फ़िलिस्तीन की समकालीन कविताएँ
जीवन से बड़ा कुछ भी नहीं होता। न कोई राष्ट्र, न कोई धर्म, न कोई भाषा, न कोई वर्ग। इन सबका अस्तित्व मानव के होने से ही है। यह अलग बात है कि मानव जाति का इतिहास वस्तुतः युद्धों के इतिहास के रूप में ही दिखाई पड़ता है। युद्ध में जान माल की व्यापक क्षति होती है। लेकिन उस ज़िद का क्या किया जा सकता है जो अपने को सर्वोपरि मानती रही है। गज़ा आज इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस युद्ध के मूल में वे यहूदी हैं जो बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जाति और नस्ल आधारित हिंसा के सबसे बड़े शिकार रहे है किंतु ऐसा लगता है कि इस हिंसा और अत्याचार से उन्होंने कोई भी सबक नहीं लिया। अब वे स्वयं हिंसा और नस्लभेद को बढ़ावा देने वालों की पंक्ति में सबसे आगे खड़े दिखने लगे हैं। श्रीविलास सिंह ने कुछ फिलिस्तीनी कवियों की कविताओं का अनुवाद किया है। इन कविताओं में फिलिस्तीनियों की कथा व्यथा वर्णित है। इससे हम यह समझ सकते हैं कि युद्ध क्षेत्र के लोगों की प्राथमिकताएं कुछ अलग किस्म की ही होती हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं। चयन, अनुवाद और प्रस्तुति के साथ साथ इन कविताओं की उम्दा भूमिका भी कवि अनुवादक श्रीविलास जी ने ही लिखी है। एक कवि को छोड़ कर बाकी की तस्वीरें भी हमें श्रीविलास जी ने उपलब्ध कराई हैं। केवल वलीद अल हलीस की तस्वीर खोज पाने में हम असफल रहे। यहाँ दी गई कविताओं में दो के रचनाकार हिबा अबू नादा और रिफत अलरीर स्वयं इस खून खराबे के शिकार हो चुके हैं। इन दोनों की स्मृति को हम नमन करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं फ़िलिस्तीन की समकालीन कविताएँ।
फ़िलिस्तीन की समकालीन कविताएँ
चयन, अनुवाद और प्रस्तुति : श्रीविलास सिंह
भूमिका
“ऐसी कविता लिखने के लिए जो न हो राजनीतिक
मुझे सुनना चाहिए चिड़ियों को
और चिड़ियों को सुनने के लिए
खामोश होने चाहिए युद्धक विमान”
— मरवान मखौल
फिलिस्तीन और इजराइल की भूमि के लिए युद्ध, विध्वंस और रक्तपात कोई नई बात नहीं। तीन तीन धर्मो की यह पवित्र भूमि इस बात की साक्षी है कि मनुष्य की युद्ध लिप्सा का कोई अंत नहीं। जो कुछ भी इस युद्ध और रक्तपात को रोकने, इसे समाप्त करने आता है, एक दिन स्वयं इसी आग में ईंधन बन जाता है। यहाँ वे यहूदी भी हैं जो बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जाति और नस्ल आधारित हिंसा के सबसे बड़े शिकार रहे है किंतु इस हिंसा, इस अत्याचार ने संभवतः उन्हें कुछ नहीं सिखाया। अब वे स्वयं हिंसा और नस्लभेद के राक्षसों की पंक्ति में सबसे आगे खड़े दिखने लगे हैं। निश्चय ही यह बात मैं सभी यहूदियों के लिए नहीं कह रहा और इसके ढेरों अपवाद भी हैं। फिलिस्तीन में लंबे समय से युद्ध जारी है। खास तौर से पिछले दो ढाई वर्षों से जारी हिंसा के फलस्वरूप पचास हजार से अधिक लोग मारे गए हैं। ग़ज़ा इलाके को इजरायल की बमबारी ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। गजब तो यह है कि मानवीय सहायता पहुंचाने पर भी प्रतिबंध है। इन वर्षों की घटनाओं ने हमारे राजनय, हमारी घोषित प्रतिबद्धताओं और हमारे सभ्य होने के तमाम दावों को कठघरे में ला खड़ा किया है। निरन्तर चलती शांति वार्ताओं और मानवता के प्रति नपुंसक उद्गारों के बीच न तो युद्धक विमानों का शोर खामोश हुआ है, और न ही गज़ा में बमों का बरसना। निरपराध व्यक्तियों, स्त्रियों, बच्चों और वृद्धों का संहार निरंतर जारी है। अब ऐसे माहौल में कविता, उसके सरोकार, उसकी भाषा, उसके संस्कार सब बदल जाते हैं।
निरंतर युद्ध, अनधिकृत कब्जे, सेंसरशिप और जीवन की विकट परिस्थितियों में फिलिस्तीन की कविता ने हम तक पहुंचने के लिए अनेक द्वार खोले हैं। इस इलाके के लोग निरंतर भौगोलिक और सांस्कृतिक अलहदगी का शिकार रहे हैं। किंतु सबसे खतरनाक बात साहित्य की दुरावस्था नहीं, बल्कि उनकी दुरावस्था है जो इस साहित्य की रचना कर रहे हैं। यहाँ दी गई कविताओं में दो के रचनाकार स्वयं इस रक्तपात का शिकार हो चुके हैं। ऐसे में इस साहित्य का अध्ययन एक साहित्यिक “क्षमा याचना” जैसा रहा जाता है। उस फिलिस्तीनी साहित्य के प्रति जो स्वयं में राष्ट्रीय गर्व, राजनैतिक चेतना और प्रतिरोध का प्रतीक और साधन दोनों बन चुका है।
फिलिस्तीनी साहित्य में कविता अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त और जन साधारण के सबसे करीब का माध्यम बन चुकी है। सलेम जुबरान, महमूद दरवेश, नजवान दरवेश, समीह अल कासिम, फदवा तुकान और तौफीक जायद जैसे कवियों ने इसे एक नई ऊंचाई दी है। उनकी कविता प्रतिबद्धता की कविता है। एक खास बात जो फिलिस्तीनी कविता में है वह है इसका सीधे जन सामान्य की समझ को संबोधित करना और उनके दुःख, तकलीफों, उनकी देश भक्ति को शब्द देना। निजार कब्बानी के अनुयायी कवि अहमद अबेद अहमद के शब्दों में कहें तो —
“क्योंकि मैं लिखता हूँ कविताएं मनुष्यों के लिए,
किसानों, शोषितों, कामगारों के लिए
अपने शब्दों को मैं सदैव लाना चाहूंगा उनकी जानकारी में,
पार करो मेरी त्रासदी का पुल अधिक सुंदर दृश्य के लिए
लिखो इसकी कहानी…
ताकि मेरे लोग उठ खड़े हो सकें बेहतर के लिए
बेहतर के लिए।”
अपनी त्रासदी से परे जा कर कल्पना करने का यह भाव तमाम फिलिस्तीनी कवियों में विद्यमान है। वहाँ सिर्फ त्रासदी का विलाप नहीं है, वर्तमान के प्रति आक्रोश भी है और बेहतर भविष्य की आशा भी। जब कविता करना असंभव हो जाता है, कवि अपनी अवज्ञा की कहानी लिखने में एक और विकल्प खोज लेता है। कवियों का इस अत्याचार के विरुद्ध बोलने का साहस, फिलिस्तीन के मामले को लिख कर अमर्त्य बना देने की आकांक्षा, और लोगों द्वारा हार को अस्वीकार कर देने की भावना को स्वर देने की चाह, फिलिस्तीनी कविता की शक्ति भी है और कमजोरी भी। क्योंकि कई बार यह मात्र वाग्जाल हो कर रह जाती है। अंतर केवल यह बात उत्पन्न करती है कि संदेश को किस प्रकार संप्रेषित किया जा रहा है। समीह अल कासिम लिखते हैं:
“मैं कहता हूँ दुनिया से… इसे बताओ
उस मकान के बारे में जिसकी लालटेन तोड़ दी उन्होंने
उस कुल्हाड़ी के बारे में जिसने मार डाला एक लिली को
और एक आग के बारे में जिसने विनष्ट कर दी दुनिया,”
इस तरह के साधारण किंतु सुंदर और असरदार बिंबों से, जो नित्य प्रति के जीवन से लिए गए हैं, कवि उस क्षति, उस तकलीफ को व्यक्त करता है जो बहुत शिद्दत से महसूस की जाती है। इसके विपरीत ऐसे भी कुछ कवि हैं जो अधिक विस्फोटक स्वर में अपनी बात कहते हैं। मृत्यु और विनाश के इस जटिल माहौल में ऐसा हो जाना स्वाभाविक भी है। फिलिस्तीनी कविता में अक्सर जो प्रतीक बार बार आते हैं उनमें जैतून का वृक्ष महत्वपूर्ण है जो फिलिस्तीन की भूमि और वहाँ के लोगों की इच्छा शक्ति का प्रतीक है। इसी तरह लोगों और उनकी मिट्टी के संबंधों को खजूर के वृक्षों, बादाम, अंजीर, चमेली, लिली, गेहूं की बालियों, संतरों और बागों के प्रतीकों से अभिव्यक्त किया गया है। सूरज, इंद्रधनुष, आकाश, समुद्र, चट्टान, बाज और घोड़े जहां विद्रोह, स्वतंत्रता, और उत्साह के प्रतीक हैं तो भेड़िए, जंजीरें, जेलर, तातार इत्यादि दुश्मनों के। ईसा, उनकी सलीब, उनका सूली पर चढ़ाया जाना और पुनर्जीवित होना भी अक्सर आने वाले प्रतीक हैं। फिलिस्तीनियों के लिए जेरूसलम, प्रेमिका भी है, और मां भी, अपने ढेरों दैहिक प्रतीकों के साथ। इस तरह की काव्यात्मक पृष्ठभूमि से उठ कर फिलिस्तीन के कवि न केवल परंपरा की भूमि पर नवनिर्माण कर रहे हैं बल्कि अनेक अर्थपूर्ण तरीकों से उससे परे भी जा रहे हैं और नवोन्मेष भी कर रहे हैं। अंत में महमूद दरवेश की 1973 में लिखी गई एक कविता “गजा के लिए मौन” का एक अंश:
“ग़ज़ा की खूबसूरती है कि हमारी आवाजें नहीं पहुंचती इस तक।
कुछ भी नहीं भटकाता इसका ध्यान, कोई नहीं रोकता दुश्मन के चेहरे से इसके घूंसे को।
ग़ज़ा समर्पित है अस्वीकार के प्रति…
भूख और अस्वीकार, प्यास और अस्वीकार, विस्थापन और अस्वीकार, यातना और अस्वीकार, घेराबंदी और अस्वीकार, मौत और अस्वीकार…”
![]() |
हिबा अबू नादा |
मैं तुम्हें शरण प्रदान करती हूँ
हिबा अबू नादा
(यह कविता हिबा ने 10 अक्टूबर को, 20 अक्टूबर, 2023 को इसराइली हवाई हमले में दक्षिण गज़ा में अपने घर में शहीद होने के पूर्व लिखी थी।)
1.
मैं तुम्हें प्रदान करती हूँ शरण
अपनी भजनों और प्रार्थनाओं में
मैं आशीष देती हूँ आस पड़ोस को और
रॉकेट से उनकी पहरेदारी हेतु
बनी मीनारों को
उस क्षण से
जब यह होता है एक सामान्य आदेश
उस क्षण तक
जब यह हो जाता है
एक छापेमारी।
मैं शरण प्रदान करती हूँ तुम्हें और नन्हें बच्चों को,
नन्हें बच्चे जो
बदल देने हैं रॉकेट की राह
उसके जमीन पर गिरने से पूर्व
अपनी मुस्कानों से।
2.
मैं शरण प्रदान करती हूँ तुम्हें और नन्हे बच्चों को,
नन्हे बच्चे जो सोते हैं घोंसले में चिड़िया के बच्चों की भांति।
वे नहीं जाते अपनी नींद में स्वप्नों की ओर।
वे जानते हैं मृत्यु घात लगाए हुए है घर के बाहर।
उनकी माताओं के आंसू हैं अब फाख्ताएं
उनका अनुगमन करती, पीछे चलती,
हर ताबूत के साथ।
3.
मैं शरण देती हूँ पिता को,
नन्हे बच्चों का पिता जो रखता है घर को खड़ा
जब यह चरमरा जाता है बमबारी के पश्चात।
वह प्रार्थना करता है मृत्यु के क्षण की:
“दया करो। छोड़ दो मुझे थोड़ी देर के लिए।
उनके लिए, जिनके लिए सीखा है मैने जीवन को प्रेम करना।
प्रदान करो उन्हें मृत्यु
वैसी ही खूबसूरत जैसे वे हैं।”
4.
मैं तुम्हें प्रदान करती हूँ शरण
चोट और मृत्यु से,
शरण हमारी इस घेराबंदी के वैभव में,
यहाँ ह्वेल के उदर में।
हमारी गलियां प्रार्थना करती हैं अल्लाह की हर बम के साथ।
वे प्रार्थना करती हैं मस्जिदों और मकानों के लिए।
और हर बार जब बमबारी शुरू होती है उत्तर में,
हमारी गिड़गिड़ाहटें बढ़ जाती हैं दक्षिण में।
5.
मैं तुम्हें प्रदान करती हूँ शरण
चोट और कष्ट से
पवित्र ग्रंथों के शब्दों से
मैं रक्षित करती हूँ संतरों को फास्फोरस के डंक से
और बादलों की छाया को स्मॉग से।
मैं तुम्हें प्रदान करती हूँ शरण यह जानने से
कि छट जाएगी धूल,
और वे जो प्रेम में पड़े और साथ साथ मर गए
हँसेंगे एक दिन।
![]() |
हुसैन देकमाक |
फ़िलिस्तीनी बच्चों का जीवन है महत्वपूर्ण
हुसैन देकमाक
सरसठ बच्चे मार डाले गए।
बिखर गये सरसठ स्वप्न।
ग़ायब हो गए अब सरसठ सुंदर चेहरे।
सरसठ चमकीली मुस्काने कुम्हला गयीं।
सरसठ बिस्तर पड़े हैं खाली।
फ़िलिस्तीनी बच्चों को भी था खेलना सभी बच्चों की तरह।
फ़िलिस्तीनी बच्चे भी हैं प्रत्याशा में शांति की।
ग़ज़ा के बच्चे भी स्वप्न देखते हैं अध्यापक होने के,
नर्स, कलाकार, अभियंता और चिकित्सक होने के।
फ़िलिस्तीनी बच्चे भी चाहते हैं सांस लेना।
फ़िलिस्तीनी बच्चों का जीवन भी है महत्वपूर्ण।
![]() |
सलेम जुबारान |
देश निकाला
सलेम जुबरान
सूरज गुजरता है सीमा पर से
बंदूक़ें ख़ामोश रहती हैं
अबाबील शुरू करता है सुबह का गीत
तुकरेम में
और उड़ जाता है
घूँट भरने को किबूत्ज़ के पक्षियों संग
एक अकेला गधा चल रहा
गोलीबारी के आर-पार
बिना आकृष्ट किए ध्यान पहरेदारों की टोली का
किंतु मेरे लिए, तुम्हारे बहिष्कृत पुत्र के लिए, मेरे गृहप्रदेश
तुम्हारे आकाश और मेरी आँखों के मध्य
सीमा पर की दीवार का लंबा हिस्सा
बाधित कर देता है दृष्टि को।
![]() |
तौफ़ीक ज़ायद |
असंभव
तौफ़ीक़ ज़ायद
यह है काफी आसान तुम्हारे लिए
निकालना हाथी को सुई के छेद से
पकड़ लेना तली हुई मछली आकाशगंगा से
उड़ा देना सूरज को
बंदी बना लेना हवा को
अथवा मजबूर कर देना घड़ियाल को बोलने को,
बनिस्पत बरबाद कर देने के अत्याचार से
किसी झिलमिल चमकते विश्वास को
अथवा रोक देने के हमारे अभियान को
जाते हुए अपने लक्ष्य की ओर
एक अकेले कदम को…
![]() |
फ़दवा तुकान |
सदा जीवित
फ़दवा तुकान
मेरे प्रिय गृहदेश
चाहे कितने ही लंबे हो मील
पीड़ा और गहन दुःख के उद्वेलित करते तुम्हें
अत्याचार के बियाबान में,
वे कभी न होंगे सक्षम
नोच लेने में तुम्हारी आँखें
अथवा ख़त्म कर देने में आशाएँ और स्वप्न
अथवा सूली पर चढ़ा देने में तुम्हारी उठ खड़े होने की इच्छा को
अथवा चुराने में मुस्कराहटें हमारे बच्चों की
अथवा नष्ट करने और जला डालने में,
क्योंकि हमारे गहरे शोक के बाहर
हमारे बहा दिए गए रक्त की ताजगी के बाहर
हमारे मृत्यु और जीवन के स्पंदन के बाहर
जीवन फिर से जन्म लेगा तुम में……
![]() |
मोसाब अबू तोहा |
हम हकदार हैं बेहतर मौत के
मोसाब अबू तोहा
हम हकदार हैं बेहतर मौत के
हमारे शरीर हैं विरूपित और तुड़े मुड़े,
बंदूक की गोलियों और बमों के टुकड़ों की कशीदाकारी से सजे
हमारे नाम गलत उच्चारित किए जाते हुए
रेडियो और टेलीविजन पर।
हमारी तस्वीरें, हमारे मकानों की दीवारों पर चिपकी हुईं,
धुंधली और बदरंग होती।
हमारी कब्र के पत्थरों पर से समाधि लेख अदृश्य होते हुए,
ढके हुए चिड़ियों और सरीसृपों के मल से।
कोई पानी नहीं देता उन वृक्षों को जो छाया देते हैं
हमारी कब्रों को।
जलते हुए सूरज ने व्यग्र कर दिया है
हमारी सड़ती हुई देहों को।
![]() |
नूर हिंदी |
“भाड़ में जाए शिल्प के संबंध में तुम्हारा भाषण, मेरे लोग मर रहे हैं”
नूर हिंदी
उपनिवेशवादी लिखते हैं फूलों के बारे में
मैं बताता हूँ तुम्हें इसराइली टैंकों पर पत्थर फेंकते बच्चों के बारे में
गुलबहार बन जाने के कुछ क्षण पूर्व।
मैं होना चाहता हूँ उन कवियों जैसा जो परवाह करते हैं चांद की।
फिलिस्तीनी नहीं देखते चांद को जेल की कोठरियों
और बंदीगृहों से।
यह कितना खूबसूरत है- चांद।
वे कितने खूबसूरत हैं- फूल।
मैं तोड़ता हूँ फूल अपने मृत पिता के लिए जब मैं दुखी होता हूँ।
वे देखा करते थे अल जज़ीरा सारा दिन।
मैं इच्छा करता हूँ जेसिका बंद कर दे मुझे टेक्स्ट करना “हैपी रमदान।”
मैं जानता हूँ मैं अमेरिकी हूँ क्योंकि जब मैं चलता हूँ एक कमरे में
कोई चीज मर जाती है।
मौत के बारे में रूपक हैं कवियों के लिए जो सोचते हैं कि प्रेत
परवाह करते हैं ध्वनि की।
जब मैं मरूँगा, मैं वादा करता हूँ तुम्हें डराता रहूंगा हमेशा।
एक दिन, मैं लिखूंगा फूलों के बारे में ऐसे
मानों हम उनके मालिक हैं।
![]() |
मोहम्मद अबू लेब्दा |
ग़ज़ा का निवासी होना
(भाग एक)
मोहम्मद अबू लेब्दा
जाने दो उन उपाधियों को जो वे प्रदान करते हैं तुम्हें और वे शानदार गुण जिनमें वे डुबो देते हैं तुम्हें।
तुम नहीं हो पराक्रमी, और तुम्हारा साहस नहीं है अतुलनीय। तुम्हारा धैर्य नहीं है वैसा अवर्णनीय जैसा वे कहते हैं।
अपने आप से सत्य का सामना करो, ढूंढो अपने जीवन को इसके आरंभ से, और थोड़ा सा स्मरण करो अतीत का। नियति ने चुना तुम्हें इस स्थान पर जन्म लेने को, इस भूमि पर तुम्हारे अस्तित्व को, जगह में संकरी पर चोट के निशानों में विस्तृत, मांग करती है तुम से बहुत कुछ त्यागने को।
तुम खर्च कर दोगे अपने जीवन का अधिकांश तलाशते हुए कोई जीवन। इस यात्रा में, तुम महसूस करोगे पीड़ा, मित्र बनाओगे भय को, जुआ खेलो उस मानवता संग जो तुमने पाई है मात्र उत्तरजीविता के बदले।
ग़ज़ा के निवासी के रूप में, तुम नहीं हो शेष मानवता की भांति। तुम्हारे मापदंड हैं पूर्णतः भिन्न।
तुम तुलना नहीं कर सकते किसी ऐसे की, जो सोचता है बिजली को विलासिता और साफ पानी को जीवन अमृत, किसी अन्य से।
हर चीज जिससे वे वर्णन करते हैं तुम्हारा, लग सकती है रचनात्मक और गर्व करने लायक, पर ऐसा है नहीं। तुम बड़े हुए हो हो कर अभ्यस्त मृत्यु और पीड़ा के। तुम्हारी शरीर के अंगों और शवों की बात फैल जाती है आसानी से, पड़ोस की गप की भांति।
तुम्हारी समस्या, गज़ा के निवासी के रूप में, यह है कि तुम्हारी जीवन के प्रति दृष्टि है पूर्णतः भिन्न। तुम तलाशते हो मात्र एक साधारण जीवन, एस्बेस्टस या कोरुगेटेड लोहे से बनी एक छत, और एक बैटरी तुम्हारी बिजली से अछूती रातों को प्रकाशित करने को।
मैं अतिशयोक्ति नहीं कर रहा जब मैं कहता हूँ कि इस सब के कारण ख़ुद तुम हो। तुमने परिवर्तित कर दी जीवन की अवधारणाएं, कुर्बान कर दी ढेरों मानवता धैर्य और संतुष्टि की आड़ में। तुमने अभ्यस्त बनाया उन्हें देखने को तुम्हें धूल झाड़ कर उठते हुए हर बार जब तुम गिरे जमीन पर।
तुमने हथियारबंद किया स्वयं को धीरज के हथियार से, बना लिया एक मकान संतोष से, और बहाते रहे अपना खून आंसू बहाने की बजाय।
ग़ज़ा के निवासी के रूप में तुम्हारी किवदंती जो वे सुनाते हैं, और साहस जिसका वे गीत गाते हैं, तुम्हारे लिए, था मात्र अभ्यस्त होना। सबसे खतरनाक बात जो किसी के साथ घटित हो सकती है वह है चीजों का आदी हो जाना, उन्हें स्वीकार कर लेना और अनुकूलन कर लेना, हो जाना संतुष्ट बस थोड़े से, और नहीं कहना सिर पर छाया से अधिक के लिए।
आगे जारी है….
![]() |
बसमान अल दिरावी |
यह नस्ल पैदा हुई, यह नस्ल मार डाली गई
बसमान अलदिरावी
साफ हाथों से
वह धीरे से आटा हटाता है
और मिलाता है एक मुट्ठी यीस्ट।
वह डालता है गर्म पानी
यीस्ट के कणों को जीने हेतु,
फिर बेलता है और गूंथता है और बेलता है
और गूंथता है गूंथे हुए आटे को।
वह छोड़ देता है मुलायम ढेर को आराम के लिए।
मजबूत पर कोमल हाथों से
वह बनाता है इनकी लोई
चपटा करता उन्हें आकार में
और डालता है
कोमलता से एक एक को तंदूर में।
शीघ्र ही, संभवतः आधे घंटे में,
ब्रेडरोल्स जन्म लेते है ताजा
स्वस्थ और भूरे।
नवजात ब्रेड सांस लेती है
पर धूल रोक देती है हवा को,
सुलगती ग़ैसें भेद देती हैं
उनकी पतली, कमजोर परत।
उनके जन्म के दिन, एक मिसाइल,
एक बेकरी, बिखरते हुए टुकड़े
ज़ातर (मसाले) के, मांस और रक्त के।
![]() |
ज़ीना आज़म |
लिख दो मेरा नाम
ज़ीना आज़म
“ग़ज़ा में कुछ माता–पिता अपने बच्चों के नाम उनके पैरों पर लिखने लगे हैं ताकि उनके मारे जाने पर उन्हें पहचाना जा सके।”
(CNN, 22.10.2023)
लिख दो मेरा नाम मेरे पांव पर, मामा
काले स्थाई मार्कर से
उस स्याही से जो न फैले रक्त की भांति
यदि यह गीली हो जाए, उससे जो नहीं पिघले
यदि यह खुली रह जाए गर्मी में
लिख दो मेरा नाम मेरे पांव पर, मामा
बना दो पंक्तियों को मोटी और स्पष्ट
सजा दो अपनी विशिष्ट कलाकारी से
ताकि मुझे मिल सके आराम देख कर
मेरी मामा की हस्तलिपि जब मैं सोने जाऊं
लिख दो मेरा नाम मेरे पांव पर, मामा
और मेरी बहनों और भाइयों के पांवों पर
इस तरह हम रहेंगे एक दूसरे से जुड़े
इस तरह हम जाने जाएंगे
तुम्हारे बच्चों के रूप में
लिख दो मेरा नाम मेरे पांव पर, मामा
और लिख दो अपना नाम
और बाबा का नाम अपने पांव पर भी
ताकि हम याद किए जाएं
एक परिवार के रूप में
लिख दो मेरा नाम मेरे पांव पर, मामा
मत लिखो कोई संख्या
जैसे कि जब मैं पैदा हुई थी अथवा हमारे घर का पता
मैं नहीं चाहती कि दुनिया सूचीबद्ध करे मुझे एक संख्या के रूप में
मेरा एक नाम है और मैं नहीं हूँ एक संख्या
लिख दो मेरा नाम मेरे पांव पर, मामा
जब बम गिरता है हमारे मकान पर
जब दीवारें चूर चूर कर देंगी हमारी खोपड़ियां और हड्डियां
हमारे पांव कहेंगे हमारी कहानी, किस तरह
हमारे लिए नहीं थी कोई जगह
भागने को
![]() |
रिफत अल रीर |
यदि मुझे मरना ही हो
रिफत अलरीर
(यह कविता प्रो. रिफत अलरीर ने 6 दिसंबर, 2023 को इसराइली हमले में मारे जाने से कुछ दिन पूर्व ही लिखी थी)
यदि मुझे मरना ही हो
तुम्हें जीना चाहिए
सुनाने को मेरी कहानी
बेच देने को मेरी चीजें
खरीदने के लिए कपड़े का एक टुकड़ा
और कुछ रस्सी,
(रखना इसे सफेद, एक लंबी पूंछ के साथ)
ताकि एक बच्चा, कहीं किसी जगह गज़ा में
जब देख रहा हो स्वर्ग की ओर आंखों में
प्रतीक्षा लिए अपने पिता की जो चले गए थे एक कौंध में
और किसी ने अलविदा भी न कहा था
न तो उनकी देह को
न ही स्वयं उन्हें –
देखता है एक पतंग को, मेरी पतंग जो तुमने बनाई थी, उड़ते हुए ऊपर
और सोचता है एक क्षण को कि एक फरिश्ता है वहाँ
वापस लाता हुआ प्रेम को
यदि मुझे मरना ही हो
इसे ले आने दो आशा
इसे बन जाने दो एक कथा
एक फिलिस्तीनी लड़के के जीवन से कुछ दिन
वलीद अल हलीस
जीवन की प्रत्याशा में, मेरे पिता ने बोया मुझे — एक बीज को
मेरी मां की गहराइयों में,
उसके ऊपर कंपकपाते हुए उत्तेजना से
एक हिनहिनाते हुए घोड़े की भांति
और सो गए।
एक स्वप्न में कहा उन्होंने: मैं उत्पन्न करूंगा एक बेटा।
जीवन की प्रत्याशा में कहा उन्होंने: मैं उत्पन्न करूंगा एक बेटा।
और मैं प्रस्थान कर गया अपनी मां से दूर
जीवन की प्रत्याशा में मैं प्रस्थान कर गया अपनी मां से दूर।
मैं अलग हो गया एक गर्माहट लिए कोख से
डूब जाने को बर्फ की सड़कों में
उफनाती हुई लोगों से
मरी हुई मछली से
मौत से भरी बर्फ की सड़कों में
जीने के लिए बर्फ की सड़कों पर।
***
(उपर्युक्त कवितायें हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका “अन्विति” में प्रकाशित हो चुकी हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 8851054620
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें