बेहद प्रभावित किया। आत्मीयता के साथ शीघ्र का जो सम्मिश्रण है, वह ऐसे साहित्यकार से सम्भव है जो जीवन भर कलम से जूझता रहा हो। चूँकि नवीन जी ने चार दशकों से अधिक समय पत्रकारिता को दिया है, और पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आप शिखर पर रहे हैं, इसलिये लेखन में विशिष्टता सम्भव हो सकती है। यह किताब लेखक के परिवार के सदस्यों के लिये ही एक उपहार की तरह नहीं है बल्कि उन पाठकों के लिये भी एक अमूल्य निधि है जो हिन्दी साहित्य के क्रमिक विकास में रूचि रखते हैं।


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