आशुतोष प्रसिद्ध की डायरी के अंश


आशुतोष प्रसिद्ध 



विचारों और संवेदनाओं का घनीभूत रूप होती है कवि की डायरी। हालांकि कवि के डायरी में अंकित ये विचार उसके अपने यानी व्यक्तिगत होते हैं। लेकिन उसकी इन अनुभूतियों में बहुत कुछ ऐसा होता है जो पाठक की अनुभूतियों से मिलता जुलता महसूस होता है। कविता न होते हुए भी कवि की डायरी कविता सरीखी लगती है। इसका मिजाज तो गद्य का होता है लेकिन स्वभाव पद्य का आवेग लिए होता है। युवा कवि आशुतोष प्रसिद्ध ने उम्दा कविताएं तो लिखी ही हैं उनका डायरी लेखन भी उम्दा है। इसे पढ़ते हुए हम अन्दर तक सिहरते हैं। बहुत कुछ सोचने के लिए बाध्य होते हैं और कई जगह तो चकित भी होते हैं, कि विचार इस तरह भी व्यक्त किए जा सकते हैं। पहली बार पर हम आशुतोष की कविताएं पढ़ चुके हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं आशुतोष प्रसिद्ध की डायरी के अंश।

 


आशुतोष प्रसिद्ध की डायरी के अंश



दूध गर्म करने के बहाने से 


गैस चूल्हे पर दूध चढ़ाया है। वो अभी ताप ले रहा है पर मन उबल रहा है। मन को स्थिर करने के लिए पैरों को अस्थिर करना पड़ रहा है। आठ बाई आठ के किचन में तीस चक्कर लगा चुका हूँ, सम्भवतः पचास और लगाऊंगा या साठ या सत्तर पता नहीं.. 


स्मृतियों से मन इस कदर कसा हुआ है कि समझ नहीं आ रहा दिमाग में चल क्या रहा है। सुलझा कर जेब में रखे इयरफोन की तरह मन को जब भी पकड़ता हूँ, उलझा ही मिलता है। जिस भी ओर से उसकी जकड़न खोलना चाह रहा हूँ गाँठ पड़ जा रही है, एक खोलने का प्रयास करता हूँ तो दूसरी पड़ जाती है। मन के पास मन का कोई जवाब नहीं। मन उकता गया है। मन को भरमाते भरमाते मैं भी। बार बार मन में एक सवाल कौंधता है कि आख़िर कब तक भरमाया जा सकता है मन को? अधिकतम उम्र क्या है? क्या मौत तक मन को भरमा कर ख़ुश रहा जा सकता है? अगर ऐसा हो सकता है तो अपनी ख़ुशी की मौत क्यूँ नहीं मरता कोई? और मरने के कुछ क्षण पहले तक उसमें फिर से जी लेने की इच्छा ख़त्म क्यूँ नहीं होती है? यह इच्छा जैसी भावना आती कहाँ से है? कितनी इच्छाओं के टूटने के बाद नयी इच्छा का जन्म होना रुक जाता है? अच्छा! इच्छा का ख़त्म होना मर जाना नहीं है ? इसी से चिपका हुआ एक सवाल और चला आया है कि कितनी पुकार के बाद आवाज़ देने वाला चुप हो जाता है? 


बीतते कुछ दिनों से मेरे मस्तिष्क में एक बात बार बार आती रही है कि इस पृथ्वी पर आत्महत्या सबसे पहले किसने की होगी? यह आत्महत्या शब्द कहीं मन की हत्या का ही प्रयाय तो नहीं! मन का मरना भी तो मरना ही है। मुझे तो यही लगता है, मैं जितनी बार कुछ सोचता हूँ नहीं कर पाता, कहीं जाना चाहता हूँ और सफ़र की आख़िरी वक़्त में पता चलता है कि अभी नहीं जा सकता, कुछ कहना चाहता हूँ, पर सामने वाले कि मनोदशा उस अनुकूल न पा कर या अपेक्षित जवाब न पा कर नहीं कहता, तब तब लगता है मैं मर गया हूँ। मरने और मृत मन के अंतिम संस्कार की सारी प्रक्रिया मेरे भीतर इतनी धीमी गति से होती है कि जब 13 दिन गुजरता है तो लगता है नया जन्म हुआ। हद यह है कि नए जन्म में मैं पुरानी स्मृति ले कर पैदा हो जाता हूँ। और फिर उसी में उलझा रहता हूँ। 


रुकिए जरा दूध देख लेता हूँ। उफ़्फ़..ये तो अभी ठीक से गर्म भी नहीं हुआ ..।


अभी और चलना पड़ेगा। बेमन ही सही मगर चलना पड़ेगा जैसे ज़िन्दगी में चल रहा। चल रहा क्योंकि रुक जाने पर रौंद दिया जाऊँगा या उन सभी के द्वारा त्याग दिया जाऊँगा जो कहते हैं मैं तुमसे बहुत लगाव रखता हूँ। सच तो यह है कि लोग आपकी गति से लगाव रखते हैं, आपकी गति में अपनी गति खोजते रहते हैं और कभी कभी तो साथ गति मिला भी लेते हैं नहीं तो  आपको लंगी लगा कर आपकी गति अपने बराबर कर लेते हैं। 


यह अपने को खो देने का डर है या कुछ और समझ नहीं आ रहा..


कभी कभी मन कहता है बाइक निकालूं और वहाँ तक जाऊं जहाँ तक फुल टैंक में जा सकता हूँ। या किसी अजनबी का हाथ पकड़ के कहूँ मुझे कहीं ले चलो, मैं एक लंबी यात्रा पर जाना चाहता हूँ। लेकिन अकेले नहीं। उसके साथ जिसको मन अपना कहता है। बीतते समय के साथ मन अपने प्रति उदासीन हो गया है, जिन जिन चीजों का शौक था मरते जा रहे हैं, हर चीज़ से मोह भंग सा हो गया है, अब लगता है परिवार हो मेरा, मेरा कोना हो बस.. मुझे पेड़, पानी, पक्षी, पहाड़ और प्रेमिका चाहिए। मैं इन्हीं में जिंदा महसूस पाता हूँ ख़ुद को। 27 की उम्र में 7 शहर भी नहीं जा पाया हूँ प्लानिंग ख़ूब करता हूँ पर जा नहीं पाता। अब डर लगता है यूँ ही किसी दिन कोई उपन्यास कोई कहानी पढ़ कर उठूँगा और वो आ कर कहेगी, जन्म दिन मुबारक आप 57 के हो गए। और मैं फिर मर जाऊँगा 13 दिन के लिए। 


अरे बाप रे.. दूध बह गया... फू.. फू.. फू.. हो गया घण्टे भर का बवाल ..साफ सफाई नहाना..।


यहीं अभी पापा होते तो कहते इसीलिए कहता हूँ दूध गर्म करते हुए उसे चलाते रहा करो उसकी तासीर ठंड होती है, उसे चलायमान न रखो तो ऊपर भागता है सीधे, चलाते रहो तब नहीं बहेगा। कभी कभी मन करता है पापा की यही बात कोई मुझसे कहे और मुझे जबरन ले जाए कहीं.. जहाँ आठ बाई आठ से ज़्यादा चलना पड़े, जहाँ बहने का कारण ताप नहीं.. नमी हो..।





बे-कायदे की बात कुछ कायदे से 


कल का बुखार आज बासी हो गया है। कल दिन में घण्टों दवा के बोझ में अर्धनिद्रा में था। तो रात बमुश्किल नींद आयी थी। लगभग सुबह के पहर। जैसे नींद के द्वार तक गया लगा कोई पहरा दे रहा है। मैं बाहर खड़ा भीतर ताकने की कोशिश करता रहा। नींद की खोज में नींद नहीं सपने आए। सपने में दो साँढ़ आपस में भयंकर लड़ रहे थे। मैं उन्हें छुड़ाने के प्रयास कर रहा हूँ। एक काला है एक सफेद। कभी एक भारी पड़ता है कभी दूसरा। घर के सारे कुत्ते आस-पास भौंक रहें हैं। साँढ़ के खुरों से धूल ही धूल उड़ रही थी। मेरा हृदय एकदम डरा हुआ था। गला सूख रहा था कहीं कोई मर न जाए। किसी-किसी क्षण तो लगता अभी मेरे ऊपर ही आ जाएंगे। कुत्ते जब ज्यादा परेशान करने लगते तो वो भागते और जहाँ रुक पाते वहीं फिर लड़ने लगते। ऐसा पहली बार हुआ। जब मैं सपने में साँढों की ऐसी लड़ाई देख रहा था। नेपथ्य में तुम कहीं के लिए तैयार हो रही थी। मुझे बार-बार पुकार रही थी चलो अब बहुत देर हो गयी है, पहले ही.. उन्हें लड़ने दो। छोड़ देंगे थोड़ी देर में। मैं जैसे हटने का सोचता यह और भयंकर होने लगता। अन्ततः बड़ी दीदी आईं मुझे खींच कर ले गईं चलो यहाँ से नहीं तो इनकी लड़ाई में चोट तुम्हें लगेगी। उनके खींचने से नींद खुली। नींद खुलने के पहले मैं देख चुका था कि मेरे पैंट और जूतों पर धूल हो गई है, उसे साफ करने मैं नल की तरफ जा रहा हूँ, सारे कुत्ते मेरे पीछे पीछे लौट आएं हैं। मेरी घबराहट अभी भी कम न हुई है। उठ गया। नींद के द्वार नहीं खुले मेरे लिए। बाहर खड़े-खड़े जो देखा उससे और ही घबराहट हो गयी। अब अंदर जाना ही नहीं था। उठ गया। 


सुबह उठते ही नहाया पहले। मन भर। सपने की घबराहट मिटा रहा था। दो गमले गिर कर टूट गए थे उनके पौधों को नए गमले में किया। फिर लगभग घण्टे भर विद्यापति पदावली पढ़ा। कुछ और उनके बारे में खोजबीन की। खाना बनाया। दवा खाई। घर फोन किया। मम्मी ठीक थी। तुम्हारे फोन का इंतज़ार किया। एक लोग कुछ किताब ले गए दोपहर में कुल 6 किताब, विनोद कुमार शुक्ल की। कुछ और पन्ने पलटे। कुछ नया नहीं पढ़ा। शुक्ल जी से शुक्ल जी था ही था। कविता वाले से इतिहास वाले शुक्ल तक। यहाँ भी सवर्ण हावी हैं। 


कुछ बात करने का मन था पर कह नहीं पाया। आज सोच रहा था.. व्यस्तता और कठिन दौर में कम समय में हम जितनी बात कर पाते हैं, कह पाते हैं, पूछ पाते हैं दर'असल वही मुख्य बात होती है, और सब भूमिकाएं हैं।


कई महत्वपूर्ण के बीच भी एक अति महत्वपूर्ण होता है। 


****


दिन इन दिनों दोपहर सा होता है। रात पता नहीं कैसी। सब तरफ जैसे रूखापन। यह मौसम के लिए ही रूखा नहीं है रिश्ते के लिए भी है। 


***


शाम मुझे खा गई थी। रात मुझे उसके पेट से निकाल कर लायी। अच्छी बात है कि शाम के जबड़े में दाँत नहीं हैं। मसूड़े से चबाने के प्रयास में थोड़े बहुत निशान पड़े हैं देह पर, अब रात उसे सहला कर ठीक कर देगी। 


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मम्मी से बात कर रहा था। एकादशी व्रत थी। ख़ूब ख़ुश थीं। उन्हें मेरी शादी का इंतज़ार है। बहुत कुछ कहते कहते कह गयीं। जो मैं सोचता था, उन्हें न कहना पड़ता, मेरे जीते जी वही सब। माएँ बच्चों को हमेशा बच्चा ही समझती है। उस पीढ़ी के पास जो भोलापन सच्चापन है यह पीढ़ी कई जन्म नहीं पाएगी अब। 


*****


परिवार के हर सदस्य से बात हुई। जो जहाँ हैं स्वस्थ है। मैं भी। मैं ख़ूब मजे में हूँ। ख़ूब हँस रहा हूँ। इतना कि आसपास लोग परेशान हैं।  


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शाम यूँ ही टहलने निकला था पैदल ही। आस-पास रंग ही रंग है। खिलौने ही खिलौने। अब कोई आकर्षण नहीं रहा। बचपन में न पाने की टीस होती है, पर अब उसका कोई अर्थ नहीं महसूस होता। नज़र उठा कर देखने का भी मन नहीं होता। पानी भी प्यास लगने पर स्वादिष्ट लगता है, बाद में बेस्वाद। यह जीवन की बात है। इच्छा की बात है। सब ढल जाएगा। 


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महीनों बाद आज मोगरे की माला दिखी थी मंदिर के बाहर। मन हुआ तुरंत ले लूँ। फिर सूखे फूलों की याद आ गई। हाथ जेब में डाल कर सीधे लौट आया। 


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तुम्हें मेरी आवाज़ आ रही है..? मैं तुम्हें पुकार रहा हूँ। 


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शर्म और औपचारिक दुनिया का अंत कब होगा। कब लोग जान पाएंगे कि हम मूलतः नग्न हैं। हमने प्रकृति का दोहन कर अपना तन ढंक लिया। वह भी पाप ही है। 


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बौद्ध भिक्षुओं का अनशन चल रहा है। वह बौद्ध मठों से हिन्दू अधिकार हटाना चाहते हैं। मठों के मुख्य के रूप में बौद्ध ही चाहते हैं। उनकी माँग जायज है। इस देश में सबसे ज्यादा प्रताड़ना शूद्रों, ब्राह्मणो और बौद्धों का ही हुआ है। इनकी जमीन हड़प ली गयी। ये बेजमीन हैं। ये बस जीवन तलाशते जी रहे हैं। इस समय भी ठाकुरों और लालाओं का राज है। देश की आज़ादी से अब तक यह जो दिख रहा है यह लोकतंत्र नहीं है। सॉफ्ट राजतंत्र है। 


ख़ैर! मैं नहीं बोलना चाहता इस मुद्दे पर।


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तुम मुझे कोई चिट्ठी क्यूँ नहीं लिखती। मुझसे पूछो मैं कैसे हूँ। मै झूठ बोलना चाहता हूँ। 


― 10 मार्च 2025 / 9 बजे शाम





होने और न होने के बीच की याद 


बहुत कुछ पूरा होता है तब भी बहुत कुछ अधूरा रह जाता है। कई बरस पहले ही किसी कविता में कहा था 'नमी जब ज्यादा हो तो बीज उगते नहीं हैं सड़ जाते हैं' उसे फिर फिर महसूसने का दिन रहा। पिछले 24 घण्टों में कई बार डायरी खोले बैठा। बैठा ही रहा। एक शब्द नहीं लिख पाया। आत्माख्यान, आत्मलीन और आत्मरत हो कर नहीं लिखा जा सकता। अपने से अलग होना पड़ता है। नहीं लिख पाया। एक शब्द भी नहीं। एक ख़ालिस डॉट या पूर्णविराम भी नहीं। कागज कोरा का कोरा रहा। हाँ, दो चार बूंद आँसू जरूर गिरे। फिर उस पर कुछ लिखा नहीं। तारीख़ डाल दिया अभी। और पन्ना बदल दिया। कोई कभी पढ़ पाया तो वही जान पाएगा वह जो उस पर सम्भावित था लिखा जाना। शायद नहीं जान पाएगा। नहीं जान पाएगा तो मेरा ही फायदा है। यूँ भी तो मेरा मन सबका मन रखने के लिए बना है। मेरा मन कहीं कोने में रख दिया गया था बरसों पहले। कौन जतन करेगा उसे उठा कर झाड़ पोंछ कर देखने की। मैं खुद भी नहीं करता। 


अपने हाथ से बिछाए फूल अपने ही हाथ से समेटे। समेटते हुए वह मखमली नहीं लग रहे थे। कँटीले भी नहीं थे। सब वैसे का वैसे रख दिया। बिल्कुल यंत्रवत रहा। कपड़े निकाले सिरहाने रखी कुर्सी पर रख दिया। बिल्कुल निर्वस्त्र हो खड़ा था अपने सम्मुख और पूछ रहा था ख़ुद से क्या है तुममें ऐसा जो तुम्हें कोई छुए? क्यूँ किसी के होंठ तुम्हारे पास आ कर कहेंगे कि वह इस देह पर एकाधिकार चाहता है? क्यूँ कोई तुम्हारे देह को नापेगा अपनी बिल्कुल नयी आँखों से, जबकि उस पर चिपकी हैं इतनी आँखे? कौन हो तुम? तुम्हारी कोई औकात नहीं। अगर तुमसे कोई प्रेम नहीं करता तो तुम अब तक निरर्थक और बिल्कुल निरुद्देश्य सा जीवन जीते। वैसे ही लेट गया। उन स्पर्शों को महसूता रहा जो मैं देना चाहता था। पाना चाहता है। हम अजीब पीढ़ी हैं हमें जहाँ नग्नता को समारोह की तरह जीना चाहिए वहाँ हमें संस्कार घेर लेते हैं और जहाँ संस्कार का समारोह चाहिए वहाँ हम बिल्कुल नग्न हो जाते हैं। हम अपने आप से ज्यादा लोगों के लिए जीने लगते हैं और भूल जाते हैं लोग तुम्हारे सामने नग्न खड़े हैं कि तुम उनकी नग्नता पर मोहित हो जाओ। वो भूले हुए हैं कि नग्नता मोहित नहीं विचलित करती है। सुंदर फूल हमेशा आवरण में खिलते हैं। 


रात विचारों की चादर से संभोग करते बीती। चादर ने मुझे बिल्कुल वैसे ही छुआ जैसे मैंने उसे। हम दोनों में एक दूसरे का होने का समान स्तर का उन्स था। नींद हमें छू भी नहीं पाई। तुम्हारे जीवनद्वारों की महक मेरी आत्मा में घुलती रही। मैं महसूसता रहा कि तुम्हारे हाथ मेरे बालों में चल रहे हैं। जैसे तुम कह रही हो कि यहाँ से हटना मत यही जगह है तुम्हारी। यही सबसे सुंदर लगते हो तुम मुझे। मैं इस बात के ख़ुश होता रहा कि तुम ख़ुश हो और इस बात से डरता भी रहा कि तुम अभी कुछ घड़ी बाद ही भर जाओगी ग्लानि से। तुम्हें चुभने लगूँगा मैं। हटा दोगी मेरे हाथ। तुम्हें आ कर घेर लेगा कोई अदृश्य आदर्श विचार जो पूरा जतन करेंगे कि तुम कह दो सबसे सुंदर क्षण को बुरा। तुम्हें ख़्याल भी नहीं होगा कि जो तुम्हारे लिए नदी ले कर खड़ा है उसे भी प्यास लगी होगी। मैं बरसों से बस प्यासा ही रह जाता हूँ। मेरा गला सूखता जा रहा है। मैं कब मरूँगा साथी..? क्या उस दिन जिस दिन मुझे पानी मिल जाएगा। क्या कोई मेरे लिए भी ले कर आएगा नदी?


मैं हर बार कई जरूरी कामों के बीच कुछ कम जरूरी काम की तरह छूट जाता हूँ और अगली योजना में प्रमुख की तरह रख लिया जाता। मुझमें हावी होने की प्रवृत्ति नहीं थी न ही अपने अधिकारों के लिए लड़ पाने की। मैं चाहता रहा कोई मेरी आवाज़ बने। बस चाहता रहा। कह भी नहीं पाया। तुम मुझे भीतर से आंदोलित करती हो। मैं वह कर जाता हूँ जिसके लिए सोचा तक नहीं था। निश्चित समय में जीने और लिखने की मेरी आदत नहीं। फिर भी हो जाता है। मैं आत्मविश्वास से भर जाता हूँ। मैं कुछ भी कर गुजरने की हिम्मत से खड़ा हूँ। अगले कुछ महीनों की नयी योजना के साथ तुम मुझे कुछ दिन और जीने का बिल पकड़ा गयी हो।


अति क्रोधी और आत्मसम्मान के भाव बोध से भरा व्यक्ति जब दुत्कार के बाद भी खड़ा रहे हँसता रहे तो जरूर उसकी आत्मा को प्रेम ने छू लिया होगा। प्रेम में देह जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही नगण्य भी। दैहिक इच्छाएँ क्षण भर की हैं। प्रेम सरस्वती नदी है। वह न दिख कर भी रहता है।


संगम दो देहों की स-देह उपस्थित और तीसरे (प्रेम) की आत्मिक संगति में ही सम्भव होता है। 


मैं पसीने से तर-ब-तर हूँ मगर मुझे गर्मी तनिक भी नहीं लग रही है। 


इस दुनिया को अगर कुछ बदल सकता है तो वह प्रेम है। प्रेम आदमी से कुछ भी करवा सकता है। प्रेम आदमी की रीढ़ खा लेता है। उसे नयी रीढ़ देता है। जिसमें लचीलापन होता है। प्रेम ऐसा विरोध सिखाता है। जो और कोई नहीं सिखा सकता। प्रेम आदमी औरत अलग अलग लिंग नस्ल को बस आत्मा बना कर छोड़ देता है। प्रेम हममें देह की लालसा भरता है। उस देह की जिसमें वह आत्मा रहती है जिससे हम प्रेम करते हैं। प्रेम हमें निर्भर करता है और आत्मनिर्भर भी। प्रेम हमें बिछ जाने को कहता है और तन कर खड़े हो जाने को भी। प्रेम हमें सब सिखाता है सिवा घृणा करने के। जे कृष्णमूर्ति कहते हैं : 'we are memory' याद ही तो हैं हम सब।। इसी याद की लड़ाई है। इसी याद की शिकायत। इसमें कोई भी शिकायत तुमसे नहीं है। सब उस याद की शिकायत है जो तुम्हारे भीतर सुंदर भावनाओं के प्रति ग्लानि और शर्म पैदा करती है। 


हमने उम्मीद से ज्यादा जीवन जिया। कम समय को कम समय नहीं रहने दिया। छूटने की टीस जरूरी है। किसी न किसी की आंख में नमी जरूरी है। प्रेम हमेशा फूल ही नहीं शूल भी लगना चाहिए। लगता है। घर छूट गया। लग रहा बे-घर हो गया। घर मुझसे छूटा या मैं घर से पता नहीं। घर मुझे कम दिनों के लिए नसीब होता है। ज्यादातर मैं घर की याद में रहता हूँ। 


खाना खाने बैठा। लग रहा था आँसू भीतर की ओर बह रहे हैं। सब खारा लग रहा है। खाते हुए रुलाई आ जाए तो न खाया जाता है न सही से रोया ही जाता है। वही हुआ। दिन भर मुर्दा की तरह पड़ा रहा। किलोमीटर गिनता रहा। अगली तारीख़ पर नोट चिपकाता रहा। शुक्रिया कहता रहा। यह तय करता रहा कि अब हमें क्या नहीं करना है। किताबें सेट की। मेज सही किया। एक सुंदर स्वप्न से उठा। 


बैठा रहा देर तक दीवार ताकते। फिर अभी डायरी ले कर। जब जब भीतर विचार बेवजह उधम मचाने लगते हैं तुम्हारी ही तरह खुद से कहता हूँ । चुप रहो...। 


तुम्हें रत्ती भर याद नहीं किया। 


कल से आज दिन भर में बस कुल 48 वाक्य बोला है। एक कविता के 6 वाक्य । पिताजी से बात के कुछ 10 वाक्य। बच्ची से बात के 2 वाक्य। मम्मी से बात के 4 और जो बचे गिन लो। 

― 6 मार्च 2025 / 7 : 40 शाम



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


मोबाइल : 8948702538

टिप्पणियाँ

  1. तुम मुझे कोई चिट्ठी क्यूँ नहीं लिखती। मुझसे पूछो मैं कैसे हूँ। मै झूठ बोलना चाहता हूँ।

    ― 10 मार्च 2025 / 9 बजे शाम

    पता नहीं कितनी बार पढ़ चुका ये, जितनी बार पढ़ता हूं एक और बार पढ़ने का मन करता है, इसको पढ़ते हुए कुछ बैठ सा गया मन।

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