अश्वेत लोकधर्मी कवि वोले शोयिंका
(चित्र: वोले शोयिंका)
पहली बार पर आप हर महीने की शुरुआत में विजेंद्र जी की लेखमाला 'लोकधर्मी कवियों की परम्परा' पढ़ते हैं। आईए इसकी अगली कड़ी में पढ़ते हैं अश्वेत लोकधर्मी कवि वोले शोयिंका पर आलेख।
विजेंद्र
वोले शोयिंका की
एक कविता है ‘जुलियस न्येरेरे के प्रति’ -
पृथ्वी के लिये
पसीना
राजस्व नहीं
सत्व है
मिट्टी के श्रम
से
यह संपन्न पृथ्वी
माँगती नहीं कोई
दान
सत्व है पसीना
पृथ्वी के लिये
बेगार में अर्पित
कोई सौगात नहीं
है
किले में बंद
देवता के लिये
तुम्हारी अश्वेत
पृथ्वी के हाथ
कराते हैं आज़ाद
यमदूतों से
उनको जो जन्म से
हैं
आदमी की सूरत में
कुत्ते जैसे
वे जो
स्वयं को करते है
प्रदर्शित
आदमखोर
काल से भी ज्यादा
डरावने
सदा ही
रक्तपिपासु लुटेरे
पसीना सत्व है
रोटी है सबके
लिये
रोटी पृथ्वी की
पृथ्वी द्वारा
पृथ्वी के लिये
पृथ्वी ही समूची
जनता है।
इस कविता में कवि
की वह केंद्रीय चेतना व्यक्त है जिसके लिये उन्होंने कठोर संघर्ष किया। जोखिम उठाये।
यातनायें झेलीं। इसी से समूचा विश्व उन्हें पहचानता है। लोकधर्मी कवि की चिंता है
श्रम शक्ति के उस उज्ज्वल सौंदर्य को बताना जो जनता को आदमखोरों से मुक्त कराके शोषितों
की भूख मिटाता है। एक समता मूलक समाज को रचता है। वोले शोयिंका उसी मुक्तिकामी संघर्षशील
जनता के प्रतिनिधि कवि हैं। इसी अर्थ में वह लोकधर्मी कवि हैं। उनकी कविता को हम
विश्व में साम्राज्यवाद तथा नस्लवाद के विरुद्ध अश्वेत प्रतिरोध का क्रांतिकारी
गान भी कह सकते हैं। वह समूचे अश्वेत जगत की मुक्तिकामी धड़कन है। अन्याय के विरुद्ध
प्रतिरोधी अदम्य आवाज़ भी।
कवि का जन्म 13
जुलाई, 1934 में पश्चिमी नाइजीरिया के योरुवा नामक जनपद में माना
गया है। यहाँ की आम बोल चाल की भाषा को भी इसी नाम से जानते हैं। कवि के पिता अध्यापक
थे। माता किसी लघु व्यवसाय में लगी थीं। वह स्थानीय महिला राजनीतिक आंदोलनों में
भी सक्रिय थीं। यहाँ उस समय ब्रिटिश शासन था। कवि के लिये संपन्न परिवार का
वातावरण प्राप्त हुआ था। कहते हैं कि कवि की जन्म स्थली प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक
दृष्टि से बहुत संपन्न और आकर्षक है। इस मनमोहक और सांस्कृतिक फिज़ा का असर कवि पर
बराबर रहा है। पर कवि ने वहाँ के तीव्र विरोधाभासों तथा विसंगतियों को भी बड़े गौर
से देखा परखा है। यानि टकराव, प्रतिरोध तथा संघर्ष की ध्वनियाँ बचपन से ही
कवि के कानों में गूँजती रहीं है। कवि का समय योरुप और अफ्रीका के द्वंद्व का समय
है। पुरातन और आधुनिकता के तनाव हैं। प्रकृति पूजा तथ ईसाई धर्म के मध्य टक्कर है।
कवि प्रारंभिक तालीम पूरी करने के बाद उच्च शिक्षा हेतु ‘ग्रैमर स्कूल’ में पढ़ने चले
गये। यहीं से उन्होंने काव्य रचना भी शुरू की। वहाँ की पत्रिकाओं में उनकी
कवितायें छपने लगीं। उनकी इन कविताओं पर 18वीं 19वीं सदी की अंग्रेज़ी कविताओं का
असर है। पर कवि सजग हैं कि वह अंग्रेजी उपनिवेश के नागरिक है। जैसे भारत भी कभी
था। परोक्षतः भारत तो आज भी अमरीका का उपनिवेश जैसा बनता जा रहा है। उनके कुछ
समीक्षक उन्हें ‘अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद’ का कवि मानते हैं। हो
सकता है वह उपनिवेशवाद की ही उपज हों। पर उनकी काव्य चेतना ने कभी अपनी सापेक्ष
स्वायत्तता नहीं खोई। हमारे यहाँ भारतेंदु, निराला, तथा प्रेमचंद अंग्रेज़ों के उपनिवेश में रह कर भी उसका
प्रतिरोध करने का जोखिम उठा रहे थे। वोले शोयिंका बाद में ब्रिटेन चले गये। लीड्स
विश्वविद्यालय में शिक्षा अर्जित की। 1954-57 तक उन्होंने अंग्रेज़ी के माध्यम से
विश्व साहित्य का गहन अध्ययन किया। किस तरह अंग्रेज़ी उपननिवेश अश्वेतों को दास बना
कर वहाँ के लोगों को सांस्कृतिक, सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से तवाह कर रहा हैं
इसका एहसास कवि को यहाँ होने लगा था। कवि चीनी, भारतीय तथा
जापानी साहित्य की उत्कृष्टता, मौलिकता तथा
नयेपन ने बहुत प्रभावित थे। कहते हैं कि कालिदास के ‘शाकुतंलम्’ ने तो उन्हें
अभिभूत किया है। गेटे ने भी इस महान कृति को पढ़कर इसे ‘धरती पर स्वर्ग‘ की संज्ञा दी है।
वेाले शोयिंका ने
नाटक भी लिखे। उनका मंचन हुआ। रेडियो से प्रसारण
भी। इस लोकधर्मी कवि ने नाइजीरिया के राजनीतिक इतिहास में महत्वपूर्ण रोल अदा किया
है। ग्रेट ब्रिटेन के उपनिवेश से अपने देश को मुक्त कराने के लिये उन्होंने जोखिम
भरा संघर्ष किया। 1965 में उन्होंने पश्चिमी नाइजीरिया के रेडियो स्टेशन पर कब्जा
कर लिया। उसी जगह से उन्होंने पश्चिमी नाइजीरिया के क्षेत्रीय चुनावों को रद्द
करने के लिये अपनी माँग का प्रसारण भी किया। 1967 के नाइजीरियाई गृह-युद्ध के समय
उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। दो साल तक उन्हें कठोर कारावास में रखा गया।
शोयिंका बराबर नाइजीरियाई सैनिक तानाशाहों
की तीखी आलोचना करते रहे। यही नहीं उन्होंने साम्राज्यवादियों की अन्य राजनीतिक
क्रूरताओं की भी तीखी आलोचना की है। ज़िम्बाबे में मुगाबे के शासन की भी। उनके अधिकांश लेखन की बड़ी
चिंता है: साम्राज्यवादी क्रूर सत्ता तथा नस्लवाद की अप्रसंगिकता को बता कर उनसे
मुक्ति के लिये संघर्ष का आह्वान करना। उससे अपने देश को मुक्त कराना। सेनापति
सानी अबाचा (1993-1998) के शासन काल में शोयिंका मोटर साइकिल से नाइजीरिया से बाहर
चले गये। अधिकांश समय तो वह संयुक्त अमरीका में कोर्नैल विश्वविद्यालय में
प्रोफैसर के पद पर कार्यरत रहे। 1996 में उन्हें कलाओं का प्रोफैसर नियुक्त किया गया।
नाइजीरिया के अबाचा शासन ने उनकी अनुपस्थिति में उन्हें मृत्यु-दण्ड की सजा सुनाई।
जब 1999 नाइजीरिया में लोकशासन बहाल हो गया तो कवि स्वदेश वापस आ गये। इस दौरान
उन्होंने आक्सफोर्ड, हार्वर्ड तथा एल विश्वविद्यालयों में भी
अध्यापन किया। 1975 से 1999 तक वह आबाफेमी अवोलोवो विश्वविद्यालय में तुलनात्मक
साहित्य के प्रोफैसर रहे। लोकसत्ता स्थापित होनेपर उन्हें सेवामुक्त प्रोफैसर बना
दिया गया। 2007 में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में उन्हें प्रोफैसर बनाया गया।
शोंयिका को 1986
में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। वह इस पुरस्कार को पाने वाले पहले अश्वेत कवि
हैं। उनके लेखन को ‘विस्तृत सांस्कृतिक परिदृश्य तथा अस्तित्व के
नाटक की ध्वनियों वाला साहित्य‘ कहा गया। उनके साहित्य का यह योरुपीय एकपक्षीय
तथा बहुत ही भ्रामक आकलन है। जबकि उनका समूचा साहित्य तथा जीवन अश्वेतों को
अंग्रेज़ों के उपनिवेश से मुक्त कराने के अटूट संघर्ष का दर्पण है। उन्होंने अपने
नोबल पुरस्कार व्याख्यान में कहा कि ‘अतीत को वर्तमान के लिये संबोधित करना चाहिये’। एक प्रकार से
पूरे व्याख्यान की ध्वनि मे नेल्सन मण्डेला के लिये ही संबोधन तथा समर्पण था। वह
इवादान विश्वविद्यालय में नाटक की धर्मपीठ के प्रमुख बने। यहाँ उनकी राजनीतिक
गतिविधियाँ अधिक तीव्र हुई। जनवरी 1966 में सैनिक राज्य परिवर्तन के दौरान वह
दक्षिण-पूर्व शहर में सेना के राज्यपाल से मिले। उद्देश्य था कि किसी तरह गृहयुद्ध
टाला जा सके। नतीजा यह हुआ कि उन्हें अज्ञात रूप से छिपना पड़ा। गृहयुद्ध के दौरान
उन्हें 22 महीने का कारावास हुआ। इस दौरान
कवि को किताबें, कापियाँ, कलम आदि तक की
अनुमति नहीं दी गई। फिर भी उन्होंने पर्याप्त संख्या में कवितायें लिखी। नाइजीरिया
सरकार की तीखी आलोचन में गद्य भी लिखा। उनके जेल होते हुये भी उनका नाटक (The
Lion And The Jewel) 1967, अक्क्रा में
मंचित हुआ। नवम्बर, 1967 में उनके दो नाटक (The
Trials Of brothers Jero) तथा (The
Strong Breed) न्यूआर्क में
मंचित हुये। उनका एक कविता संग्रह, (Idanre
and Other poems) भी प्रकाशित
हुआ।
अक्टूबर 1969 में गृहयुद्ध की समाप्ति पर
सर्वक्षमा की घोषणा हुई। शोयिंका तथा अन्य राजनीतिक बंदियों को मुक्त किया गया। इस
मुक्ति के बाद से कुछ समय तक शोयिंका दक्षिण फ्रांस में अपने एक मित्र के फार्म
में रहे। उन्होंने कुछ समय तक एकांत भोगा। उन्होंने शीघ्र ही अपना कविता संग्रह (Poems From Prison) लंदन में छपाया। वर्ष के अंत में वह अपने देश
में अबादान आ गये। यहाँ उन्होंने (Cathedral Of Drama) में हैडमास्टर का पद सँभाला। इसी के साथ कवि
एक पत्रिका Black Orpheus को रचना सहयोग देते रहे। 1970 में उनका एक और नाटक kong’s
Harvest
मंचित हुआ । उसपर फिल्म
भी बनाई गई । जून 1970 में एक और नाटक Madman and Specialists तैयार हुआ। अबादान विश्वविद्यालय की थियेटर
आर्ट कम्पनी के कुछ अभिनेताओं के साथ शोयिंका अमरीका गये। उनके नाटकों का वहाँ
मंचन हुआ। उन्हें वहाँ पसंद किया गया। 1971 में उनका कविता संग्रह A Shuttle in the Crypt प्रकाशित हुआ। शोयिंका ने पेरिस की यात्रा की।
अपने प्रसिद्ध नाटक Murderous Angels में कोंगो गणराज्य के प्रधानमंत्री किन्शासा के रोल का
अभिनय किया। 1971 में ही उनकी महत्वपूर्ण आत्मकथापरक कृति The
Man Died प्रकाशित हुई। बाद में
नाइजीरिया की राजनीतिक स्थिति को देखते हुये शोयिंका ने अपने कार्य भार से त्याग
पत्र दे दिया। स्वेच्छा से निर्वासित हुये। पेरिस में उनके प्रसिद्ध नाटक Dance
Of The Forest का सफलतापूर्वक
मंचन हुआ। 1972 में लीड्स विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टर की मानद उपाधि से
विभूषित किया। उसी वर्ष उनका एक उपन्यास Season Of Anomy तथा एक नाटक संग्रह Collected
Plays आक्सफ़ोर्ड प्रकाशन से
छपे। कहते हैं कि 1973 से 1975 तक शोयिंका ने वैज्ञानिक अध्ययन किया। इसी दौरान
उन्होंने योरुप के अनेक विश्वविद्यालयों मे व्याख्यान भी दिये। 1975 में शोयिंका
ने घाना की राजधानी आक्क्रा में Transion नामक पत्रिका का संपादन किया। अपनी संपादकीय टिप्पणियों
में शोयिंका ने नीग्रो लोगो पर अत्याचारों तथा सैनिक शासको की तीखी आलोचना की है।
नाइजीरिया में सैनिक शासन की समाप्ति पर शोयिंका अपने देश आ गये। वहाँ उन्होंने
साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन केंद्र का भार ग्रहण किया। 1976 में उनका कविता
संग्रह Ogun
Abibiman छपा। साथ में आलोचनात्मक
आलेखों का संग्रह Myth Literature and African World प्रकाशित हुआ। इस बीच उनकी कृतियाँ बराबर आती
रहीं। वह इधर उधर व्याख्यान भी देते रहे।
1975 से 1984 तक
शेयिंका राजनीतिक गतिविधियों में बहुत सक्रिय रहे। वह सत्ता में व्याप्त भ्रष्टाचार
की तीखी आलोचना करते रहे। सैनिक शासन आने पर पुनः कवि की मुश्किलें बढ़ गई। 1984
में नाइजीरिया के न्यायालय ने उनकी पुस्तक The Man Died पर प्रतिबंध लगा दिया। 1988 के बाद से उनकी कवितायें
तथा नाटक बराबर छपते रहे। अक्टूबर 1994 में शोयिंका यूनेस्को में Godwill
Ambassador नियुक्त हुए। अर्थात
अफ्रीकी संस्कृति, मानवाधिकार मीडिया तथा व्यक्ति को अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रा के उन्नयन का भार मिला। 1994 में फिर उन्होंने बहिर्गमन किया। 1996
में उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक The open Sore of a Continent छपी। इसमें नाइजीरिया के राजनीतिक संकट की
मार्मिक व्याख्या है। 1997 में सेनपति सैनी अबाचा की सरकार ने शोयिंका पर देशद्रोह
का आरोप मढ़ा। जैसा हम जानते हैं उन्होने अपनी कृतियों में सैनिक तानाशाहों की
बराबर बड़ी तीखी आलोचना की है। 2007 में शोयिंका ने नाइजीरिया में होने वाले
राष्ट्रपति के चुनाव को निरस्त करने की माँग उठाई। शोयिंका ने लोगों की प्रार्थना
की स्वायत्तता को उचित ठहराया। पर धार्मिक उन्माद से उत्पन्न हिंसा को ले कर लोगों
को चेताया। इस प्रकार शोयिंका का जीवन तथा उनका लेखन दोनों एकात्म हैं। जो जीवन है, वही लेखन में प्रतिबिंबित है। जो लेखन में
व्यक्त है वह उनके जीवन में पल प्रतिपल घटित-उद्घाटित है। ऐसे लेखक विरल हैं। पर
महान लेखक का यही रहस्य है। शोयिंका अपने लेखन के लिये हर जोखिम उठाने को तत्पर
हैं। वह उन मानवाधिकारों को लड़ रहे हैं जो बहुसंख्यक लोगों को सदियों से नहीं
मिले। विश्व में साम्राज्यवाद किस तरह
लोगों का दमन, शोषण, उत्पीड़न कर उनके देशों को हर दृष्टि से तबाह करता रहा है।
यह आज भी सच है। साम्राज्यवाद, नस्लवाद, धार्मिक उन्माद, आर्थिक विषमता, दलितों-आदिवासियों-
स्त्रियों का शोषण आज भी जारी है। अतः शोयिंका की कविता आज के लोकधर्मी कवि को
प्रेरणा का प्रमुख स्रोत है।
उनके लोकधर्मी
संघर्ष ने उनकी कविता को कुछ खास खूबियाँ प्रदान की हैं। एक तो शोयिंका का कविता के प्रति समर्पण अप्रतिम है। उन्होंने
अपने लेखन को 'स्वयं की आंतरिक विवशता' माना है। यानि लिखना उनके
जीवन में जैसे प्राण रक्षा के लिये साँस लेना हो। उसके बिना वह रह नहीं सकते।
उन्होंने यह भी स्वीकारा है कि यदि लिखने की बाध्यता उन्हें न होती तो वह कलापरक
कुछ ही कवितायें लिखकर संतुष्ट हो लेते। या फिर वह छुटभैया किसान होते। इससे समय
बचता तो वह पुरानी अफ्रीकी कला मूर्तियों को खोजते। परखते। औपनिवेशिक आधुनिकतावादी
लोग चाहे तो ब्रिटेन के हो अथवा योरुप-अमरीका या किसी अन्य देश के -शोयिंका की कविता
के गुणग्राही नहीं हो सकते। उन्हें शोयिंका की कविता में अपना अंत दिखाई देता है। भारत
में कला-रूपवादी भी उनकी कविता को राजनीतिक कह कर उसकी उपेक्षा करेंगे। इन दिनों
में कलावाद-रूपवाद सिर चढ़ के बोल रहा है। यदि कोई सामाजिक यथार्थ को कलात्मक ढंग
से भी व्यक्त करे तो भी उसकी कविता को बड़बोलापन या सतही कह कर उसकी अवज्ञा करते
हैं।
दूसरी खूबी उनकी
कविता की है - समूची अश्वेत जाति को एक जाति -एक राष्ट्र मानने की चिंता। राज्यों
के भौगोलिक सीमांत, भिन्न भिन्न
भाषायें, धार्मिक आस्थायें तथा रीतिरिवाज़ उनके लिये सिर्फ छाया
प्रतीतियाँ भर है। सार तत्व है अश्वेत जाति की मुक्तिकामी संघर्षशील चेतना जो
सबको एक सूत्र में बाँधती है । शोयिंका के समूचे लेखन का केंद्र बिंदु यही है।
इसीलिये वह सिर्फ नाइजीरियाई ही कवि न
होकर समूची अश्वेत जाति के प्रतिरोधी गया हैं। हम देख चुके हैं निजी रूप से उन्हें
कितनी क्रूर यातनायें तथा घोर पीड़ायें उठानी पड़ी हैं। लगता है यही है उनकी कविता
का शक्ति स्रोत। पर उनके संदर्भ का फलक इतना बड़ा है -उनकी मूल चिंतायें इतनी
विस्तृत तथा व्यापक हैं कि उनकी कविता की अर्थध्वनि सार्वभौमिक तथा कालातीत हो
जाती है। उन्होंने जिस सैनिक निरंकुश तानाशाही को झेला है उसे वह असंख्य
अफ्रीकियों के त्रासद गान में बदल देते हैं। शोयिंका अपनी आस्थाओं में अविचल हैं।
अडिग भी। जैसे नाज़िम हिकमत या वाइजुई। नेरुदा या लोर्का। हमारे यहाँ जैसे डा0
रामविलास शर्मा, चंद्रबली सिंह, शिवकुमार मिश्र आदि। उन्होंने जेल मे रह कर जो
कवितायें लिखी उनमें तानाशाहों के विरुद्ध तीखे व्यंग्य है। कठोर प्रहार हैं।
उनमें गहन गुस्सा है। अपनी जाति के लिये तर्कपूर्ण करुणा है। मार्मिक रुदन है।
देखने की बात है कि निजी त्रासदी कविता में कैसे पीड़ित विश्व मानव की मार्मिक कहन
बनती है। उनकी एक प्रदीर्घ कविता है ‘मेरी धरती के लिये फूल’। यह कविता
दुनिया के शोषित पीड़ित जन को सजग करती हुई उत्पीड़कों को एक चुनौती -एक ललकार है -
हाथ उसके रँगे
हैं अपराधों में
नष्ट कर देती है
उनकी साँसें
हम सबको
वे जबरन थोपते
हैं
हमपर अपने
विचारों को
जैसे मृत्यु का
दान देते हों
इस कविता में
झलकती है नाइजीरियाई गृहयुद्ध की डरावनी तस्वीर! दहलाने वाली मनुष्य की त्रासदी।
शोयिंका को जेल में दी जाने वाली यातनायें। कविता मानवीय त्रास को ही व्यक्त नहीं करती, वह उस यातना से
बाहर आने का रास्ता भी सुझाती है। एक ऐसा विकल्प जो नाइजीरिया को ही नहीं बल्कि उन
सभी देशों को जरूरी है जो सैनिक तानाशाहों तथा साम्राज्यवादी उपनिवेश की दासता से
मुक्त होना चाहते हैं। समग्र अश्वेत जाति का साम्राज्यवादियों के विरुद्ध संगठित
संघर्ष शोयिंका की कविता की आद्यंत लय और राग है।
तो आओ, हम कर लें एका
त्रस्त जनों से
उनके विरुद्ध
किसी तरह कम नहीं
है
मौत के सोदागरों
से
वे ही हमारे
सोचने की ताकत को
कर देते हैं रेशे
रेशे -
इसके लिये हमें उन
हैवानों से कानून छीनना पड़ेगा। हमें साहस जुटना होगा। जब हमारे पास संगठित ताकत
होगी तो हम क्रूरतम हेरोद (बाइबिल में वर्णित एक क्रूर राजा जिसने ईसा की हत्या
कराने का कुचक्र रचा था) को भी परास्त कर सकती है। उन लोगों का तो कहना ही क्या जो
कानून के डकैत बने बैठे हैं गद्दियों पर -
लेने के लिये
साहस है अगर तुम में
और हड़प सकते हो
तो हड़प लो
न्याय को अपने
हाथों में
संगठित ताकत
ऐसी क्रूर तलवार
है
जो क्रूरतम हेरोद
तक को
झुका सकती है
शोयिंका कविता को
मनोरंजन की चीज़ नहीं मानते। न कला-रूपवादियों की तरह आत्मसाक्षात्कार के लिये कोई
जादू टोना। वह एक अस़्त्र है -जनविरोधी तानाशाहों, दमनकारी उपनिवेशवादियों के विरुद्ध लड़ने का। जैसा कि आचार्य मम्मट ने हमारे यहाँ
कविता के अनेक प्रयोजनों में से एक प्रयोजन बताया है, ‘ शिवेतर-क्षतये’। यानि जो कुछ भी
जनविरोधी है -जो कुछ भी लोक के अहित में है - उसका विनाश कविता से करना चाहिये।
यानि एक ऐसी भाषा संवलित कविता जो आदमी के मर्म का भेदन कर उसे सोचने को बाध्य कर
सके। जो जन विरोधियों पर लगातार प्रहार करे। उन्होंने अपने गद्य में कहा भी है कि
हमारे लिये यह तय करना जरूरी है कि मनुष्यों के आंतरिक संसार में हम एक विस्फोट की
तरह उन चीज़ों को तोड़ सके जो लोकविरोधी और अकल्याणकारी है। ध्यान रहे शोयिंका ने
अंग्रेज़ी भाषा में कविता रची है। यहाँ सवाल हो सकता है कि एक लोकधर्मी कवि ने ऐसा
क्यों किया! वैसे मेरा अपना विचार है कि शोयिंका को अपनी ही किसी भाषा में लिखना
ही बेहतर होता। क्योंकि ज्यादतर लोकधर्मी कवियों ने अपनी ही भाषाओं को अपनाया है।
पर यहाँ अपवाद स्वरूप कवि के अपने तर्क है जिन्हें हम जाने। यद्यपि उन्होंने
अश्वेत अफ्रीकी देशों की सम्पर्क भाषा स्वाहिली का समर्थन किया है। स्थानीय भाषाओं
में जो अफ्रीकी कवि कविता लिख रहे थे उसे उन्होंने बुरा तो नहीं माना। पर संप्रेषण
की सीमा के कारण उनका पाठक क्षेत्र संकुचित जरूर हो गया है। यह तो सही है कि शोयिंका
अंग्रेज़ी में कविता लिखते रहे। पर उन्होंने अपने लेखन की रचनात्मक ऊर्जा के लिये
अपनी लोक भाषा ‘योरुवा’ की गहरी जड़ों से जीवन रस अर्जित किया है। दूसरे, उनकी अंग्रेजी
भाषा में ‘अंग्रेजियत’ बहुत कम है। ऐसा इसलिये है क्योंकि शोयिंका सदा
अपनी जनता के संघर्ष से एकात्म रहे। लोक जीवन तथा लोकसंस्कृति को मन में रचाया
पचाया। कवि बहुत शुरू से अफ्रीकी लोक जीवन तथा साहित्य से जुड़े रहे हैं। अपने लोक
साहित्य की वाचिक सुदीर्घ तथा समृद्ध परंपरा से वह सुपरिचित थे। अंग्रेज़ी में लिख
कर भी शोयिंका ने अपनी भाषा तथा संस्कृति पर गर्व करना कभी नहीं त्यागा। अंग्रेजी
में लिख कर भी वह अपने परिवेश के बिंब रचते हैं। अपने यहाँ के प्रचलित मिथकों को
नया संदर्भ देकर उन्हें समृद्ध किया हैं। अपने जनपद के मुहावरों को अंग्रज़ी में
ढालने का यत्न वे बराबर करते हैं। अपने यहाँ के रीतिरिवाज़ों को तर्कसंगत बनाकर
उन्हें आज के परिप्रेक्ष्य में विकसित करते हैं। उत्सवों और कर्मकाण्डों केा
प्रतीक रूप देकर कविता मे स्थानगत सौंदर्य को उभारते हैं। बचपन के बारे में अपनी
एक पुस्तक में उन्होंने बताया है कि कैसे योरूवा का स्थानीय क्रियाशील जीवन उनके
शिशु मन में अंकित हो रहा था। जैसे बाज़ार में औरतें अपने सामान बेचते समय खरीदारों
को लुभाने के लिये लोक गीत गाती थीं। कवि ने एक जगह बताया है कि उसका ‘जीवन गायन और
अभिनय’ के बीच रचा गया है। लोक कविता की अनुगूँजों के बीच ही उनका
मन विकसित हुआ है। शोयिंका की कविता में व्यंग्य का तीखापन उन्हें लोक के और करीब
लाता है। उनकी कविता में शब्दों की सहज सांकेतिकता है। बिंबों और छबियों से कविता
समूर्त है। उपमायें और प्रतीक कविता को संश्लिष्ट और गहन भाव संपन्न बनाते हैं।
उनकी लोक भाषा में एक पढ़े लिखे किसान की भाषा जैसा बाँकपन है। शत्रु को तराशने
वाली तेज़ धार है। गृहयुद्ध के रक्तपात से कवि अंदर तक आहत थे। कैद के समय उन्हें
नितांत एकांत जेल में क्रूर यातनाये दी गई। इसका दिल दहलाने वाला खुलासा उनकी आत्म
कथा ‘द मैंन डाइड’ में सुरक्षित है। मनहूस सैनिक तानाशाहों ने
उनके साथ जल्लादों जैसा व्यवहार किया था। इस कृति में ये सारे ब्यौरे और विचार
बिखरे पड़े हैं। जैसा कि बताया गया है जेल में उन्हें पढ़ने लिखने की सुविधाओं से
वंचित रखा गया था। ऐसे भयावह एकांत तथा तलघर में बंद किसी चिड़िया की तरह कैद कवि
के अनुभव बोलते हैं। कहते हैं कि यहाँ उन्होंने -‘शौच-कागज़ों’ पर कवितायें लिखी
थी। ‘जीवित समाधि’ तथा ‘मेरी धरती के लिये फूल’ दो कवितायें किसी
तरह जेल से तस्करी करके लाई गई कवितायें है। दुनिया से बिल्कुल कटे हुये कवि को
लगा था कि जैसे वह ‘जीवित समाधि’ हो। इसी कविता की
पंक्तियाँ हैं -
सोलह फुट चौड़ी
तेईस फुट लंबी
कर दी है
उन्होंने मेरी
कठोर घेराबंदी
आदमियत और सत्य
के विरुद्ध
वे ऐसी तरकीब
करते हैं समय की
जिस से आदमी का
संतुलन
हो जाये खण्ड
खण्ड
नष्ट भ्रष्ट कर
दने वाले
प्रेम के शत्रु
जैसे रुख से
क्या तुम में
साहस है
जो निकाल सको
गये वर्ष की
हड्डियों को खोद कर
क्या दिखा सकोगे
उधेड़ कर परतें
इस उपज के लिये
दी गई खाद
उस कब्रगाह में
जिंदा गाड़ दो
उसको भी
जिससे प्रमुख
प्रेत छाया
अनजान लोगों को
दिखा सके
नरक के रहस्यों
का
पुराना पथ
गोली: शांति की
नींद
सो जाता है वह
चिकित्सक आते हैं
लेने जायज़ा
कहते हैं खाता
पीता है ठीक ठाक
नहीं है उसको
परेशानी
$ $ $
हमें उम्मीद थी
ओ गेलिलियो
समय कुछ न कुछ सिद्ध
कर देगा
या फिर प्रतिभा
स्वीकारेगी पराजय
प्रतीक्षा करते
करते जल्लादों ने
दे दिया हुक्म
बलि के जानवर को
बदले में पकड़ लाओ
और रिहा कर दो
किसी संत को
इंद्रिय अनुभवी
कैसा समय चुना है
साजिश भरी
निगरानी को
एक पल भर को
सिंहासनस्थ
सोचा मैंने
वह है प्रसन्न
रुग्ण कविता देवी
का
संघर्षरत शोयिंका
के लिये विश्व के संवेदनशील नागरिको, लेखकों तथा बुद्धिजीवियों
में गहरी सहानुभूति पैदा करने वाले उनके दो कविता संग्रहों ने महत्वपूर्ण भूमिका
अदा की है। एक तो ‘इंडारे एण्ड अदर पेाइम्स’ तथा ‘पोयम्स फ्राम
प्रिज़न’। इन कविताओं मे दुनिया में भौतिक संस्कृति के विकास के
अछूते तथा मार्मिक चित्र है। दूसरे, गृहयुद्ध के समय मारे गये अबोध ‘ईबो कबीले’ के आदमियों को इन
कविताओं में मार्मिक श्रद्धांजलि भी है। इन कविताओं ने योरुप तक को त्रास की
गहनता से बेचैन किया है। इसी संदर्भ में विश्व के लेखकों, बुद्धिजीवियों, संवेदनशील नागरिको ने शोंयिका की बिना शर्त रिहाई की माँग
की थी। नाइजीरिया में भी जनता ने उनकी रिहाई के लिये बहुत ज्यादा दबाव बनाया। आखिर वह रिहा हुये।
शोयिंका की
कविताओं से लगता है कि वह अफ्रीकी सृजन परंपरा में अनेक विविधतायें तथा विरोधाभास होते
हुय भी उसे एक ही मानते हैं। योरुप और अमरीका के बुर्जुआ समीक्षक आज तक अफ्रीकी
अश्वेत साहित्य के मूल्यांकन के प्रति दुराग्रही हैं। वे अफ्रीकी सृजन को
उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद का प्रतिरोधी प्रचार साहित्य मानते हैं। 1962 में शोयिंका
ने कम्पाला में हुये अफ्रीकी सम्मेलन में ‘नीग्रो श्रेष्ठता’ अभियान से अपने
को अलग रखा था। यह एक वैज्ञानिक तथा तर्कपूर्ण असहमति थी। यह ऐसा ही अभियान है
जैसे भारत में कोई ‘दलित श्रेष्ठता’ का आंदोलन चला कर भारतीय
समाज में जातबिरादरी की और गहरी दरारें पैदा करे। जातिगत, प्रांतगत, देशगत श्रेष्ठता
का अभियान हमें फासिज़्म की ओर ले जाता है। श्रेष्ठता किसी जातबिरादरी -नस्ल-देश-काल
से जुड़ कर अपना मूल्य खोती है। ‘नीग्रो-दलित श्रेष्ठ’ संज्ञा ‘श्वेत-सवर्ण’ की श्रेष्ठता की
प्रतिक्रिया में जन्मा रूपक है। इससे समाज और अधिक विभाजित हो सकता है। शोयिंका का
तर्क है कि किसी वन में रहने वाला शेर यह नहीं कहता है वह शेर है। मेरा विचार है
कि हमें श्रेष्ठता मनुष्य की किसी नस्ल या जात-बिरादरी से जोड़ कर नहीं देखनी चाहिये।
मेरे विचार से उसे श्रम की श्रेष्ठता तथा भौतिक, सांस्कृतिक उपलब्धियों से
जोड कर देखना बेहतर होगा। क्योंकि श्रम ही समग्र समाज के निर्माण का आधार है। उसी
से भौतिक उत्पादन का विकास जुड़ा है।
कवि शोयिंका में
अफ्रीकी जातीय संवेदना उनके समूचे लेखन में परिव्याप्त है। उनकी कविता में व्यापक
मानवीय सरोकर बोलते हैं। शोंयिका अपनी जेल की यातना के अनुभवों की ओर बार-बार
लौटते हैं। संकेत है कि सैनिक तानाशाह और साम्राज्यवाद मिलकर किसी भी देश की
शांतिप्रिय तथा सृजनशील जनता को हर तरह से तबाह करते हैं -
खोजे हैं
उन्होंने मृत्यु के
जाने कितने तरीके
झटक के गले में
फंदा
कत्ल करना
क्षण क्षण ले
जाना मौत के करीब
रक्त रंजित थी
लड़कियाँ
असंख्य लाशों से
पटी पड़ी
सड़के और गलियाँ
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ठोकरें जूतो की
कुंदे बंदूकों के
कवि जानते हैं कि
पूरे विश्व में श्वेत और अश्वेत का संघर्ष एक साम्राज्यवादी व्यूह रचना भी है।
जैसे शतरंज के खेल में मौहरे पिटते हैं। बादशाह को बचाने के लिये छोटे मौहरों को
दाँव पर लगा दिया जाता है-
शतरंज!
नहीं ... ओह
-शतरंज की गोटियों में
छिपी है
सत्ता को उखाड़
फेंकने की
छद्म चालें
यह एक व्यूह रचना
है
श्वेत अश्वेत का
द्वंद्व
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$
किश्त की चाल
चलने वाले
बुरे से भी बुरे
हैं
इस खेल में नहीं
है
किसी का वर्ग
लिहाज
गुलाम और बादशाह
के क्रम में
उनकी अधिसंख्य
कविताओं में कैद का अकेलापन, सैनिकों की
तानाशाही, स्वयं की यातनायें आदि की अभिव्यक्ति बराबर होती रही है।
शोयिंका दमित-शोषितों की मुक्ति, सामाजिक न्याय तथा उपनिवेशवाद के विरोध में
अपना जीवन तक दाव पर लगाते रहे हैं। यही वजह है कि उन्होंने नेल्सन मन्डेला को
अपना ‘मिथकीय नायक’ माना है। क्योंकि दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत
नेता मण्डेला ने सामाजिक अन्याय, शोषण, उत्पीड़न, दमन तथा नस्लवाद
के विरुद्ध संघर्ष में अपना पूरा जीवन
झौंक दिया है। शोंयिका की सुप्रसिद्ध कविता, ‘उसने कहा ‘नहीं’ मण्डेला के प्रति
एक अप्रतिम कविता है। यहाँ जेल में घुटते कवि मन की तीखी व्यंग्यमय अभिव्यक्ति है
-
उसका सिर कुचलने
के लिये
वहाँ को ले जाने
के लिये वापस
उफनते ज्वार में
उसकी पूरी नस्ल
की
अश्वेत इच्छा
शक्ति को
देहों को बेचने
खरीने वाली
शताब्दियों की
तरफ
बचाव की
रणनीतियों से दूर
पर उसने कहा ‘नही’
विषैले जल जीवों
ने
उसकी आत्मा को
डँसा
सफेद ईल मत्स्य
ने
उसके हृदय को खोज
डाला
परत दर परत
उठा के भुजा अपनी
ऊपर
जुटा वह
दिलाने को मुक्ति
एकाकी प्रेतों की
धीमी पेरड से
तो भी वे आये
पल पर दिमागी
कमज़ेारी के मध्य
विभ्रमित करने
वाले
उसने फिर कहा ‘नहीं’
$ $
$
नहीं हूँ मैं बंद
जेल में
इस चट्टानी द्वीप
का
यह चट्टान मैं
स्वयं ही हूँ
मैंने किया है
कठिन श्रम
एक प्रकार से यह
पूरी कविता अश्वेत जाति के महा संघर्ष की त्रासद गाथा है। लोक जीवन की परंपरा के
महत्व के साथ शोंयिका पुनरुत्थानवादी नहीं हैं। वह मानते हैं कि वही अतीत सार्थक
है जो भविष्य की तर्कसंगत समझ को समृद्ध कर उसे विकसित करता है। संकेत है कि हमें
अतीत के प्रति मोहासक्त न होकर आलोचनात्मक दृष्टि अपनानी चाहिये।
इतना संघर्षपूर्ण, जोखिम भरा तथा
कठोर जीवन जीने के बाद भी शोयिंका प्रेम तथ प्रकृति के कोमल भावों को तिरस्कृत
नहीं करते। ‘बहुत ही तनिक प्रेम से’ कविता में वह प्रेम से
जीवन की वेदना जीतने की कोशिश करते दिखते हैं -
बहुत ही तनिक
प्रेम में
किया है मैंने
यत्न
अपनी वेदना को
जीतने का
उफनती लहरों को
साफ-सुथरी
सीपियों से
पूरित किनारे ने
लहरों को दूर ही
रोक दिया
अपने छोटे मोटे
ज्ञान से
मैंने खोजा
रिक्त सुंदर ऋतु
को
एक दूसरी कविता
है ‘प्यार में घूँघट’। प्रेयसी के हाथों का
आलंगिन मृत्यु तक को समेट लेता हैं। प्रेम की पंखड़ियाँ धूल होती है छूते ही। सपनों
के बीच मृत्यु का अवरोध बिखर जाता है
उसके हाथ
आलिंगन में अचक
समेट लेते हैं
साम्राज्य मृत्यु
का
उसकी केशराशि से
पंखड़ियाँ झरती है
प्रेम की
छूते ही जो होती
है धूल
सिर्फ सपनों के
बीज
तोड़ फोड़ देते हैं
मृत्यु के
व्यवधान
इसी तरह ‘भोर’ कविता में
प्रकृति की सुंदर बिंब –छवियाँ पिरोई दिखती है -
ऊपर उठता है हाथ
पृथ्वी को फोड़ कर
अकेला हाथ होता
है रोमांचित
फागुनी परस से
ताड़ का एक पेड़
वृक्षों की
फुनगियों के आर पार
कोमल पल्लवों का
पहरेदार सजग
छेदता है
हवा के लहराते
केश
जैसे उसी ने
थामें हैं पराग-कण
सबसे ऊँचे शिखर
पर
खून के छींटे
वायु में
फूलों के गुच्छों
की
इकसार मेखला के
ऊपर
उसपर करती नटखट
चुहल
चुपचाप आता छिपे-छिपे
आसमान को चीर कर
अलग करता
अनछुआ लबादा
इसी तरह शोयिंका
की एक कविता है, ‘ऋतु’ -
पकना होता है
जब जंग लगती है
मक्का की बालियाँ
कुम्हला के होती
हैं पियर छौंही
पराग ध्वनि है
दंपती के चुगने
का समय
गौरैयों का समूह
जब करता है नृत्य
कोमल काँस के
फूलों पर
और बुनता है
मकई के सौनल
रेशों को
रश्मियों की
पंखनुमा चीरों में
$ $ $
खड़-खड़ बजते हैं
चुपचाप हुये
खेतों में
पत्तियाँ जहाँ
मक्का की
बेधती है बाँस की
नौंको सी
खेतों से अब
सिलहारे चुनते
हैं बिखरी बालियाँ
मकई की
भुँट्टियों का
करते हैं इंतजार
पियरछौंही होने
का
संध्या के
झुटपुटे में
रचने लगते हैं हम
सुदीर्घ परछाइयाँ
लच्छेदार धुँआती
लकड़ी को
टाँगते हैं
सूखे छप्पर पै इस
कुछ बातें बहुत साफ हैं।
लोकधर्मी कवि
सिर्फ संघर्ष में ही नहीं जीता। वह प्रेम, प्रकृति तथा अन्य
कोमल भावों को भी अपने संघर्ष का एक जरूरी आयाम बना लेता है। यह बात वाइ जुई, नाज़िक हिकमत तथा पाब्लो नेरुदा की कविताओं से भी झलकती है।
इसी अर्थ में लोकधर्मी कविता का वृत्त अत्यंत व्यापक तथा समग्र होता है। हिंदी के
लोकधर्मी कवि भी इसका अपवाद नहीं हैं।
शोयिंका इसी अर्थ में सम्पूर्ण लोकधर्मी कवि
हैं। उनका अनुभव विविध, विचित्र और विराट
है। कवि की गहरी रुचि भारत के मुक्तिसंग्राम में रही है। हमारे यहाँ के राजनीतिक
तथा सांस्कृतिक परिदृश्य से वह गहराई तक परिचित हैं। उनकी काव्य संवेदना अपने देश
के लोक से जीवन रस-राग अर्जित कर वैश्विक बनती है। नाइजीरिया में अपने जनपद की
जड़ें, जमीन तथा जन तो उनके अपने हैं ही। इसके साथ वह मध्यपूर्व के
देशों, चीन, जापान तथा भारत के रचनात्मक स्रोतों से भी गहरे
तक जुड़े है। इतनी व्यापक, विराट तथा विविध
चित्त भूमि वाला अन्य कवि आज विश्व में दिखाई नहीं पड़ता। दूसरे संदर्भों में
पाब्लो नेरुदा ही याद आते हैं। उनकी कविता पर योरुपीय साहित्य का प्रभाव होते हुये
भी उनकी निजता अखण्ड और अक्षुण है। उनका मानना है कि जब वैज्ञानिक अंतर्राष्ट्रीय
परिवेश से प्रभावित होकर सीखते हैं तो एक कवि को विश्व से कट कर रहने का क्या
अभिप्राय हो सकता है। विश्व चेतना को आत्मसात करके ही कवि आज सशक्त प्रतिरोध कर
पायेगा। यह इस महान कवि से मुझे सीखनी चाहिये।
शोयिंका ने कविता, नाटक, उपन्यास, समीक्षा आदि के
लिये अपने निजी मुहावरे और सिद्धान्त विकसित किये हैं। उन की कविता में
कलावाद-रूपवाद की निजी पीड़ा की कुण्ठा नहीं है। उससे अलग लोक की पीड़ा, दमन, शोषण, भूख तथा लाखों के कुपोषण की चिंता उन्हें अधिक है। ध्वंस और
विकास, विनाश और निर्माण, जीवन और मृत्यु के अंतर्विरोधी द्वंद्व से कवि
बार बार मुठभेड़ करते हैं। कवि बोरिस पास्तरनाक की तरह ही युद्ध को ‘अप्राकृतिक तथा
असहज’ मानते हैं। युद्ध जन विनाश का ही कारक है कवि के लिये। यही
वजह है कि शोयिंका की कविता में रक्तपात, मानव त्रास, घृणा आदि के चित्र बड़ी मार्मिकता उत्पन्न करते
हैं। उनकी कविता आज तो और अधिक प्रासंगिक हो गई। उन्हीं की कविता से बात खत्म
होती है -
सूर्य बुलाता है
तुम्हें
मिस्र समुद्र के
तटों
पूरी दुनिया के गरीब
असहाय जनों
एक साथ दहक उठो
पृथ्वी की अघाई
कोख से
खींच लो
अपनी पीडा का सत
यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है,अश्वेत कवि शोयिंका का पूरा जीवन हमारे लिए प्रेरणा है !
जवाब देंहटाएंएक और महत्वपूर्ण एवं संग्रहणीय आलेख | - नित्यानन्द गायेन
जवाब देंहटाएंमैं बहुत ज़्यादा नही जानता , हिन्दी की प्रगतिशीलता दलित विमर्श को कैसे लेती है ... लेकिन एक अखरने वाली चुप्पी तो महसूस होती ही है . एक व्याख्यान मे नामवर जी ने कहा था कि ये वे स्वर हैं , जिन्हे आज तक कुछ कहने का मौका नहीं मिला . गूँगे को जैसे वाणी मिली है . इन का विरोध न हो . इन आवाज़ों को भी ध्यान से सुनना होगा . इन आवाज़ों को अपने साथ शामिल करना होगा . और हमें सोचना होगा कि हम ने इन के साथ क्या किया ? फिर यह कहा था कि जाति व्यवस्था खत्म नही हो सकती .बुद्ध कबीर और गाँधी फेल हो गए . यह वक्तव्य शुरू हुआ था -इस वाक्य से - कि साहित्य में आरक्षण नहीं चलता . इस तरह की मानसिकता मुझे असहज बनाती है . माने सीधे सीधे विरोध तो कोई नही करता , लेकिन दलित आन्दोलन बहुसख़्य प्रगति शीलों के लिए साहित्यिक *टेबू* तो बन ही गया है . जब कि अश्वेत आन्दोलन पर क़सीदे कसने से हम नहीं चूकते ....
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