बलभद्र
‘ग्लोबल गाँव के देवता’ रणेन्द्र का चर्चित उपन्यास है। कवि-आलोचक बलभद्र ने इन दिनों अपने अध्ययन के क्रम में इस उपन्यास को पढ़ते हुए इस पर स्वतःस्फूर्त ढंग से अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया लिख डाली है। तो आईये पढ़ते हैं बलभद्र की इस प्रतिक्रिया को जो एक अलग नजरिये से इस उपन्यास की पड़ताल है।
असुरों की
जय-पराजय: वैदिक काल से ग्लोबल काल तक
रणेन्द्र का
उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’
झारखण्ड के आदिवासी-समाज, उसमें भी खासकर ‘असुर’ समुदाय को
केन्द्र कर लिखा गया एक ऐसा उपन्यास है, जो ‘असुर’ जनजाति के सदियों पुराने इतिहास को, इस जनजाति से जुड़ी दंतकथाओं और मिथकों को और
इनसे बनी इस जनजाति के बारे में लोकप्रचलित धारणाओं को न केवल खण्डित करता है,
बल्कि इस और इसके साथ-साथ समूचे आदिवासी समाज
के प्रति नये सिरे से सोचने-विचारने को बाध्य करता है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए
देवासुर संग्राम के साथ-साथ ‘हनुमान चालीसा’
की यह पंक्ति भी जेहन में बार-बार उचरने लगी कि
‘भीम रूप धरि असुर
संहारे......।’ वृत्रासुर, बकासुर, नरकासुर, बाणासुर, महिषासुर और न जाने कितने असुरों और दानवों और दैत्यों के
बारे में बनी हुई अब तक की धारणाएँ खण्ड-खण्ड होने लगीं। ये शत-प्रतिशत आदमी थे,
प्रकृति-पूजक, निश्छल और इसकी कीमत इन्हें अनेक बार चुकानी पड़ी है। इनके
साथ भारी अन्याय हुआ है। तथाकथित देव-संस्कृति ने दंतकथाओं, मिथकों, लोकगीतों एवं
अपने शास्त्रों में इनकी जो छवियाँ निर्मित की हैं और इन्हें अपनी जमीन के साथ-साथ
इतिहास से बेदखल किया है, वह इनके साथ किया
गया भारी छल है, अक्षम्य अपराध
है। श्रेष्ठताबोध के अहंकार के उद्घोष हैं- देवसंस्कृति के मिथक, प्रतीक, मुहावरे, दंतकथाएँ आदि। यह
उपन्यास असुरों को, बिरहोरों को और
इस तरह के अन्य आदिवासी समुदायों को, उनकी सांस्कृतिक विशिष्टताओं और मानवीय
संघर्षों और सरोकारों को, तमाम तरह के
दुःखों, तकलीफों एवं
उत्पीड़न-उपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए हमारे समक्ष उपस्थित करता है।
असुरों को
तथाकथित देवताओं ने प्रताड़ित किया। उन्हें लगातार और लगातार अपनी जमीन से
विस्थापित किया और विस्थापन की यह त्रासदी उन्हें आज भी झेलनी पड़ रही है। आज ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ पूरी तैयारी के साथ उन्हें उनकी जमीन से खदेड़ने की तैयारी
में हैं। इन देवताओं की यह वैश्विक तैयारी है। इन असुरों को, आदिवासियों को पहले भी खदेड़ा गया और इनके खिलाफ
और अपने पक्ष में विजयी समुदाय ने मिथक, प्रतीक एवं शास्त्र गढ़े और ऐसा ही कुछ, बल्कि इससे भी बड़ी तैयारी के साथ और इसके भी घातक एवं क्रूर
इरादों के मिथक, प्रतीक एवं शास्त्र
रचने की तैयारी में हैं। लेकिन यह असुर एवं आदिवासी समाज पहले भी संघर्ष में था और
आज भी है, पराजय के हर दंश को झेलते
हुए। यह उपन्यास तब से अब तक की इसी संघर्षगाथा को केन्द्रित कर लिखा गया है। इन
पराजित और संघर्षरत जनसमुदायों की सिसकियों को वैश्विक पटल पर प्रस्तुत करने की यह
एक स्वागतयोग्य कोशिश है। यह उपन्यास इस मायने में काफी महत्व का है कि ‘असुरों’ पर केन्द्रित होते हुए भी इसमें झारखण्ड सहित अन्य राज्यों
और कई देशों के आदिवासियों के अतीत और वर्तमान की त्रासदियाँ पाठकों के समक्ष आती
हैं और पाठक आदिवासियों के ‘आँसुओं की
पगडण्डी’ पर नम और उद्वेलित हुए
चलने को बाध्य हैं।
इस उपन्यास की जो कथा है, वह विस्तृत नहीं है, लेकिन पढ़ते हुए ऐसा लगता है
कि यह कथा तथाकथित देवताओं और असुरों के संघर्षों से लेकर आज के वैश्विक देवताओं
और जनसमुदायों के संघर्षों तक फैली हुई है। तब से अब तक के संघर्षों को जोड़ने वाली
कोई एक कथा भी नहीं है, फिर भी लगता है
कि एक जुड़ाव है। कथा एक राज्य के एक छोटे से क्षेत्र की है और राज्यों और देशों की
सीमाओं को अतिक्रमित भी करती है। कथा वर्तमान में है, पर चुपके से अतीत से जुड़ जाती है। अतीत से वर्तमान, वर्तमान से अतीत, झारखण्ड, छत्तीसगढ़,
असम, मध्यप्रदेश, मणिपुर, केरल, महाराष्ट्र, प्राचीन अमेरिका
के वर्जिनिया प्रान्त, लोककथाओं,
मिथकों, लोकगीतों से कथा के सूत्र कुछ ऐसे जुड़े हुए हैं कि हर घटना,
हर प्रसंग, हर गीत, अतीत, वर्तमान, रुमझुम, लालचन, गन्दूर, एतवारी, बुधनी, ललिता, डॉक्टर साहब, पोकाहांतस,
मैटाकोम, कनारी का नवयुवक संघ, सत्यभामा, सऊरा, इरोम शर्मिला, सी.के. जानू, सुरेखा दलबी- सबके सब कथा के अनिवार्य अंग लगने लगते हैं। इनमें से किसी एक को
घटा दिया जाय, तो उपन्यास ‘घट’ जायेगा। और हाँ, ऐसे ही कुछ पात्र,
कुछ प्रसंग, कुछ घटनाएँ, जोड़ दिये जाएँ,
ठीक इसी तरह, तो सम्भव है कि यह उपन्यास कुछ और बढ़ जाए, सम्पन्न हो जाए।
उपन्यास के पात्र, जो ग्लोबल देवताओं के दुष्चक्र के शिकार हैं और
उनसे रण रोपे हुए हैं (सदियों से रोपे हुए हैं) और सत्यभामा, शऊरा, इरोम शर्मिला, सी.के. जानू और
सुरेखा दलबी ये वर्तमान के ऐसे कुछ नाम हैं, जो जनविरोधी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध के मिसाल हैं। इनकी
आपसी संगति में ही उपन्यास का महत्व सिद्ध है। इस उपन्यास में कई चीजें संकेतों
में भी आई हुई हैं। कोई चाहे तो कह सकता है कि संकेत तो कविता के ‘इंस्ट्रूमेन्ट्स’ हैं, उपन्यास के नहीं।
लेकिन, अगर इन ‘इंस्ट्रूमेन्ट्स’ का उपयोग यदि कोई उपन्यास में करता है और कायदे से करता है
और अर्थ और प्रभाव में इनसे सघनता और विस्तार मिलते हैं, तो इन्हें अनुचित कैसे कहा जा सकता है? उपन्यास में जो संकेत हैं, वे पाठकों में अन्तर्क्रियात्मक रूप में
विस्तार-सृजन में, अर्थ और प्रभाव
को सघन बनाने में कामयाब हैं। इन्हें एक सूत्र में पिरोकर देखने से, बेशक, एक राजनीतिक-सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन जैसा लगने लगता है।
फणीश्वरनाथ रेणु
के उपन्यास ‘मैला आँचल’
का प्रशान्त डॉक्टरी की शिक्षा पूरी कर
पूर्णिया के पिछड़े हुए अंचल को अपना कार्यक्षेत्र चुनता है। पर, इस उपन्यास का युवा शिक्षक ‘लम्बी बेरोजगारी, बदहाली, उपेक्षा, अपमान की गाढ़ी काली रात के बाद’ पाई शिक्षक की नौकरी निभाने की मजबूरियों के
साथ एक आदिवासी बहुल इलाके में पहाड़ और जंगलों के बीच जाता है। उस स्कूल की
भौगोलिक और आस-पास की सामाजिक व अन्य स्थितियों को देखते हुए वह वहाँ से अपना
ट्रांसफर करवाने की कोशिश करता है। इस कोशिश में उसे सफलता नहीं मिलती। वह
थक-हार कर वहाँ काम शुरु करता है और एक प्रक्रिया में वह वहाँ के कुछ लोगों के करीब
जाता है। परिचय मित्रता में बदलता है। असुर समुदाय के लोगों से परिचित होता है और
इस समुदाय के बारे में उसकी जो धारणा थी ‘कि खूब लम्बे-चौड़े, काले-कलूटे,
भयानक, दाँत-वाँत निकले हुए माथे पर सींग-वींग लगे हुए लोग होंगे’ (पृ0 11), वो धारणा उलट-पुलट होने लगी। लालचन, रुमझुम, ललिता, बुधनी, एतवारी, गन्दूर से निकटता
के बाद वह वहाँ की पूरी बदहाली से परिचित होता है और आदिवासियों से जुड़कर वह उनके
संघर्षों का साथी बन जाता है। रुमझुम जैसे शिक्षित और इतिहास के जानकार युवक से
मित्रता के चलते वह असुरों और आदिवासियों के इतिहास और संस्कृति का अध्ययन करता
है। वहाँ के भूगोल, इतिहास, राजनीति, शोषण, समस्याओं व खनन
कम्पनियों एवं माफियाओं की मनमानियों से अवगत होता है। बेहिसाब गरीबी, अशिक्षा और सरकारी उपेक्षाओं ने मूलवासियों को
बदहाली में जीने को बाध्य किया है। बॉक्साइट के खनन से प्रदूषण और स्वास्थ्य की
समस्याएँ इन्हें झेलनी पड़ती हैं। डॉक्टर रामकुमार और बुधनी की ‘देसी केबिन’ से भी उसे बहुत कुछ जानने को मिलता है। एतवारी से उसका
सम्बन्ध कायम होता है, शारीरिक सम्बन्ध
और फिर ललिता के आगमन के बाद उससे दोस्ती जोड़ता है। संघर्ष में शामिल वह युवा
शिक्षक अब इस अंचल विशेष का हो जाता है। इस युवक के ‘मन नहीं लगने’ और ‘मन लगने’ के बीच पूरा कथानक घटित होता है। कथावाचक युवा शिक्षक
को भी इसका बोध है- ‘‘घर से इतनी दूर,
जंगल-पहाड़ों के बीच इस पाट पर इतना मन लग
जायेगा, ऐसा सोचा न था’’ (पृ0 46)। उसे एक दृश्य-अदृश्य ‘जामुनी रोशनी’
भिगोये रहती और ‘एकरंगा’ होने के बाद
लाभ-हानि का हिसाब-किताब भूल गया (पृ0 47)। सब कुछ यहाँ संकेतों में है। बात बहुत ढँक कर कही गई है और इस ढँकने की कला
में भाषा-भंगिमा बदल-सी गई है। एक खास तरह की तीव्रता आ जाती है। यह प्रणय-दृश्य
है। युवा शिक्षक यहाँ प्रेम और संघर्ष के बन्धन में फँस जाता है।
प्रेम का एक रूप
ललिता के साथ दिखाई देता है। वह ललिता से ‘सहिया’ जोड़ता है। सहिया यानी
दोस्ती। इसकी एक देशज प्रक्रिया है, जिसको दोनों पूरा करते हैं। जामुनी रंग यानी एतवारी से शारीरिक सम्बन्ध का
आदती वह युवा शिक्षक प्रेम की एक नई परिभाषा गढ़ता हुआ एवं उसकी व्याख्या प्रस्तुत
करता हुआ दिखाई देता है। यह प्रेम संघर्ष की पृष्ठभूमि पर रचा जाता है। यह संघर्ष
‘ग्लोबल गाँव के देवता’
से है। आदिवासी जनसमुदाय की मुक्ति की भावना से
भरा हुआ। इस युवक में, इस सन्दर्भ में
जो एक बात देखी जा सकती है, वह यह कि वह
आदर्शवाद का प्रवक्ता न होकर जीवन के ठोस बुनियादी व व्यावहारिक पहलुओं को अपनाता
हुआ युवक है। वह महसूस करता है कि ‘हम दोनों में से
कोई भी भी एक-दूसरे को कुछ और नहीं दे पा रहा है। कुछ भी नया जुड़ता नहीं दिखता' (पृ0
63)। यह एतवारी के सन्दर्भ
में है, जो शादीशुदा है। वह देह
से आगे बढ़कर कुछ और पाने की कोशिश में, कुछ नया और मन लायक पाने की कोशिश में ललिता से जुड़ता है। वह ललिता को देखता
है, तो उसे ‘पोकाहांतस’ की याद आती है।
‘ललिता’ न आती, तो ‘पोकाहांतस’ का प्रसंग न आता और कथा के विस्तार और
संवेदनशीलता का यह रूप नहीं सृजित हो पाता। ललिता की उपस्थिति रुमझुम की उपस्थिति
को सार्थक बनाती है। साथ ही, उपन्यास के अन्त
में आए सुनील असुर को भी। आदिवासी समुदाय के भीतर की यह नई पीढ़ी है, जो शिक्षित है और संघर्षशील है। यह देखने लायक
है कि रुमझुम ने बड़े मनोयोग से ललिता को दसवीं-ग्यारहवीं कक्षाओं में पढ़ाया है।
कथा के अन्त में ‘लैंड माइंस’ विस्फोट में
ललिता मारी जाती है और संघर्ष को आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी लेने सुनील असुर आता
है। हालाँकि उसका आना सूचनात्मक रूप में है। वह कथा के हिस्से के रूप में आता हुआ
नहीं दिखाई देता है। वह कथा के अभिन्न अंग के रूप में आता तो बात ज्यादा अच्छी
होती। और वह आता है, तो यह प्रश्न बार-बार
उठता है कि जो मौजूदा स्थिति है, उसमें उसे भी
शहीद ही होना है अथवा, किन्हीं वजहों से
संघर्ष-पथ से विचलित होने पर मजबूर भी होना पड़ सकता है। इस पूरे तथ्य को समझने के
लिये ‘पोकाहांतस’ वाले प्रसंग को देखना-समझना ज्यादा उचित होगा
और सच है कि यह प्रसंग इसी त्रासदी को उजागर करने हेतु लाया गया है।
इसी उपन्यास
में अमेरिकी मूल निवासियों के विनाश का भी प्रसंग है, जो मैसाच्यूट के राजा मैटाकोम और अन्य निवासियों से जुड़ा
है। अंग्रेजों ने मैटाकोम का सिर काटा और उनके पत्नी-बच्चों को देश के बाहर किया
और अन्य निवासियों को भी मार डाला। रुमझुम द्वारा दी गई किताब ‘टेल ऑव टियर्स’ (आँसुओं की पगडण्डी) से बहुत कुछ खुलते हैं आदिवासियों के
विनाश और उनके खदेड़े जाने वाले प्रसंग। ‘पोकाहांतस’ प्राचीन अमेरिका
के रेड इण्डियन राजा पोतवान की बेटी थी, जो अंग्रेजों की साजिश की शिकार हुई थी और अंग्रेजों ने राजा की मृत्यु के बाद
उसकी जनजाति के लोगों को भी मार डाला था। यह प्रसंग इस नाते काफी अर्थपूर्ण है कि
इसके जरिये कथाकार ने ललिता और उसकी जाति की त्रासद आशंका की ओर संकेत किया है और
यह आशंका बेवजह नहीं है। अन्त में ललिता और उसके समुदाय के अनेक लोग मारे जाते
हैं। यह प्रसंग साम्राज्यवादी शक्तियों के दमन, लूट, हत्या, धोखाधड़ी के चरित्र को ऐतिहासिक निरन्तरता में
उजागर करने में भी समर्थ है। इस प्रसंग से गुजरते हुए अनायास रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ की ‘महुआ घटवारिन’
की याद आती है।
यह उपन्यास
आदिवासियों के राजनीतिकरण की प्रक्रिया को भी प्रकट करता है। ग्लोबल गाँव के
देवताओं के साथ-साथ उनके देशी आधारों के चरित्र को समझने एवं उनसे संघर्ष की
रणनीतिक तैयारियों का ताना-बाना भी इसमें दिखाई देता है। जमींदारों की
भूमि-लोलुपता, नौकरशाहों के
मनमाने रवैयों, शिवदास बाबा का
कंठी-आन्दोलन और स्त्रियों और लड़कियों का यौन-शोषण- यह सब इस उपन्यास के अनिवार्य
हिस्से के रूप में हैं। शिवदास बाबा और गोनू सिंह और किशन कन्हैया पाण्डेय- ये ऐसे
चरित्र हैं, जो आदिवासियों की
जमीन-जायदाद और उनकी औरतों पर अपना हक जमाने की हर कोशिश करते हैं। भूमण्डलीकरण और
बाजारवाद ने पाण्डेय और शिवदास बाबा जैसे चरित्रों को फूलने-फलने के अवसर दिये
हैं। पाण्डेय तो ग्लोबल देवताओं का ठेठ देशी भक्त है, जो लड़कियाँ सप्लाई करता है, उनकी सेवा में। उपन्यास में बहुत ही ढंग से, विस्तार में न जाकर संकेतों में ही, इस तथ्य को प्रकट किया गया है कि भूमण्डलीकरण
के इस दौर में उद्योगपतियों-पूँजीपतियों को अपनी पूँजी के विस्तार की भरपूर आजादी
है और इस दौर में गरीबों, आदिवासियों और
उनकी औरतों और बेटियों को निरन्तर तबाह होते जाना है। इस दौर में गरीब औरतों को
माल की तरह खरीदे-बेचे जाने की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है। शिवदास बाबा
जैसे अनेक बाबा संत और समाज-कल्याण के नाम पर ठगी और अपनी यौन-कुण्ठाओं की तृप्ति
में रमे हुए हैं। उनकी पहुँच दूर-दूर तक है लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है, जो जन-आन्दोलनों का है और ऐसे जमींदारों, बाबाओं,
नौकरशाहों, खनन उद्योगपतियों और बिचौलियों और ग्लोबल देवताओं को इन
आन्दोलनों से चुनौतियाँ मिलने लगी हैं। ये आन्दोलन स्थानीय और छोटे स्तरों पर होते
हुए भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं।
वैदिक काल में भी देवताओं को चुनौतियाँ मिली थीं और
आज भी मिल रही हैं। ग्लोबल देवताओं के माथे पर शिकन देखी जा सकती है और उनके
षड्यंत्र भी। इस उपन्यास को पढ़ते हुए मनमोहन पाठक के उपन्यास ‘गगन घटा घहरानी’ की भी याद आती है। पाठक जी का यह उपन्यास 1991 में प्रकाशित हुआ था। सोवियत रूस के विखण्डन
और भारत में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आने के मार्ग प्रशस्त होने का वह प्रथम चरण
था। तब आज के प्रधानमंत्री तत्कालीन भारत सरकार में वित्त मंत्री हुआ करते थे। रणेंद्र
का यह उपन्यास 2009 में छपता है।
दोनों के बीच के इस कालखण्ड में बहुत कुछ बदला है। बावजूद इसके दोनों में एक बात
समान रूप से आती है कि जमींदारों, नौकरशाहों,
माफियाओं और सरकारों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों
से लड़ने के लिये आदिवासियों और गैर-आदिवासी गरीबों, किसानों व मजदूरों को एकजुट होना पड़ेगा। ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में छिटपुट अलग-अलग जगहों की लड़ाइयों में एका कायम करने की
चिन्ता है और यह ‘गगन घटा घहरानी’
में भी है। पाठक जी तो इस एका की तलाश में
भोजपुर के क्रान्तिकारी किसान संघर्षों से सम्बन्ध जोड़ते हैं। रणेंद्र भी सदानों,
उराँओं, मुंडाओं, असुरों को एकजुट
करते हुए प्रतिरोध का ताना-बाना बुनते हैं।
यह एक ऐसा
उपन्यास है, जिसमें स्थानीय
गीतों एवं जीवन-शैलियों एवं परम्परागत विश्वासों के भी वर्णन हैं। ऐसे अनेक शब्द
हैं, जो क्षेत्र-विशेष की जनता
में प्रचलित हैं और उपन्यासकार ने ऐसे शब्दों का खूब इस्तेमाल किया है। ऐसे शब्द
रेणु और नागार्जुन के कथा-साहित्य में भी खूब आए हैं। जनभाषा और जन-संस्कृति के
बीच के ये शब्द हैं, लेकिन ऐसे प्रयोग अर्थबोध के स्तर पर संकट भी उत्पन्न करते
हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि रचनाकारों ने इस संकट को समझते हुए इसका समाधान भी बहुत
रचनात्मक तरीके से ढूँढ़ा है। रणेंद्र के समक्ष भी ये सवाल हैं और समाधान भी
उन्होंने अपने तरीके से ढूँढ़ा है और ऐसे ही समाधान रेणु और नागार्जुन के भी पास
हैं। रणेंद्र ‘टाँड़’ और ‘दोन’ शब्द का प्रयोग करते हैं
और स्वयं अर्थ बतलाते चलते हैं- ‘पानी से वंचित
भाग ‘टाँड़’ कहलाता था और नीचे का पानी सुलभ हिस्सा ‘दोन’। इसी तरह ‘सहिया’ का प्रयोग करते हैं और संवादों में इसका अर्थ भी
बता देते हैं। इसी तरह लिखते हैं- ‘बुधनी का आदमी
बौध था, मन्दबुद्धि’ (पृ0 29)। नागार्जुन अपने उपन्यास ‘बलचनमा’ में ‘भरिया’, ‘गोपी’ और ‘बोहियाना’ का अर्थ खुद
बतलाते चलते हैं। ‘तीसरी कसम’
में रेणु ने हीरामन के मुँह से ‘पटपटाँग’ शब्द का प्रयोग कराया है और उसी से अर्थ भी स्पष्ट कराया
है। ‘पटपटाँग’ माने ‘सब मर गये’। इस उपन्यास को
पढ़ते हुए महसूस हुआ कि ऐसे उपन्यासों की यह अपनी एक देशज भाषा ठाट है और रणेंद्र ने भी रेणु और नागार्जुन की इस परम्परा को न केवल समृद्ध किया है, बल्कि उसकी अनिवार्य स्वाभाविकता और औचित्य को
पुनः प्रमाणित किया है।
इस उपन्यास में
आदिवासियों के प्रतिरोध और उसके दमन की सदियों पुरानी गाथा को प्रकाशित किया गया
है। ये मूलवासी अपने मूल स्वरूप और संवेदना में पूरे समाज और इतिहास से संवाद करने
की बेचैनी और तत्परता में हैं। अनेक उत्पीड़नों और गोलीकाण्डों और विस्फोटों के
बावजूद यह हिस्सा अभी भी संघर्षशील है। बहुत कुछ तो स्पष्ट नहीं है कि आगे क्या
होगा? लेकिन संघर्षशील और जागृत समाज, समुदाय और
राष्ट्र की मुक्ति असम्भव तो कत्तई नहीं है। इस उपन्यास के एक पात्र रुमझुम असुर
का मानना है- ‘‘हम वैदिक काल से
सप्तसिंधु के इलाके से लगातार पीछे हटते हुए आजमगढ़, शाहाबाद, आरा, गया, राजगीर से होते इस वन-प्रान्तर कीकट, पौण्ड्रिक, कोकराह या चुटिया
नागपुर पहुँचें। हजारों सालों में कितने इन्द्रों, कितने पाण्डवों, कितने सिंगबोंगा ने कितनी-कितनी बार हमारा विनाश किया, कितने गढ़ ध्वस्त किये, उसकी कोई गणना किसी इतिहास में दर्ज नहीं है। केवल लोककथाओं
और मिथकों में हम जिन्दा हैं’’ (पृ0 43)। कथाकार ने इस उपन्यास को रचते हुए अनेक
ऐतिहासिक तथ्यों की खोज की है। यह उनके धैर्य, खोज, साहस, तथ्यपरक विश्लेषणात्मक दृष्टि और आदिवासियों के
प्रति मानवीय सहानुभूति एवं सहकर्म का परिणाम है। जिनका कोई इतिहास नहीं, वे इतिहास रचने की भूमिका में हैं।
ग्लोबल गाँव के
देवता (उपन्यास), रणेन्द्र, भारतीय ज्ञानपीठ, वर्ष 2010, मूल्य 140
संपर्क:
असिस्टेंट प्रोफेसर-हिन्दी,
गिरिडीह कॉलेज,
गिरिडीह-815302, झारखण्ड
मोबाईल -
09801326311
एक बेहद महत्त्वपूर्ण उपन्यास पर सच्ची पाठकीय प्रतिक्रिया..
जवाब देंहटाएंसुमन कुमार सिंह
जवाब देंहटाएंग्लोबल गाँव के देवता' के संदर्भ- विस्तार से अवगत हुआ।इस उपन्यास को पढ़ने-समझने की मेरी इच्छा और बढ़ गई है। इसके रचनात्मक विमर्श को बलभद्र ने जिस बारिकी से उकेरा है, यह उन्हीँ के वश की बात है! पहली बार को बहुत-बहुत धन्यवाद!
Ullekhya upnyas "Global Ganv ke Devata "[Ranendra]par Balbhadra kee mahatvapurn tippani padh kar khushi hue.Dhanyavad.
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