पंकज मोहन का आलेख 'आथुनिक कोरियाई काव्य का विहंगावलोकन'
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पंकज मोहन |
हर देश की अपनी विशिष्ट संस्कृति, परिवेश और परम्परा होती है। वहां के रचनाकार इसी के अनुकूल अपना साहित्य सृजन करते हैं। इस तरह वह साहित्य उस देश की संस्कृति और परम्परा को प्रतिबिम्बित करता है। प्रोफेसर पंकज मोहन कोरियाई इतिहास के विशेषज्ञ हैं। उनके अनुसार 'किम सोवल (1902-1934) को आधुनिक कोरियाई काव्य-जगत का महाप्राण कहा जाता है। जिनकी कविताओं में औपनिवेशिक कोरिया के आंसू और मुस्कान, यथार्थ और स्वप्न झलकते हैं। उनका काव्य-संसार लोकधर्मी संवेदना से अनुप्राणित है। उनकी कविता में प्रकृति के सहज रूप के साथ-साथ प्रेम निरूपण भी है, जिसका मूल आधार लौकिक है, लेकिन यह प्रेम राष्ट्र के प्रत्येक तंतु मे भी प्रवाहित है'। किम-चौ हान ने किम सोवल की कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया है। इसी क्रम में प्रोफेसर मोहन ने कोरियाई कविताओं के हिन्दी अनुवाद की समस्याओं के हवाले से महत्त्वपूर्ण और जरूरी बात प्रस्तुत किया है। बहरहाल अपने एक आलेख में पंकज मोहन ने आथुनिक कोरियाई काव्य का विहंगावलोकन किया है। आइए आज पहली बार की विशेष प्रस्तुति के अन्तर्गत पढ़ते हैं पंकज मोहन का आलेख कोरियाई काव्य के हिन्दी अनुवाद का विशेष सन्दर्भ।
कोरियाई काव्य के हिन्दी अनुवाद का विशेष सन्दर्भ
('आथुनिक कोरियाई काव्य का विहंगावलोकन')
पंकज मोहन
कोरियाई कविताओं के छिटपुट हिन्दी अनुवाद 1970 के दशक में ही प्रकाशित हो गए थे। लब्धप्रतिष्ठ कवि राजेश जोशी ने तत्कालीन विश्व में राजनैतिक प्रतिरोध के सर्वाधिक जीवंत प्रतीक के रूप में विख्यात किम चीहा की कुछ कविताएँ हिन्दी में अनूदित कीं। 1974 में किम ची हा को "पांच दस्यु" और "अफवाह" जैसी कविताओं द्वारा सैनिक तानाशाह जेनरल पार्क चंगही के खिलाफ जनता को भड़काने के जुर्म में मौत की सजा सुनाई गई थी, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय दवाब के कारण मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिणत किया गया। 1979 के अंत में जब राष्ट्रपति जेनरल पार्क की हत्या हुई, किम चीहा के यातनामय बन्दी जीवन का भी पटाक्षेप हुआ। 1980 के दशक में जब श्री अशोक वाजपेयी ने अन्तरराष्ट्रीय कवि-सम्मेलन और श्रीकांत वर्मा ने अफ्रीकन-एशियाई लेखक सम्मेलन आयोजित किये, इन समारोहों में दक्षिण कोरिया के प्रतिनिधि के रूप में दिवंगत कवियित्री किम यांग-शिक (1931-2025) ने भाग लिया, और इन अवसरों पर उनकी कुछ कवितायें भी हिन्दी में अनूदित हुईं। 1999 में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और लोकप्रिय कवि डाॅक्टर दिविक रमेश ने "कोरियाई कविता यात्रा" प्रकाशित की जिसमें कोरिया की प्राचीन और आधुनिक कविताएं संकलित हैं। कुछ साल पहले मैंने इस पुस्तक की समीक्षा समालोचन में की। "कोरियाई कविता यात्रा" के प्रकाशन के सात साल बाद 2006 में कोरियाई साहित्य अनुवाद संस्थान का अनुदान प्राप्त कर प्रोफेसर किम वू-जो और प्रोफेसर कर्ण सिंह चौहान ने 124 आधुनिक कोरियाई कविताओं को हिन्दी मे अनूदित किया। "पहाड़ मे फूल" नामक इस पुस्तक को राजकमल ने प्रकाशित किया। प्रोफेसर किम वू-जो हानकुक युनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज में हिन्दी की प्रोफेसर थीं और प्रोफेसर कर्ण सिंह चौहान ने बयालीस साल तक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्यापन किया और उस दरम्यान उन्होंने पांच वर्षों तक हानकुक युनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज में भी प्राध्यापकी की।
आमतौर पर यह माना जाता है कि लक्ष्य भाषा के रससिद्ध साहित्य-सर्जक के पास ही अपार शब्द-सम्पदा, भाषा-निर्धारण की स्वतन्त्रता और सर्जनात्मक प्रौढता होती है जिसके अभाव में श्रोत भाषा के काव्य के सूक्ष्म भाव को सजीवता और सहजता से रूपान्तरित करना असंभव है। चाहे पूर्व हो या पश्चिम, अतीत हो या वर्तमान, अनुवाद के सर्वोत्तम और सर्व समादृत ग्रंथों का प्रणयन उन साहित्यिकों ने किया है जिन्होने शैशवकाल से उस भाषा का अभ्यास किया है और उस भाषा-मंदिर के पुरोधा के रूप में आदर पाया है। टैगोर की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं थी, फिर भी उन्होंने अपनी कुछ बांग्ला कविताओं को अंग्रेजी में अनूदित किया जिसने उनकी अन्तरराष्ट्रीय ख्याति की आधारशिला तैयार की। वस्तुतः बंगला मे लिखे रवि बाबू के काव्य और उनके अंग्रेजी रूपांतरण के बीच इतनी गहरी खाई है कि अंग्रेजी 'गीतांजलि' को अनुवाद साहित्य का नहीं, अंग्रेजी में भारतीय लेखन (Indian Writing in English) का अंग मानना उचित होगा।
लक्ष्य भाषा का नेटिव स्पीकर जब किसी ऐसे विद्वान के सहयोग से काव्यानुवाद-अनुष्ठान सम्पन्न करता है जो मूल भाषा से अनभिज्ञ है, तो भी एक समस्या खड़ी हो जाती है। कविता का मूल तत्व सहज संवेदना है जिसे पाठक अनुभव करता है, इस तत्व को समझाया नहीं जा सकता। अगर हम कोरियाई नहीं जानते, किसी अन्य माध्यम के द्वारा कोरियाई काव्य में व्यक्त विचार को तो स्थूल रूप से जान सकते हैं, लेकिन उस काव्य में प्रयुक्त शब्द-चित्र, छंद, अलंकार-प्रयोग, अभिव्यक्ति की स्वाभाविकता और सजीवता, मर्मस्पर्शी स्थलों के हृदयग्राही वर्णन के साथ साथ काव्य के ''अगोचर” जो सर्जनात्मक प्रक्रिया और प्रतिभा का रहस्य है, को हम पूरी स्पष्टता के साथ नही समझ सकते। "गिरा-अनयन" और "नयन बिनु" (काव्यात्मक) वाणी" द्वारा विरचित इस पुस्तक में महान कोरियाई कवि अपने प्रकृत रूप में हिन्दी प्रेमियों के सामने प्रस्तुत हो पाये हैं या नहीं, इसकी पड़ताल आवश्यक है। एक के पास कोरियाई काव्य जगत को देखने-परखने की दृष्टि और हिन्दी-अंग्रेजी में उसके अर्थ को मोटे तौर पर समझाने की क्षमता है और दूसरा कोरियाई भाषा से अनभिज्ञ है, लेकिन उसमें हिन्दी साहित्य का वैदुष्य और वाग्विदग्धता है। कुछ कोरियाई कविताओं के हिन्दी अनुवाद के उदाहरण दे कर ऐसी युगलबंदी अनुवाद की सीमाओं और समस्याओं को रेखांकित करूंगा। अपने अनुवाद के नीचे मैं किम-चौ हान के अनुवाद को रखूंगा ताकि पाठक यह समझ सके कि कोरियाई कविता के भाव और हिन्दी काव्य-भाषा की प्रकृति से उनके अनुवाद में सामीप्य है या दूरी।
किम-चौ हान की पुस्तक का आरम्भ किम सो वल की कविताओं से होता है। मैंने आलोच्य कविताओं का अपना अनुवाद प्रस्तुत किया है और उसके बाद किम-चौ हान के अनुवाद की कुछ पंक्तियों को उद्धृत कर उनके अनुवाद की समस्या की रेखांकित किया है।
बुलबुल पंछी
बुलबुल पंछी
'भाई रे"
कलप-कलप कर गाती बुलबुल
चिन्दु नदी तट पर रहती थी दीदी
अब उड़ कर आती है नदी सामने बसे गांव में
गाती है कलप-कलप कर।
कथा पुरानी-- दीदी रहती थी सुदूर
पृष्ठदेश मे, चिंदु नदी के तट पर
प्राण हरे उसके ईर्ष्यालु सौतेली मां ने।
पुकारूं तुझे दीदी कह कर?
आह, हमारी दुखिया दीदी
सौतेली मां की जलन-कुढन के कारण मर गई
मर कर बन गई बुलबुल पंछी।
नौ छोटे भाइयों को छोड़ गई पीछे
पर मर कर भी भूल न पाई बेचारों को।
रात तीसरे पहर जब दुनिया सोती, गहराती है रात
उड़ती इस पहाड़ से उस पहाड़ पर
और छेड़ती दर्दभरी रागिनी।
किम-चौ हान ने इस कविता के मूल कोरियाई शीर्षक "जप्दोंग को अक्षुण्ण रखा है। जप्दोंग बुलबुल परिवार के पंछी का नाम है, यद्यपि कुछ लोग इसकी गिनती उल्लू की प्रजाति में भी करते हैं। दूसरी बात, किम-चौ हान ने इस कविता की दूसरी पंक्ति में प्रयुक्त शब्द "आऊरैबी" को भी अनुवाद में यथावत रख दिया है और फुटनोट में लिखा है, "रोने की ध्वनि - छोटे भाइयों के लिए रोने का भाव मिला"। मैं उन आलोचकों से सहमत हूं जो मानते हैं कि कवि ने इस शब्द को आऊ (छोटा भाई)+ ओरैबी (बडा भाई) को जोड़ कर एक नया शब्द गढा है। किम-चौ हान ने कवि की अभिव्यक्ति "देश की पुरानी लोक कथा" का जो अनुवाद किया है ("दूरान्त पीछे हमारे देश के पुराने समय में), उसमें मूल की सहजता और सरलता नहीं उतर पायी है। कविता के तीसरे स्टेंजा में कवि कहना चाहता है कि छोटी लड़की अपनी डायन-जैसी ईर्ष्यालु सौतेली मां की प्रताड़ना के कारण मर गयी। यह भाव किम-चौहान के अनुवाद "ईर्ष्या से शरीरान्त हुई दीदी" में स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त नहीं होता, साथ ही अंतिम स्टेंजा मे प्रयुक्त "लोग सोई रात" का भी हिन्दी की प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता।
किम सोवल की अत्यंत लोकप्रिय कविता है 'पहाड़ में फूल'।
पहाड़ों में फूल खिलते
फूल खिलते
शरद, वसन्त, ग्रीष्म ऋतु में
फूल खिलते
पहाड़ों में
पहाड़ों में
खिलते जो फूल
वहां एकाकी खिले होते
पहाड़ों में कूजते नन्हे परिंदे
फूल से प्यारवश
पहाड़ों में वास करते
पहाड़ों में फूल ढलते
फूल ढलते
शरद, वसन्त, ग्रीष्म ऋतु में
फूल ढलते।
किम-चौ हान ने इस कविता का अच्छा अनुवाद किया है, लेकिन पहाडों मे खिले फूल के लिये एकवचन का प्रयोग ("पहाड़ों में फूल खिलता") सही नहीं प्रतीत होता। कवि का आशय विजन पर्वत-प्रांतर में खिले रंग-रंगीले फूलों से है। ऐसा ही भाव शरद शोभा से सम्बद्ध तुलसी दास की उक्ति "फूलें कास सकल महि छाई" (खिले हुए कास के फूलों से सारी पृथ्वी आच्छादित हो गई है) में व्यक्त हुआ है। कोरियाई क्रिया "उल्दा" जिसका प्रयोग कवि ने उपरोक्त कविता में किया है, के दो अर्थ हैं, रोना और (पक्षियों का) चहचहाना। स्पष्टतः कवि का अभिप्राय "पहाड़ में रोती छोटी चिड़िया" नहीं "पहाड़ में चहचहाते नन्हे पंछियों" का शब्द-चित्र प्रस्तुत करना है।
किम सोवल की अन्य लोकप्रिय कविता "अजैलिया के फूल" कोरिया के हर व्यक्ति को कंठस्थ हैं।
ऊब कर मुझसे अगर
तुम जाओ
विदा कर दूंगी तुम्हें मैं प्यार से, निःशब्द।
यंगप्यन के याक पहाड़ से
लाऊंगी अजैलिया के फूल
दोनों हाथों में भर-भर, बिखेरूंगी तुम्हारी राह पर।
उस पथ पर पग पग
रखे अजैलिया पुष्प पर
हौले हौले, हल्के से पांव रखना।
ऊब कर मुझसे अगर
तुम जाओ
प्राण जाये भले, पर आंसू थाम लूंगी।
किम-चौ हान ने अपने अनुवाद में मूल कविता के भाव को उतारने मे बहुत हद तक सफलता प्राप्त की है। अनुवादकद्वय अगर "वितृष्ण" और "कुचलना" जैसे कठोर शब्दो का प्रयोग न करते, तो पाठकों को इस कविता की "उद्धव शतक" या प्रियप्रवास" की तरह कोमल भावभूमि को समझने में और भी आसानी होती।
प्रेयसी स्पष्ट रूप से कहती है राह मे बिछे उन फूलों पर हल्के से पैर रख कर जाना क्योंकि फूल उसके मधुर-मृदुल अनुराग के प्रतीक हैं। यह कविता साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित दिविक रमेश की अनूदित पुस्तक "कोरियाई कविता यात्रा" में भी संकलित है। कविता की पहली पंक्ति का उनका अनुवाद है: “जाओगी जब दूर मेरी बढ़ती हुई उदासियों से” जो इस कविता के अंग्रेजी अनुवादक किम चै-ह्यन की पंक्ति “If you go away, through with me” पर आधृत प्रतीत होती है। "समालोचन" में इस पुस्तक की समीक्षा करते हुए मैंने लिखा था, इस कविता में नारी के अन्तर्मन की सूक्ष्म अनुभूतियां अनुस्यूत हैं। प्रैयसी कल्पना की तूलिका से विछोह के क्षण का चित्र बना रही है, "ऊब कर मुझसे अगर तुम जाओ"।
किम सोवल की एक अन्य प्रमुख कविता है "राह में"।
तुम्हारी याद आती है
कहूं क्या?
यह कहते ही याद आती है तुम्हारी।
यूं ही चला जाऊं
फिर भी
फिर एक बार और....
उस पहाड़ पर भी कौवे, खेत मे कौवे
कांव कांव कर कहते वे
पश्चिम पहाड़ पर अस्त हो रहा है सूरज
आगे की नदी, पीछे की नदी
बहती है जलधार
कहती, जल्दी करो, पीछे आओ, साथ चलो
बहती है इस तरह, कलकल बहती जाती अविरल।
किम-चौ हान के अनुवाद में इस कविता का शीर्षक है "चलता रास्ता"। पहले स्टैंजा का उनका अनुवाद है,
"तरसती
कहूँ
कह तरसती"।
दूसरे स्टान्जा में कौवे की आवाज के लिये "चहचहाना" शब्द सटीक नहीं प्रतीत होता। इस कविता के प्रकृति-निरूपण की विशेषता अंतिम स्टान्जा में अपेक्षाकृत अधिक स्पष्टता से अभिव्यक्त हुई है। कवि प्रकृति को मानव की सहचरी मानता है। कलकल स्वर मे अविरल बहती नदी की धारा संघर्ष से थक कर बैठे मनुष्य को जीवन पथ पर अप्रतिहत आगे बढते रहने की प्रेरणा देती है और उसे नूतन स्फूर्ति प्रदान करती है। किम-चौ हान के अनुवाद
"आगे नदी का पानी
पीछे नदी का पानी
बहता पानी तो पीछा कर जल्दी आने को
पीछा कर जाने को
बहते-बहते लगातार बह रहा"
को पढ कर हमें प्रकृति के साथ कवि के तादात्म्य भाव का बोध नहीं होता। किम सोवल भी कविवर प्रसाद की तरह "चिर मीलित प्रकृति से पुलकित" हैं, अनुप्राणित हैं।
किम सोवल की एक कविता "मृतात्मा का आह्वान" संभवतः उनकी प्रेमिका जो उनसे तीन साल बड़ी थी और कुछ कारणवश जिनसे उनका विवाह न हो पाया, के प्रति समर्पित है, इसलिए इसका अनुवाद "मृत आत्मा का आह्वान" होना चाहिए, मृत आत्माओं का आह्वान" नहीं। उत्तरी कोरिया के आलोचकों का मानना है कि यह कविता पराधीन स्वदेश के प्रति समर्पित है, जिसकी अस्मिता छिन गई, जिसका नाम धराध्वस्त हो गया। इस कविता में मृत आत्मा का आह्वान करने वाले सामन (shaman) के अनुष्ठान की भी अनुगूंज सुनाई पड़ती है। इस कविता के प्रथम स्टान्जा के हिन्दी अनुवाद
"चूर चूर हो बिखरे नाम
अंतरिक्ष में चीर चीर हुए नाम
पुकारने पर भी अनाम नाम
पुकारते पुकारते दम निकालता नाम"
को पढ कर मैं मूल कविता के भाव को नहीं समझ पाया। मूल कविता पढ़ने पर भावार्थ जो समझ में आया, उसे नीचे दे रहा हूं।
नाम जो टूट कर चिथड़ा चिथड़ा हो गया
नाम जो हवा में बिखर गया
नाम जिसका धारक अब शेष नहीं दुनिया में
नाम जिसे पुकारते पुकारते दम तोड़ दूंगा
उपरोक्त कविताओं के रचयिता आधुनिक कोरियाई काव्य-जगत के महाप्राण किम सोवल (1902-1934) हैं जिनकी कविताओं में औपनिवेशिक कोरिया के आंसू और मुस्कान, यथार्थ और स्वप्न झलकते हैं। उनका काव्य-संसार लोकधर्मी संवेदना से अनुप्राणित है। उनकी कविता में प्रकृति के सहज रूप के साथ-साथ प्रेम निरूपण भी है, जिसका मूल आधार लौकिक है, लेकिन यह प्रेम राष्ट्र के प्रत्येक तंतु में भी प्रवाहित है।
2024 में साहित्य अकादमी ने किम सोवल की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन प्रकाशित किया। "किम सोवल की कवितायें" शीर्षक इस पुस्तक में संकलित कविताओं का चयन तथा अनुवाद दिविक रमेश ने किया है। आधुनिक कोरियाई साहित्य में कवि किम सोवल के महत्व पर प्रकाश डालते हुये वे लिखते हैं:
"किम सोवल की कविता लोक गीतों यानी पारंपरिक लोक गीतों (मिन्यो) और लोक परिदृश्य से भरपूर हैं, इस कारण उन्हें 'कोरिया के बईसवर्थ' के रूप में भी जाना जाता है। अंग्रेज़ी में उनकी कविताओं के अनुवादक जेहियुन जे. किम के शब्दों में, “उसके प्रति न्याय के लिए, उसे 'कोरिया का वर्डसवर्थ' बनने का हक़ है, क्योंकि उसने पहली बार संप्रेषणीयता के लिए सहज-सरल भाषा को काम में लाने और प्रकृति के चित्रण में न केवल सौंदर्य की दृष्टि से बल्कि जीवन की पहचान और सच्चाई को लाने के लिए गहरी और जागरूक रुचि विकसित की”, कुछ विद्वानों ने उनके कार्यों में राष्ट्रवाद, मिथक और लोक कथाओं के बीच संबंध के संदर्भ में कुछ समानताओं के आधार पर उनकी कविता की तुलना रॉबर्ट बर्न्स और डब्ल्यू. बी. येट्स की कविता से की है।"
निस्संदेह किम सोवल की कविताएं लोक गीत की तरह हृदय की गहराई से फूट कर निकली हैं। उनकी कविताओं की नस-नस में कोरियाई लोक गीत के लय, छन्द और ताल बहते हैं। उनमें लोक गीत की सहजता और सरलता है, लोक जीवन के रंग और रस हैं और वे राष्ट्र के मिथक जो समष्टि मानस की युग-युगीन स्मृतियों की अंतःसलिला होती हैं, से सिंचित हैं। किम सोवल की कविताओं की उपरोक्त विशेषताओं के कारण जैहियन जे. किम ने उन पर येट्स और बर्न्स के प्रभाव देखे। किम सोवल के शिक्षक और साहित्यक गुरु किम अक (जो आनसऽ के नाम से भी जाने जाते हैं) अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी कविताओं के साथ साथ टैगोर की कविताओं के सुधी पाठक एवं अनुवादक थे, इसलिए जाहिर है कि छात्र जीवन में ही वे येट्स और बर्न्स के काव्य से परिचित हो चुके थे। किसी ने किम सोवल की तुलना रॉबर्ट बर्न्स और डब्ल्यू. बी. येट्स से नहीं की।
किम सोवल और वर्ड्सवर्थ दोनो लोकचेतना से सम्पन्न कवि थे, और यह भी निर्विवाद है कि किम सोवल की कवितायें "लीरिकल बैलड्स" में उल्लिखित "लिरिक" के निकष ("प्रबल भावनाओं के सहज उच्छ्वास") पर खरी उतरती हैं। वर्ड्सवर्थ की तरह किम सोवल की कविताओं में प्रकृति का मनोरम चित्रण है और उनकी अभिव्यक्ति में भी नैसर्गिक सरलता है, लेकिन केवल इन काव्यगत विशेषताओं के आधार पर ही हम उन्हें कोरिया का वर्ड्सवर्थ नहीं कह सकते। दोनों कवियों के बीच अगर भाव-साम्य है, तो अनेक अंंतर भी हैं।
वर्ड्सवर्थ अंग्रेजी कविता के क्लासिकल रूढिवादिता विरोध मे खड़ी हुई स्वछंदतावादी वैचारिक लहर की उपज थे और किम सोवल की काव्यात्मक प्रतिभा के परिप्रेक्ष्य में एक भिन्न देश काल की परिस्थिति थी।
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात भारत समेत एशिया-अफ्रीका के अनेक देशों मे साम्राज्यवाद-विरोधी आन्दोलन हुए। भारत मे पहले बाल गंगाधर तिलक और फिर 1919 मे गाधी के अनुयायियों को दमनचक्र में पिसा गया। चीन मे चार मई की साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रव्यापी क्रांति का साम्राज्यवादी शक्तियों पर विशेष असर नहीं हुआ और चीनी जनता का शोषण और उत्पीड़न अविराम जारी रहा। 1910 में कोरिया पर आधिपत्य स्थापित करने के बाद जापान के नृशंस शासकों ने इतनी निर्ममता से कोरिया के आर्थिक संसाधनो को लूटा और कोरियाई जनता को पैरों तले रौंदा कि 1 मार्च 1919 को कोरिया के जन नेताओं ने आयरलैंड के स्वतंत्रता आन्दोलन के नायकों की तरह "स्वतंत्रता का घोषणापत्र" जारी किया और देश के कोने-कोने में आबालवृद्ध जनगण अपने अपने हाथों में राष्ट्रीय ध्वज फहराते हुए तथा "तैहान मिनगुक मानसे" अर्थात "कोरिया अमर रहे" का नारा लगाते हुए सड़कों पर उतर आये। जापानी सेना ने हजारों-हजार कोरियाई जनता के खून की होली खेली और मौत के तांडव द्वारा कोरियाई स्वतंत्रता के सबसे बडे संग्राम को कुचल दिया।
तत्कालीन निराशामूलक राजनीतिक परिस्थितियों के कारण भारत, चीन और कोरिया जैसे एशिया के औपनिवेशिक और अर्ध-औपनिवेशिक समाज अशान्ति और असंतोष के वात्याचक्र में फंस गये और इन देशो के युवा के मानस-क्षितिज पर भी नैराश्य और कुण्ठा के बादल मंडराने लगे। इतिहास की इस मोड़ पर गेटे, वर्ड्सवर्थ, कीट्स, शेली, टैगोर आदि की काव्य धारा जिन्हें पश्चिम की नई कविता कहा जाता था, से प्रेरणा ग्रहण कर मध्य वर्ग की युवा प्रतिभाओं ने एक ऐसी काव्य प्रवृति का सूत्रपात किया जिसमें नये मूल्यों और भावों की अभिव्यंजना थी। हिन्दी साहित्य में इस नूतन काव्यात्मक प्रवृति के सूत्रधार थे प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी। चीनी साहित्य में कुओ मोरुओ (Guo Moruo), शु च्रमो (Xu Zhimo), पिंग शिन (Bing Xin) और कोरियाई साहित्य में किम सोवल, हान योंग-उन आदि युवा कवियों ने इस काव्य धारा को प्रवाहित किया। वर्ड्सवर्थ ने प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी चित्र खींचा, लेकिन औपनिवेशिक समाज के उपरोक्त कवियों ने प्रकृति के उपकरण को सजातीय माना और उसमें सूक्ष्म मानवीय भावनाओं तथा अव्यक्त सत्ता का अन्वेषण किया। इस तरह कवि के मनोगत भाव की छाया प्रकृति के उपकरणों में भी झलकने लगी। इस नूतन काव्यधारा में राष्ट्रीय चेतना थी, सांस्कृतिक बोध था, प्रकृति के विविध रूपों और व्यापारों का चित्रण था, प्रेम की गहन अनुभूति थी और व्यष्टि का सुख दुख था।
किम सोवल का काव्य जापानी साम्राज्यवाद की जंजीर में जकड़े स्वदेश के परिवेश और परिस्थितियों की स्वाभाविक उद्भूति है, यद्यपि उस पर स्वछंदतावादी आंदोलन (रोमाण्टिक मूवमेंट), विशेष रूप से वर्ड्सवर्थ के प्रकृति वर्णन का स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। लेकिन इस संदर्भ में यह ध्यान देने की जरूरत है कि यद्यपि वर्ड्सवर्थ, शेली, कीट्स आदि से प्रभावित हो कर किम सोवल ने प्राकृतिक सौन्दर्य का हृदयग्राही चित्र खींचा, युगबोध के कारण उन्होंने प्रकृति के उपकरणों और व्यापारों में पराधीनता की छाया देख कर विषादमय मनोभाव को व्यक्त किया। यह भी ध्यातव्य है किम सोवल ने वर्ड्सवर्थ की "The Prelude" या "Ode on Intimations of Immortality from Recollections of Early Childhood" जैसी दीर्घ कविताएं जिनमें मानव और प्राकृतिक जगत के अन्तर्सम्बन्ध विषयक दार्शनिक विचार व्याख्यायित हैं, नहीं लिखी।
कोरिया के महान धर्म सुधारक, स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम योद्धा, बौद्ध विद्या के उन्नायक हान योंग-उन (1879-1944) की 1926 में प्रकाशित काव्य पुस्तक "तुम्हारा मौन" (님의 침묵) का जन्म भी इसी नूतन काव्यानुवाद प्रवृति की कोख से हुआ। गुरुदेव टैगोर के काव्य-शिल्प से प्रभावित इस पुस्तक में संकलित अनेक कविताओं में हान योंग-उन स्थूल जगत में आध्यत्मिकता का आरोप करते है।
1. नैया और बटोही
मैं हूँ नैया
और तुम हो बटोही
तुम मुझ पर रखते हो कीचड़-सने पांव
और मै तुम्हे बांहों मे भर कर तिरती हूँ धार पर।
जाती हूँ उथले, गहरे पानी मे, बहती हूँ प्रखर प्रवाह मे
और इस तरह करती हूँ मैं नदी पार।
यदि किसी कारणवश तुम नहीं आते हो
मैं बिछाती हूँ आंखें तुम्हारी राह में, अपलक, अहर्निश।
सहती हूँ तूफान, हिमपात और बारिश के थपेड़े।
जब मैं किनारे लगती हूँ
नहीं देखते एक बार भी तुम मुड़ कर मुझे
बस पकड़ लेते हो अपना रास्ता।
लेकिन मैं जानती हूँ कि तुम जरूर लौट कर आओगे मेरे पास।
मन मे संजोये यही आस मैं दिन रात जोहती हूँ तुम्हारी बाट
और उमर भी ढलती जाती है इसी तरह।
मैं हूँ नैया
और तुम हो बटोही
किम-चौ हान ने इस कविता का अच्छा अनुवाद किया है, लेकिन लगता है कि कविता के अंतिम स्टान्जा के अनुवाद में अनुवादक भूल गये है कि कवि ने नाव को प्रैयसी के रूप मे दर्शाया है। नाव के मानवीकरण के भाव के साथ किम-चौहान के अनुवाद की अधोलिखित पंक्तियां "मैं आपकी प्रतीक्षा करते-करते दिन-दिन पुरानी होती जाती हूँ" कितना न्याय कर पायी हैं, इसका निर्णय पाठक स्वयं करें। हान योंग-उन की एक कविता रवीन्द्र नाथ टैगोर के प्रति समर्पित है, लेकिन लू शून और माओ तुन जैसे अर्ध-औपनिवेशिक चीन के क्रांतिदर्शी साहित्यकारों की तरह उन्हें भी टैगोर काव्य के प्रमुख स्वर - वंदना और वेदना- से निराशा होती है।
टैगोर का कविता संग्रह "माली" का अंतिम स्टांजा पढ़ कर
मृत्यु की सुरभि कितनी भी मधुर क्यों न हो, हम कंकाल के अधर को नहीं चूम सकते
उसकी समाधि पर स्वर्णिम संगीत का जाल मत फेंकिये, वहां स्थापित कीजिये रक्त-रंजित ध्वज-स्तम्भ
वासन्ती बयार कहती है, कवि के गीत मृत धरती में भी जीवन के स्पंदन का संचार करते हैं।
मित्र, मैं नहीं जानता कितनी शर्म आयी मुझे और मैं किस तरह कांपने लगा तुम्हारे गीत सुन कर
इसका कारण है कि चली गई मेरी प्रियतमा और मैंने तुम्हारा गीत अकेले सुना।
किम-चौ हान ने इस कविता के अनुवाद का शीर्षक दिया है "टैगोर की कविता पढने के बाद"। इस कविता के अंतिम स्टान्जा का उनका अनुवाद अधोलिखित है:
"मित्रों, मेरे मित्रों।
कितनी भी प्यारी हो मृत्यु की सुगन्ध श्वेत कंकाल के ओंठ पर चुम्बन तो नहीं कर सकते।
उसके मकबरे पर कनक संगीत का जाल मत फेकिए खून से रंगा ध्वज-दंड खड़ा कीजिए।
पर वसन्ती हवा कहती है मृत पृथ्वी कवि के गीत हो कर हिलती है।
मित्रो लज्जित हूँ। मैं तुम्हारे गीत सुनते समय न जाने कैसे लज्जित और कम्पित हुआ !"
चूकि यह कविता सिर्फ टैगोर को सम्बोधित कर लिखी गई है, अनुवादक ने मित्र न लिख कर मित्रो क्यों लिखा है, यह मेरी समझ से परे है। साथ ही यह कहना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि कोरियाई शब्द "पैककोल" का अर्थ होता है कंकाल, श्वेत कंकाल नहीं। सभी कंकाल श्वेत ही होते हैं। अनुवाद को फुटनोट में यह समझाने की भी जरूरत नहीं थी कि कोरिया में श्वेत कंकाल की वही महत्ता है जो भारत में अस्थियों की।
कोरिया के बहुत लोकप्रिय कवि है युन तोंग-जू (1917-1945) जिन्होंने कोरिया के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई और जिनकी मृत्यु कोरिया की स्वतंत्रता के कुछ महीने पहले जापान के कारावास में हुई।
प्राक्कथन
जीवन के अंतिम क्षण तक
जब मैं सिर उठा कर ऊपर स्वर्ग की ओर देखूं
किसी (पाप के) दाग से शर्मिन्दा न होऊं।
हवा के झोंके से पत्तियां जब सिहरीं, मुझे क्लेश हुआ
जिस तरह मेरे हृदय में तारों के लिये गीत गाने के भाव उठते हैं
मुझे उसी मनोभाव से उन सबों से प्यार करना है, जो मर रहे हैं
और मुझे उस रास्ते पर चलना है जिसे
मैंने अपने लिये नियत किया है।
आज रात भी हवा के छुअन से तारे टिमटिमा रहे हैं।
किम-चौहान का अनुवाद (विशेषकर आरम्भिक पंक्तियां) जिन्हें मैं नीचे उद्धृत कर रहा हूं, कविता के भावार्थ को स्पष्ट नहीं कर पाते।
"मरने के दिन तक आसमान को मुँह कर
मेरा कोई कसूर न हो
पत्ती पर सरसराहट तक से मुझे दुख हुआ।
तारों को गाने के मन से हर नश्वर चीज को प्यार करूँ
और अपने लिए नियत प्रशस्त पथ पर चलूँ
आज रात भी तारे को सहलाएगी हवा।"
बीसवीं सदी के कवियों में चंग ची यंग का मूर्धन्य स्थान है। उन्होंने "गाव की याद" नामक कविता लिखी जो मुझे भी बहुत प्रिय है। इस कविता की आरम्भिक पंक्तियों का मेरा अनुवाद हैं:
गांव की याद
वह स्थान जहां पहाड़ी नदी की घुमावदार धारा लोकगाथा गुनगुनाती पूरब में फैले खेत के सीमान्त की ओर बहती है
और सांझ की सुनहरी रोशनी में भींगा चितकबरा बैल अलसाया-सा, शिथिल भाव से रंभाता है
क्या सपने में भी भूल सकता हूं उस स्थान को?
इस कविता का "नास्टैल्जिया" शीर्षक किम-चौहान का अनुवाद नीचे दिया जा रहा है।
"खुले मैदान के पूर्वी छोर की ओर
पुरानी कहानी बतियाती पतली धार तेज घूम निकल जाती
चितकबरा बैल
अनाड़ी स्वर्णिम आलसी रुदन रोने की जगह
-- वह जगह भला सपने में भी भुलाई जा पाएगी?"
1970-80 का दशक में जब दक्षिण कोरिया पर सैन्य तानाशाह का कब्जा था और देश तेज रफ्तार से औद्योगिकीकरण के रास्ते से गुजर रहा था, क्वाक चे-ऊ नामक कवि ने 1981 में लिखी कविता "साफ्यंग स्टेशन पर" मे उस युग की आम जनता के जीवन के करुण यथार्थ को स्वर दिया।
साफ्यंग स्टेशन पर
अंतिम गाडी प्रायः नहीं ही आती है
प्रतीक्षालय के बाहर रात भर बर्फबारी होती रही, बर्फ जमा होता रहा
गुडहल के फूल जैसे हल्के बैंगनी रंग के बर्फ के ढंढ से सिहरते शीशे की प्रत्येक खिड़की मे
झिलमिल झलक रही थी बुरादे की अंगीठी की आग
नीचे किम-चौ हान का अनुवाद दिया जा रहा है। उनके अनुवाद का शीर्षक है "साफ्यंग स्टेशन में"
कविता की तीसरी पंक्ति में कवि ने "눈시린" शब्द का प्रयोग किया है जिसके दो अर्थ हैं "आंख का दर्द" और "बर्फबारी की भीषण ठंड"। जब इस कविता की केन्द्रीय चिन्ता बर्फीली रात में छोटे से स्टेशन पर अंतिम ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे मुसाफिरों का थकान और नैराश्य है, किम-चौहान ने इसका अर्थ "ज्वार के सफेद बैंगनी फूल आँख दुखी शीशे की खिड़की" कैसे निकाल लिया, मेरे लिये यह कल्पनातीत है। साथ ही क्या किसी देश के रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय की खिड़की-खिड़की पर अँगीठी जलाई जाती है? उन्होंने उपरोक्त कविता को इस तरह अनूदित किया है।
"अन्तिम गाड़ी तो कभी-कभार भी नहीं आई
प्रतीक्षालय के बाहर तो रात भर गुच्छ बर्फ जमा हो गई
ज्वार के सफेद बैंगनी फूल आँख दुखी शीशे की खिड़की-खिड़की पर अँगीठी जलाई जा रही थी।"
इस पुस्तक में एक सौ चौबीस कवितायें संकलित हैं और चूकि सभी कविताओं के अनुवाद का विश्लेषण करना सम्भव नहीं है, मैंने पुस्तक के आरंभिक पृष्ठों पर दी गई कविताओं के उदाहरण द्वारा ही अपने मत को स्पष्ट किया है। मैंने इस पुस्तक की अन्य कवितायें भी पढीं, लेकिन उन्हें पढते समय मुझे अनुभव हुआ कि हिन्दी के अत्यन्त प्रबुद्ध और प्रतिभावान पाठकों के लिये भी बहुत सारी कविताओं के भावार्थ को समझना आसान न होगा।
ई सांग ह्वा की कविता "टोक्यो में' जो जापानी साम्राज्यवाद के चंगुल में फंसे दीन-हीन कोरिया के प्रति कवि के प्रेम और श्रद्धा भाव को चित्रित करता है, की आरम्भिक दो पंक्तियाँ हैं: "आज पूरा दिन मैं जापान की राजधानी टोक्यो की सडकों पर इधर-उधर घूमता-फिरता रहा, लेकिन मैं कोढी की तरह जी रहे स्वदेश कोरिया की जमीन पर पैर रखने और भ्रमण करने के सपने को संजोये हूं मन में।" किम-चौहान का अनुवाद
"आज पूरा होने तक जापान की राजधानी में भटकते हुये भी
मेरा सपना कोढ़ी की चमड़ी जैसे जोसनीं की धरती को परसते फिरता"
इस अर्थ को स्पष्ट नहीं करता। अनुवाद की एक पंक्ति में "हैगम नेदी" का उल्लेख है, जबकि दुनिया में हैगम नाम की कोई नदी है ही नहीं। मूल कविता में "हैगमकांग" नामक लघुद्वीप (Haegeum Islet) जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिये विख्यात है, का जिक्र है। इस कविता के अनुवाद की अधोलिखित दो पंक्तियाँ
"कीचड़ और फूस से बँधे ओसारे के नीचे बुद्ध की तरह गूंगे रहने वाले ओ प्रेत
हमारे सामने चाहे छोटा हो एक रास्ता दिखता है... नहीं है ... अँधेरा ही है?"
मुझे मूल कविता में नहीं मिली। यह किसी दूसरी कविता की पंक्तियां होंगी। फिर भी यह सोचने की बात है, क्या ई सांग ह्वा जैसे आस्थावान कवि ने महात्मा बुद्ध को गूंगा कहा होगा? कोरिया में मुहावरा है "बुद्ध मूर्ति की तरह मूक", लेकिन मैंने किसी भाषा में "महात्मा बुद्ध की तरह गूंगा" जैसी उपमा नहीं देखी।
ई सांग ह्वा की दूसरी कविता औपनिवेशिककालीन कोरिया में जापान के शोषण-दमन के कारण उत्पन्न दुर्भिक्ष की स्थिति से उबरने के लिये मन्चुरिया जो डाकुओ से तंग, जंगली, बियाबान प्रदेश था, में बसने वाले आप्रवासी कोरियाई जनता की व्यथा-कथा अनुस्यूत है। कोरिया मे वे पेड़ पत्तियां, भूसा जैसी अखाद्य वस्तुयें खा कर अपने पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए बाध्य थे, किन्तु मन्चुरिया परती जमीन का विशाल क्षेत्र था, इसलिए यहां वे खेती-बाड़ी द्वारा नई जिन्दगी जीने लगे, लेकिन एक अपरिचित स्थान में उनका आरंभिक जीवन कितना चुनौतीपूर्ण रहा होगा, यहां आकर बसे की उनकी अभिलाषा में खून के कितने आंसू से सने होंगे, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
जा रहे हैं, जा रहे हैं, मजबूर हो कर जा रहे हैं वे लोग
भूख से निकल रहे प्राण को किसी तरह बचाये
परिस्थिति से बाध्य हो कर जा रहे है
विस्मृति के गर्भ में पडे (मन्चुरिया के) कानदो और लियाओतोंग क्षेत्र की ओर
कंकर-पत्थर खा कर और समुद्री सिवाय का सुप बना कर गुजर-बरसे करते है।
किम-चौहान के अनुवाद का शीर्षक है "सबसे विषादमयी अभिलषित कामना
(गान्दो' के आप्रवास की देख कर)"
आह, जाता, जाता भगाया जाता
भुलावे में जो गान्दो और योदोंग मैदान, उस ओर
भूखे प्राण कस कर पकड़, भगाया जाता
कीचड़ को चावल की तरह, समुद्र पौधे पीने पर भी ...)
कोरियाई जनता के मन्चुरिया-आप्रवास से सम्बद्ध इस कविता के शीर्षक का अनुवाद होना चाहिए "सर्वाधिक त्रासद कामना"। किम-चौहान का अनुवाद "सबसे विषादमयी अभिलषित कामना" इसलिए सदोष है, क्योकि अभिलाषा और कामना समानार्थी शब्द हैं। अगर अभिलषित कामना होती है, तो अनभिलषित कामना भी होती होगी। फुटनोट में अनुवादक ने लिखा है कि "गान्दो कोरिया प्रायद्वीप का उत्तरी हिस्सा है, जबकि सच्चाई यह है कि गान्दो कोरियाई प्रायद्वीप से बाहर, कोरिया की उत्तरी सीमा से सटा हुआ क्षेत्र है।
इस अनुवाद की बहुत बडी समस्या शब्द-चयन की असावधानी और शब्दः सौष्ठव की उपेक्षा है। हवा में लहराती घास की पत्तियों के लिये "घास लेटती/ बारिश घेर लेती पुरवाई से फहरा" लिखना (पृष्ठ. 111), विपत्ति या आपदा के बदले आपत्ति शब्द का प्रयोग करना (पृष्ठ. 114) या दिवंगत व्यक्ति के श्राद्ध के अवसर पर उसके चित्र के सामने दो बार साष्टांग प्रणाम करने की परिपाटी की "दो बार नमित" होना" (पृष्ठ. 163) कहना, बौद्ध विहार/ बौद्ध मंदिर के लिए बौद्ध मठ और बौद्ध भिक्षु के रूप मे दीक्षित होने/ बौद्ध-परिव्रज्या ग्रहण करने जैसे धार्मिक अनुष्ठान के लिये "मठवासी होना" कहना इस असावधानी के कुछ उदाहरण हैं।
अनुवाद की तीन प्रमुख शर्ते होती हैं: -- मूल के भाव और विचार का पूरी ईमानदारी के साथ बोधगम्य भाषा में रूपांतरण, शैली का श्रोत भाषा के टेक्स्ट के साथ सामंजस्य और मूल रचना की सहजता। उपयुक्त और सुन्दर शब्द के बिना कविता लिखी ही नहीं जा सकती। कोरियाई कवि किम संग-बोक ने सही लिखा है कि कविता लिखना शब्दों के लिए जलमार्ग खोदना है। कविता शब्दों को पाठक के मन-प्राण में बहने देती है। कवि को शब्दों के प्रवाह पर किसी तरह का दवाब नही डालना चाहिए -- उसे बस प्रतीक्षा करनी चाहिए।
हरिऔध जी ने "वैदेही वनवास" की भूमिका मे इसी तथ्य को रेखांकित किया है। वे अपनी बात की स्पष्ट करने के लिये एक फारसी कविता उद्धृत करते हैं।
"बराय पाकिये लफ़्ज़े शबे बरोज आरन्द ।
कि मुर्गा माहीओ बाशन्द खुझता ऊ बेदार।।"
'एक सुन्दर शब्द को बैठाने की खोज में कवि उस रात को जाग कर दिन में परिणत कर देता है, जिसमें पक्षी से मछली तक बेखबर पड़े सोते रहते हैं'।
हरिऔध जी आगे लिखते है, "इस कथन में बड़ी मार्मिकता है। उपयुक्त और सुन्दर शब्द कविता के भावों की व्यंजना के लिये बहुत आवश्यक होते हैं। एक उपयुक्त शब्द कविता को सजीव कर देता है जबकि अनुपयुक्त शब्द मयंक का कलंक बन जाता है।"
इस पोस्ट में प्रयुक्त चित्र पंकज मोहन ने ही उपलब्ध कराए हैं।
बहुत अच्छा लगा पढ़कर। यह अनुभूति हुई जैसे कोई कवि पाँगी घाटी के भूगोल में जी रहा है।
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