संतोष चौबे के उपन्यास 'जलतरंग' पर सुप्रिया पाठक की समीक्षा 'शोर और नाद के अंतद्वंद्व की यात्रा है 'जलतरंग''

 




यह जीवन खुद में एक संगीत है। इसकी गतिविधियां संगीत के सुर जैसी ही होती हैं। अलग बात है कि आपाधापी में हम इस जीवन संगीत का अहसास तक नहीं कर पाते। साहित्य और संगीत कला के ही महत्त्वपूर्ण अंग हैं। संगीत को साहित्य में साध पाना आसान काम नहीं है। लेकिन संतोष चौबे ने अपने उपन्यास 'जलतरंग' में इसे अच्छी तरह साधा है। हालांकि यह 2016 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था लेकिन रचनाओं की ताकत तो यही होती है कि वे कालजयी होती हैं। सुप्रिया पाठक इस उपन्यास की समीक्षा करते हुए उचित ही लिखती हैं 'अपनी तरह का यह बिलकुल भिन्न परिपाटी पर रचित उपन्यास है जो समय, संबंध और समाज के साथ-साथ सुरों की यात्रा करता है। लेखन के स्तर पर इस तरह के अभिनव प्रयास हिन्दी के साहित्य जगत में बहुत कम रचनाओं में देखने को मिलते हैं जिसकी ईमानदार कोशिश इस उपन्यास में की गई है। यह रचना मनुष्य के अन्तर्मन में बदलते सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति पैदा होते राग-विराग की कथा यात्रा है जो देवाशीष और स्मृति के सम्बन्धों में धीरे-धीरे प्रवाहित होती हुई अततः भौतिकता पर जीवन मूल्यों की जीत का जश्न मनाती है।'  आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं संतोष चौबे के उपन्यास 'जलतरंग' पर सुप्रिया पाठक की समीक्षा 'शोर और नाद के अंतद्वंद्व की यात्रा है 'जलतरंग''।



'शोर और नाद के अंतद्वंद्व की यात्रा है 'जलतरंग''


सुप्रिया पाठक


हमारे जीवन में संगीत शोर के बीचोबीच रहता है, उसके भीतर ही नाद की तरह उभरता हुआ.... उन सुरों की पहचान और चुनाव हमें करना होता है कि हमें जीवन से क्या चाहिए। व्यक्ति अपने अंदर सतत मौजूद सुरों और असुरों के मध्य ग्लाइड करता है तब जीवन तथा संगीत में गमक पैदा होती है। आज के समय के महत्वपूर्ण लेखक और कवि संतोष चौबे का 2016 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उपन्यास 'जलतरंग' दरअसल जीवन के इसी दर्शन का राग अपने पाठकों के मन में पैदा करता है। अपनी तरह का यह बिलकुल भिन्न परिपाटी पर रचित उपन्यास है जो समय, संबंध और समाज के साथ-साथ सुरों की यात्रा करता है। लेखन के स्तर पर इस तरह के अभिनव प्रयास हिन्दी के साहित्य जगत में बहुत कम रचनाओं में देखने को मिलते हैं जिसकी ईमानदार कोशिश इस उपन्यास में की गई है। यह रचना मनुष्य के अन्तर्मन में बदलते सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति पैदा होते राग-विराग की कथा यात्रा है जो देवाशीष और स्मृति के सम्बन्धों में धीरे-धीरे प्रवाहित होती हुई अततः भौतिकता पर जीवन मूल्यों की जीत का जश्न मनाती है। 1949 में जलतरंग' नामक शीर्षक से एक संगीतमय फिल्म आई थी जिसमें मुख्य किरदार रहमान और गीता बाली ने निभाया था। अपने शानदार संगीत के लिए मशहूर इस फिल्म को सबसे पुराने संगीत वाद्ययंत्रों में से एक के साथ अपना नाम साझा करने के लिए याद किया जाता है। उसके छह दशक बाद इस दुर्लभ वाद्ययंत्र के जरिए एक नई कहानी बुनने का प्रयास स्वागत योग्य है।


यह कहानी शुरू होती है ग्यारह साल के बच्चे देवाशीष के संगीत गुरुकुल प्रवेश से जहाँ उसे अत्रे गुरु जी का मार्गदर्शन प्राप्त होता है। देवाशीष के पिता साहित्य के साथ उसके जीवन में संगीत भी पैदा करते हैं। अत्यंत सीमित संसाधनों बाले पारिवारिक वातावरण में पला बढ़ा देवाशीष साहित्य और संगीत के जरीए सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है। पिता से विरासत में संगीत के प्रति अनुराग मिलने के अलावा उसे शास्त्रीय संगीत के सभी महत्वपूर्ण विद्वानों का मार्गदर्शन प्राप्त होता है और एक दिन अपने गुरुकुल में पधारे पंडित नारायण राव से प्रेरित हो कर वह 'जलतरंग' सीखने का निर्णय लेता है। संगीत के सभी वाद्य यंत्रों में जलतरंग एक बहुत प्राचीन और दुर्लभ यंत्र है जिसे बजाने वाले, आलाप लेने वाले और जल की तरंगों से 'हंसध्वनि' पैदा करने वालों की संख्या लगभग न के बराबर रह गई है। ऐसे में देवाशीष द्वारा इस चुनौतीपूर्ण संगीत साधना को चुनने का निर्णय गुरु जी में जहाँ एक तरफ हर्ष का भाव भरता है, वहीं वे उसके भविष्य को ले कर भी चिंतित होते हैं.... परंतु समय के साथ-साथ वह न सिर्फ सुर, अलाप, बल्कि सुरों के पीछे छुपे भावों को भी पहचानना सीखता है। उसकी इस संगीत यात्रा में उसका साथ देती है उसकी सहपाठिन स्मृति, जो एक बेहद कुशल सितार वादक है। उन दोनों की सांगीतिक जुगलबंदी उस शहर के संगीत प्रेमी समाज के बीच चर्चा और प्रतिष्ठा का विषय बनती है। बाद में, वे दोनों जीवन साथी के रूप में संगीतमय सफर पर निकल पड़ते हैं। हालांकि देवाशीष और स्मृति की जीवन कथा इस उपन्यास के मूल विषय की सहयात्री है, असल कहानी तो संगीत के सुरों, आलाप, जोड़, विलंबित युत और उन नौ रसों की है जो संगीत की आत्मा हैं। रसों की उत्पत्ति में सहयोगी अनेक तत्वों यथा नाद, श्रुति, स्वर, राग, रचना, ताल और वाद्यों के इतिहास को रचनात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हुए लेखक संगीत के हर पक्ष में समाहित गंगा-जमुनी तहजीब और हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों की संगीत में समायी साझी विरासत की जो सुंदर तस्वीर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, वह आज के दौर की अनिवार्य आवश्यकता है। संगीत का कोई धर्म नहीं होता, न ही उसे किसी खास भौगौलिक परिदृश्य में बांधा जा सकता है।


संगीत तो मनुष्यता का सार तत्त्व है जो हजारों साल से हम सभी की रगों में बह रहा है। यह उपन्यास संगीत के इस ऐतिहासिक महत्व को पाठकों के दिल में उतारने में सफल होता है।


इस उपन्यास को लेखक के द्वारा संगीत इतिहास के व्यवस्थित शोध और संगीत की सूक्ष्मतम समझ के साथ बहुत बारीक धागे से बुना गया है। अपनी जीवन यात्रा में असिस्टेंट क्यूरेटर की नौकरी करते हुए देवाशीष को संगीत वीथिका तैयार करने का गुरुत्तर दायित्व मिलता है जो उसके जीवन में निर्णायक मोड़ लेता है। भारतीय संगीत के इतिहास के विविध पड़ावों से गुजरते हुए वह पणिक्कर गुरुजी और सुधा जी से दक्षिण भारतीय संगीत शैली और परंपरा के ज्ञान से अभिभूत होता है, वहीं देवगिरी, सारंग देव, गोपाल नायक तथा अमीर खुसरो के माध्यम से इसकी अन्य बारीकियों से परिचित होता है और पाठक भी उसके साथ भारतीय संगीत की विशद परंपरा का ज्ञान पाते हैं। संगीत और संगीतज्ञों से मुलाकात का वर्णन और उसकी बारीकियों की विस्तार से की गई चर्चा सामान्य पाठक के लिए कई बार बोझिल लगाने लगती है क्योंकि उन्हें देवाशीष और स्मृति के जीवन की कथा भी जाननी है। लेखक की संगीत के प्रति सभी जानकारी पाठकों तक पहुंचा देने की उत्कंठा जाने-अनजाने कहानी के अन्य पहलूओं के प्रति उपेक्षापूर्ण प्रतीत होने लगती है। अंततः अपनी संगीतमय यात्रा से वापसी के बाद देवाशीष एक उत्कृष्ट संगीत वीथिका तैयार करता है जिसे दर्शकों और शहर के प्रबुद्धजनों द्वारा भरपूर सराहा जाता है।


संतोष चौबे


इस मोड़ से वास्तविक कथा प्रारम्भ होती है जब संगीत के सुर शोर में बदलने लगते हैं। अपने पिता द्वारा बनाए गए एक छोटे से सुंदर घर में जहां उन्होने अपनी सुरीली दुनिया बसायी थी, शोर का अतिक्रमण प्रारम्भ होता है। यह शोर कई स्वरों में उनके जीवन में प्रवेश करता है। घर के बगल में खुले प्राइवेट कॉलेज के कारण कर्कश मोटर का शोर, मोटर साइकिल के हार्न और कट ले कर रुकने के कारण पहियों से उत्पन्न हुआ थर्राता शोर, युवक-युवतियों की सुबह शाम तक गूंजती ठहाकों और चिचियाते पान बीड़ी वाले दुकानदारों का शोर..... काम वाली बाईयों का शोर न जाने कितने तरह के शोर और उससे उत्पन्न कर्कश ध्वनियों के बीच संगीत के सुरों का आराधक हर क्षण स्वयं को टूटता हुआ महसूस करता है। उनकी संगीतमय जिंदगी से सुर, ताल, लय, रियाज सब धीरे-धीरे छिजता चला जाता है जिसके कारण संगीत के दो साथियों के सम्बन्ध में अबोलपन समा जाता है। देवाशीष और स्मृति का जीवन अचानक संगीत की शून्यता और शोर की अधिकता के बीच गड्‌डमगड्ड हो जाता है। दोनों यंत्रवत जीवन जीने को मजबूर होते हैं... पर उनकी तकलीफ यहीं खत्म नहीं होती। मोहल्ले में पार्क में होने वाली शादियों में बजने वाला कर्कश, कानफोडू गीत-संगीत उनकी मानसिक शांति और जीवन की रागात्मकता को ठीक वैसे ही प्रभावित करता है जैसे किसी कुशल भोजन बनाने वाले के समक्ष जला भुना, बेस्वाद और बासी भोजन परोस दिया जाए। यह भी गौर करने लायक है कि इस भीषण स्थिति में भी स्मृति का संस्कारित मन असहाय भाव से सब कुछ देखता और सहन करता है जबकि देवाशीष इससे उद्वेलित हो कर आंदोलित होता है। इस कठिन यात्रा में उसका हौसला कई बार टूटता है, लोगों की अवसरवादिता और विश्वासघात उसके कोमल और संवेदनशील मन को गहरी ठेस पहुंचाते हैं... संगीत और जीवन का आनंद उससे कोसों दूर चले जाते हैं। फिर भी, वह हार नहीं मानता और न्यायालय की मदद से उस शोर से मुक्ति पाता है। हालांकि इस पूरी शोर कथा का वर्णन करते हुए लेखक से थोड़ा और ठहर कर उस दौरान देवाशीष और स्मृति की मनोदशा को और गहराई से समझने तथा संगीतमय और असंगीतमय वातावरण के बीच घुटते हुए जोड़ों के प्रति और संवेदनशील लेखन की दरकार की अपेक्षा पाठकों को होती है जिसे थोड़ी जल्दबाज़ी में बताते हुए वे आगे बढ़ जाते हैं।


मथुरा की विधवा खियों के जिक्र और उन पर जबरन थोपे गए संगीत के जिस मार्मिक प्रश्न को स्मृति देवाशीष के सामने उठाती है, उसे भी थोड़ा और विस्तार देने की आवश्यकता प्रतीत होती है क्योंकि सच में वे खियाँ जो अचानक बिना किसी अपराध के रंग, स्वाद और जीवन के अन्य संगीतमय अनुभवों से बहिष्कृत कर दी गईं, वे क्या महसूस करती थीं? यह जानना महत्वपूर्ण था। जिसके हवाले से न सिर्फ उनके जीवन पर बल्कि शास्त्रीय संगीत से बहिष्कृत मानी गई लोक परम्पराओं के संबंध में भी विषाद लेखन की संभावना बनती थी जो लोक संगीत देवाशीष जैसे शहर और गुरुकुल परंपरा से निकले हुए शास्त्रीय संगीत की गहरी समझ रखने वाले अनुभवों से जरा भी कमतर नहीं थी बल्कि वह लोक के स्व का विस्तार थीं जो आज भी हर समाज में पूरे दमखम के साथ मौजूद है।


बहरहाल उपन्यास के अंत को लेखक ने बहुत सुंदर और सृजनात्मक रूप दिया है और दरअसल यह हमारे समाज में स्त्रियों द्वारा व्यवस्था के अहिंसक और रचनात्मक प्रतिरोध का भी द्योतक है कि स्मृति इस लगातार पैदा हो रहे शोर के बीच गुरु अत्रे जी द्वारा दी गई सीख नहीं भूलती कि सुर और असुर के बीच सही लगातार चलते जाना ही नए सुर पैदा करेगा... एक नई सुरीली दुनिया का विकल्प बनेगा। स्मृति यहाँ एक नई दुनिया का विकल्प तैयार करती है और शोर के बीच सुर की संभावना को बरकरार रखती है। इतने अच्छे, कसे हुए और नए विषयवस्तु के साथ किए गए प्रयोग के लिए लेखक को हार्दिक बधाई।


सुप्रिया पाठक 


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