गोविन्द निषाद का आलेख 'नदी, निषाद और उनका जीवन सरयू नदी और उसके किनारे बसे एक गाँव का सन्दर्भ'
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गोविन्द निषाद |
भारतीय समाज में जाति की भूमिका काफी अहम है। यह जातीय संरचना आज भी अत्यन्त जटिल है। इसे जान समझ पाना आसान नहीं है। इसे समझने के लिए ज्ञान की जिस शाखा का इधर विकास हुआ है उसे 'ऑटो एथ्नोग्राफ़ी' कहा जाता है। इसके अन्तर्गत उस जातीय समूह से जुड़ा हुआ शोधकर्ता अपने अनुभवों की गहराई से जाँच करता है। यह एक तरह से उस आत्म निरीक्षण सरीखा है जिसका उद्देश्य उन अंतर्दृष्टियों को उजागर करना है जो अन्य शोध विधियों के माध्यम से सुलभ नहीं हो सकती हैं। गोविन्द निषाद ने खुद इस जीवन को जिया भुगता है। इसी क्रम में उन्होंने निषादों के जीवन को बारीकी से जानने का यत्न किया है। नदियों के साथ निषाद जाति की अंतरंगता, उनका जीवन संघर्ष, बदलते हालात में रोजी रोटी के दूसरे भरोसेमंद साधनों की तरफ उन्मुख होने की सूक्ष्म पड़ताल गोविंद ने अपने इस आलेख में की है। इस शोध आलेख को उपलब्ध कराने के लिए हम रमा शंकर सिंह के आभारी हैं जो खुद 'नदी पुत्र' जैसे चर्चित पुस्तक के लेखक हैं और नदी जीवन पर महत्त्वपूर्ण कार्य में शिद्दत से जुटे हुए हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं गोविन्द निषाद का आलेख 'नदी, निषाद और उनका जीवन, सरयू नदी और उसके किनारे बसे एक गाँव का सन्दर्भ'।
स्पष्टीकरण : यह लेख भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में 2019 में हुए सेमिनार "समाज, संस्कृति एवं जीविका की निर्मिति : उत्तर भारत में नदियों और निषादों का सहजीवी सम्बन्ध" में प्रस्तुत एक परचे पर आधारित है, जिसे अभी हाल ही में संस्थान द्वारा प्रकाशित किताब "जीवन का तट : उत्तर भारत में नदियाँ और निषाद जीवन, सम्पादक : रमाशंकर सिंह, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला 2025" में प्रकाशित किया गया है।
'नदी, निषाद और उनका जीवन सरयू नदी और उसके किनारे बसे एक गाँव का सन्दर्भ'
गोविन्द निषाद
सरयू नदी भारत की एक आदरणीय नदी है। इसका बहुत सुंदर वर्णन रामायण में मिलता है। यह आज भी उत्तर भारत के करोड़ों लोगों की श्रद्धा का केंद्र है। भौगोलिक रूप से इसे घाघरा भी कहते हैं। देश की अन्य नदियों की तरह घाघरा (सरयू) नदी के किनारे निषाद समुदाय सदियों से रहता आया है। वह इस नदी में नाव चलाता रहा है, नदी के तल से बालू निकालता रहा है, उसने घाघरा नदी के परितंत्र को सुरक्षित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वह घाघरा नदी पर अपनी दावेदारी लगातार वर्षों से करता रहा है। निषाद समुदाय के जीवन बोध के निर्माण में घाघरा नदी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। निषाद समुदाय और नदी के बीच उपर्युक्त सम्बन्ध में स्वातंत्र्योत्तर भारत में कई परिवर्तन आए हैं। इन परिवर्तनों को घाघरा नदी के किनारे बसे गोरखपुर जिले में स्थित निषाद बाहुल्य गाँव 'रापतपुर' में चिन्हित करने का प्रयास किया गया है। इस गाँव में निषाद जाति की 'केवट' उपजाति का अधिवास है। इस लेख में इस गाँव के निषाद समुदाय का घाघरा नदी के साथ उनके अंतर्सम्बन्धों, उनसे घाघरा नदी से जुड़ाव, उनके जीवनबोध के निर्माण में इस नदी की क्या भूमिका निभाई है? को देखने का प्रयास किया गया है।
निषादों के अध्ययन में एक समस्या रही है कि उत्तर प्रदेश में उनका अध्ययन इलाहाबाद में संगम और वाराणसी के घाटों तक केन्द्रित हो कर रह जाता है, वह अन्य नदियों या क्षेत्रों तक बहुत कम पहुँच पाता है। चूँकि इलाहाबाद और वाराणसी भारत के प्रसिद्ध तीर्थ हैं, तो निषाद अपनी जीविका नाव वहाँ पारम्परिक कार्य नौचालन से करते है जो कि सदियों से करते आ रहे हैं। अक्सर निषादों का नाव, नदी और मछली मारने से सम्बन्ध इन्ही दोनों स्थानों के आधार पर व्याख्यायित किया जाता है। निषादों का अन्य स्थानों पर अपने पारम्परिक कार्यों के साथ सम्बन्धों में लगातार परिवर्तन आ रहे हैं, जिसे रेखांकित किया जाना जरूरी है। बनारस के घाटों पर आधारित अपने मानवशास्त्रीय कार्य में अस्सा डोरोन ने मल्लाह समुदाय की गंगा पर निर्भरता, राज्य द्वारा उनकी सीमांतीकरण की प्रक्रिया तथा पहचान के लिए उनके संघर्षों की गहराई से पड़ताल की है। उनका यह कार्य मल्लाहों के नौकायन के उनके पैतृक, वंशानुगत नियमों की व्याख्या तथा मल्लाहों द्वारा घाटों पर किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों की विवेचना करता है। इलाहाबाद और चंदौली के बीच के निषाद समुदाय के सामुदायिक अधिकारों, नदी पर उनकी दावेदारी तथा बालू खनन की सांस्कृतिक-आर्थिकी पर रमाशंकर सिंह ने दिखाया है कि अपनी ऐतिहासिक स्मृतियों और वर्तमान राजनीतिक गोलबंदियों के द्वारा वे किस प्रकार की राजनीति विकसित कर रहे हैं।1 यह अध्ययन मुख्यतः गंगा नदी के किनारे के इलाक़ों पर केंद्रित हैं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में एक भिन्न प्रकार की सामाजिक-सांस्कृतिक अवस्था काम रही है। उसे भी देखा जाना चाहिए। इसके लिए मैं आपको सरयू नदी के किनारे स्थित एक छोटे से गाँव में ले जाना चाहूँगा।
सरयू नदी दक्षिणी तिब्बत के ऊँचे पर्वत शिखरों से निकलती है, जहाँ इसका नाम कर्णाली है। इसके बाद यह नेपाल से हो कर बहती हुई भारत के उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रवाहित होती है। लगभग 970 किलोमीटर की यात्रा के बाद बलिया और छपरा के बीच यह गंगा नदी में मिल जाती है। इसे घाघरा, सरजू, शारदा आदि नामों से भी जाना जाता है। यह बहराइच, सीतापुर, गोंडा, अयोध्या, अम्बेडकर नगर, गोरखपुर, बलिया और आजमगढ़ आदि जिलों से हो कर गुजरती है। इस नदी की गहरी धारा गोरखपुर जिले की दक्षिणी सीमा निर्धारित करती है। नदी पहले गोरखपुर जिले के परगना 'धुरियापुर' में 'मझादीप' को छूती है। पुनः पूर्व की ओर गोला बाजार तथा बड़हलगंज कस्बों को छूती हुई आगे बढ़ जाती है।2 रापतपुर गाँव गोरखपुर जिले के परगना धुरियापार और विकासखंड बेलघाट में अवस्थित है। यह गाँव कई खंडों (पुरवों) में बँटा हुआ है जैसे-करमा, बगियाई और चितकहवा।3 इस गाँव की कुल जनसँख्या लगभग 3604 के करीब है।4 इसमें लगभग कुल 2800 के करीब आबादी निषाद जाति की केवट मल्लाह उपजाति से सम्बन्धित है। शेष आबादी में ब्राह्मण, यादव और मौर्या जातियों के लोग शामिल हैं। इस गाँव की दक्षिणी सीमा, पूर्वी सीमा तथा दक्षिणी पश्चिमी सीमा सरयू नदी द्वारा निर्धारित होती है, जिसकी लंम्बाई आठ किलोमीटर के करीब है। इसके उत्तर में सिसवा बाबू, पूर्वोत्तर में मंझारिया, पश्चिम में मझादीप तथा पश्चिमोत्तर में नर्गड़ा गाँव स्थित है।5
इन जातियों को अपने शोध में चुनने का एक बड़ा कारण मेरा स्वयं इस जाति से होना है। हाल के वर्षों में 'ऑटो एथ्नोग्राफ़ी' का महत्त्व समाज अध्ययन के क्षेत्र में बढ़ा है जिसमें शोधकर्ता अपने अनुभवों की गहराई से जाँच करता है। इसमें उसकी भावनाएँ, विचार और प्रतिक्रियाएँ शामिल होती हैं। इस आत्म निरीक्षण का उद्देश्य उन अंतर्दृष्टियों को उजागर करना है जो अन्य शोध विधियों के माध्यम से सुलभ नहीं हो सकती हैं। वह व्यक्तिगत आख्यानों को सांस्कृतिक संदर्भों से जोड़ता है, तथा यह जाँच करता है कि किस प्रकार व्यक्तिगत अनुभव बड़े सामाजिक प्रतिमानों को प्रतिबिंबित करते हैं और प्रभावित करते हैं।6 शोधकर्ता ने इस शोधपत्र में अपने पूर्वजों, परिवार तथा स्वयं के बारे में तथा उनका नदी, तालाब तथा जल से जुड़ाव को अनुभवमूलक ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मेरे पूर्वज विस्थापित हो कर इस गाँव में आए थे। अपने अंतिम पूर्वज जिसके बारे में मुझे अपने परिवार से मौखिक रूप से जानकारी मिलती है, वे हैं मेरे परदादा। मेरे परदादा जिनका नाम 'गजाधर' था, उनके नाम के साथ एक किवदंती जुड़ी हुई है कि उनके पास एक हाथी के बराबर बल था इसलिए उनका नाम 'गजाधर' पड़ गया। मेरे परदादा अपने जातिगत पारम्परिक कार्य मछली मारने, पालकी ढोने, मिट्टी के घर बनाने, कुएँ खोदने के साथ हलवाही का कार्य करते थे। इसमें ज्यादातर जलाधारित कार्य में उनकी संलग्नता थी। चूँकि निषादों का जल के साथ अटूट सम्बन्ध रहा है, उसके बिना उनकी कल्पना करना मुश्किल था। मेरे पूर्वज जहाँ पहले रहा करते थे, वहाँ किसी कारणवश जल की उपलब्धता कम होती जा रही थी। अतः मेरे पूर्वजों को नया जलक्षेत्र ढूँढ़ना आवश्यक हो गया था। 1850 के आसपास मेरे पूर्वज एक नए जल स्रोत की तलाश में वर्तमान निवास स्थल पर आ कर बस गये। उनको नए गाँव में जगह दिलाने में जजमानी प्रथा ने भूमिका निभाई। चूँकि गाँव में अन्य पारम्परिक पेशों से जुड़े लोग का अधिवास हो चुका था, गाँव में हलवाही करने वाले लोगों की कमी थी, इसलिए ब्राह्मण समुदाय ने गाँव में बसने की अनुमति दे दी। इस नए स्थान पर जल की भरपूर उपलब्धता थी। गाँव के पश्चिमी छोर पर एक छोटी-सी नदी जो वर्तमान में सूखी रहती है, वह उस समय बहती थी। इसके चारों तरफ फैला एक बड़ा जलक्षेत्र था। मेरे पूर्वज, दादा जी और पिता जी ने 1970 के दशक तक इस नदी में मछली मारने का कार्य किया। मेरे घर के सामने भी एक बड़ा तालाब था जिसमें मछलियों की भरमार होती थी। धीरे-धीरे यह तालाब अपना अस्तित्त्व खोता गया और समाप्त हो गया।
गाँव में ब्राह्मण समुदाय को खेती के लिए शारीरिक रूप से बलिष्ठ मजदूर चाहिए थे। इस कारण से उन्होंने मेरे पूर्वजों को गाँव में बसने की जगह दे दी। धीरे-धीरे यह एक परिवार बढ़ कर आज कई परिवार बन गया है। गाँव में बसने के पश्चात वे अपने पारम्परिक कार्य मछली मारने के अतिरिक्त अन्य कार्य जैसे हलवाही करने, मिट्टी के घर बनाने, पालकी ढोने तथा मजदूरी का कार्य करने लगे। निषाद जाति के लोग बलिष्ठ होने के कारण कुएँ खोदने में किसी अन्य जाति की अपेक्षा ज्यादा सक्षम होते थे। ऐसा ही एक कठिन कार्य था मिट्टी के घर बनाना जो हमारे पूर्वजों और पिता ने किया। पालकी ढोने का मेहनतकश कार्य भी वे करते थे। इन सब के अतिरिक्त हमारे पूर्वज और पिता मजदूरी जैसे-गल्ले को सिर ढोना, भारी सामान की ढुलाई करना आदि कार्यों में भी संलग्न थे। वर्तमान में भी मेरे पूर्वजों द्वारा बनाए गये कुएँ, मिट्टी के घर तथा पालकी ढोने के ढाँचे का एक छोटा अंश आज भी विद्यमान है। मेरे पूर्वजों का जल के साथ उनके अंतर्सम्बन्धों को ले कर कई मौखिक विवरण आज भी घर और गाँव के लोगों द्वारा बताया जाता है, जैसे कि मेरे बाबा जी के बारे में मेरी दादी जी बताती थीं कि वह जब भी नदी या तालाब में मछली पकड़ने उतरते थे जब तक वे दोनों हाथ, पाँव, मुँह में मछली नहीं पकड़ लेते थे, तब तक बाहर नहीं आते थे।
उपर्युक्त कार्यों के बदले में जो मजदूरी मिलती थी, वह अत्यन्त कम होती थी। ज्यादातर मजदूरी का भुगतान अनाज में मिलता था। कभी-कभी सिर्फ भोजन के एवज में मजदूरी का कार्य किया जाता था। चूँकि गाँव में उन्हें इन्ही सब कार्यों के लिए बसाया गया था इसलिए उन्हें अनिवार्यतः यह सब करने पड़ते थे। स्वतंत्रता के बाद भूमि सुधार के तहत चकबंदी का कार्यक्रम सरकार के मुख्य एजेंडे में शामिल था। चकबंदी के परिणामस्वरूप मेरे परिवार को भी कुछ भूमि कृषि कार्य हेतु आंवटित की गई। देश में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हो रहा था, यही वह मोड़ था जब मेरे परिवार का जल से जुड़ाव कम होना शुरू हो गया और धीरे-धीरे वह एक खेतिहर समुदाय में परिवर्तित हो गया। नदी में मछलियों की मात्रा कम होती जा रही थी। चूँकि नदी छोटी थी इसलिए बरसात के दिनों के इतर यह सूख जाने लगी, तथा इससे लगा हुआ जलप्लावन क्षेत्र भी सूख गया। वही दूसरी तरफ सरकार द्वारा कृषि को बढ़ावा देने वाली कई परियोजनाओं का शुभारम्भ किया गया जिसके परिणामस्वरूप कृषि पैदावार में बढ़ोत्तरी होने लगी। मेरे परिवार का झुकाव कृषि की तरफ बढ़ने लगा। इसके विपरीत जल तथा मछली से उनका जुड़ाव कम होते-होते वर्तमान समय में खत्म हो गया है। आज मेरा परिवार पूर्णतः कृषि पर आश्रित हो चुका है। पारम्परिक कार्यों से उनका नाता दूर-दूर तक नहीं है।
मेरे पूर्वजों को सामाजिक बहिष्कार तथा शोषण का वह दंश नहीं झेलना पड़ा जो अछूत जातियों के लोगों को झेलना पड़ा लेकिन फिर भी मेरे पूर्वज जातीय अपमान तथा लांछन से नहीं बच पाए। चूँकि गाँवों में उन्हें जजमानी प्रथा के तहत बसाया गया था इसलिए गाँव की उच्च जाति का जैसे उन पर एकाधिकार होता था। कार्य करने का बुलावा कभी भी आ सकता था। समय पर काम न करने या कार्यस्थल पर न पहुँचने पर गालियाँ या अपमानजनक शब्द कहना आम बात थी। घर की जीविका उन्ही लोगों के रहमोकरम पर चलती थी। अगर हम आधुनिक शिक्षा की बात करें तो यह एक खास वर्ग तक सीमित थी। मेरे पूर्वजों में कभी कोई विद्यालय नहीं गया। हमारी वर्तमान पीढ़ी ने पहली बार 1990 के दशक में विद्यालय की चौखट को लाँघा। मैं अपने कुल का पहला लड़का हूँ जिसने विश्वविद्यालय से अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त की है।
मेरे पिता जल से अपनी जीविका पर बहुत दिनों तक निर्भर रहे और गाँव में हलवाही और अन्य कार्यों को करते रहे लेकिन एक समय ऐसा आया जब परिवार चलाना मुश्किल हो गया तो उन्होंने शहर की तरफ पलायन किया लेकिन कुछ खास नहीं कर पाए और गाँव वापस आ गये। चूँकि उस समय आवागमन के ज्यादा साधन उपलब्ध नहीं थे इसलिए रोजगार की ज्यादा संभावना देख कर उन्होंने रिक्शा खरीदा और घर की जीविका चलने लगी। कुछ वर्षों बाद स्थिति तब खराब होने लगी, जब गाँव में ईंधन चालित आटो रिक्शा आ गये। पिता आजमगढ़ शहर में रिक्शा चलाने लगे और शहर में कोई आशियाना नहीं होने के कारण रात में फुटपाथ पर गुजारा कर लेते थे। हमारा मकान छप्पर का था। बरसात होने पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता था। सर्दियों में पिता जी ईंट-भट्ठे पर ईंट बनाने का काम करने लगे। मैं और मेरा भाई भड्डे पर कोयला फोड़ते और जलने के बाद जब ईंट निकल जाती, तब नीचे दबे कोयला को भट्टे से निकालते। हमने कोयला ले कर इकट्ठा करना शुरू किया। जब गर्मियों में कारखाना बंद हो गया तब मेरे पिता जी ने चाय की एक छोटी-सी दुकान खोल दी। मैंने पिता जी के साथ इस दुकान को दो वर्ष तक चलाया लेकिन लागत भी नहीं निकल पाने के कारण दुकान पिता जी ने बंद कर दी। यह दुकान मेरे लिए दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह साबित हुई क्योंकि यहाँ आने वाला अख़बार मुझको दुनिया से मिलाने लगा। इस अख़बार को पढ कर मैंने बहुत कुछ जाना। जब दुकान बंद हो गई तब मैं बाजार जा कर अख़बार पढ़ने लगा। अब पिता का शरीर रिक्शा चलाने के अनूकूल नहीं बचा था। मैं दसवीं की परीक्षा दे चुका था। आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए पैसों को जुटाने के लिए मैं कुछ दिन दिल्ली मजदूरी करने चला गया। वहाँ मैने तीन महीने मजदूरी करके कुछ पैसे बचा कर आगे की पढ़ाई जारी रखी। इसके बाद मुझे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने का मौका मिला। स्नातक के दौरान भी मैने छुट्टियों में कुछ दिन मजदूरी करने का काम किया। इस दौरान मुझे बार-बार लोगों के सामने 'निषाद' उपनाम को व्याख्यायित करना पड़ता था जिससे मुझे बहुत ग्लानि होती थी। आगे सफर जारी है लेकिन मेरा परिवार जातिगत कार्यों से दूर चला गया है, जल सिर्फ उसके स्मृतिलोक में बसा हुआ है।
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सरयू नदी |
रापतपुर गाँव के निषाद
किसी भी समुदाय को देखने तथा समझने का उस समुदाय के अनुभवी तथा बुजुर्ग लोगों का अपना एक नजरिया होता है। निषाद समुदाय के अतीत तथा जाति उत्पत्ति के बारे में निषाद समुदाय के बुजुर्गों का अपना एक निश्चित मत है कि निषाद इस धरती के सबसे प्राचीन आदिम निवासी हैं।7 निषाद इस धरती पर तब से हैं जब से नदियाँ और जल इस धरती पर आए हैं। इन्हीं नदियों के किनारे ही सभ्यताओं का जन्म हुआ। पहले मानव नदियों के किनारे ही बसा और इन बसावटों में ही निषादों का प्रादुर्भाव हुआ है, इन्ही नदियों के किनारे हमारे पुरखों ने अपना निवास बनाया और इन्ही में अपना भोजन तलाशा। निषाद जाति की उत्पत्ति के विषय में गाँव के लगभग सभी बुजुर्ग और अनुभवी व्यक्ति अपना सम्बन्ध तुलसीदास कृत रामचरित मानस के पात्र निषादराज गुह से जोड़ते हैं और बड़े गर्व से कहते है कि भगवान राम को हमारे पुरखों ने गंगा पार कराई थी। वह लगभग प्रत्येक बात में खुद को राजा बताने की कोशिश करते हैं। जैसे कि पहले हम राजा हुआ करते थे देश के कई हिस्सों में हमारा शासन हुआ करता था, कालान्तर में उनसे छलकपट द्वारा उनका राज्य छीन लिया गया। हालाँकि ऐसा कहते समय वह किसी राजा, राज्य तथा स्थान का उल्लेख नहीं कर पाते हैं। उनके पास ऐसी कई मिथकीय कथायें हैं जिससे वह अपनी क्षत्रिय पहचान को स्थापित करने की कोशिश करते हैं। जब कोई समुदाय अपने मानवीय विकास क्रम में वृद्धि करता है तब उसकी पहले की पीढ़ी और उसके बाद आने वाली पीढ़ी में अपने पूर्वजों की कुछ अवधारणाओं को ले कर बदलाव आ जाते हैं। निषादों की वर्तमान पीढ़ी आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रही है, उसकी राय अपने बुजुर्गों की राय से बदलने लगी है या उसमें कुछ नया जोड़ रही है। गाँव के नवयुवक अपनी पहचान को आधुनिक प्रतीकों के माध्यम से निर्मित करने की कोशिश कर रहे हैं। वे रेखांकित करते हैं कि हमारे पूर्वजों ने सम्पूर्ण दुनिया को खोजा, इसके उदाहरण में वे वास्कोडिगामा और कोलम्बस का नाम लेते हैं। वे मिथकीय प्रतीकों में भी नए-नए प्रतीक जोड़ रहे हैं। वे कहते हैं कि हम पहले राजा थे, हिरण्यकश्यपु, बलि तथा कई अन्य असुर राजाओं से अपना सम्बन्ध स्थापित कर के वे अपने बुजुर्ग की बात को पूरा करने की कोशिश करते हैं। जाति उत्पत्ति तथा निषादराज गुह के सम्बन्ध में वे अपने बुजुर्ग के विचार से सहमति जताते हैं। ऐसी बातों के द्वारा निषाद समुदाय अपनी सामुदायिक पहचान को स्थापित करने की कोशिश करता है। वर्तमान पीढ़ी अपनी सामुदायिक पहचान का निर्माण में निषादराज गुह के प्रतीक का जम कर प्रयोग कर रही है। निषादराज गुह के इस प्रतीक ने निषादों की सामुदायिक पहचान को स्थापित करने में न केवल महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है बल्कि निषादों के राजनीतिक सशक्तीकरण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।8
निषाद समुदाय के जीवन में नदी
इस गाँव के निषाद समुदाय के लोगों का सरयू नदी के साथ अपने सांस्कृतिक तथा धार्मिक सम्बन्धों में पूर्व की अपेक्षा वर्तमान में परिवर्तन देखने को मिलता है। सरयू नदी के किनारे निषादों के आवासीय संकुल है। नदियों के साथ उनकी यह निकटता प्राचीन है, जिसके कारण नदियों का उनके साथ एक भावनात्मक लगाव है लेकिन जो निषादों को नदियों से अटूट रूप से जोड़ता है वह है-नदी पर निषादों की निर्भरता। निषाद समुदाय अपने दैनिक खान-पान से ले कर आजीविका के अन्य साधनों के लिए नदियों पर आश्रित रहा है। निषादों ने नदियों में नौकाएँ चला कर और मछली मार कर अपना पेट भरा है।9 नदी से अपने सम्बन्धों को ले कर आप बात करें, तो वह भावुक हो जाते हैं। उनकी बातों से आप प्रकृति और मानव के भावात्मक सम्बन्ध उभर कर सामने आ जाता है। निषादों की जो पुरानी पीढ़ी है, वह कहती है कि, "निषाद गंगा मैया के प्राकृतिक पुत्र हैं। गंगा मैया ही निषादों को पालती पोसती और बड़ा करती है। हम गंगा मइया की गोदी में खेल कर बड़े हुए हैं। उनकी धाराओं में हमने चलना सीखा है। उसने हमको भोजन दिया है। गंगा मैया हमारी प्रथम देवता हैं। हमारे बुजुर्ग और खुद भी पहले गंगा मइया में अपने खेतों में पैदा हुआ अनाज चढ़ाते हैं, पुनः घर लाते हैं। हमारे घर में आने वाली प्रत्येक वस्तु पहले गंगा मैया को अर्पित की जाती है।" ऐसा कह कर वे अपना सरयू नदी के साथ सम्बन्धों को अटूट बनाते हैं। हालाँकि, सरयू नदी के साथ वर्तमान पीढ़ी के सम्बन्धों में पूर्ववर्ती लोगों की अपेक्षा काफी बदलाव आए हैं। नदी और निषादों में स्थापित भावनात्मक सम्बन्धों में धीरे-धीरे कमी आ रही है। अब वह नदियों को उस तरह नहीं देख पा रहा है जैसे कि उसके पूर्वज देखा करते थे। नदियों को देख कर उसके अन्दर अपनेपन का भाव तो आता है लेकिन साध्य और साधक वाला सम्बन्ध नहीं बन पाता। गाँव के शिक्षित नवयुवक जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, सरयू नदी को माता के रूप में कम, प्राकृतिक रूप में ज्यादा देखते हैं। वे कहते हैं कि नदियाँ माता नहीं हैं, हमने नदियों को माता कह कर क्या हाल कर दिया है उनका। वे अपना सम्बन्ध नदियों से जोड़े जाने पर कहते है कि हाँ, हमारे पूर्वज नदियों पर आश्रित रहे हैं लेकिन वर्तमान में यह बदल रहा है। इस बदलाव का मुख्य कारण यह है कि इस गाँव में निषादों की वर्तमान पीढ़ी जल और नदी के साथ अपना सम्बन्ध उस तरह नहीं निर्धारित करती, जैसे उसके पूर्वज करते थे। जो इनके सम्बन्धों की मुख्य कड़ियाँ थीं, वह लगातार टूटती जा रही हैं। जैसे उन्होंने कभी नदी में मछली पेशेवर तरीके से नहीं पकड़ी। नाव तो बिल्कुल नहीं चलाई। सिर्फ उन्होंने सरयू में स्नान किया। शायद यही कारण है कि वर्तमान पीढ़ी का सम्बन्ध नदियों के साथ भावात्मक रूप से नहीं जुड़ पाया है। निषादों की इस पीढ़ी के ज्यादातर युवा अपने जीवन के शुरूआत दौर से ही मजदूरी करने शहरों में चले जाते हैं, जिससे नदी के साथ उनका सम्बन्ध नाममात्र का रह गया है। इन सम्बन्धों में आए परिवर्तन का एक अन्य मुख्य कारण रहा है कि निषादों की यह पहली पीढ़ी है जो विद्यालय गई है, नदी में नहीं गई है। जैसे लगता है कि वह इन पारम्परिक कार्यों से अपना दामन छुड़ा लेना चाहती है। वह देश और दुनिया की चकाचौंध से जुड़ना चाहती है। इस गाँव में निषादों की वर्तमान पीढ़ी नौका न चला कर ईंधन चालित वाहन चला रही है। आजादी के बाद यह निषादों की पहली पीढ़ी है जो विद्यालय जा रही है और उच्च शिक्षा में इनके कदम पड़ रहे हैं। यह पीढ़ी नदियों से ज्यादा शिक्षा की ओर देख रही है। इस गाँव में अब कोई निषाद नहीं चाहता कि उसका बेटा मछली मारने या नाव चलाने का कार्य करे। हाँ, यह जरूर है कि अपनी सामुदायिक पहचान और अस्मिता के लिए वह नदियों तथा उसके जुड़े प्रतीकों का इस्तेमाल कर रहा है। आज जब लगभग सभी जातियाँ अपने पारम्परिक कार्यों का परित्याग कर चुकी है या पेशेवर तरीके अपना कर वह अपना काम कर रही है तो निषादों का उन पारम्परिक कार्यों से जुड़े रहना आसान कार्य नहीं है।10
मछली अब कहाँ है?
प्रारम्भिक दौर से ले कर अब तक निषाद समुदाय के खान-पान का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा मछली रही है। लेकिन पहले हरित क्रांति और बाद में उदारीकरण के पश्चात निषादों के खानपान में क्रमशः परिवर्तन देखने को मिलता है। हरित क्रांति के बाद में खाद्यान उत्पादन में वृद्धि हुई जिससे देश के कई हिस्सों में खाद्यान्न की पहुँच सुनिश्चित हुई। इस प्रक्रिया में निषाद भी अछूते नहीं रहे। चकबंदी के दौरान निषादों के पास कुछ कृषि भूमि आई। अब निषादों की थाली में मछली से इतर और भी खाद्य पदार्थ आ गये। उदारीकरण के पश्चात देश में पारम्परिक व्यवसायों का तेजी से मशीनीकरण और वाणिज्यीकरण हुआ है। मछली मारने का व्यवसाय भी इससे अछूता नहीं रहा। मछली के व्यवसाय पर भी अन्य सशक्त समुदायों का कब्जा होता गया। मछली मारने के लिए नए प्रकार के जाल तथा तकनीक आयी जो मछली मारने के पारम्परिक तरीके के खिलाफ है। इस पूरी प्रक्रिया से सरयू नदी में मछलियों की संकुलता में कमी आने लगी, जिससे निषादों की थाली में मछली की मात्रा कम हो गई। मछली की उपलब्धता इतनी कम हो गई है कि बहुत ही कम लोग इस व्यवसाय में लगे हैं। हालाँकि हमेशा से ऐसा नहीं था पहले मछलियों की सघनता इतनी ज्यादा थी कि बहुत कम श्रम में अधिक से अधिक मछली पकड़ने का कार्य किया जाता था। लेकिन अब तो घंटों की मशक्कत के बाद भी पर्याप्त मछलियाँ नहीं मिलती हैं। इन्हीं कारणों से आज की पीढ़ी मछली खरीद कर ही खाना पसंद कर रही है। पहले मछली और जल निषादों की पुश्तैनी समझा जाता था, प्रायः निषाद मछली का कारोबार करते थे लेकिन अब इसमें पैसा आने के कारण अन्य रसूखदार जातियों के लोग भी मछली पालन करने लगे हैं। ऐसे में मछली के कारोबार में प्रतिस्पर्धा बढ़ी है। प्रतिस्पर्धा में तकनीकी के सामने निषाद टिक नहीं पाते हैं और मजबूरन उन्हें उन रसूखदार लोगों से ही मछली खरीद कर बेचना पड़ता है।"11 जिसके कारण यह होता है कि उन्हें उतना फायदा नहीं होता जितना पहले होता था जब वह खुद मछली मार कर बेचता था। अब मछली को मारने के लिए जो जाल प्रयुक्त होता है उसमें मछली के लारवा भी आ जाते हैं जिसमें इस क्षेत्र में मछलियों की मात्रा भी घटती जा रही है। कुछ लोग मछलियों के कम होने का कारण खेतों में प्रयुक्त होने होने वाले रसायन को बताते हैं। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि कुछ निषाद तो गाँव में आयोजित होने वाले सत्संग के प्रभाव में आकर मछली खाना छोड़ रहे हैं जो उनके बीच हो रही संस्कृतीकरण प्रक्रिया को दिखाता है।
नाव रेत में पड़ी है
इस गाँव में निषादों के पारम्परिक कार्यों में जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है, वह है नौका चालन से उनकी दूरी। विगत कुछ वर्षों पहले इस गाँव के कुछ निषाद सरयू नदी में नाव चलाते रहे हैं जो वर्तमान में समाप्ति की कगार पर है। हालाँकि, नौवहन का कार्य आंशिक रूप से वर्तमान में जारी है जब वर्षा के दिनों में सरयू नदी अपने उफान पर होती है तो नदी को पार करने का एकमात्र साधन नाव ही होती है। अन्य दिनों में लोग नदी पर बने पीपा पुल के सहारे नदी को पार करते हैं। वह दिन दूर नहीं जब इस गाँव का निषाद नाव चलाने से पूरी तरह मुक्त हो जायेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि सरयू नदी पर इस गाँव के बगल में एक विशाल सेतु का निर्माण कार्य चल रहा है। पुल के निर्माण से नौकाचालन का कार्य अचानक से बंदी की स्थिति में आ जाता है। जो जगह कभी नौपरिवहन के अनुकूल होती थी वह अचानक से वीरान हो जाती है।12 यहाँ सबसे दिलचस्प बात यह है कि निषाद समुदाय ही कई वर्षों से इस सेतु को बनाए जाने की माँग करता रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि निषाद अब नदी को नाव से नहीं मोटरसाइकिल से पार करना चाहता है। ये सारी प्रक्रियायें इस गाँव के निषादों को नाव चालन से बहुत दूर ले जा रही हैं। अब इस क्षेत्र में नाव चलाने वाले को अपनी जीविका चलाने में मुश्किल होती जा रही है। गाँव के बुजुर्ग जो पहले नाव चलाया करते थे, उन्हें अब नाव चलाने में कोई फायदा नजर नहीं आता है इसलिए उन्होंने नाव चलाना बंद कर दिया। वह पहले दिन भर में सात से आठ चक्कर लगा लेते थे। इससे उन्हें अच्छी आमदनी हो जाती थी लेकिन जब से सरकारी पीपा पुल बन गया है एक चक्कर के लिए भी पर्याप्त सवारी नहीं मिलती। इन सब कारणों से उन्होंने नाव चलाना बंद कर दिया।
पारम्परिकता से व्यवसायिकता
इस गाँव के निषादों की आर्थिक दशा बहुत निम्न रही है। अपने परम्परागत व्यवसाय से निषाद समुदाय अतीत से ले कर वर्तमान तक सिर्फ अपना तथा अपने परिवार का भरण पोषण करता आया है। हाल के कुछ वर्षों पहले इस गाँव में सिर्फ़ झोपड़ी के घर नजर आते थे। गर्मियों के दिनों में झोपड़ी में अक्सर लगने वाली आग उनकी आर्थिक दशा को और भी निम्न बना देती थी लेकिन वर्तमान में इस गाँव में पक्के मकान भी बन रहे हैं जिसमें ज्यादातर सरकारी अनुदान से बन रहे हैं। कुछ वर्षों से निषादों की आर्थिक दशा में सुधार हो रहा है। इस सुधार का कारण उनका परम्परागत व्यवसाय नहीं है बल्कि अन्य कारण हैं। अन्य कारणों की बात करें तो निषादों के इस गाँव में युवकों का पलायन शहरों की तरफ तेजी से बढ़ा है। दशा यह है कि इस गाँव में 18 से 50 आयु वर्ग के लोग बहुत कम हैं। ये शहरों में मजदूरी करते है, जहाँ उन्हें पारम्परिक व्यवसाय से अधिक आमदनी हो जाती है। दूसरा कारण यह है कि इस गाँव में निषाद जातियों ने अपने जातिगत कार्यों को छोड़ कर दूसरी जातियों के पेशे को अपना लिया है। जैसे इस गाँव के तप्पे निषाद स्थानीय बाजार में सब्जी की दुकान लगाते हैं। एक और निषाद जुखई उसी स्थानीय बाजार में हलवाई की दुकान चलाते हैं, एक नवयुवक मोबाइल सम्बन्धित दुकान में कार्य करता है। इसी तरह इस गाँव के निषादों ने कई अन्य तरह के व्यवसायों को अपना लिया है। गाँव के कुछ अन्य नवयुवक शहरों में छोटे-मोटे कार्यों की ठेकेदारी का भी कार्य करते हैं। इन सब कार्यों ने इस गाँव के निषादों की आर्थिक समृद्धि को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।13
राजनीतिक सबलीकरण
चुनाव आधारित लोकतंत्र में अपने संख्या बल के आधार पर इस गाँव के निषाद समुदाय ने राजनीतिक शक्ति हासिल की है। पंचायती राज प्रणाली के गठन के पश्चात अब तक ग्राम पंचायत के हुए चुनावों में निषादों ने एकछत्र अपना परचम लहराया है। इस गाँव में निषाद समुदाय की संख्या करीब 90 प्रतिशत होने के कारण किसी और समुदाय के प्रत्याशी का जीत पाना असंभव है। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था ने इस गाँव के निषादों को ताकत दी जिसकी बदौलत वे अपने ऊपर होने वाले अन्याय का सामना करते हैं। वे अपनी पहचान, अस्मिता तथा सम्मान की लड़ाई लड़ते हैं। चुनाव आधारित लोकतंत्र ने इस गाँव में कई चुनावी नेता पैदा किए हैं। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में निर्वाचित तीनों स्तर के प्रतिनिधि कभी-कभी इसी समुदाय से होते हैं। इस गाँव के निषादों ने लोकतंत्र के स्थानीय परिसर में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है।
सब्जियों से लहलहाते किनारे
शरद ऋतु की शुरुआत में यानी अक्टूबर बीतते बीतते सरयू सिमट रही होती है। तब इसके तट के ऊपर खाली हुई सैकड़ों एकड़ जमीन के ऊपर इस गाँव के निषाद समुदाय हरी सब्जियाँ, खीरा, ककड़ी, खरबूज तथा तरबूज की खेती करते हैं। थोड़ा तट से ऊपर वाली जमीन जहाँ नदी दूर-दूर से लाई गई गाद को जमा कर देती है, उस जमीन पर गेहूँ की जबरदस्त पैदावार होती है जो उन्हें साल भर के लिए गेहूँ उपलब्ध करा देती है। खेती करने में सम्पूर्ण परिवार के लोग शामिल होते हैं। नदी के मार्ग बदलने के कारण खेतों के निशान विलीन हो जाने के बाद निषाद लोग आपसी सहमति से पुनः यथास्थिति निर्धारित कर लेते हैं। यह यह भूमि अधिकारों का विवाद रहित अनोखा समझौता है। हालाँकि कुछ पैदावार जिनका पहले बहुत बड़ा बाजार होता था, अब उस बाजार के सिकुड़ने के कारण उनकी पैदावार बहुत कम हो गई है। जैसे पहले घाघरा के तटीय इलाकों में लाल मिर्च की खूब खेती होती थी। उसका बाजार पड़ोसी जिलों फैजाबाद, आजमगढ़, अम्बेडकर नगर आदि जिलों तक जाता था। उदारीकरण के पश्चात बाजार में कम्पनियों द्वारा बनाए गये अचार के आ जाने के कारण यह कारोबार प्रभावित होता गया। वर्तमान में कुछ गिने-चुने लोग ही लाल मिर्च की पैदावार करते हैं।
बालू पर हकदारी का सवाल
जहाँ नदी है, वहाँ बालू है और इस बालू को ले कर होने वाली राजनीति है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बालू निकालने का काम फायदेमंद साबित हुआ। इस पेशे पर दबंग समूह काबिज होने लगे। यू. पी. माइनर एंड मिनिरल (कंसेशंस रूल) 1963 के नियम 9 (2) के द्वारा बालू निकालने के लिए वरीयता अधिकार उन जातियों को मिले जो बालू निकालने के काम में सदियों से संलग्न थी। इस नियम में यह भी उल्लेख किया गया कि जिसे बालू निकालने की अनुमति दी जायेगी, उसकी वित्तीय स्थिति को देखा जायेगा, यही वह बिन्दु है जहाँ बालू खनन में माफ़िया लोग प्रवेश कर लेते हैं। ठेका निषाद के नाम पर होता है और पैसा माफ़िया का लगता है। इस गाँव में भी बालू खनन पर अधिकार को ले कर क्षेत्र के दबंग समूह और निषादों के बीच संघर्ष चल रहा है। दबंग समूह के लोगों ने बालू खनन पर पूरी तरह से कब्जा कर रखा है। इसमें पुलिस तथा जिला प्रशासन भी की मिलीभगत रहती है।"14 इस गाँव के निषादों ने कई बार बालू खनन पर अपनी हकदारी और मशीनों द्वारा बालू निकालने का विरोध किया। इस गाँव के निषाद पहले परम्परागत औजारों से बालू निकालते थे। नदी किनारे बसे निषादों को इससे रोजगार मिल जाता था लेकिन मशीनों ने इस व्यवस्था को खत्म कर के रोजगार कुछ ही हाथों में सीमित कर दिया। जब भी गाँव वाले बालू खनन को ले कर आंदोलित होते हैं तो पुलिस निषादों का ही दमन करती है। कई बार तो आंदोलन की अगुआई करने वालों को धमकाया जाता है। इस डर से कोई अगुआई करने के लिए भी तैयार नहीं होता है। कभी कभी दबंग समूह के लोग आंदोलन को तोड़ने के लिए फूट डालने का भी कार्य करते है। इस समस्या को ले कर निषादों ने मुख्यमंत्री को ज्ञापन भी देते रहते हैं। बालू के लोडर्स के कारण सड़कें खराब हो जाती हैं। मशीन से अत्यधिक खनन के कारण खेत नदी की धारा में विलीन हो जाते हैं। कई लोगों के घर तो दो बार धारा में विलीन हो चुके हैं। गाँव में बालू खनन पर अपनी हकदारी के लिए निषाद लगातार गोलबंद हो रहे हैं।
यह कहा जा सकता है कि निषादों का नदियों और जल से जो प्राचीन सम्बन्ध रहा है, उसमें उत्तरोत्तर परिवर्तन देखने को मिल रहा है। वह अपने पारम्परिक कार्यों की जगह अन्य व्यावसायिक गतिविधियों को तरजीह दे रहा है। उसका रहन-सहन और खान-पान का ढाँचा बदलाव की ओर अग्रसर है। मछली मार कर और नाव चला कर वह अपनी जीविका नहीं चला पा रहा है।
बालू खनन पर अपनी हकदारी के लिए वह आज भी संघर्ष कर रहा है। 1990 में अपनी पुस्तक 'गवर्निंग द कॉमन्स' में नोबेल पुरस्कार विजेता एलिनर ऑस्ट्रम ने अपने महत्त्वपूर्ण शोध में दिखाया कि कैसे सार्वजनिक सम्पत्ति को उपयोगकर्ता संघों द्वारा सफलतापूर्वक प्रबंधित किया जा सकता है। चूँकि नदी एक सार्वजनिक सम्पत्ति है और निषाद इसके उपयोगकर्ता इसलिए निषाद समुदाय नदी के संसाधनों को उपयोगकर्ता संघ बना कर उसका प्रबंधन कर सकते हैं।15 निषादों की पहली पीढ़ी विद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थानो में पहुँच रही है। स्थानीय स्तर पर मिली राजनीतिक सफलता को आधार बनाकर सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ने की लालसा उसके हृदय में बलवती होती जा रही है। निषाद बदलाव की दिशा में निरन्तर अग्रसर हैं। अब यह बदलाव कितना उनके पक्ष में है कितना विपक्ष में यह आने वाला वक़्त ही बताएगा।
सन्दर्भ :
1. अस्सा डोरोन (2008); रमा शंकर सिंह (2022).
2. एच. आर. नेविल (1909), पृष्ठ 13-14.
3. फील्ड डायरी, मार्च 2019.
4. प्राइमरी सेंसस एब्सट्रैक्ट सी. डी., ब्लाक वाइज उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गोरखपुर, 2011.
https://censusindia.gov.in/nada/index.php/catalog/40867
5. फील्ड डायरी, मार्च 2019.
6. एस. डेन शायर (2014), पृष्ठ 831-850.
7. उनका यह मत कुबेर नाथ राय के निबंध 'निषाद बांसुरी' से लिया गया लगता है।
8. फील्ड डायरी, 2019, निषाद समुदाय की राजनीतिक गोलबंदी का यह प्रयोग क्षेत्र रहा है। इसी क्षेत्र में निषाद पार्टी ने अपनी राजनीतिक जमीन सबसे पहले तलाशी। इस गोलबंदी में जिस तरह से इतिहास और स्मृतियों का प्रयोग किया गया उससे यह मत और मजबूत हुए हैं. इतिहास और स्मृति के अंतर्सम्बन्धों की विधिवत व्याख्या के लिए बद्री नारायण (2014) देखिए
9. विलियम क्रूक (1999), पृष्ठ 219-220; रमा शंकर सिंह (2022).
10. फील्ड डायरी, मार्च 2019.
11. कन्नड़ साहित्यकार और इतिहासकार डी. आर. नागराज ने 'टेक्नोसाइड समुदाय' की अवधारणा प्रस्तुत की है। इसमें उन्होंने माना है कि आधुनिकता और तकनीकी ने उन समुदायों का नुकसान किया है जिनका जीवन शिल्पों पर आधारित रहा है इसके बारे में और विस्तार से जानकारी के लिए देंखे, डी. आर. नागराज (2018), पृष्ठ 179-181.
12. गोविंद निषाद (2023).
13. फील्ड डायरी, 2019.
14. रमाशंकर सिंह (2017), पृष्ठ 275.
15. एलिनर ऑस्ट्रम (1990)
अच्छा आलेख। बिना किसी पूर्वाग्रह के। एक बात, आजकल हाथ से डाले गए अचार की मांग बढ़ रही है और शायद ग्रामोद्योग विभाग इसमें सहायता भी कर रहा है तो क्या मिर्च की खेती और प्रसंस्करण भी उपयोगकर्ता संघों या उत्पादक कंपनी बनाकर नहीं क्या जा सकता।
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