हजारी प्रसाद द्विवेदी का दुर्लभ निबन्ध 'वर्षा की कोई आशा नहीं!'

 

हजारी प्रसाद द्विवेदी 



वर्षा ऋतु सभी ऋतुओं से न्यारी ऋतु है। इस ऋतु में धरती आसमान जैसे एक हो जाते हैं। इसके आने से किसानों की आंखें उम्मीद से चमकने लगती हैं। बरसाती बूंदें धरती के परिवेश को पूरी तरह बदल डालती हैं। हरियाली हर जगह अपने पांव पसारने लगती हैं। बच्चे बारिश में नहाने की जिद करने लगते हैं। परिवेश तरह तरह के कीड़े मकोड़ों की आवाज से गुंजायमान हो जाता है। झींगुरों की झन झन, मेढकों की टर्र टर्र की आवाज के साथ संगत करती है। जुगनू रोशनी को बिखेरते हुए उड़ान भरने लगते हैं। प्रकृति जैसे अपनी तरह से सज बज जाती है। ऐसे में रचनाकार की लेखनी भी मचलने लगती है। रचनाकार अपनी रचनाओं में अपनी अपनी तरह से बरसात को चित्रित करते दिखाई पड़ते हैं। लेकिन मौसम आने पर भी जब बारिश नहीं होती, तो सबकी बेचैनी और तकलीफें बढ़ने लगती हैं। जीव जन्तु आकुल व्याकुल हो जाते हैं। मौसम बोझिल लगने लगता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपनी ढब के अनूठे रचनाकार थे। उनकी भाषा का लालित्य लुभाता है। उनके उपन्यास तो कालजई हैं ही, निबन्ध भी श्रेष्ठ हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली में उनके निबंधों को संकलित किया गया है। लेकिन जैसा कि खुद आचार्य अपने इस लेख में लिखते हैं 'स्वभाव का लस्टम-पस्टम आदमी हूँ, कोई चीज़ तरतीब से नहीं रख पाता', उनकी कुछ रचनाएं ग्रन्थावली में शामिल होने से रह गईं। पंकज मोहन हमारे समय के उम्दा इतिहासकार और शोधकर्त्ता हैं। उन्होंने पंडित जी का एक दुर्लभ निबन्ध 'वर्षा की कोई आशा नहीं!' खोज निकाला है। निबन्ध का रचना काल जून, 1943 है, जिसे "हजारी प्रसाद द्विवेदी रचनावली" में भी स्थान नहीं मिल पाया। अपने पाठकों के लिए विशेष तौर पर हम इस निबन्ध को प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हजारी प्रसाद द्विवेदी का दुर्लभ निबन्ध 'वर्षा की कोई आशा नहीं!'


 

'वर्षा की कोई आशा नहीं!


हजारी प्रसाद द्विवेदी


प्रस्तुति : पंकज मोहन


आज आसमान ने कुम्भक प्राणायाम साध लिया है। किसी ओर से न हवा है न, धूप है, न फुर्ती है, न आनन्द है। पसीने से व्याकुल हो रहा हूं। बरसेगा क्या? कम्बख्त बरसता भी तो नहीं। सोच रहा हूँ कि इस अभागे देश में कुछ ऐसा ही वातावरण है। हिन्दू और मुसलमान, सरकार और जनता, धर्म और ईमान सब गुमसुम है। स्वभाव का लस्टम-पस्टम आदमी हूँ, कोई चीज़ तरतीब से नहीं रख पाता। जिनके ऊपर तरतीब से सजा रखने का उत्तरदायित्व विधाता की ओर से मिल गया है उनकी ओर से झिडकियाँ प्रायः मिल जाती है। अब अंतर भी नहीं होता। संवेदन भोथा हो गया है। अखबार चारो ओर छितराए पड़े हुए हैं। बड़े-बड़े राष्ट्र नायकों और दलपतियों के वक्तव्य दीख रहे हैं। भले आदमियों ने झूठ बोलने का व्रत ले लिया है - बना-सँवार कर झूठ बोलते हैं, सच्चाई के साथ झूठ बोलते हैं, ईमानदारी के साथ झूठ बोलते हैं। इस ज़माने में इस विद्या ने खूब उन्नति कर ली है। मुझे बार-बार अपने देश के आदमी याद आ रहे हैं, भूखे, नंगे, अधमरे। ये क्या खा कर झूठ बोलेंगे? झूठ बोलने वालों का चेहरा और तरह का होता है। लेकिन अपने ढङ्ग के झूठ ये भी बोल लेते हैं। कहते हैं, हम आदमी नहीं है, हिन्दुस्तानी नहीं है, हिन्दू-मुसलमान है। हिन्दू और मुसलमान! दोनों एक दूसरे को संकुचित करके देख रहे हैं। लड़ भी तो नहीं पड़ते! संशय और अविश्वास ने दोनों को ओछा बना दिया है। लोग एकता पर लेख लिखते हैं, कहते हैं दोनों का ईश्वर एक है, इत्यादि। लेकिन हिन्दू और मुसलमान क्या मानते हैं कि दोनों के ईश्वर एक ही है? वे बेचारे तो हिन्दुओं और मुसलमानों की भूख प्यास को भी एक मानने की गलती नहीं करते। पानी भी जब एक नहीं तो ईश्वर तो बहुत दूर है। इसीलिये आज दिल उदास है। दूर तक सूखा हुआ मैदान दिखाई दे रहा है। एकाध खजूर और ताड़ के पेड़ सारे दृश्य को और भी मनहूस बनाए दे रहे हैं। मैं सोचता हूँ कि ये बड़े बड़े लेख जो एकता को इतिहास से सिद्ध करते हैं, धर्म-शास्त्र से स्थापित करते हैं, युक्ति से समर्थन करते हैं, क्या सचमुच कुछ काम के हैं। मेरी बुद्धि तो थक जाती है। आसमान में बुरी तरह की ऊमस है और धरती व्याकुल और हतचेष्ट हो कर पड़ रही है। मैं कुछ सोच नहीं पा रहा हूं।





इधर पड़ोस के गाँव में पिछली गणेश चतुर्थी को दो औरतों में झगड़ा हो गया था। मुझे निर्णायक बन जाना पड़ा था। भाग्य में जो पद लिखा होता है वह कभी न कभी मिल ही जाता है। विधाता का भी मज़ाक़ करने का अपना तरीका है। सो निर्णायक मुझे बनना ही पड़ा। एक ने गणेश जी का व्रत किया था। उसके गोबर के गणेश साल भर तक पूजा पाते हैं। माघी चतुर्थी को गंगावास पाते  हैं। उसी दिन नये गणेश की प्रतिष्ठा होती है। सो इसी गणेश जी का नाम ले कर दूसरी ने कुछ अभिशाप दिया था। लड़ाई अभिशाप के मामले पर उतनी नहीं जमी, जितनी इस बात पर कि जिस स्त्री को अभिशाप दिया गया उसी के गणेश का नाम क्यों लिया गया। दुनिया में और कोई गणेश क्या नहीं थे? मुझे ईश्वर के नाम पर एकता की अपील करने बालों की बातें याद थीं। शक्ति भर मैंने समझाया कि गणेश जी एक ही है और सबके हैं। पर सुनता कौन! दोनों ने ही स्वीकार किया कि मैं ठीक कह रहा हूँ। गणेश जी की पुजारिन ने और भी दृढ़ता के साथ कहा कि कौन नहीं जानता कि गणेश जी सब के हैं, फिर भी उसने 'मेरे' गणेश जी का नाम क्यों लिया ? क्यों नहीं 'अपना' गणेश पूजती? 'मेरे' गणेश का नाम लेगी तो उसके नाखून चू जायेंगे और... इत्यादि। सो मैं हार गया। सारे देश में यही तो चल रहा है। कौन नहीं जानता कि मन्दिर के ठाकुर जी सबके है और मस्जिद के अल्लाह ताला भी सबके हैं, फिर भी 'हमारे' ठाकुर जी और 'हमारे' मन्दिर और 'हमारी' मस्जिद के सामने ...... इत्यादि। गाँव की अनपढ़ औरतें कुसंस्कार में पली है, अशिक्षित है, पर जो लोग शिक्षित हैं वे भो तो बहुत अधिक सुसंस्कृत नहीं दीखते। आसमान बुरी तरह मुंह फुलाए बैठा है, आँधी आ भी सकती है, वर्षा की कोई उम्मीद नहीं दिखती।



शांतिनिकेतन की एक सभा में  द्विवेदी जी प्रथम पंक्ति में भूमि पर बैठे दीख रहे हैं --  दायें से प्रथम।



इतिहास का भरोसा मुझे भी रहा है। ज़रा दर्पोद्धत भाषा में इतिहास के सत्य को संसार के सामने रखते रहने की साध मुझे बराबर रही है। साध और संकल्प में भेद है। मेरी साध अब तक संकल्प नहीं बन सकी। अब तो क्या बनेगी। मैं देख रहा हूँ कि इतिहास वह समुद्र है जिसे मथ कर अमृत भी निकाला जा सकता है और विष भी, लक्ष्मी भी पाई जा सकती है और वारुणी भी। मैंने देखा है कि इतिहास वह अग्निशिखा है जिससे गृहस्थ का घर प्रकाशित भी हो सकता है और भस्म भी, जिससे प्रकाश भी मिलता है और ताप भी। परन्तु मैं ध्यानपूर्वक देख कर समझ रहा हूँ कि इतिहास अपराजेय जीवनी शक्ति का अक्षय प्रवाह है। वह जातियों और व्यक्तियों को बराबर आगे धकेलता आया है, ठेलता आया है, घसीटता आया है। इतिहास महाकाल का ताण्डव नृत्य है, जो अपने आप के नियमों से चलता है, जिसमें मनुष्य की इच्छा गौण और नगण्य है, जो अपने आपको कभी नहीं दुहराता। हम रहें या न रहें - मनुष्य बचे या न बचे- महाकाल का ताण्डव नृत्य चलता रहेगा, इतिहास का प्रवाह जारी रहेगा, जीवनी शक्ति अपनी मस्तानी चाल से चलती ही जायगी। इस ग्रह पर नहीं तो दूसरे पर, दूसरे पर नहीं तो तीसरे पर। काल की सत्ता असीम है। इतिहास का बनना भी असीम है। हम उपलक्ष्य-मात्र हैं। प्रकृति के नियम कठोर हैं। कर्म का चक्र दुरधिगम्य है। इतिहास-विधाता का अपना ढङ्ग है। प्रचण्ड जीवन-प्रवाह ने आज हिन्दू और मुसलमान को एक ही किनारे ला पटका है। यह हिन्दू और मुसलमान को सोचना है कि वह अपने को इस प्रवाह के अनुकूल कैसे बनायेंगे। पीछे की घटनाओं का चिट्ठा खोलना बेकार है। जीवन-प्रवाह  को निर्मम इतिहास-धारा को रुकने की गरज़ नहीं है। जो उसके अनुकूल बनेगा उसे वह दुगुने वेग से उस अधिज्ञात उद्देश्य की पूर्ति की ओर ले जायगी, जिसकी सूचना अमीबा से मनुष्य तक की निर्माण योजना में मिलती है और जिसके लिये सैकड़ों प्रकार के जीव और वनस्पति बनाए और बिगाड़े जा चुके हैं, दर्जनों मानव जातियाँ उठाई और गिराई जा चुकी हैं। हम ठीक नहीं आनते कि वह उद्देश्य क्या है। पर इतना हम अवश्य जानते हैं कि उस उद्देश्य की विजय-यात्रा श्मशानों और कब्रिस्तानों के ऊपर से हुई है, हो रही है और होगी। इस निष्ठुर सत्य का क्षणिक सफलता के गर्व से उन्मत्त हो कर जो उपेक्षा करेंगे वे पिस जायेंगे। महाकाल को यह बिल्कुल परवाह नहीं है कि किस जाति ने कितनी लूट खसोट और मारा भारी के बाद ऐसी कौन सी सभ्यता बना ली है, जिसकी रक्षा के लिये समस्त जगत का गला रेता जा सकता है। बना ली है तो बना ली है, महाकाल के नियमों की उपेक्षा करने पर उसे भी वही गति मिलेगी जो औरों को मिल चुकी है। मैं कहता हूं कि ऐ हिन्दुओं, और ऐ मुसलमानों, अपने अपने लेबिलों पर न जूझो, उस निष्ठुर प्रवाह को न हिन्दू पर ममता है न मुसलमान पर मोह। वह काट छाँट कर, गढ़ छोल कर, बना सँवार कर एक महान सत्य को प्रकाशित कर रही है। उसकी सहायता करो, उसका साथ दो। अगर खुद तुम अपनी सड़ी गली आदतों को काट कर न फेंक दोगे तो वह प्रचण्ड प्रवाह तुम्हारे समेत उसे दबोच लेगा - 


कर्त्तुनेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्य वशोऽपितत्!


आसमान उनी तरह गम्भीर है। हम पर क्या बीत रही है, इसकी कोई चिन्ता उसे नहीं सता रही, उसके अपने नियम हैं। मूर्ख लोग सोचते हैं कि वह हमारे लिये पानी बरसाता है। वह तो अपने नियम से बरसता है, अपनी मर्जी पर बरसता है। बुद्धिमान लोग अपनी खेती बाड़ी उसके अनुकूल बन कर करते हैं। जो समझता है कि हमारे लिये बरसता है वे ग़लती करते हैं। उबाल देने वाली गर्मी है। न जाने कब बरसेगा। दूर का मैदान उदास है। दिशाएँ स्तब्ध हैं, खजूर और ताड जबदे हुए हैं, गिरगिट इस समय भी रेंग रहा है। जीव-सृष्टि में गिरगिट के सिवा और कोई नहीं रह गया क्या! बुरी ऊमस है।





आसमान गवाह है कि प्रकृति के इस कारखाने में कैसे-कैसे प्रचण्डकाय जीव बनाये गये हैं। हाथी और व्हेल तो उनके सामने चींटी है। वे उस महान सत्य को प्रकट नहीं कर सके जो महाकाल को अभीष्ट था। अपने ही देह-भार से वे बरबाद हो गये। दुर्धर्ष जीवन प्रवाह ने फिर कर ताका भी नहीं कि उसका इतना बड़ा आविष्कार किधर और कैसे फिंक गया। यह फक्कड़ाना लापरवाही के साथ आगे बढ़ गया। सृष्टि के कारखाने में नया प्रयोग हुआ। मनुष्य बना। यहाँ से इतिहास की धारा दूसरी ओर मुड़ी। अब एक जीवसृष्टि लुढ़कते-पुढ़कते बनती आ रही थी।


मनुष्य ने कहा, हम स्वयं कुछ बनाएँगे। जैसा हो रहा है हम उसी को मान कर सन्तुष्ट नहीं रह सकते, हम उसे वह बनायेंगे जैसा कि होना चाहिए। दर्वोक्ति थी यह। तुम प्रकृति के दुरन्त प्रवाह के सामने खड़े हो कर 'बनाने' की स्पर्धा करोगे? मनुष्य ने कहा- हाँ, इच्छा तो ऐसी ही है।


कारण और कार्य के बीच में व्यवधान कहाँ है? वह तो एक दूसरे से नीरंध्र ठोस परंपरा के रूप में गुंथे हुए हैं। उनके बीच में अपनी 'इच्छा' को ले कर तुम कहाँ स्थान पाओगे? मनुष्य महाकाल की दुलारी सन्तान है। उसने प्रकृति को नाराज़ नहीं होने दिया और अपनी 'इच्छा' के लिये उसकी स्वीकृति की मुहर लगवा ली। तब से समाज बना, धर्म बना, साहित्य बना, मंदिर बना, मस्जिद बनी - मनुष्य की इच्छा बढ़ती गई। लेकिन जब कभी उस इच्छा ने प्रकृति की स्वीकृति की शर्तों की अवहेलना की तभी उसे कठोरतम दण्ड मिला। जड़-संचय उस स्वीकृति पत्र का विरोधी है। जो जड़-वस्तु के मोह में उसे  संचित किए रहता है वह बरबाद हो जाता है। मैं कहता हूँ, ऐ मेरे ग्रह के बाशिन्दो, पुराने संस्कारों के मलबे के नीचे मत दबो, वे जड़ हैं; फौलाद और पैट्रोल की ताकत से गर्वित मत बनो, वे जड़ हैं; सोने और चांदी की चमक पर न भूलो, वे जड़ हैं। वे सड़ा करते हैं। वे मृत्यु के हथियार है। लेकिन मेरी सुनेगा कौन? सोने के सिंहासन ऊंचे हो गए हैं। युग युग से महापुरुष पुकार कर हार गए हैं, उन तक आवाज़ नहीं पहुंचती। हाथी और ऊँट जिस बाढ़ में डूब गए हैं उसमें चींटो की क्या बिसात है! मैं निराश हूँ और आसमान मनहूस की भाँति ताक रहा है। क्यों वह इतना गम्भीर बना है? मैं सोच रहा हूं कि आकाश के पेट में जो रहस्यमय उथल-पुथल मची हुई है - लाख लाख प्रकाशवर्षों की दूरी में कोटि-कोटि नक्षत्र ब्रह्माण्डों का जो भंजन-सर्जन चल रहा है- वह क्या व्यर्थ का आयोजन है? हम जब चप्पे-चप्पे स्थान के लिये अपनी दुरन्त जड़-शक्ति को ले कर पृथ्वी का वक्षःस्थल कम्पित करते रहते हैं तो उस विराट विश्व का क्या कोई भी प्रभाव हमारे ऊपर नहीं पड़ता? क्या क्षुद्रतम परमाणु में विद्युत्-अणुओं का जो रहस्यमय आवर्त नृत्य चल रहा है वह हमारे जीवन को कुछ भी रूप नहीं दे रहा है। क्या हम इस 'अणोरणीयान् महतो महीयान्  (मै सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर परमाणु से भी सूक्ष्म हूं) के बाहर हैं? क्या, बार-बार असीम अरूप सत्ता की ओर ऊंगली उठाते रहने वाले फ़क़ीर सचमुच पागलखाने के जीव हैं? क्या दुनियादार कहे जाने वाले वास्तव में चतुर होते हैं। मैं हैरान हो कर सोचता हूँ कि दुनिया का इतिहास बनाने या बिगाड़ने का खेल खेलने वाले सचमुच उस टिटहरी से अधिक अहमियत रखते हैं जो आसमान को टूटने से बचाने के लिये एक टाँग उठा कर सोती है। आसमान को मालूम है दीर्घकाल से वह मनुष्य को अपनी गोद में खेलाता रहा है। वह मनुष्य के भाग्य को जनता है, वह हिन्दू और मुसलमान को ठीक ठीक समझता है, वह स्तब्ध है, वह उदास है। वर्षा होने की कोई आशा नहीं है? मैं उदास हूँ।

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