प्रेम नंदन की कविताएँ
जन्म- 25 दिसम्बर 1980, फरीदपुर, हुसेनगंज, फतेहपुर, उ0प्र0
शिक्षा - एम0ए0(हिन्दी), बी0एड0।
व्यवसाय - अध्यापन।
लेखन- 1995-96 से कविता, लघुकथा, कहानी, व्यंग्य, समसामायिक लेख आदि विधाओं में।
प्रकाशन- काव्य संग्रह- 'सपने जिंदा हैं अभी' (2005), विभिन्न सहयोगी संकलनों में कवितायें प्रकाशित।
परिचय- लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से। तीन-चार वर्षों तक पत्रकारिता करने तथा लगभग इतने ही वर्षों तक भारतीय रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर के पद पर कार्य करने और कुछ वर्षों तक इधर-उधर 'भटकने' के पश्चात सम्प्रति अध्यापन कार्य के साथ-साथ कवितायें, कहानियां, लघु कथायें एवं समसामायिक लेखों आदि का लेखन एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन।
रूचियाँ :- पढ़ना, लिखना, संगीत सुनना और रेखाचित्र बनाना जिंदा रहने की सबसे अहम जरूरतें हैं ।
कवि की संवेदना अक्सर उन साधनहीन लोगों से जुड़ती है जिसे हम आम जनता के नाम से जानते हैं। आजादी के इतने दिनों बाद भी इस आम आदमी की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं आया है और यह आम जन बदहाली का जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। जीवन की मूलभूत चीजें यानी रोटी और रोजगार उससे लगातार दूर होते गए हैं। हमारे इस युवा कवि प्रेम नंदन की नजर इन्हीं वंचित लोगों के जीवन पर है। कवि के शब्दों में कहें तो 'इन मुट्ठी भर लोगों के/ बड़े सपनों के बीच/ कोई जगह नहीं है/ आम आदमी के छोटे सपनों की।' यह स्थिति बहुत ही खतरनाक है। अगर हमें अपने समाज और इस देश को ज़िंदा रखना है तो आम आदमी के छोटे सपनों की परवाह तो करनी ही होगी तभी हम अपने विकसित राष्ट्र के सपने को हकीकत में तब्दील कर पायेंगे। तो आईये एक नजर डालते हैं इस युवा कवि के सपनों पर उसकी कविता के जरिये।
बड़े सपने बनाम छोटे सपने
एक अरब से अधिक
आबादी वाले इस देश में
मुट्ठी भर लोगों के
बड़े-बड़े सपनों
और बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों,
शानदार हाली डे रिसार्टस.... से बना
विकास रथ चल रहा है
किसानों-मजदूरों की छाती पर।
ये बनाना और बेचना चाहते हैं
मोबाइल, कंप्यूटर, कार
ब्रांडेड कपड़े, मॅंहगी ज्वैलरी़.....
उन लोगों को
आजादी के इतने सालों बाद भी
जिनकी रोटी
छोटी होती जा रही है
और काम पहुंच से बाहर।
जिनके छोटे-छोटे सपने
इसमें ही परेशान हैं
कि अगली बरसात
कैसे झेलेंगे इनके छप्पर
भतीजी की शादी में
कैसे दें एक साड़ी
कैसे खरीदें-
अपने लिए टायर के जूते
और घर वाली के लिए
एक चांदी का छल्ला
जिसके लिए रोज मिलती रही है उलाहना
शादी से लेकर आज तक।
लेकिन इन मुट्ठी भर लोगों के
बड़े सपनों के बीच
कोई जगह नहीं है
आम आदमी के छोटे सपनों की।
राजमार्गों से बेदखल
राजमार्गों से बेदखल हो कर
अपनी घुच्ची आंखों से
पगडंडियों को रौंदते हुए
घिसटता हुआ,
वह आदमी
इतिहास की अंधी गुफाओं में
आर्यो, मुगलों, अंग्रेजों...
और तथाकथित अपनों की
नीचताओं को देखते-देखते
अपनी आँखों में हो चुके मोतियाबिन्द को
अपने जंग लगे, भोथरे नाखूनों से
खरोंचने की कोशिश में
अपनी आँखों की रोशनी खो बैठा है।
उसकी फटी जेब में
जो एक टुकड़ा सुख चमक रहा है
वह उसका संविधान है
इसे वह जिसको भी दिखाता है
वही अपने को,
इससे उपर बताता है।
फिर भी वह,
इसी एक टुकड़े सुख की मद्धिम रोशनी
और बिखरी हुई लालिमा को
सफेद हो चुके अपने रक्त में मिला कर
जीने की बेशर्म कोशिश में
इसके-उसके-सबके सामने गिड़गिड़ा रहा है,
और अपने पोलियोग्रस्त शरीर को
खड़ा करने की लाचार कोशिश में
बिना जड़ों वाले पेड़-सा लड़खड़ा रहा है।
वह आदमी कोई और नहीं,
अपना हिन्दुस्तान है
जो कभी ‘शाईनिंग इंडिया’ की चमक में खो जाता है
तो कभी ‘भारत निर्माण’ के
पहियों तले रौंद जाता है
और प्रायः ही
राजनीतिक पार्टियों के,
चुनावी घोषणापत्रों के खोखले नारों की
जहरीली चकाचौंध में
अपना रास्ता भूल जाता है।
लेकिन उसकी अटूट जिजीविषा तो देखिए
कि टूटी हुई हड्डियों,
पीब से सने शरीर
और भ्रष्टाचार के कोढ़ से
गल चुके अपने पैरों को
रोज अपने खून के आंसुओं से धोता है
और तिरंगे के रूके हुए चक्र को
गतिमान करने की असहाय कोशिश में
खुद को ही
अपने कंधों पर ढोता है ।
सम्पर्क-
उत्तरी शकुन नगर, सिविल लाइन्स,
फतेहपुर, उ0प्र0, 212601
दूरभाष- 09336453835
ई-मेल: premnandan10@gmail.com
Ram Pyare Rai
जवाब देंहटाएंAaj is tarah ki kavita vakta ki vidrupata aur bhayankarata ko vyaktakar rahi hai.
Sudhir Singh
जवाब देंहटाएंदोनों कवितायेँ बहुत अच्छी लगीं -- आज के संकट की सुचिंतित अभिव्यक्ति ............ विकास का रथ चल रहा है / किसानों-मजदूरों की छाती छाती पर ................
Tiwari Keshav
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएँ।
आप सभी का धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंनंदन जी की कविताएं यथार्थ के जिस धरातल पर लिखी गयी हैं कविता का यथार्थ और जीवन का यथार्थ अलग अलग नहीं है। इनकी कविता में जन सामान्य की संघर्षशील चेतना की अभिव्यक्ति नाना रूपों में हुई है।इनकी कविता के केन्द्रीय चरित्र सामान्य जन ही हैं जो अपनी मिट्टी में रचे बसे हैं। ग्रामीण शोषण की प्रक्रिया और रूढ़ियां कवि की चेतना को उद्वेलित करती हैं। बड़े सपने बनाम छोटे सपने नामक कविता में बखूबी देखा जा सकता है।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएँ।
बहुत सुंदर कविता.
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