हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख 'हसन निजामी'
विद्वानों को शासकों द्वारा संरक्षण प्रदान किए जाने की परम्परा पुरानी है। ये विद्वान अपनी लिखत पढ़त के जरिए अपने शासक की छवि को उभारने का काम तो करते ही थे, वक्त जरूरत पर उपयुक्त सलाह भी दिया करते थे। सुल्तनत काल (1206-1526 ई.) में भी यह परम्परा अबाध तरीके से चलती रही। सुल्तनत काल की शुरुआत कुतुबुद्दीन ऐबक की ताजपोशी से होती है। यह मामलूक वंश का संस्थापक था जिसे हम आमतौर पर गुलाम वंश के नाम से भी जानते हैं। कुतुबुद्दीन ऐबक ने जिस विद्वान को संरक्षण प्रदान किया वह हसन निजामी था जिसने 'ताजुल मासिर' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा जिससे इस समय के बारे में कई जानकारियां प्राप्त होती हैं। "ताज-उल-मासीर" को दिल्ली सल्तनत का पहला आधिकारिक इतिहास भी माना जाता है। हसन निजामी ने अपने इस ग्रन्थ को फारसी में लिखा। इस ग्रन्थ को भारत में लिखे गए शुरुआती ऐतिहासिक साहित्य में से एक होने का भी श्रेय प्राप्त है। इसमें 1192 ई. से 1228 ई. के बीच उत्तर भारत में हुई राजनीतिक घटनाओं का विवरण दिया गया है। इस ग्रन्थ के बारे में प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी लिखते हैं 'हसन निज़ामी ने अलंकरण-पूर्ण शैली में ताजुल मासिर की रचना की है। वह अतिशयोक्तिपूर्ण भाषा के प्रयोग का भी दोषी है, किन्तु उसके शब्दों का प्रवाह अविरल है। हालांकि, शब्दाडम्बरपूर्ण भाषा के प्रयोग एवं विभिन्न साहित्यिक शैलियों के प्रयोग के चलते उसकी कृति में दिए गए विवरणों का प्रभाव कुछ कमतर हो जाता है। उसकी भाषा-शैली के चलते उसकी यह कृति साहित्यिक अधिक प्रतीत होती है उसकी ऐतिहासिकता इसकी तुलना में कम प्रतीत होती है। वह ऐसे पद्यों का प्रयोग करता है जो बहुत ही साधारण स्तर के हैं। वह फारसी का एक बहुत अच्छा गद्य लेखक था किन्तु, अच्छे कवि की संवेदनशीलता का उसमें निश्चित रूप से अभाव था और, यहाँ उसकी यही कमी हमें खटकती है।' यह आलेख सरस्वती पत्रिका के अक्टूबर-दिसम्बर, 2022 अंक से साभार लिया गया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हेरम्ब चतुर्वेदी का ऐतिहासिक आलेख 'हसन निजामी'।
'हसन निजामी'
हेरम्ब चतुर्वेदी
सद्रुद्दीन मुहम्मद बिन हसन निजामी का जन्म निशापुर (खुरासान) में हुआ था। मंगोल-विभीषिका के चलते वह अपनी मातृभूमि छोडने के लिए विवश हुआ था तथा अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए गज़नी के मार्ग से भारत आया और यहाँ नए स्थापित हो रहे तुर्की सुल्तनत में उसे सुकून और सुरक्षा का एहसास हुआ। यहां उसे तुर्की मुख्यालय इन्द्रप्रस्थ (जिसे वे लोग इन्दर्पत लिखते हैं) के मुख्य काज़ी शर्फ़-उल-मुल्क ने आश्रय प्रदान किया।
सद्रुद्दीन के जीवन के विषय में किसी भी समकालीन अथवा बाद के ग्रन्थ में कोई उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु जो भी जानकारी हमें हसन निज़ामी के विषय में मिलती है, वह उसके ही ग्रन्थ से मिलती है। उसके अनुसार उसका जन्म गौर के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था जो अपनी विद्वता के लिए आदर का पात्र था। उसके एक पूर्वज, आरूजी ने प्रसिद्ध 'मकाला' की रचना की थी और वह उमर खय्याम का मित्र था। इसीलिए वह अपने-आप को इसी विरासत के चलते स्वाभिमान से देखता था और मानता था कि उसके साथ उसकी योग्यता के अनुरूप न्याय नहीं हुआ है। वह ख्वारिज़्म तथा गौर शासकों के मध्य के निरंतर संघर्ष और मंगोल संकट के चलते निशापुर छोड़ने को बाध्य हो गया था।
वस्तुतः दिल्ली सुल्तनत के इस प्रथम इतिहास लेखक के विषय में जो कुछ भी हमें ज्ञात होता है वह उसी की कृति से ही होता है। उसका परिवार गौर साम्राज्य में विद्वानों का एक प्रतिष्ठित परिवार था। उसे जीवन भर एक शिकायत रही थी कि, उसकी विद्वता का सही आंकलन और उसके अनुरूप पद-प्रतिष्ठा नहीं मिली। अतः उसके लेखन अथवा रचना में इस असंतोष की अंतर्धारा निश्चित ही दृष्टिगोचर होती है। वस्तुतः उसके बौद्धिक प्रश्रयदाता, मुहम्मद कूफ़ी ने उसे ग़जनी जाने की सलाह दी। गजनी में शेख मुहम्मद शिराज़ी तथा वहाँ के सद्र (धर्माधिकारी), मज्द-उल-मुल्क आदि ने उसका स्वागत किया। वहीं से अपने कुछ नए बने मित्रों के साथ और उनके कहने पर वह इन्द्रप्रस्थ या दिल्ली आ गया। दिल्ली में भी प्रमुख सद्र, शर्फ़-उल-मुल्क ने उसका इस्तकबाल किया!
उसके दिल्ली पहुँचने के कुछ समय बाद ही कुतुबुद्दीन ऐबक ने सत्ता सम्हाली और, नई स्थापित हो रही सुल्तनत के सभी विद्वानों-लेखकों को अपने स्वामी, सुल्तान मुइज़्जुद्दिन मुहम्मद बिन साम के वैभव, उपलब्धियों और विजयों का विवरण प्रस्तुत करने का आमंत्रण दिया, ताकि वह अपने स्वामी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के साथ ही उनके प्रति अपना आभार प्रकट कर सके! हसन निज़ामी के मित्रों ने उसे भी इस दायित्व के निर्वहन के लिए अपना योगदान देने के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार, 'ताजुलमासिर' की रचना संभव हुई थी!
हालांकि, निजामी ने अपनी कृति, 'ताजुल मासिर' की शुरुआत 587 हि./1191 ई के तरायण के युद्ध से की हो किन्तु लेखन कार्य उसने निश्चित ही मुइज़्जुद्दिन की हत्या (1206) के उपरान्त ही प्रारम्भ किया। उसकी कृति की प्राप्य अनेक पांडुलिपियों में उसका विवरण 1217 ई. में उस घटना के साथ समाप्त होता है. जब इल्तुतमिश ने अपने पुत्र नासिरुद्दीन महमूद को लाहौर का गवर्नर या इक्तादार नियुक्त किया था। इसकी पुष्टि फैजुल्लाह एफेंदी के पुस्तकालय में इसकी सबसे पुरानी प्राप्य हस्तलिखित पाण्डुलिपि से होती है। सर हेनरी इलियट के मतानुसार, नवाब जियाउद्दीन के पुस्तकालय में उपलब्ध पाण्डुलिपि 626 हि/1229 ई. तक का वर्णन देती है।
वस्तुतः, इस कृति का सर्वप्रथम उपयोग आधुनिक काल में जर्मन विद्वान हैमर पर्गस्टॉल ने किया था। उस विद्वान ने जर्मन शोध-पत्रिका 'जर्मलडेसालडेरले बेन्स नौसरमोस्लेममिशरहरशर' के खंड IV (पृष्ठ 172-182) में ताजुलमासिर का अनुवाद प्रकाशित किया था। इसके पश्चात डब्ल्यू. एन. लीस ने इस कृति का उल्लेख 'मैटीरियल्स फॉर द हिस्ट्री ऑफ इंडिया' शीर्षक वाले अपने लेख में किया है जो 'जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी' के 1868 के अंक में (पृष्ठ 433-438) में प्रकाशित हुआ था। अंततः सर हेनरी इलियट ने 'ताजुल मासिर' के कुछ अंशों का अंग्रेज़ी अनुवाद अपनी 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया ऐज़ टोल्ड बाई इट्स ओन हिस्टोरियंस' में कर के इसको व्यापक पाठकों के बीच में प्रसारित कर दिया। भारतीय लेखकों-विद्वानों में से डॉ. डब्ल्यू. एच. अंदलीबशादानी (प्रोसीडिंग्स ऑफ़ द इदारा-ए-मारिफ-ए-इस्लामिया'; लाहौर अधिवेशन, 1936; पृष्ठ 69-87) तथा प्रोफेसर हसन अस्करी (पटना यूनिवर्सिटी जर्नल, (आर्ट्स) 18, सं. 3, 1963; पृष्ठ 49-127) ने इसका सविस्तार उपयोग किया है।
जैसा हमने कहा है उसने इस कृति की रचना मुइज़्जुद्दिन की हत्या के पश्चात ही शुरू होगी किन्तु वह अपनी कृति में विवरणों की शुरुआत 1191 ई. के तरायण के युद्ध से करता है। किन्तु, ऐबक की दुर्घटना में हुई मृत्यु से वह हतोसाहित हुआ और अपना कार्य बंद करने के विषय में सोचा। इसके भी साक्ष्य उसी कृति में मिलते हैं। प्रथम, इसीलिए इसमें किसी के प्रति कोई समर्पण नहीं मिलता, द्वितीय, इसका कोई सुनिश्चित शीर्षक भी पूर्वनिर्धारित नहीं हो पाया था; तृतीय, इसमें ऐबक तथा इल्तुतमिश के मध्य आराम शाह के प्रकरण का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
इतना ही नहीं, इल्तुतमिश द्वारा लाहौर के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाया जाना भी हसन निज़ामी को बहुत रास नहीं आया था। खलिक अहमद निज़ामी के मतानुसार, 'लाहौर गजनी के अधिक नज़दीक था, अतः उसे पसंद था जबकि उसे दिल्ली भारतीयता के तत्वों से ओत-प्रोत और स्थानीय परम्पराओं को आत्मसात किये हुए लगती थी?" वह इल्तुतमिश की उपलब्धियों का सही बखान भी नहीं करता है और, खासतौर से मंगोलों के सिंध के उस पार और उनके आगमन के प्रभाव पर कोई प्रकाश नहीं डालता है। इसीलिए प्रोफेसर निज़ामी अपने ग्रन्थ, 'ऑन हिस्ट्री एंड हिस्टोरियंस ऑफ मेडिवल इंडिया' में तो यहाँ तक कहते हैंः 'हसन ने चूंकि, प्रारम्भ में ही मुइज़्जुद्दिन एवं ऐबक की सैन्य-विजयों, भारत में तुर्क सुल्तनत की स्थापना तथा इन दोनों की उपलब्धियों के विषय में ही लिखने का मन बनाया था अतः भारत में प्रारम्भिक तुर्की शासन तक के विवरण में उसका लेखन सोद्देश्य है........। इल्तुतमिश का योगदान प्रशासनिक अधिक रहा किन्तु, यह उसका ध्यानाकर्षण और लेखन के केंद्र-बिंदु नहीं होने के कारण वह इल्तुतमिश की उपलब्धियों के प्रति न्याय करने में चूक जाता है!' (देखें, पृष्ठ 56; अनुवाद इन पंक्तियों के लेखक का अपना है।)
इसीलिए वह अपने विवरण में उन सैन्य, सामंतीय, राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक तत्वों की अंतर्क्रियाओं को विश्लेषित न करके बस सीधे-सीधे सैन्य उपलब्धियों और योगदान तक ही अपने को सीमित रखता है। अतः उसका परिप्रेक्ष्य सीमित और संकुचित हो कर हमें एक वृहद् ओर पूर्ण चित्रण से वंचित करता है कि, नवीन राज्य की स्थापना के आधारभूत कारक तत्व और पुरातन व्यवस्था के पतन के क्या कारण थे? यदि वह इस सन्दर्भ में इल्तुतमिश की उपलब्धियों का आंकलन करता तब, हम दिल्ली सुल्तनत की स्थापना की वास्तविक प्रक्रिया एवं इल्तुतमिश के योगदान के विषय में सटीक जानकारी पा जाते। इस काल का इतिहास इसीलिए अधिक महत्वपूर्ण था और, यहीं हसन निज़ामी चूक जाता है अन्यथा उसका ग्रन्थ अमूल्य होता, न कि सिर्फ बहुमूल्य, जैसा कि वह सैन्य उपलब्धियों के संकुचित दृष्टिकोण के चलते रह गया!
इस दृष्टिकोण से भारत के दुर्गों के विवरण उसने सविस्तार दिए हैं। वह मेरठ के दुर्ग को देश के प्रसिद्ध दुर्गों में से एक मानता है तथा उसकी नींव की सुदृढ़ता और संरचना की प्रशंसा करता है। उसके अनुसार उसके चारों ओर खोदी गयी खाई को बहुत गहरी और चौड़ी बताता है। कोल या अलीगढ़ के किले की भी वह इसी प्रकार भूरि-भूरि प्रशंसा करता है। ग्वालियर के दुर्ग के संदर्भ में वह 'उसे हिन्द के दुर्गों के हार (श्रृंखला) का चमकीला मोती घोषित करता है। उसके मतानुसार न नींव की हवा बुर्जी तक और न ही बादलों का प्रभाव नींव तक पहुँच सकता है।' (इलियट एंड डाउसन, II, पृष्ठ. 216-227) इसी प्रकार, वह कालिंजर के किले को विश्व-प्रसिद्ध सिकंदर की दीवार घोषित करता है। वस्तुतः ऐबक की सैन्य-विजयों का सही मूल्यांकन भारतीय रक्षा और दुर्ग की सुरक्षा के उपायों के सन्दर्भ में ही हो सकता है। मिन्हाज ने ये सूचनाएं नहीं दी हैं अतः हसन निज़ामी का महत्व है। अकेले निज़ामी ही बताता है कि कैसे अन्हिल्वारा के भीम देव ने लगभग तुर्की सेनाओं को परास्त कर दिया था और, अगर मुइज़्जुद्दीन ने सहायता न भेजी होती तो तुर्की सेना की पराजय सुनिश्चित थी।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य जो हमें निज़ामी के विवरणों से प्राप्त होता है वह है कि, युद्ध में पराजय के तुरंत पश्चात राजपूत राज्यों का पतन नहीं हुआ था। वह बताता ही कि कैसे अजमेर के चौहान राजा को षड्यंत्र में शामिल होने पर ही मृत्यु-दंड दिया गया था अन्यथा उसे अजमेर का शासन पराजय के बाद भी प्रदान कर दिया गया था। और, अंततः कैसे राय पिथौरा के पुत्र को यह दायित्व सौंपा गया था। निज़ामी इसी प्रकार, भारत के सामाजिक जीवन एवं संस्कृति की भी कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं देता है। वह प्रयुक्त अस्त्र-शस्त्रों के साथ आभूषणों, कीमती रत्नों, फूल-पौधों, पेड़ों, फलों, पक्षियों, पशुओं तथा संगीत वाद्यों का भी वर्णन करता है। जो सूची इसमें मिलती है वह बाद के लेखकों द्वारा दिए गए वर्णनों से तुलना किये जाने पर इसके महत्व को दर्शाता है।
हसन निज़ामी ने अलंकरण-पूर्ण शैली में ताजुल मासिर की रचना की है। वह अतिशयोक्तिपूर्ण भाषा के प्रयोग का भी दोषी है, किन्तु उसके शब्दों का प्रवाह अविरल है। हालांकि, शब्दाडम्बरपूर्ण भाषा के प्रयोग एवं विभिन्न साहित्यिक शैलियों के प्रयोग के चलते उसकी कृति में दिए गए विवरणों का प्रभाव कुछ कमतर हो जाता है। उसकी भाषा-शैली के चलते उसकी यह कृति साहित्यिक अधिक प्रतीत होती है उसकी ऐतिहासिकता इसकी तुलना में कम प्रतीत होती है। वह ऐसे पद्यों का प्रयोग करता है जो बहुत ही साधारण स्तर के हैं। वह फारसी का एक बहुत अच्छा गद्य लेखक था किन्तु, अच्छे कवि की संवेदनशीलता का उसमें निश्चित रूप से अभाव था और, यहाँ उसकी यही कमी हमें खटकती है।
डॉ. यू. एन. डे के मतानुसार भले ही 'ताजुल मासिर' में ऐतिहसिक तथ्यों की बहुतायत नहीं है फिर भी, जितने कम साक्ष्य हैं, वे सब ही प्रमाणित तथा विश्वसनीय हैं। (देखें, 'गवर्नमेंट ऑफ़ द सुल्तनत', दिल्ली, 1972; पृष्ठ. 201) इसी प्रकार, के भाव की अभिव्यक्ति ए. बी. एम. हबीबुल्लाह भी अपने ग्रन्थ में करते हैं। वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि इसकी प्रति जो इंडिया ऑफिस, लन्दन के पुस्तकालय में संरक्षित है वही पूर्ण और प्रमाणिक है। (देखें, 'फाउंडेशन ऑफ द मुस्लिम रूल इन इंडिया', इलाहाबाद, 1961; पृष्ठ. 71) के. एम. अशरफ इसकी कमियों को इंगित करते हुए भी हसन निज़ामी के 'ताजुल मासिर' की प्रशंसा इसलिए करते हैं कि, यह ग्रन्थ अनेक स्थानों पर यहाँ के तीज-त्योहारों, मनोरंजन के साधनों आदि के उल्लेख के साथ सामान्य प्रशासन की भावना को भी रेखांकित करता है। (देखें, 'लाइफ एंड कंडीशंस ऑफ द पीपूल ऑफ हिंदुस्तान, नयी दिल्ली, 1970; पृष्ठ 91) दिल्ली सुल्तनत का आधुनिक विदेशी इतिहासकार, पीटर जैक्सन, प्रारम्भिक तुर्क काल के इतिहास के लिए 'ताजुल मासिर' को 'निसंदेह ऐतिहासिक महत्त्व की कृति' के रूप में स्वीकार करते हुए, उसके 'फतेहनामा' पर आधारित होने की बात की ओर ध्यानाकर्षण करता है। उसके अनुसार उत्तर भारत में तुर्की राज्य की बुनियाद जिन सैन्य-विजयों के फलस्वरूप पड़ी, उनके फ़तेहनामा या विजय-सन्देश के रूप में ऐबक अपने स्वामी मुइज़्ज़ुद्दीन को प्रेषित करता था। पीटर जैक्सन लगभग के. ए. निज़ामी के कथन की पुष्टि करता है कि इन्हीं 'फतेहनामा' को आधार बना कर इस कृति की रचना हुई थी। (देखें, 'द देलही सुल्तनत : ए पोलिटिकल एंड मिलिट्री हिस्ट्री, कैम्ब्रिज, 1999; पृष्ठ, 71)
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ई.मेलः heramb.chaturvedi@gmail.com
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