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जॉर्ज सॉण्डर्स की कहानी “ऐडम्स”, हिन्दी अनुवाद - श्रीविलास सिंह

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  जॉर्ज सॉण्डर्स  2004 में द न्यूयॉर्कर में प्रकाशित यह अमेरिकी कहानी जहाँ एक ओर हमारे समाज में बढ़ती असहिष्णुता और किसी को नापसंद करने के लिए स्वयं को जस्टिफ़ाई करने की प्रवृत्ति को दर्शाती है। वहीं विश्व राजनीति - चाहे वह इराक़ पर अमेरिकी आक्रमण हो, यूक्रेन पर रुस का आक्रमण हो चाहे फ़िलिस्तीन पर इज़राइल का आक्रमण - सब के लिए एक सशक्त रूपक है।  जॉर्ज सॉण्डर्स की इस कहानी का हिन्दी अनुवाद किया है कवि और अनुवादक श्रीविलास सिंह ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं जॉर्ज सॉण्डर्स की कहानी “ऐडम्स”। “ऐडम्स”  (अमेरिकी कहानी) जॉर्ज सॉण्डर्स  हिंदी अनुवाद : श्रीविलास सिंह  मैं कभी ऐडम्स को बर्दाश्त नहीं कर सकता था। ऐसे में एक दिन वह मेरे किचन में अंडरविअर पहने खड़ा था। मेरे बच्चों के कमरे के दरवाजे की ओर मुंह किये हुए! इसलिए मैंने उसके सिर के पिछले भाग पर जोर की चपत लगायी और वह नीचे गिर पड़ा। जब वह उठ कर खड़ा हुआ मैंने उसे फिर चपत लगायी, वह फिर गिर पड़ा। फिर मैंने उसे सीढ़ियों से नीचे शुरुआती वसंत के कचरे में धकेल दिया और कहा, “यदि तुमने फिर ऐसा किया तो भगवान कसम, मैं नहीं कह सकता कि मैं क्या कर

नितेश व्यास की लम्बी कविता 'कविता पूरे विश्व की मातृभाषा है'

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  नितेश व्यास विश्व में सर्वाधिक लिखी जाने वाली विधा में निःसंदेह कविता अग्रणी है। वैसे भी आमतौर पर यह बात कही जाती है कि दुनिया का हर व्यक्ति प्रथम दृष्टया कवि ही होता है। वह लिखे चाहे न लिखे संवेदना के तौर पर कविता मनुष्य के दिल में हमेशा प्रवहित होती रहती है।  नितेश व्यास ने अपनी लम्बी कविता 'कविता पूरे विश्व की मातृभाषा है' में उचित ही लिखा है कि 'कविता ही हो पूरे विश्व की मातृभाषा और एक मात्र भाषा भी/ जो आकाश से चुनती है अपनी वर्णमालाएं/ मात्राओं की चुनरी ओढ़े लहराती हवाओं सी/ विश्व में कहीं भी जन्मता है कोई भी जीव/ हिलती है पंखुडी/ उड़ती है तितली/ कविता जीवन के खुले पन्नों सी फड़फड़ाती है/ सवेरे की घास जब लगाती है माथे पर ओस की बिन्दी/ तब वही कविता दर्पण हो जाती है'। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नितेश व्यास की लम्बी कविता 'कविता पूरे विश्व की मातृभाषा है'।   'कविता पूरे विश्व की मातृभाषा है' नितेश व्यास मैं जिस भाषा में सोचता हूं कविता लिखता उससे अलग भाषा में क्यूं न मैं कविता में ही सोचूं कविता और कविता ही हो पूरे विश्व की मातृभाषा और एक मात्र

हिदेआकी इशिदा से पंखुरी सिन्हा की बातचीत

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                        हिदेआकी इशिदा के साथ पंखुरी सिन्हा  हिदेआकी  इशिदा का जन्म 20 सितंबर 1949,  क्योतो शहर, जापान में हुआ। टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज़ से हिंदी में एम. ए. करने के बाद, उन्होंने टोक्यो के डायटो बंका विश्वविद्यालय में 28 वर्षों तक अध्यापन किया। उनके अध्ययन के विषय आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य से जुड़े रहे हैं। उपन्यास, कहानी, कमज़ोर वर्ग पर लिखित रचनाओं में रुचि रही है. उनकी प्रकाशित कुछ पुस्तकें हैं, आलेख; उदय प्रकाश की कुछ रचनाओं का जापानी में अनुवाद, राही मासूम राजा के उपन्यासों में चित्रित मुसलमानों की समस्या। अभी पढ़ाई के दिनों से ही, वे दिल्ली विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग से जुड़े रहे हैं, और आज भी भारत आते जाते रहते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं जापानी हिन्दीविद  हिदेआकी इशिदा से पंखुरी सिन्हा की बातचीत। हिदेआकी इशिदा से पंखुरी सिन्हा की बातचीत 1 आप सबसे पहले हिन्दी की ओर कब और कैसे आकर्षित हुए?  जब मैं यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रहा था तब विषय के रूप में भारत को चुना था। भारत में हिन्दी अपने आप आ गई थी। भारत चुनने का कारण यूँ था कि एशिया को चुनने से दाख

रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'नयी साड़ी'

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स्त्री जीवन की त्रासदी किस प्रकार की होती है, इसका अनुमान तक लगा पाना सम्भव नहीं है। कभी-कभी ये त्रासदी कहानी या असम्भव जैसी लगती है लेकिन होती यह सच ही है। रुचि बहुगुणा उनियाल ने अपने संस्मरण में बारीकी से इस सच को उकेरने का काम किया है।  वह सच जो उन्होंने अपनी आंखों देखा है, जिसे महसूस किया है। अपरिहार्य कारणों से हम पिछले महीने श्रृंखला की इस कड़ी को हम प्रस्तुत नहीं कर पाए थे। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'नयी साड़ी'। नयी साड़ी  रुचि बहुगुणा उनियाल बच्चों के लिए कपड़े लेने आए हैं लेकिन कुछ भी पसन्द ही नहीं आ रहा….. कपड़े देखते-देखते अचानक ही नवनीत जी कहने लगे, 'रुचा तुम्हें कुछ लेना है अपनी पसन्द का? कोई साड़ी-सूट लेने की इच्छा है तो कहो?' मैं तुरंत मना करती हूँ कि, 'ना ना मुझे कुछ नहीं चाहिए' हम गृहणियां भी कितनी अजीब होती हैं न अपने शौक-मौज और पहनने-ओढ़ने की आवश्यकताओं को  घर-परिवार से पहले कभी ख़याल में भी नहीं लातीं।                                    अक़्सर ही हम लोग जब ख़रीददारी करने आते हैं तो अकेले ही आते हैं, चूंकि

डस्टिन पिकरिंग की कविताएं, अनुवाद : बालकीर्ति

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  Dustin Pickering डस्टिन पिकरिंग कवि परिचय  डस्टिन पिकरिंग ट्रांसेंडेंट ज़ीरो (Transcendent Zero press) प्रेस के संस्थापक और हार्बिंगर एसाइलम (Harbinger Asylum) के संस्थापक संपादक हैं। उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हैं, जिनमें सॉल्ट एंड सॉरो, नोज़ नो एंड और ए मैटर ऑफ डिग्रीस शामिल हैं। उनका लघु कहानी संग्रह, द मैडमैन एंड फू (The madman and fu), साथ ही उनका अलौकिक षड्यंत्र उपन्यास बी नॉट अफ्रेड ऑफ व्हाट यू मे फाइंड : एलियन बुद्धा प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया था। वह ह्यूस्टन Houston, टेक्सास में रहते हैं। उन्होंने हफिंगटन पोस्ट, कैफे डिसेन्सस एवरीडे, द स्टेट्समैन (इंडिया), जर्नल ऑफ लिबर्टी एंड इंटरनेशनल अफेयर्स, द कोलोराडो रिव्यू, वर्ल्ड लिटरेचर टुडे और कई अन्य प्रकाशनों में लेखन में योगदान दिया है। वह यूट्यूब पर लोकप्रिय साक्षात्कार श्रृंखला ‘वर्ल्ड इंकर्स नेटवर्क’ की मेजबानी करते हैं। आप उन्हें इंस्टाग्राम: @poetpickering और ट्विटर: @DustinPickerin2 पर पा सकते हैं। बालकीर्ति एक समर्थ कवि हैं। उनकी ख्याति एक बेहतर अनुवादक की है। पहली बार के लिए  बालकीर्ति ने डस्टिन पिकरिंग की कुछ कवि

सूरज पालीवाल की कहानी 'रावण टोला'

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  रामलीला भारतीय संस्कृति से नाभिनालबद्ध है। और साथ ही इसके सभी पात्र जन जन में सुपरिचित हैं। दशहरा आते ही चारो तरफ रामलीला की आज भी धूम मच जाती है। रामलीला के साथ उसके पात्र सामायिक तौर पर स्थानीय रूप से उसमें बहुत कुछ जोड़ते घटाते रहते हैं जो प्रतीकात्मक रूप से हमारे समाज से जुड़ा होता है। आलोचक सूरज पालीवाल की एक कहानी है  'रावण टोला' । 1980 के आसपास लिखी गई इस कहानी में सूरज जी जिन बातों को रेखांकित करते हैं वह आगे चल कर सामाजिक यथार्थ में बदलते हुए दिखाई पड़ते हैं। आज सूरज जी का आज जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से उन्हें जन्मदिन की बधाई एवम शुभकामनाएं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सूरज पालीवाल की कहानी 'रावण टोला'। 'रावण टोला' सूरज पालीवाल रामलीला समाप्त होने में अभी पाँच दिन बाकी थे। शहर में   पढ़ने वाले लड़के भी रामलीला का बहाना लगा कर गाँव में ऐश   कर रहे थे। लाल छींट की साड़ी जैसे तहमद की फैशन चल   पड़ी थी - इस बार गाँव में। बाल भी बाजने के मोहन कट नहीं, . कहते थे, 'बस एक ही नाई है अलीगढ़ में, जो ऐसे बाल काटता   है। और मालूम है - तीन रुपया लेता