शंकरानंद के कविता संग्रह 'दूसरे दिन के लिए’ पर अरुण अभिषेक की समीक्षा
युवा कवि शंकरानंद का अभी हाल ही में पहला कविता संग्रह 'दूसरे दिन के लिए’ आया है। इस संग्रह पर युवा समीक्षक अरुण अभिषेक की समीक्षा पहली बार के पाठकों के लिए प्रकाशित की जा रही है।
जीवन की असंगत लय की शिनाख्त करती कविताएँ
युवा कवि शंकरानंद का काव्य संग्रह ‘‘दूसरे दिन के लिए’’ एक नए तरह के प्रतीक और बिंब के जरिए, प्रभावित कर देने वाला काव्य-लोक है। इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ छोटी-छोटी हैं। ये कविताएँ अपने विन्यास में भले ही छोटी जान पड़े, पर अपनी प्रकृति में अपनी रचनात्मक शक्ति के साथ, चेतना को स्पर्श करती हैं और बेचैन भी। इसकी वजह यह है कि कवि के भीतर भाव-बोध की प्रवीणता इतनी घनीभूत हैं कि वे घटित घटना को अंतस से महसूसते और देखते हैं। एक सूक्ष्म बिलबिलाहट या बेचैनी तेजी से इनके मानस पर तैरती है, जिसे व्यक्त करने में ये चूकते नहीं।
प्रस्तुत संग्रह की पहली कविता ‘‘बहुत जरूरी है’’ में प्रतीक और रूपक का अभिनव प्रयोग है। चिड़ियों का आहत मन, जो दिन के उजाले में शिकारियों के निशाने से भयभीत रहता है, वे अब से मुक्त हो आधी-आधी घनघोर रात में उड़ा करती हैं। चिड़ियों के आहत मन को कवि जीवन को केन्द्र में रखकर महसूसते हैं, जहाँ जीवन को बचा लेने की व्याकुलता है। तब पाठक के भीतर कविता का विलंबित लय तैरने लगता है और भीतर के धूसर संसार को हठात् अपनी संवेदनात्मक लय में आलोकित कर देता है।
शंकरानंद की कविताएँ उद्दाम आवेग और उसकी सघन अनुभूति में पगी कविताएँ हैं। कविता ‘‘उन पत्तों की जिद’’ का यह आवेग ‘‘...जिन्हें झुलसाया जाता है आग में/फिर भी नहीं झुलसते’’ का पाठ करते ही, समय-संकट के घनघोर अंधकार से गुजरते हुए, एक उम्मीद की लकीरें भी खिंची चली जाती हैं, इन आशय में कि ‘‘तेज हवाओं में फिर हो जाते हैं नए/जैसे बहकर आए हों कहीं से।’’ यह जीवन का उद्दीप्त पक्ष हैं, जो जीवन हेतु नई लकीरें खींचने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। कविता ‘‘ऊन’’ का यह स्पर्शी-दृश्य ’’उँगलियाँ/रास्ता खोजती हैं झाड़ियों में/जहाँ गुम है सुबह...’’ में एक भविष्य की तलाश है। संभावनाओं की आकांक्षाओं में कवि कोमल भावनाओं के माध्यम से व्यापक यथार्थ को व्यक्त करते हैं, उस आशय में कि ‘‘इस वक्त जब/बड़े उदास बैठे हैं।’’ इन्हीं उम्मीदों के मध्य समय से टकराते महत्वाकांक्षा की प्रतीकात्मक उद्घोषणा भी करते हैं कवि-‘‘धरती बार-बार कहती है/उधर देखो नए पत्ते, नए पंख, नई सुबह।’’/कविता ‘‘समय’’ का उक्त संदर्भ जीवन से जुटी उच्छवास की तरंगों को व्यक्त करती है। इनका सरोकर समग्रतः अपने वर्तमान से है।
क्रूर परिस्थितियों में जीवित रहने की व्यक्ति की तीव्र बेचैनी, गहरी पीड़ा से उपजे तनाव के अनेकायामी संदर्भ और गहन आशय से संपन्न संग्रह की कुछ खास कविताएँ, अपने शिल्प और अभिव्यक्ति में मनुष्य विरोधी आत्महंता कारकों का प्रतिपक्ष प्रस्तुत करती हैं। कविता ‘‘पलस्तर’’ का यह दृश्य आहत करता है, जब
‘माँ चूल्हा जला कर बनाती है रोटी
या छौकती है तरकारी
कुछ भी करती है कि
उसमें गिर जाता है पलस्तर का टुकड़ा
फिर अन्न चबाया नहीं जाता।’
और तभी कविता अपने प्रतिपक्ष के साथ सामने आती है कि
‘पलस्तर एक दुश्मन है तो
उसे झाड़ देना चाहिए
मिटा देना चाहिए उसे पूरी तरह !’।
(चित्र : शंकरानन्द)
लेकिन हम ऐसा कहाँ कर पाते हैं ? एक प्रश्न के साथ, हर मुमकिन को यह चुनौती भरी आगाज है। इन स्वरों और लयों में कविताएँ ‘पहिए के नीचे कुचलते हुए लोग’, ‘आग भी राख के बाद ही है’, ‘ऋण’, ‘उन्होंने कुछ नहीं पूछा’, ‘घोषणा’ की अनुगूँज पाठकों को बेचैन करती है। निश्चय ही इन कविताओं के आशय, गहरे तनाव बिंदुओं का एकाग्र विस्फोट करते हैं। यह भी तय है कि ये कविताएँ अपने आस-पास के जीवन की सच्चाई और उपजी भावुकता को उद्घाटित करने के साथ स्थिति-विशेष के प्रति एक हल्की उदासी और करूणा उत्पन्न कर ही नहीं रह जाती है, अपितु इनमें क्रियात्मकता भी बराबर बनी रहती है। कविता ‘आग भी राख के बाद ही हैं’ का दृश्य सोचने को विवश करता है कि
‘जब तक राख है
तब तक कुछ नहीं है
देखने के लिए एक बहाना है
एक बहाना है समय काटने के लिए/’
और कविता का अंत अपनी क्रियात्मकता से उभरती हमारी चेतना से चिपकती है कि
‘राख के बाद ही हैं फूल खिले हुए
अन्न के आग भी राख के बाद ही है।’
जीवन का यह बहुकोणीय प्रतिबिम्ब है जहाँ मन की हर रेखा बारीक और प्रभावी दिखती है। दूसरी ओर कविता ‘‘ऋण’’ का यह दृश्य मनुष्य की तकलीफ, उसकी बदहाली और हद से गुजरने के बाद क्रोध या फिर उसकी विवशता झलकती है-
‘मैं ऋण के दलदल में फँसा हुआ आदमी
एक पैर बाहर निकालने की कोशिश करता हूँ तो
दूसरा और अधिक धँस जाता है।’
निश्चय ही पूँजीवादी-संस्कृति की प्रहारक स्थिति है/जहाँ ऋण से लदे देश भी वंचित नहीं है। फिर अदना आदमी की क्या विषाद? इन चिंताओं से मुक्त हमारी व्यवस्था और उनसे जुड़े राजनीतिज्ञों की छवि सामने आती है। यह क्रन्दन करती हुई कविता ‘उन्होंने कुछ नहीं पूछा’ से परिलक्षित है-
‘वे जानते हैं कि किसान तबाह हैं
और आत्महत्या कर रहे हैं
मर रहे हैं बुनकर
बेघर हो रहे हैं लोग...
वे जानते हैं कि किसान से सस्ते में खरीदकर
महँगा बेचा जा रहा है अनाज मुनाफा कमाने के लिए...
/नदी सूख रही है और कट रहे हैं जिंदा पेड़
लेकिन इसमें उनके लिए चिंता की कोई बात नहीं है।’’
कवि इन विद्रूपताओं के नंगे यथार्थ के साथ, समकालीन राजनीति या फिर सिस्टम की फासीवादी सोच के मुखौटे को नोचने में चूकते नहीं है।
कभी-कभी देखने में आता है कि जो कविता विचार और अनुभूति की भित्ति पर उरेही गई है, वह एकतानता से हटकर अपने अंतस में कई-कई विचार सरणियों को अनुस्यूत किए रहती है। ऐसा शंकरानंद की कविताओं में गहरे और जीवन के मर्मांतक क्षणों का साक्षात्कार किया जा सकता है। कविता ‘‘बेघर’’ अपने आठ बिंबों में घर होने और न होने के दंश में, एक महत्वाकांक्षापूर्ण जद्दोजहद से गुजरती मनःस्थितियों की अभिव्यक्ति है। इन मनःस्थितियों का गुंजल इन आशयों में प्रकट होता है-
‘वे बेघर लोग हैं
उनकी सुबह उन्हें धोखा देती है...‘‘
उनकी इच्छा है कि घर हो अपना सुंदर सा...
लेकिन ऐसा होता नहीं/उनके चूल्हे टूटते हैं बार-बार।’’...
‘वे जहाँ बसते हैं नहीं सोचते कि/इस बार फिर बेघर होंगे...।’
‘तभी तो वे बेघर हैं
बारिश में भींगते हैं वे
रोते हैं तो आँसू पानी के साथ बहता है
उनके हिस्से की हवा भी भटकती है।’...।
‘सूरज उनके लिए कुछ नहीं कर सकता/वह तो धूप ही दे सकता है/...।’
...‘‘जब भी बम गिरेगा
उड़ेंगे उनके चिथड़े
कभी उन्हें छिपने की जगह नहीं मिलेगी/...।’
इन कविताओं में यह बात गौरतलब है कि मनुष्य की तकलीफ, उसकी बदहाली और हद से गुजरने के बाद आक्रोश नहीं है। यह उनकी विवशता है/जहाँ हम अपने नियति से संत्रस्त हैं।
प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में कुछ यादगार पात्र भी मौजूद हैं/जिनकी अपनी संवेदनशीलता है। साथ ही वे अपने रचनात्मक अस्तित्व के लिए कुछ खास मानक गढ़ते हैं। निश्चय ही व्यक्ति का कुछ कर जाना, उसके कृतित्व की उद्घोषणा है/जिनका रचनात्मक आशय के साथ समष्टिगत फलक भी मौजूद है। कविता ‘मजदूर’ में नागेश याबलकर के मृदा शिल्प को देखकर कवि अपने सूक्ष्मतम भावों से श्रम के हश्र को बारीकी से अभिव्यक्त करते हैं, इन दृश्यों में-‘
मिट्टी को मूर्ति हो कर भी जैसे जीवित हैं
उसका काम छीन लिया गया है
छीन ली गई है उसकी रोटी फिर भी वह
अपने औजार नहीं छोड़ रहा...
पता नहीं कब वह अपने औजार उठा ले और
चल दे !’
निश्चय ही ऐसी कविताएँ हमारे आस-पास पसरी अनेक प्रकार की निराशाओं, अनास्थाओं और कुंठाओं को पीछे छोड़ते हुए, जीवन की गतिशीलता और सार्थकता को व्यक्त करती है। कवि शंकरानंद की यही चिंता अन्य कविताओं में मुखरित हुई है। जैसे एक समाचार के माध्यम से टीला धंसने से सात मासूमों की मृत्यु का दंश व्यक्त करती हुई कविता ‘लेकिन’ से उभरती है कि
‘टीला को खोदते हुए बच्चे
खोज रहे होंगे जैसे
भूख में रोटी
डर में खुशी
राख में आग।’
जीवन का यह स्याह-सफेद रंग हमें बेचैन कर डालती है। उस दृष्टि से कविता ‘सविता’ की याद भी हमें विचलित करती है। इसी क्रम में रेणु की कहानी ‘ठेस’ के पात्र सिरचन को याद करते हुए कविता ‘शीतल’ की चारित्रिक मनःस्थिति की संवेदनशीलता को पाठक भूल नहीं सकते हैं। साथ ही एक साथी के आत्महत्या करने पर कविता ‘इस तरह नहीं’ का हृदयविदारक क्षण, आत्महंता से हटकर साहस की खोज करता है।
कवि मानवीय प्रवृत्तियों के रेखांकन के माध्यम से जीवन की विसंगतियों को विभिन्न बिंबों और स्वरों में भी उद्घाटित किया है। ये कविताएँ आहिस्ते से जीवन के बहुत बड़े संदर्भ को समेट लेती है। उस दृष्टि से कविता ‘तुम’, ‘ऐसे में भी’, ‘पहचान’, ‘गंध’, ‘दुर्गंध’, ‘खून’, ‘अगलगी’, ‘चिड़ियाँ’, ‘कुछ लोग’, ‘ओट में’, ‘धुँआ’ उल्लेखनीय है। इन कविताओं में विरल से विरल दृश्य और स्थिति को भी कवि अपनी काव्य संवेदना का अंग बना लेते हैं। कविता ‘एक दाना’ का यह दृष्टांत पठनीय है-
‘एक छोटा सा दाना
सँभालता है कितना रस कि
कभी सूखता नहीं स्वाद
चाहे धूप हो कितनी कड़ी।’
इस कड़ी में कविता ‘अंततः’, ‘फिर भी’, ‘उस अजनबी को देखकर’, ‘तेज गाड़ी’, ‘चुप्पी’, ‘‘रात’’ की उपस्थिति सराहनीय है। इस तरह आज की त्रासदी के प्रतिपक्ष में कवि उम्मीदों की लकीरें खींचते हैं। साथ ही ये कविताएँ जीवन के हर क्षणों में विकल्प की तलाश करती हैं। वहीं कविता का आत्मनिर्णय पाठकों के हिस्से में जाता है। शंकरानंद अपने आत्मगत अनुभवों को वस्तुपरक सार्वजनीनता में भी परिवर्तित करने की काव्य-दक्षता रखते हैं। यदि सूक्ष्मता से देखा जाय, तो इन कविताओं को पढ़ते हुए, ऐसा लगता है कि पाठक स्वयं से संलाप कर रहे हैं।
शंकरानंद ऐसे कवि हैं जो मनोवृत्तियों को कविता में अंतर्वस्तु के संचालन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इस्तेमाल करने की यह प्रक्रिया बहुत चौंकाने वाली तो होती ही है। साथ ही कवि कविता की आंतरिक संरचना या उसके ताने-बाने में पूरे काव्य-कौशल के साथ इस तरह संवेदनशील होकर कसते हैं कि कविता जिन कोनों-अंतरों को छूती है, वहाँ ये मनोवृत्तियाँ पूरे तात्पर्य और अर्थ-ध्वनियों के साथ बजने लगती हैं। कविता ‘चावल’, ‘हवाएँ’, ‘अन्न’, ‘हवा में धूल’, ‘जब तक’, ‘कोई तारा’, ‘तस्वीर’, ‘दौड़’ इन्हीं केन्द्रीय-सूत्र के साथ पाठकों के सामने आती है। प्रतिस्पर्धा से भरे युग में कविता ‘दौड़’ का लय भी जीवन के हकीकत को व्यक्त करता है।
कवि शंकरानंद का यह पहला संग्रह उम्मीदों और संभावनाओं से भरा है। इसे पढ़ते हुए यह आशा जगती है कि इस कवि को अभी और आगे जाना है/जहाँ उनका काव्याकाश विस्तृत होगा, अनेक प्रकाशपुंज होंगे और अंधेरों से लड़ने की उनकी क्षमता से पाठक परिचित होंगे।
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पुस्तक - ‘दूसरे दिन के लिए’ (कविता संग्रह)
कवि - शंकरानंद
प्रकाशक- भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता-700017
मूल्य -150/- रूपये
संपर्क-
अरूण अभिषेक
विवेकानन्द कॉलोनी
पूर्णियाँ-854301
मो0- 09852888589
pustak padhne ki echchha balwati ho gayi bhai.achchhi samiksha,,
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