अमीरचंद वैश्य



इस बार समीक्षा के क्रम में हम राहुल राजेश के कविता संग्रह सिर्फ घांस नहीं' की समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं। यह समीक्षा हमारे लिए वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य जी ने किया है।  


 आज मेरे सामने नया काव्य-संकलन है "सिर्फ़ घास नहीं" । इसके रचयिता हैं श्री राहुल राजेश। दुमका (झारखंड) के एक छोटे-से गाँव अगोईयाबाँध में 09 दिसंबर, 1976 को जन्मे राजेश आज के युवा कवि हैं। हिमाचल प्रदेश के संस्कृति विभाग की द्विमासिक पत्रिका 'विपाशा' द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता-2009 में द्वितीय पुरस्कार अर्जित कर चुके हैं। उनका यह संकलन पढ़ने-समझने से अनायास ज्ञात हो जाता है कि राजेश ने सहज सहृदयता से कवि-कर्म अपनाया है।

            राहुल राजेश का यह पहला काव्य-संकलन "सिर्फ़ घास नहीं" साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ने सन् 2013 में प्रकाशित किया है। अपनी नवोदय योजना के तहत। इस संकलन की भूमिका वरिष्ठ कवि-आलोचक श्री नंदकिशोर आचार्य द्वारा लिखी गई है। शीर्षक है- 'कविता की अपनी प्रक्रिया पर भरोसा' । प्रश्न उपस्थित होता है कि आजकल उपभोक्ता समय में कोई संवेदनशील व्यक्ति कविता क्यों रचता है? मनोरंजन के लिए? अथवा यश के लिए? या उद्दाम अभिव्यक्ति की स्वभाविक अभिलाषा के लिए? वास्तविकता यह है कि घनघोर विषमता की पीड़ा से अस्त-व्यस्त सामाजिक जीवन इतना दुख-दग्ध हो गया है कि सहृदय कवि उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता है। तभी तो महाकवि निराला ने आजाद भारत के अभावग्रस्त जन-गण-मन की व्यथा गहराई से महसूस करके लिखा था-

"माँ, अपने आलोक निखारो,
नर को नरक-त्रास से बारो।
विपुल दिशावधि शून्य वर्गजन,
व्याधि-शयन जर्जर मानवमन,
ज्ञान-गगन से निर्जर जीवन,
करूणा करो, उतारो, तारो॥"


           अर्थात् आज कवि-कर्म के लिए गंभीर मानवीय करुणा के साथ-साथ वर्गीय जीवन-दृष्टि अनिवार्य है। राहुल राजेश भी अपने देश-काल की व्यथा-कथा सुन-समझकर उसे व्यक्त करना चाहते हैं। भूमिका-लेखक ने अंग्रेजी कवि ऑडेन के अभिमत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि कवि ऑडेन के अनुसार, यदि कोई युवा कवि 'अपने कानों के आस-पास मँडराते हुए शब्दों को सुनना चाहता है तो उसे कविता लिखना जारी रखना चाहिए'। लेखक ने भूमिका में आगे यह भी लिखा है कि "राहुल राजेश की कविताओं में जहाँ समकालीन काव्य-संसार को निर्देशित-नियंत्रित करने की कोशिश करने वाली मतवादिता के आतंक की अनुपस्थिति है, वहीं अधिकांश कविताएँ मनुष्य को मनुष्य के रूप में अनुभव करते रहने पर बराबर आग्रहशील हैं।" (पृ.06)

           आचार्य जी के इस कथन का आशय यह है कि कवि-कर्म को किसी भी मतवाद के आतंक से मुक्त रहना चाहिए। परंतु हिंदी कविता की प्रमुख काव्यधारा, जो लोकधर्मी है, आचार्य जी के इस कथन के विरूद्ध है। तुलसी दास का प्रसिद्ध काव्य-सिद्धांत है कि

"जो बरसै बर बारि विचारू
होहिं कवित मुक्ता-मन चारू।" 

आधुनिक हिंदी के प्रतिबद्ध कवि नागार्जुन तो स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-

"इतर साधारण जनों से अलहदा होकर रहो मत
कलाधर या रचयिता होना नहीं पर्याप्त है
पक्षधर की भूमिका धारण करो
विजयिनी जन-वाहिनी का पक्षधर होना पड़ेगा।" 

जनकवि नागार्जुन की काव्य-चेतना से प्रभावित होकर अनेक वरिष्ठ एवं कनिष्ठ कवि अपने-अपने कवि-कर्म को जनपक्षधरता से निरंतर जोड़ रहे हैं। हाँ, कुछ रूपवादी कलाधर कवि ऐसा नहीं कर रहे हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि भाव-प्रसार में विचार-प्रवाह शामिल रहता है। श्रेष्ठ कविता के लिए भाव-बोध, विचार-बोध, इंद्रिय-बोध अनिवार्य हैं। कवि की कल्पना-शक्ति इन तीनों का संश्लेषण करती है।

        पहले ही कहा जा चुका है कि राहुल राजेश सहृदय कवि हैं। उन्होंने कवि-कर्म को दायित्वपूर्ण ढंग से अपनाया है। अमीर मीनाई का यह शेर प्रत्येक संवेदनशील कवि/शायर पर लागू होता है-

"खंजर चले किसी पे, तड़पते हैं हम अमीर
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।" 

यह शेर कवि राहुल राजेश पर भी लागू होता है। वह 'अब ग़ैर-ज़रूरी तो नहीं' कविता में कहते हैं-

"निश्चल हृदय में संचित
थोड़ी-सी प्रेम-राशि
थोड़ा-सा नमक
थोड़ी-सी मिठास
थोड़ा-सा पानी
थोड़ी-सी आग
कभी किसी को आहत न करने की
लघु किंतु स्थायी तृप्ति
किसी की वेदनाओं को सहलाने का
थोड़ा-सा सुख
कुछ न देकर भी
बहुत कुछ दे पाने का
नन्हा-सा विश्वास
आँखों के लिए
थोड़ी-सी घास
उड़ने के लिए थोड़ा-सा आकाश
जीने के लिए
अब ग़ैर-ज़रूरी तो नहीं (है)
इन चीज़ों का/ होना अपने पास?" (पृ.16) 

यह कवितांश साक्षी है कि राजेश सहज सहृदय कवि हैं और वे परदुख से कातर भी होते हैं।

          मानवीय करुणा सेंत-मेंत का सौदा नहीं है। करुणापरायण व्यक्ति दीन-दुखी व्यक्ति के प्रति सेवा-संलग्न होता है। राहुल राजेश ने करुणा से प्रेरित होकर कई कविताएँ रची हैं। हमारे समाज में निरीह स्त्री सर्वाधिक पीड़ित है। होती रहती है। वह गाँव से कस्बे तक, कस्बे से नगर तक और नगर से महानगर तक तिरस्कृत और अपमानित होती रहती है। वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। वह सामंती उत्पीड़न से प्रताड़ित होती रहती है। पूँजीवादी व्यवस्था ने अपने लाभ के लिए उसे नुमाईश की चीज़ बना दिया है। राहुल राजेश ने ऐसे दुख-दग्ध स्त्री के प्रति कई अच्छी कविताएँ रची हैं। ऐसी ही एक कविता है- 'मैं एक ऐसी औरत से प्यार करता हूँ' । इसमें उन्होंने अपनी करुण संवेदना व्यक्त करते हुए कहा है-

"मैं एक ऐसी औरत से प्यार करता हूँ
जिसके कदमों में अपनी हँसी उड़ेल आता हूँ
और आँखों में आँसू भर लाता हूँ।" (पृ.148) 

संपूर्ण कविता में शीर्षक-पंक्ति कई बार दुहराई गई है, जिससे कवि ने अपने मनोभाव को गंभीर प्रभाव से अन्वित किया है।

         मानवीय करुणा से प्रेरित राहुल राजेश 'वे हाथ' देखकर कहते हैं-

"जिन पत्थरों को हमारे हाथों में होना चाहिए
दे मारने के लिए
हम उन्हें सीने में उठाए फिर रहे हैं
 ... राख में से भी ढूँढ़ निकालते थे
जो चिनगारी/ कहाँ गए वे हाथ?" (पृ.118)

 दरअसल, 'वे हाथ' केवल आक्रोश से ही नहीं, करुणा से भी अन्वित थे, जो हिंसा की राख में से आशा-सद्भाव की चिनगारी निकाल लेते थे। आज संपूर्ण विश्व के लिए हिंसा की नहीं, अपितु अहिंसा की परम आवश्यकता है। यही करुणा राजेश को 'एक परिंदे की लाश' की ओर भी आकृष्ट करती है-

"कोई नहीं पूछ रहा
इस परिंदे का घर कहाँ है
कैसे मरा, गलती किसकी थी
किसी ने भी पुलिस को
इसकी सूचना नहीं दी
इसकी नन्ही चोंच में अब भी
अटके हैं अनाज के दो-चार दाने
नन्हे बच्चों के लिए, जो बड़ी बेसब्री से
कर रहे होंगे इंतजार
उसके लौटने का
 ... कोई नहीं कहने जा रहा
 ... यह मोटर-कारों की सड़क है
तुम्हारी सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं (है) यहाँ।" (पृ.39-40) 

ऐसी संवेदना कवि ही व्यक्त कर सकता है। आते-जाते राहगीर तो उपेक्षा भाव से अपना-अपना रास्ता नापने लगते हैं। आज करुणापरायण राजकुमार सिद्धार्थ नहीं हैं। हैं तो बहुत कम हैं।

         मानवीय करुणा से प्रेरित होकर राहुल राजेश ने 'बहनें' कविता में वर्तमान सामाजिक विसंगति की ओर संकेत किया है, निरायास ढंग से-

"आश्चर्य!
घर में सबसे पहले
जवान होती हैं बहनें
और पिता के बूढ़े होने से पहले ही
बुढ़ाने लगती हैं बहनें!" (पृ.32) 

ऐसा इसलिए है, क्योंकि दहेज का दानव समय से पहले ही उन्हें अकाल-वृद्ध बना देता है।

         संकलन की 'पारपत्र' कविता इसलिए श्रेष्ठ है कि वह आज के उत्तर-आधुनिक युग की वास्तविकता उजागर कर रही है। विरोधी परिदृश्य का आश्रय लेकर। आजकल की व्यवस्था में उन स्त्रियों को पारपत्र मिलेगा,

"जो चमचमाते दाँतों और
रेशमी बालों के बूते
करेंगी जनहित के कार्य।"(पृ.19)

और उन्हें भी पारपत्र प्राप्त होगा,

"जिनके पास हो ग्लोबल कॉन्सेप्ट
डॉलरों में पूर्ण-परिवर्तनीय थिंक-टैंक
इलेक्ट्रॉनिक बटनों पर बदहवास नाचती उँगलियाँ
कुल मिलाकर, सेंसेक्स से भी ज्यादा
सेंसिटिव हो जिनका व्यक्तित्व!"(पृ.20) 

अत: राजेश व्यंग्य के लहजे में आक्रोश व्यक्त करते हुए कहते हैं-

"कवियो, सावधान!
आपको नहीं मिल सकता पारपत्र
क्योंकि आपकी संवेदनशीलता विश्व-बाज़ार में
कहीं दर्ज़ नहीं
... आपकी चिंताओं में बेवजह शामिल हैं
कभी सब्जी न चख पाने वाले हजारों चंद्रबाली
केवल एक ही साड़ी में वर्षों गुजारने,
मुश्किल से तन ढँक पाने वाली तेरह करोड़ महिलाएँ
तीन नहीं, चार नहीं,
पूरी नब्बे करोड़ जनता!" (पृ.21)

         प्रसंगवश, उल्लेखनीय है कि एक बीस-वर्षीय बालक चंद्रबाली ने कभी सब्जी न चख पाने की आत्मग्लानि में आत्महत्या कर ली थी। यह कविता इसलिए श्रेष्ठ है कि राजेश ने वर्तमान समाज की विषम दृश्य प्रस्तुत करके अपनी करुणा निरीह जनों के प्रति व्यक्त की है। आजकल भारतीय बृहत् समाज में ऐसे अनेक दृश्य दिखाई पड़ते हैं। लगभग प्रतिदिन। मुनव्वर राना ने हमारे समाज की यह ज्वलंत हकीकत एक शेर में इस प्रकार व्यक्त की है-

"मुफलिसी जिस दिन तू मेरा मुकद्दर हो गई
जिंदगी जैसे किसी बेवा की चादर हो गई।"

            हमारे तथाकथित उत्तर-आधुनिक युग में संचार-क्रांति ने विश्व को तो ग्राम में बदल दिया। लेकिन क्रूर पूँजी ने अमीरों को और अधिक अमीर बनाया है। गरीबों को और अधिक गरीब। समाज की अधिकतर आबादी भुखमरी और कुपोषण से अत्यधिक पीड़ित है। इसलिए कवि 'एक निर्वासित प्रश्न' में श्रमशील जन की ओर से सबसे पूछता है-

"धूप से पूछता पसीना
पसीने से नमक
नमक से पूछती भूख
भूख से देह
देह से पूछता बाज़ार
बोलो, तुम किनके कर्जदार?
किनके कर्जदार??" (पृ.34) 

सत्य यह है कि पसीना बहाने वाले प्राय: कर्जदार रहते हैं। उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद के 'गोदान' का होरी आजीवन कर्ज़ से पीड़ित रहा। अंततोगत्वा उसे मजदूर बनना पड़ा। आज भी कर्ज़ या ऋण किसान-जीवन की प्रमुख समस्या है, जो किसानों को हताशा से भर रही है। इस कविता की प्रश्नात्मक शैली उन शोषक शक्तियों की ओर संकेत कर रही है, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रूप में सुरसा के समान अपना मुख खोलती जा रही हैं।




 मानवीय समाज और व्यक्ति दोनों द्वंद्वात्मक हैं। मनुष्य के जीवन-प्रवाह में सुख-दुख, आशा-निराशा, उत्साह-अनुत्साह, हार-जीत, सफलता-असफलता आदि के आवर्त उठते-गिरते रहते हैं। राहुल राजेश का कवि-मानस भी द्वंद्वात्मक है। इस दृष्टि से उनकी कई कविताएँ इस संकलन में हैं। एक कविता है- 'मैटरनिटी वार्ड',  जिसमें प्रसव की कराह और नवजात शिशुओं की किलकारियों का निरूपण कलात्मक ढंग से किया गया है। देखिए-

 "पूरा अस्पताल एक बार फिर
महक उठेगा अभी-अभी जन्मे
शिशु की खुशबू से
मौत एक बार फिर थर्राएगी जिंदगी से।" (पृ.117) 

यह है जीवन के प्रति आशावादी जीवन-दृष्टि। इस दृष्टि से कवि ने नर और नरेतर जगत् के चयनित प्रसंगों का आत्मीय निरूपण किया है।

          समाज की इकाई परिवार है। सहृदय राजेश ने संकलन की पहली ही कविता 'परिवार' में अपने परिवार के परिजनों- माँ, पिता, बहन, भाई, दादा, दादी के प्रति सहज आत्मीय अभिव्यक्ति की है। माँ पर एक से अधिक कविताएँ हैं। 'माँ' कविता में सक्रिय जीवन रुपायित किया गया है। यथा-

"माँ है तो
भिनसरवे ही लय में
गुनगुनाने लगता है झाड़ू
हम सबके जगने से पहले ही
आते हैं माँ कहकर
निकल जाते हैं कबूतर
 ... माँ है तो
बन जाती है
मेरे और पिता के बीच पुल
बुखार में गरदन का तावीज
पिता के गुस्से पर पानी
माँ है तो देर से लौटकर
नहीं आते पिता...
माँ है तो
कितना अच्छा लगता है
बहुत दिनों बाद बहुत दूर से
घर लौटकर आना...।" (पृ.24-25)

         ध्यातव्य है कि वर्तमान समय के उपभोक्तावादी समाज में वृद्ध माता-पिता को प्राय: विस्मृत कर दिया जाता है, जो समाज के लिए भयंकर त्रासदी से कम नहीं है। लेकिन कवि राजेश का स्वभाव समाज की दूषित प्रवृति के विपरीत है। 'कोई तो हो' कविता में वह अकेलेपन की अनेक मर्मस्पर्शी बातें अपने पाठकों से कहते हैं-

"कोई तो हो
जिसे मैं लिखता रहूँ रोज की बातें
 घर की परेशानियाँ, माँ का दुख
अभावों का बोझ, रिश्तों की राजनीति
बापू-ताऊ-दादी-चाची के रोज के झगड़े
घर के घर न रह जाने की बात
एक पूरे चहकते घर के खंडहर में
तब्दील हो जाने की कहानी
और इन सबके बीच खुद के पिस जाने
घुट जाने की व्यथा।" (पृ.41) 

कवि की इस व्यथा का कारण है- आजकल बदलते-टूटते आत्मीय संबंध। ऐसा पूँजी के क्रूर व्यवहार के कारण हो रहा है। इस व्यवस्था में अपने-पराये सभी स्वारथ के लिए प्रीति करते हैं। बेमतलब कोई किसी से बात तक नहीं करता है। राजेश ने इसी दूषित प्रवृति पर 'मतलब बेमतलब' शीर्षक कविता में मर्मस्पर्शी प्रहार किया है। कविता में छोटे-छोटे कई सामाजिक संदर्भ हैं। यथा-

"अजीब हाल है
अब बेमतलब कुछ भी नहीं किया जा सकता
बेमतलब मिला नहीं जा सकता
बेमतलब कहीं जाया नहीं जा सकता
अब बेमतलब गपियाया नहीं जा सकता
अब बेमतलब पीछे से आवाज नहीं
दी जा सकती किसी को
किसी को बेमतलब टोका नहीं जा सकता (है)।" (पृ.131-132)

           कवि की इस मनोव्यथा में आजकल का उपभोक्तावादी स्वार्थ झलक रहा है। और उसका नि:स्वार्थ भी। कौन नहीं जानता है कि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था अपना मतलब साधने के लिए कोई भी अनाचार-दुराचार-अत्याचार कर सकती है और कर रही है। वर्गीय समाज में कोई भी मतलब, बेमतलब नहीं होता है। सत्ता अपना काम साधने के लिए निम्नवर्ग को नसैनी की तरह इस्तेमाल करती है। हमारा पूँजीवादी लोकतंत्र इसी मतलब पर टिका हुआ है। रहीम तो लिख ही गए हैं-

"काज परे कछु और, काज सरे कछु और
रहिमन भांवर के परे, नदी सिरावत मौंर॥" 

कवि ने भी 'मतलब बेमतलब' कविता के अंत में चालू स्वार्थी व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए ठीक लिखा है-

"उनका मतलब बस इतना ही
हम उनका मतलब न समझ पाएँ
उनके इस मतलब के आगे
हम सब बेमतलब हैं!" (पृ. 133)

           लेकिन निराशा का यह स्वर स्वार्थी व्यवस्था को नहीं बदल सकता है। इससे तो यथास्थिति जस की तस बनी रहेगी। आज परम अनिवार्य है सामूहिक-संगठित प्रतिरोध, जो तभी संभव है, जब मध्यम-वर्गीय कवि, मुक्तिबोध के समान व्यक्तित्वांतरण करे और निम्नवर्ग के श्रमशील जनों से आत्मीय संबंध जोड़कर जातिवाद एवं संप्रदायवाद का तिरस्कार करे। निम्नवर्ग और मध्यवर्ग दोनों को वर्गीय जीवन-दृष्टि अपनाने के लिए प्रेरित करे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो सत्ता अपना मतलब साधती रहेगी। वोट बटोरने के लिए वह कुछ टुकड़े और सामान बाँटती रहेगी।

          अपने देश में आजादी के बाद विवेकहीन विकास तो हुआ, पर विनाश के बीजारोपण के साथ। महंगाई निरंतर बढ़ती जा रही है। भुखमरी, बेरोजगारी, अपराध का राजनीतिकरण, लूट-मार, बलात्कार, भीषण भ्रष्टाचार निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं। कोई भी मंत्री, नेता, उच्च पदाधिकारी से लेकर चपरासी-बाबू तक- कोई भी दूध का धुला नहीं है। साहित्य-संसार के सामंत भी इसके सहचर हो गए हैं। दुष्यंत कुमार ने आपातकाल में जो घोषित किया था, वह आज भी शत-प्रतिशत सच है-

"मत कहो आकाश में कुहरा घना है
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
 ... इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।"

         यदि कवि सच्चरित्र नहीं है तो वह उत्कृष्ट कवि-कर्म का निर्वाह नहीं कर सकता है। अत: काव्य-साधना के लिए श्रेष्ठ कवि को पद-पुरस्कार-प्रतिष्ठा का लोभ त्यागना पड़ता है। डॉ. रामविलास शर्मा का जीवन इस सच्चाई का स्मरणीय प्रमाण है। उन्होंने सम्मान तो स्वीकार किया था, लेकिन धनराशि ठुकरा दी थी। राहुल राजेश ने भी अपनी कविता 'पिता का वसीयनामा' में पिता का वसीयतनामा स्वीकारते हुए स्वयं का संस्कार किया है। परंपरा से रागात्मक संबंध जोड़ा है। 'माटी जैसा होना' सीखा है। 'सच की खातिर, हक की खातिर लड़ना' सीखा है। 'काशी-काबा दोनों को पूजना' सीखा है। 'कुछ माँगना ही हो तो बस थोड़ा-सा आशीर्वाद माँगने' की बात सोची है। (पृ.65-66)

       राहुल राजेश ने अपनी कमजोरियों को भी नहीं छिपाया है। एक कविता का शीर्षक है- 'स्वीकारता हूँ मैं' । इस कविता में कवि ने बिना किसी संकोच के अपने प्रेम-संबंध स्वीकारे हैं। अपने मानसिक द्वंद्व का स्पष्ट निरूपण किया है। यथा-

"ईमानदार बने रहने की जिद
और गरीब रह जाने के भय में
गरीब रह जाने का भय ही रहा हावी
पर हर बार याद आई बुजुर्गों की कही बात
कि बदनीयत होने से अच्छा है बदनसीब होना।"

उनकी और एक स्वीकारोक्ति देखिए- 

"कई-कई बार गिरा ईर्ष्या और क्षोभ के गर्त में
कई-कई बार चाहा
अंदर से बन जाऊँ बहुत बुरा आदमी
और बाहर से दिखूँ बहुत भला आदमी
पर हर बार बचता रहा
बुरा बनने से
कि इस बुरे वक्त में बुरा बनने के
सारे साधन मौजूद होने के बावजूद
बुरा बनने की हिम्मत न जुटा सका
स्वीकारता हूँ मैं! (पृ.62-64) 

प्रश्न है कि कवि बुरा बनने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाया? उत्तर है उसका कवि-कर्म, जो जीवन की आलोचना करते समय बुरे को बुरा और अच्छा को अच्छा बताया करता है। असली चेहरे पर मुखौटा लगाकर कवि-कर्म असंभव है। सच्चा कवि डंके की चोट पर घोषणा करता है-

"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझ-सा बुरा न कोय!"

          राहुल राजेश की स्वीकारोक्तियों को पढ़-समझकर यह स्पष्ट हो रहा है कि कवि निर्मलता का वरण करने का प्रयास करता है। संभवत: उसे सारे संसार की चिंता रहती है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि वह पर्यावरण के रक्षार्थ भी चिंतित है। आजकल स्वार्थी विकास ने पर्यावरण का विनाश किया है। उत्तराखंड का जल-प्रलय कांड इसका ताजा प्रमाण है। तभी कवि प्रार्थना के शिल्प में कहता है-

"बची रहें
घरों में चींटियाँ
रोशनदानों में घोंसले
 .... बचा रहे
पेड़ों की छाल में अर्क
हवा में फूलों को चूमने की बेताबी
बची रहे हममें
प्रेम करने की जीवन-भर इच्छा।" 

और यह भी कि

"बची रहें कविताएँ
पृथ्वी की चाक पर झुकीं
कुम्हार-सी।" (पृ.52-53) 

यह कवितांश राहुल राजेश के सहृदय कवि-रूप से साक्षात्कार करा रहा है। वह अपने लिए 'प्रेम करने की जीवन-भर इच्छा' करता है। साथ ही साथ, प्रकृति जगत् के अन्य प्राणियों के प्रति भी संवेदनशील है। संभवत: इसलिए उसने अभिव्यक्ति के लिए कवि-कर्म चुनकर भविष्य के लिए 'बची रहें कविताएँ' की कामना की है, क्योंकि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। आचार्य शुक्ल के अनुसार, कविता मनुष्य को स्वार्थ-संकुचित घेरे से बाहर निकालती है।

(चित्र: कवि राहुल राजेश)

 'भाव-भेद रस-भेद अपारा' के अनुसार, कवि का मानस अनंत भावों से आंदोलित होता है। ऐसे भावों में युवा कवियों के लिए प्रेम अनिवार्य है, क्योंकि प्रेम ऐसा प्रबल मनोभाव है, जो सांप्रदायिकता, अंतरजातीयता, अंतरप्रांतीयता, अंतरराष्ट्रीयता के बंधन टूक-टूककर देता है। प्रेम का उद्दात रूप जीवन का सार तत्व है। एक समय था, जब प्रगतिशील आंदोलन ने प्रेम की प्राय: उपेक्षा की थी। उस समय के महान शायर फैज अहमद फैज़ ने घोषित किया था-

"और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा/ राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा/ मिरी महबूब, मुझ से पहली सी मुहब्बत न माँग।" लेकिन कालांतर में प्रगतिशील कवियों और शायरों का मूड बदल गया। उन्होंने अपनी-अपनी कविताओं में दांपत्य प्रेम को वरीयता प्रदान की, काल्पनिक प्रेम को नहीं। सुमित्रानंदन पंत की कविता 'भावी पत्नी के प्रति' के समान। केदारनाथ अग्रवाल-नार्गाजुन-त्रिलोचन की अनेक कविताएँ दांपत्य प्रेम की साक्षी हैं। इस प्रेम का प्रवाह कर्तव्य की ओर उन्मुख है। यथा- "आए न बहुत दिन बादल/ बरसा न बहुत दिन पानी/ मिलकर वे दोनों प्राणी दे रहे खेतों में पानी।" (त्रिलोचन, 'धरती' से उद्धृत) निराला ने भी लिखा था- "तुम्हीं गाती हो अपना गान/ व्यर्थ पाता हूँ मैं सम्मान।" विजेंद्र तो दांपत्य प्रेम के श्रेष्ठ कवि हैं।

           विषयांतर हो रहा है। लेकिन अनिवार्य है। आज की युवा कविता का रचना-संसार बहुत व्यापक है। उसमें प्रेम-भाव भी शामिल है। नित्यानंद गायेन के काव्य-संकलन का शीर्षक ही है- 'अपने हिस्से का प्रेम' । ऐसा इस व्यवस्था में मुश्किलों को झेलने के बाद ही प्राप्त होता है। जिस दौर में खाप पंचायतें प्रेमी-प्रेमिका को मौत के घाट उतार देती हैं, अथवा प्रेमी ही प्रेमिका का कत्ल कर देता है अथवा वह उस पर तेजाब डाल देता है, उसमें प्रेम कविताएँ लिखना साहस का काम है। राहुल राजेश के इस संकलन में कई प्रेम कविताएँ हैं। देह-गंध से परिपूर्ण। चिंताओं से मुक्त। उत्साह से लबरेज। यथा, 'आज इस तरह' कविता की पंक्तियाँ पढ़िए- "आज इस तरह तेरे प्यार में डूबना/ बेहद अच्छा लग रहा है/ खूब झमाझम बारिश में बेलौस/ भींगते बचपन की तरह/ मैं देर तक भींगते रहना चाहता हूँ/ इस प्यार में।" (पृ.110)

          कवि के वाक्यों से उल्लास अनायास अभिव्यक्त हो रहा है। उदात्त प्रेम भी सौंदर्य के प्रति अनायास खिंचता चला जाता है। मीर तकी 'मीर' फरमाते हैं- "नाजुकी उसके लब की क्या कहिए/ पंखड़ी इक गुलाब सी है/ मीर उन नीम-बाज़ आँखों में/ सारी मस्ती शराब की सी है।" शायद इसीलिए 'प्रेम में जीवन' का कवि अथवा प्रेमी कुछ और भी अनुभव करता है- "प्रेम में हम ऐसे समय को/ जी रहे होते हैं जिसकी प्रतीक्षा/ बनी रहती है उम्र-भर/ प्रेम में हम ऐसे प्रेम को/ जी रहे होते हैं/ जो कभी नहीं आता जीवन में!" (पृ.114) कवि की 'तलाश' कविता पर अज्ञेय का हल्का-सा प्रभाव लक्षित होता है। यथा: "यहाँ से वहाँ तक/ न जाने कहाँ से कहाँ तक/ ब्रह्मांड की धमनियों में/ रक्त की तरह दौड़ रही/ मेरी आत्मा/ तुम्हारी तलाश में/ प्रिये, तुम कहाँ हो?" (पृ.96) कवि की यह बेचैन तलाश स्वभाविक है, क्योंकि प्रेम सान्निध्य चाहता है। सहचरत्व की अभिलाषा करता है।

        राहुल राजेश का यह निजी प्रेम व्यापक होकर प्राकृतिक परिदृश्यों, अपने जनपद दुमका, अनाम घास, चिड़ियों, चुड़िहारिन, पहाड़ पर साँझ, असुंदर में सुंदर, बाँस, बेर, गन्ना, पानी, रात, दोपहर के वक्त, धुंध, मीता आदि से भी रागात्मक संबंध जोड़ता है।

          समीक्ष्य संकलन का शीर्षक "सिर्फ़ घास नहीं" कवि की व्यापक जीवन-दृष्टि की ओर संकेत कर रहा है। घास सिर्फ़ घास नहीं होती है। वह चमन की जीनत भी होती है। कहा गया है कि- "इस हिकारत से पायमाल न कर/ घास भी चमन की जीनत है।" इसीलिए राजेश लिखते हैं- "लगभग सफेद-सी इनकी जड़ें/ बित्ते-भर से भी नन्हा इनका क़द/ कहाँ से लाती इतना गाढ़ा हरापन/ किनकी आँखों से चुराया/ यह बाँकपन?/ इनकी नोकों पर टिकी ओस/ बहुत हद तक कर देती/ सूरज को नम!/ इन्हीं की मखमली देह पर/ रात-भर लोटता चाँद/ पशुओं के थन से उमगता यह क्षीर/ कोई विज्ञान नहीं.../ इन घासों का मातृत्व।" (पृ.33) यह कविता कवि के पर्यवेक्षण और सहज संवेदना का श्रीफल है। पका, मीठा और सुगंधित। स्मरणीय बात यह है कि हरी-हरी घास पशुओं का पेट भरती है। पशु किसानों के सगे मित्र होते हैं। घास ही गाय-भैंसों का भी पेट भरती है। उन्हीं से दूध प्राप्त होता है। इस प्रकार तुच्छ घास भी मानव-समाज के लिए परम अनिवार्य है।

           राहुल राजेश की कविताओं में श्रम-सम्मान की भी अभिव्यक्ति है। 'अन्न' शीर्षक कविता ऐसी ही है। किसान के पसीने की कमाई का नाम है अन्न। लेकिन इस अन्न का पूरा लाभ किसान को प्राप्त नहीं हो पाता है, क्योंकि "अन्न/ खेतों से उठकर आए खलिहान/ खलिहान को लील गईं बोरियाँ/ बोरियाँ पहुँची मंडी/ मंडी में भूख खरीदार/ ... किसान की आँखें नम/ एक बार फिर प्रण करता किसान/ नहीं... नहीं... नहीं बेचेंगे तुम्हें/ अबकी बार।" (पृ.57-58) लेकिन क्या यह संभव हो पाएगा? आजकल उत्तर-आधुनिक युग में कृषक वर्ग सबसे अधिक संत्रस्त और चिंताग्रस्त है। किसानों की आत्महत्याओं पर कम ही कविताएँ लिखी गई हैं।

          उत्तर-आधुनिक युग में अप्रत्याशित रूप से बहुत बदलाव उपस्थित हो गए हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में। एक जमाना था हमारी बाल्यावस्था में। कन्याएँ और सुहागिनें चूड़ी पहनने घर से बाहर नहीं जाया करती थीं। मुसलिम चुड़िहारिन घर-घर चूड़ियाँ पहनाने के लिए आया करती थीं। उनके या उसके साथ प्राय: उसके घर का कोई मर्द (बेटा) भी होता था। वह गलियों में आवाज़ लगाया करता था- 'चूऽऽऽड़ी पहनऽऽऽ लोऽऽऽ!' लेकिन चूड़ियाँ चुड़िहारिन पहनाया करती थी। राहुल राजेश ने 'चुड़िहारिन' शीर्षक कविता में ऐसी ही एक चुड़िहारिन को याद करके, उसके स्वभाव और उसकी क्रियाओं का वर्णन करके, सांप्रदायिक सौहार्द और उदात्त जीवन-मूल्यों का समादर किया है, जो आज की आतंकी सांप्रदायिकता के दौर में और भी अनिवार्य है। मेरी नजर में 'चुड़िहारिन' इस संकलन की श्रेष्ठ कविता है। कुछ पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं- "माथे पर रंग-बिरंगी चूड़ियों का इंद्रधनुष सजाए/ आवाज़ लगाती आती थी चुड़िहारिन/ दादी, कहती, वह मियाँइन थी/ उसकी खनक भरी आवाज़ से ही गाँव भर की/ औरतों की मचल उठती थीं कलाइयाँ/ ... बड़े बुजुर्गों को भी कभी परहेज नहीं रहा उससे/ कि गाँव की मान-मरजादा में ख़लल नहीं थी चुड़िहारिन/ एक अवसर थी रिश्तों की आवाजाही की/ कि उसके आने से ही कभी-कभी टूट पाती थी/ गाँव-भर की सीलन...।" (पृ.43-44) सीलन इमारत के लिए हानिकारक होती है। संबंधों के लिए भी सीलन कम हानिकारक नहीं होती है। सामाजिक जीवन में आत्मीय संबंधों की गरमाहट ज़रूरी है, जिसे चुड़िहारिन बढ़ाया करती थी अपने ढंग से। अपनेपन के भाव से।

          राहुल राजेश ने यदि 'यह हमारा ही समय है' जैसी कविता में वर्तमान काल के नवपूँजीवाद का घृणित रूप दिखाया है विज्ञापन के माध्यम से, तो दूसरी ओर 'पहाड़ पर साँझ' में प्राकृतिक परिवेश के साथ-साथ काम से लौट रही आदिवासी स्त्रियों के समवेत संथाली गीत को ध्यान से सुना है। और उनके हँसने-खिलखिलाने को भी। और 'बहुत दिनों बाद मेरा शहर'  में अपने गृह-नगर दुमका के बदलते हुए रूप को भी आत्मीय भाव से देखा-परखा है। उसका अतीत भी याद किया है। "कछुआई चाल से विकास के राजमार्ग पर बढ़ता/ महानगरीय अनुकृति में भरसक तब्दील होने की कोशिश करता/ यह शहर अब भी रात-भर सोता है/ बेहद इत्मिनान से आँखें मलता जागता है/ और भर दोपहर किसी पेड़ तले ऊँघता है।" (पृ.134-137) यह अंतिम अंश है इस कविता का, जिसकी अंतिम दो पंक्तियाँ अथवा दो वाक्य दुमका की यथास्थिति की ओर संकेत कर रहे हैं। अंतिम वाक्य तो श्रम से थके हुए श्रमिकों का बिम्ब प्रत्यक्ष कर रहा है। निराला की प्रसिद्ध पंक्तियाँ अनायास याद आ रही हैं-

"कोई न छायादार
पेड़ वह, जिसके तले बैठी हुई स्वीकार
श्याम तन, भर बँधा यौवन
नत नयन, प्रिय कर्म-रत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।"

दोनों में अंतर यह है कि दुमका तो छाया में ऊँघ रहा है, लेकिन वह मजदूर स्त्री धूप में पत्थर तोड़ रही है। किंतु अट्टालिका तरु-मालिका है।

          इस प्रकार हम देखते हैं कि राहुल राजेश ने अपनी कविता को अपने समय के साथ-साथ अपनी लोकधर्मी काव्य-परंपरा से भी जोड़ने का प्रयास किया है। वर्तमान काल की क्रूर व्यवस्था की आलोचना भी की है। लेकिन यथास्थिति तोड़ने के लिए जन-शक्ति का आह्वान नहीं किया है। हाँ, निजी स्तर पर स्वयं को कीचड़ से बचाने का प्रयास अवश्य किया है। इस प्रकार वह अपने समकाल से आँखें चार करने की कोशिश भी करते हैं।

           यहाँ यह भी काबिले-गौर है कि राहुल राजेश के इस पहले संकलन की कविताओं की भाषिक संरचना 'लयात्मक' है। उसमें गद्यात्मकता विरल है। भाव का सघन प्रभाव प्रेषित करने के लिए कई कविताओं में पद-विशेष की आवृति अनेक बार की गई है। वाक्य-विन्यास में सहज पदावली का संयोजन इस प्रकार किया गया है कि वह अन्य युवा कवियों की वाक्य-रचना से भिन्न है। यह राहुल राजेश की अपनी अलग पहचान है। लेकिन यह पहचान और अधिक अलग तब होती, जब कवि अपनी कविताओं में अपने गाँव, जनपद एवं प्रदेश के सामाजिक जीवन और भाषिक भूगोल का और अधिक समावेश करता।  हाँ, कहीं-कहीं सहायक क्रियापद 'है' का प्रयोग न करने से कविता में न्यून-पदत्व दोष आ गया है। यथा, 'परिवार' शीर्षक कविता में प्रत्येक अंश के अंत में 'है' क्रियापद की कमी खटकती है। विशेषणों के चयन में सावधानी बरती गई है। उपमा-रूपक-मानवीकरण सहज भाव से वाक्य-रचना में आए हैं।

        कुल मिलाकर, राहुल राजेश का यह पहला काव्य-संकलन न केवल पठनीय है, बल्कि संग्रहणीय भी है। यह संकलन आश्वस्त करता है कि वह "सिर्फ़ घास नहीं" से आगे बढ़कर द्वंद्वात्मक जीवन-दृष्टि से समकालीन सामाजिक गतिकी का प्रभावपूर्ण निरूपण करने के लिए श्रमशील नायकों को उपस्थापित करेंगे।  यथास्थित तोड़ने के लिए संभव विकल्प भी प्रस्तुत करेंगे। उम्मीद है, साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित "सिर्फ़ घास नहीं" की मानक वर्तनी का अनुसरण अन्य प्रकाशक भी करेंगे। और संकलन का मूल्य भी कम ही रखेंगे।




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समीक्ष्य कृति: सिर्फ़ घास नहीं/ कवि: राहुल राजेश/ प्रकाशक: साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली/

पृ. सं.:152/ प्रथम संस्करण (पेपरबैक): 2013/ मूल्य: 80 रुपए।


 पता: 

अमीरचंद वैश्य, 
चूना मंडी, 
बदायूँ (उत्तर प्रदेश)
मो.: 09897482597, 08533968269
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