शेष नाथ पाण्डेय
शेष नाथ पाण्डेय से मेरा परिचय बतौर एक कहानीकार रहा है. लेकिन शेष नाथ की
कविताएँ पढ कर ऐसा लगा कि इस कहानीकार के अन्दर एक कवि रहा करता है. रोजी-रोजगार
के जद्दो-जहद से गुजरते हुए कैसे एक युवा को उस व्यवस्था के तथ्यों के बारे में
रट्टा मारना पड़ता है जिससे आम तौर पर वह सहमत नहीं होता. यह राजनीति का ही कमाल है
जिसके लिए दिल्ली नजदीक है लेकिन आम आदमी के लिए दिल्ली कोसो दूर. कुछ इसी तरह के
मनोभावों को लिए प्रस्तुत है शेष नाथ की नवीनतम कविताएँ.
बेदखल
अब जब थकी सांसे बची हैं
और गुजरना है ज़िंदगी के असली इम्तिहान से!
माफ करिएगा
और असली की जगह आखिरी पढ़िएगा
क्योंकि यहाँ मैं कमाकर लिखने और जीने की बात कर रहा हूँ.
खैर! जब गुजरना है आखिरी इम्तिहान से
तब ज़रूरी नहीं
मैं उन कड़वी घूँटों की शिनाख्त करूं
जो तुम्हें पुकारते-पुकारते चीख में बदल गई
मेरी छाती की थकान
वर्षों से मीलों चलते पैरों की कराह में बदल गई
फिर भी यह पूछना पड़ जाता
नदी ने अपना रास्ता बनाया
या मीठी लय में ठुकरा दी गई
कवच युक्त चट्टानों से?
जो वक्त, जो उम्मीद, जो सपने
खरचने थे अपने कमाने वाले इम्तिहान के लिए
जो दो सुडौल हाथों के रूप में
मेरे शरीर में फँसे रहते हैं
मेरी मर्दानगी को धता बताते
मुझे धिक्कारते, चिढ़ाते
मैं था कि बस देखता था और घूंटता था
बिहार जल रहा था और मेरा राजा चुटकुला सुना रहा था
मेरे सामने रीजनिंग की अबूझ आकृतियाँ तैर रही थीं
और मेरे हाथ राज्य में बहते नरसंहारो को गिनने में लगे रहते
मेरे हाथ मजबूत होते जा रहे थे
मेरी उम्र को जिम्मेदारियों की तरफ झोंका जा रहा था
मेरे पास एक सपना था
सपनों के बाहर एक सरकार थी
सरकार के पास सब कुछ था
मेरा समाज भी, गाँव भी
गाँव में मेरा घर था
मुझे घर बचाने के लिए सरकार के पास जाना था
और सरकार के चुटकुलों के रंग नरसंहार से रंगे थे.
फिर भी मैंने आकृतियाँ सुलझाईं
गणित बनाए, अपनी सरकार की योजनाओं को रट्टा मारा
सिनोनिम, एंटोनिम की घुट्टी ली
और अंग्रेजी पास करने के लिए एक हद तक हिंदी से बचने की कोशिश की
लेकिन जब सरकार के पास गया तो
सरकार ने मेरे रंग देखे, मेरी उम्र देखी
मेरा कद देखा, मेरी पहुँच देखी
और जब मैंने सपनों की बात की तो
अपना चुनावी खर्चा और चुनाव जीतने की रपट मेरे सामने रख दी.
यह मेरी पहली हार नहीं थी
सरकार को जानते हुए भी उससे मिलने की हर तैयारी मेरी हार के हलफनामे थे
मैं लगातार हार रहा था
लेकिन मैं नदी को जानता था
मैं अपना रास्ता तलाशने लगा तो पता चला कि
दिल्ली दूर है जनता से
लेकिन दिल्ली करीब है पटना से
बाथे से दूर नहीं है सेनारी
बहुत दूर नहीं है गोधरा से मउ
न ही भागलपुर से जबलपुर
न नोवाखली से मुजफ्फर नगर
न कश्मीर से दंतेवाड़ा
और न ही मुंबई से असम
मैने जाना कि-
हथेली में कमल का अनोखा रिश्ता है
हाथी पर लालटेन लिए अपने तरकस में तीर संभाले
मेरे घर में आग लगा सकता है कोई माननीय
सेटेलाइट के जमाने में साइकिल पर सवार हुए
मेरे गाँव का चाँद चुराने वह आ जाता है देर सबेर
इसी बीच सरकार ने घोषणा की -
“ जब नजदीकियों की बात हो रही है
तो क्यों न प्याज और सेब की कीमत को नजदीक कर दिया जाय
अभी मैं इसे एक कर देता हूँ और वादा करता हूँ -
पेट्रोल और पानी को एक दिन करीब कर दूँगा.”
फिर मैं क्या करता
मगध को वैशाली के और करीब कर दिया
भुसावल, हाजीपुर, मुजफ्फरपुर और नासिक को
एक खेत में पाट दिया
अयोध्या को अलीगढ़ से मिला दिया
इलाहाबाद के संगम पर हैदराबाद के चारमीनार को खड़ा कर दिया
करीब करने की लत ऐसी लगी कि
न तो मैं इस देश में कहीं फिट हो रहा था
न ही गाँव, घर, शहर, समाज में
मुझे कहीं फिट होना था
इसलिए दूर रहना चाहते हुए भी उसे करीब कर लिया
यक़ीन करिए उसे करीब करना, उसे प्यार करना
यानी मेरा प्यार इंसान की स्वाभाविक घटना नहीं थी
हो भी कैसे सकती जिसके पुरखे खुद को ज़िंदा रखने के लिए
अपनी सांसो से ज्यादा खुद को बदल कर सालों से जीते आ रहे थे
यह तो बस इंसान की जद में शामिल होने की ख्वाहिश भर थी
या एक चाहत कि खुद को सरकार के कंधों पर सर रखने की बजाय
प्रेमिका के सिरहाने पर अपनी टूटती ज़िंदगी की मौत बिछा दी जाय
या यह एक कोशिश कि सरकार के भौतिक सुखों से अलग
एक ऐसी दुनिया बनाई जाए जो सब सुखों पर भारी पड़ जाए
मेरा प्यार इस समय के सुखों से अलग दुनिया बनाने के सिवा कुछ नहीं है
मेरा प्यार प्यार नहीं
हारने वाले के हत्थे लगा एक धारदार हथियार है
उसके बाद जो होता गया
रोज की तरह दो कदम बढ़ा देता उसकी तरफ
उसे भी चुटकुले पसंद नहीं थे
लेकिन जिम्मेदारियां निभाना खूब जानती थी वह
अपनी पसंद की वजह से सरकार की मुखालफत कर रही थी
लेकिन जिम्मेदारियों तले भूल गई कि सरकार द्वारा संक्रमित कोई उसकी तरफ रोज
कदम बढ़ा रहा है
नदी से मैं इत्तेफाक़ रखता था
इसलिए एक दिन नदी मेरे पास आई
मेरी बातों पर किसी को यक़ीन नहीं होगा
नहीं तो दिखाता उस वक्त को
जब धरती अपन अक्षों के अलावा
कहाँ-कहाँ नहीं झुक जाती
जब मुझे लौट आना होता है
कवच युक्त मील के पत्थर से
नदी से हुई मेरी बातों पर कोई यक़ीन नहीं करेगा
नहीं तो बताता नदियों की सागर यात्रा
ठुकराए हुए सफ़र की दारूण गाथा है
नहीं तो नदी सागर में मिलने के बजाय पहाड़ो से लिपट कर ही रह जाती
मैदानों में बिखर जाती
या चली आती किसी मरूथल की ओर
और क्या यह अच्छा नहीं होता कि मेरी ज़िंदगी में प्यार एक स्वाभाविक इंसानी
घटना की तरह आता
मेरे लिए प्यार धारदार हथियार नहीं कलियों का हार होता
कहीं अपनी तरफ खींचता हुआ कोई समुद्र नहीं होता
कहीं हाहाकारती हुई सरकार नहीं होती
भले ही कोई नदी की बातों पर यक़ीन ना करे
नदी की पीड़ा उस वक्त हद से गुजर जाती
जब सागर का दानवी खिंचाव
मिलने के लिए हाहाकारता
और नदी अपनी पूरी ताक़त से लौट आना चाहती है
अपने पहले कदम की गहराई की तरफ
मैं भी नदी की तरह
***
नस्ल
बदरंग सा, बदहवास सा
यह मुल्क जब आजाद सा हुआ था
लोगों ने सोचा वे अपनी आखिरी बदहवासी से बाहर आ जाएंगे
कोई हैवानियत उनका पीछा नहीं करेगी
यह मुल्क लोग नहीं छांह जनमेगा
कोई आदमी नहीं छांह मरेगी यहाँ
पर यहाँ तो
नदियां पेड़ों की तरह सूख रही थीं
कोई पूछने वाला नहीं था
नर्मदा में क्यों नहीं बह रही है नर्मदा
मैं लोकतंत्र में आस्था रखता हूँ और हथियार लेकर नहीं खड़ा हूँ
फिर भी पूछ सकता हूँ
क्यों अरूंधति राय शोभा डे की तरह चमकीली पार्टियों में नहीं जाती
क्या अरूंधति कम सुंदर है शोभा से
या फिर उनसे खराब लिखती है?
अंबानी, मित्तल, जिंदल, टाटा, बिरला के देश में
बारह सालों से क्यों भूखी है इरोम शर्मिला
क्या बिहारियों की भरमार ने इरोम को भूखा कर दिया है?
अट्ठाईस राज्यों, विधायिका, न्यापालिका, कार्यपालिका
जल-थल और वायु सेना से सुसज्जित संसद के रहते
कैसे मार दिए जाते हैं संतेंद्र दूबे, मंजूनाथ जैसे सरकारी मुलाज़िम
क्या इन सरकारी सेवकों को नक्सलियों ने मारा है ?
क्यों आदमी पेड़ों की तरह काटे जा रहे हैं
कटा हुआ आदमी कैसे गा सकता कोई देश भक्ति गीत?
आप अपनी गरदन काट कर देखिए
फिर कहिए कि कितनी शांति मिल रही है भक्ति गीतों से
जनता बंदा बन के सिसक रही थी
सरकार खुदा बन के चमक रही थी
ऐसी बदरंगियत में
एक रंग के लिए जंग छिड़ी थी
अतड़ी में दाने की जगह छुरे डाले जा रहे थे
तड़पते दिल में
दवा की जगह गोली डाली जा रही थी
खून से छींटदार हो रही थी धरती
बदल रहा था पनघट मसान में
मौसम आँसू के सहारे खड़े थे
सरकार अपने लिए मौसम बना कर झूम रही थी
एक बुढ़िया
बेटे के लौट आने की उम्मीद से काँपती हुई खड़ी थी
एक बूढ़ा
बेटे से बेकार होते खोते लड़के के लिए छटपटा रहा था
लड़कियाँ
दूसरों के घरों में जगह पाने व हारने के सहारे खड़ी थी
कई रंग बदरंग हो रहे थे
एक रंग के लिए जंग छिड़ी थी
एक छींटा परिंदे पर भी पड़ा
परिंदे हैरान हो रहे थे
इस हैरानी में वे आकाश के विस्तार में उड़ते रहे
निशान खोजते रहे कि उड़ने में कैसे शामिल हो सकता है खंजर
नीलिमा को सेने में क्या जरूरत है सिकंदर की
परिंदे सीमाओं से अंजान लौट आए
आदमी सीमाएं खींचने के लिए हवन कर रहा है
जेहाद कर रहा है
आदमी की संसद अफीम से धर्म को बाहर नहीं कर पा रही
अपने-अपने रंगों को पाने में पगलाए आदमी से
क्षुब्ध होने लगे है परिंदे
लुप्त होने लगे हैं परिंदे
आदमी इससे बेपरवाह और बिना उदासी के
अपनी सीमाओं के लिए
अपनी नस्ल के परिंदे तैयार कर रहा है
संपर्क-
शेषनाथ पाण्डेय,
ई-मेल- sheshmumbai@gmail.com
मोबाईल: +91 9594282918
Doosari kavita khaastor se pasand aayee... badhai! Abhaar santosh jee.
जवाब देंहटाएंदूसरी कविता के लिए विशेष रूप से धन्यवाद,,,बुधाई के साथ शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंकुमार कृष्ण शर्मा (जम्मू व कश्मीर)
दूसरी कविता के लिए विशेष रूप से धन्यवाद,,,बधाई के साथ शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंकुमार कृष्ण शर्मा (जम्मू व कश्मीर)