श्रीप्रकाश मिश्र का आलेख 'यहां से नदी समुद्र बन जाएगी'
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अजित पुष्कल |
इलाहाबाद अलग अलग पृष्ठभूमि वाले लेखकों का एक अल्हड़ शहर है। विभिन्न विधाओं में लेखकों ने लेखन कर इलाहाबाद की साहित्यिक दुनिया को समृद्ध किया है। अजित पुष्कल ऐसी ही शख्सियत थे, जिन्होंने अपने नाट्य लेखन से इलाहाबाद का गौरव राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ाया। यहां के लेखकों की अपनी एक सादगी भरी पहचान रही है। तड़क भड़क से दूर बिना किसी लिप्सा के अपना लेखन करना यहां की लेखकीय आदत में शुमार रही है। पुष्कल जी ने इस इलाहाबादी परम्परा को अपनी सादगी से वैभव प्रदान किया।बीते एक फरवरी 2025 को अजित पुष्कल का निधन हो गया। उनके न रहने से इलाहाबाद थोड़ा और विपन्न हुआ। कवि आलोचक श्रीप्रकाश मिश्र ने अपनी फेसबुक वॉल पर पन्द्रह खण्डों में 'स्मृतियों में बसा नगर : इलाहाबाद' शीर्षक से अजीत जी की स्मृतियों को शिद्दत से याद किया। पुष्कल जी की स्मृति को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं श्रीप्रकाश मिश्र का आलेख 'यहां से नदी समुद्र बन जाएगी'।
स्मरण में है आज जीवन : अजित पुष्कल
'यहां से नदी समुद्र बन जाएगी'
श्रीप्रकाश मिश्र
एक
जब मैं 1981 में इलाहाबाद आया तो कमलेश्वर ने दो लिस्ट दी थी, एक में उनका नाम था, जिनसे मिलना था, दूसरे में उनका नाम था, जिनसे नहीं मिलना था। मिलने वालों में सबसे ऊपर नाम अजित पुष्कल का था। लेहाजा सबसे पहले मैं उन्हीं से मिलने गया। वे कल्याणी देवी मुहल्ले में सड़क से सटे चौराहे के पास के एक मकान की दूसरी मंजिल पर रहते थे। मकान का रंग पीला था और बड़ा खिला-खिला लग रहा था। मैंने ऊपर जा कर दरवाजा खटखटाया तो वे निकले और बहुत ही नरम शब्द में कहा, "किसे ढूंढ रहे हैं?" मैंने कहा "अजित पुष्कल को।" उन्होंने कहा कि मैंने आपको पहचानता नहीं। मैंने कहा कि आप ही अजित पुष्कल हैं? उन्होंने हां कहा तो मैंने अपना नाम बताया और कहा कि देहरादून के सुभाष पंत ने आप का पता दिया है और मिलने के लिए कहा है। वे भीतर ले गये। खूंटी से उतार कर बुशर्ट पहनी। हम बैठ गये तो कहा कि आप भी लिखते होंगे। मैंने अपना लेखकीय परिचय दिया जो कुछ था ही नहीं। मैंने कमलेश्वर की लिस्ट की चर्चा की। फिर उन्होंने बताया कि पंत की कहानियों के साथ उनकी भी कहानी गाहे-बगाहे सारिका में छपती हैं। कमलेश्वर इलाहाबाद में रहे हैं, इसलिए इलाहाबाद वालों पर ध्यान देते हैं। बातचीत के दौरान पता चला कि उनका वास्तविक नाम इकबाल बहादुर है। बांदा जिले के पैगंबरपुर गांव के रहने वाले हैं जो कालिंजर कोट के रास्ते में है। केदार नाथ अग्रवाल के करीबी रहे हैं। अब के. पी. इंटर कालेज में हिंदी पढ़ाते हैं। मैंने बताया कि उनकी कहानियां मैंने नहीं पढ़ी हैं, पर धर्मयुग में छपे गीत पढ़ें हैं और वे अच्छे लगते रहे हैं। मैं गया तो था थोड़ी देर के लिए, सिर्फ परिचय करने, पर हम बातों में ऐसा रमे कि शाम हो गयी। चाय पीते वक्त उन्होंने अपनी पत्नी और दोनों बच्चों से परिचय कराया। यह भी बताया कि इलाहाबाद रचनाकारों के लिए जितना माफिक शहर है, उतना ही विनष्ट करने वाला। थोड़ी सावधानी बरतनी होगी संबंध बनाने में, जिससे कि गलत पटरियों पर न चलना पड़े। पहली ही मुलाकात में इतनी आत्मीयता अनुभव हुई कि बाद में वह मित्रता में बदल गयी। मैं जब चलने लगा तो उन्होंने कहा कि अब हमारी मुलाकातें गोष्ठियों में होगी और गोष्ठियों में आते रहिएगा जरूर, क्योंकि उससे अच्छी सीखने की जगह और कोई नहीं है। मैंने कहा कि गोष्ठियां कहां होती हैं, मुझे पता नहीं, तो उन्होंने कहा कि उसकी सूचना मैं दूंगा,अपना पता दे दीजिए।
दो
इतवार का दिन था। मैं बैठा पढ़ रहा था। विधि विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लाइब्रेरियन इतने कृपालु थे कि वहां का जरनल छुट्टी के दिन घर ले जा कर पढ़ने की अनुमति मुझे दे देते थे। मैं अंतर्राष्ट्रीय अपराध कानून पर शोध कर रहा था, उसके लिए नोट बना रहा था। कोई नौ बजे थे कि दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खुला था, फिर भी दस्तक हुई। आगंतुक की शिष्टता ने मुझे आकर्षित किया। देखा कि एक सुदर्शन युवा, जिसके चेहरे पर कांति झलक रही थी, खड़ा है। भीतर आने के लिए कहा। नमस्कार कर बैठते हुए उसने कहा कि श्रीप्रकाश मिश्र आप ही हैं न। मेरे हां कहने पर उसने बताया कि उसका नाम शाश्वत रतन है और उसे अजित पुष्कल ने भेजा है। यह बताने के लिए कि आज शाम तुलसीपुर में अमुक के घर पर गोष्ठी है और आपको आना है। बातचीत में पता चला कि वह इंस्योरेंस विभाग में मुलाजिम है, मीरापुर में रहता है, प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ा है। मैंने आने का वादा किया तो उसने कहा कि वह चार बजे मुझे आ कर ले जाएगा। मैंने पूछा कि वह कैसे आएगा तो उसने कहा कि वह साइकिल से आएगा। मैंने कहा कि एक साइकिल पर दो आदमियों का इतनी दूर तक चलना दिक्कत पैदा करेगी। वह गोष्ठी के स्थान का पता ठीक ठीक बता दे, मैं स्वयं आ जाऊंगा। उसने वैसा ही किया।
चूंकि मैं पहली बार इलाहाबाद की किसी साहित्यिक गोष्ठी में जा रहा था, इसलिए बहुत उत्साहित था। समय से पहले ही निकल पड़ा। उन दिनों मेरे पास एनफील्ड की एक क्रुसेडर मोटरसाइकिल थी, जो शहर में फिरोजी रंग की एक मात्र वाइक होने के कारण पहचानी जाने लगी थी और उसके साथ मैं। उस पर सवार हो कर चला तो और जल्दी हो गयी। अजित पुष्कल का घर रास्ते में ही था। वहां पहुंच गया। वहां से हम लोग साथ साथ गोष्ठी में गये। वहां बुद्धिसेन शर्मा ने ग़ज़ल और अमर नाथ श्रीवास्तव ने गीत पढ़े। फिर उन पर चर्चा आरंभ हुई। बातें बहुत गंभीर और बारीकी से हुईं। मेरी बारी आई तो मैंने कुछ कहने से इंकार कर दिया। कारण साफ बताया कि इन विधाओं के बारे मैं नहीं जानता। इनके पूर्ववर्तियों को भी नहीं पढ़ा है, जिनसे जोड़ कर बात रखी जानी चाहिए। आप लोगों से कुछ सीख लूंगा तो आगे बात कहूंगा। कुछ लोगों का कहना था कि मुझे अपनी बात जरूर कहनी चाहिए तभी पता चलेगा कि इन रचनाओं का प्रभाव आप पर क्या पड़ा। अजित पुष्कल ने बचाव किया कि बोलने के लिए दबाव देना ठीक नहीं। और भी गोष्ठियां होंगी, जिनमें ये आगे खुलेंगे। कुछ लोगों ने इस बात की प्रशंसा की कि जहां लोग अधिक से अधिक अपनी बात रखने के लिए आतुर रहते हैं, वहां एक आदमी ऐसा भी है, जिसे अपनी बात रखने में संकोच है। यानी आदमी ईमानदार है। अध्यक्षता अजित पुष्कल कर रहे थे। वे स्वयं गीत लिखते थे और खूब छपते थे। उन्होंने देर तक वहां पढ़ी गयी रचनाओं पर बात की जो मेरे बड़े काम की थीं आगे के लिए।
तीन
पुष्कल जी किसी काम से लखनऊ गये थे। शायद उनके नाटक का मंचन हुआ था। वहां पर वत्सल निधि का कार्यक्रम चल रहा था। जिज्ञासा वश वे वहां गये थे और निर्मल वर्मा और विजय देव नारायण साही को बोलते सुना था। चर्चा इस बात की हुई थी कि पश्चिम में जब उत्तर आधुनिकता की बात हो रही है तब हिंदी में आधुनिकता की बात करना कितना मुनासिब है। प्रश्न निर्मल वर्मा ने उठाया था। उत्तर अज्ञेय ने दिया था कि मुनासिब इसलिए है कि हमारे यहां आधुनिकता अभी पूरी तरह से आई नहीं है। दूसरे उत्तर आधुनिकता का स्वरूप अभी स्पष्ट नहीं है। विजय देव नारायण साही ने आधुनिकता के सामाजिक संदर्भ की बात उठाई थी और उसका प्रतिपक्ष रखा था रघुवीर सहाय ने। समाहार किया था अज्ञेय ने यह कह कर कि विदेशी चश्मे से जरूरत से ज्यादे अपने देश को देखना ठीक नहीं। साही की बातों से पुष्कल जी बहुत प्रभावित हुए थे। मुझे राय दिया कि मैं उनसे मिलूं। मैंने मिलाने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि उनके साथ जा कर मिलना ठीक नहीं होगा। उनको साही जी वगैरह उतनी गंभीरता से नहीं लेते। प्रभाव बहुत अच्छा नहीं पड़ेगा। सीधे स्वयं जा कर मिलिए। मुझे यह जान कर बहुत अच्छा लगा कि वे मेरी भलाई के बारे में कितनी गंभीरता से सोचते हैं। साही से मेरी मुलाकात जल्दी ही समाजवादी पार्टी के जवाहर सिंह यादव और संकटा राय के माध्यम से हुई और बहुत अच्छी तरह से हुई। वह दूसरी कहानी है , फिर कभी।
मैंने देखा कि शहर की गोष्ठियों में अजित पुष्कल तो खूब जाते हैं, पर अमरकांत नहीं जाते। शायद दफ्तर की व्यस्तता के कारण समय नहीं मिल पाता होगा। पर शनिवार को काफी हाउस जरूर जाते थे और लोगों से बातें करते थे। अजित पुष्कल भरसक नहीं जाते थे।
चार
अजित पुष्कल अपने गांव पैगंबरपुर जा रहे थे। कभी हमने साथ चलने की बात की थी। अभी तक मैंने बुंदेलखंड का कोई गांव नहीं देखा था। चित्रकूट भी देखना था। फिर मैं उनके साथ जा कर केदार नाथ अग्रवाल से बांदा में मिलना चाहता था। उन्होंने उसकी याद दिलाई तो मैं तैयार हो गया। दूसरा शनिवार, रविवार हाथ में था, छः दिन का आकस्मिक अवकाश ले लिया। हम टुकड़ों-टुकड़ों में बस की यात्रा कर उनके गांव पहुंचे। गांव में उनके छोटे भाई रहते थे। दो दिन तक पुष्कल जी अपने काम में व्यस्त रहे। फिर उनके भाई ने दो साइकिलों की व्यवस्था की। हम कालिंजर का किला देखने चले। बचपन से ही उसका जिक्र आल्हा में सुनता आया था। पूरे भारत में पांच किले मुश्किल से जीते जाने वाले माने जाते हैं। उनमें से एक कालिंजर भी है। दूसरे चुनार, रणथंभौर, गोलकुंडा और ग्वालियर माने जाते हैं।एल हम किले की तलहटी तक साइकिल से गये। आगे की लगभग सीधी चढ़ाई पैदल तय की। उसी में सारी ताकत खर्च हो गयी भला घूमते क्या। फिर भी काफी कुछ देखा, अधिकांश टूटा-फूटा। गोमुख तक गये और छक कर उस जलधारा का पानी पीआ। वहीं एक कविता जन्म ली जो वर्षों बाद कुछ इस तरह से पूरी हुई :--
कालिंजर के मंदिर
इन मृत मंदिरों को देख कर
याद आती है
महाकाल की कोई कहीं देखी तस्वीर
पत्थरों के चक्कों पर आरूढ़
खींचते मूर्छित घोड़े
मुर्छित दिशाओं की ओर
जिनमें गूंजता है
बलाधिक्रित आत्माओं का प्रेत-क्रंदन
कगूंरों पर उगे
विशाल देववृक्षों की
विशालतम् जड़ों को देख कर
याद आते हैं
काल के कुपित भयंकर पांव
खड़ाऊं में बांध कर मजबूत द्रोणियां
खड़ी चढ़ाई में एड़ियों को धसाते
अरि का मस्तक तोड़ने को बेचैन
कि शिलाएं
उनके लिए कालातीत संरचना नहीं
कोमल मांस के धूहे
गिद्धों की चोंच के नीचे बिखरे पड़े
बेजान
उनको छू कर भागती विषैली हवाओं को देख कर
याद आती है
बलूत के वनों में विचरती
स्मृतिडाइना डाईन की पिशाची हंसी
कि दंडक वन में चिग्घाड़ती
ताड़का का उल्लसित स्वर
दो नर छौने देख कर
कि सुरसा का खुलता जाता जबड़ा
और लंका के स्वर्ण कगूंरों से
हू हू कर लपलपाती
फटी पड़ी लाल लपटें
घेरती समय का सारा वितान
मंदिर के इस खामोश क्रंदन से अभिभूत
मैं गढता हूं
वर्णहीन आकाश में
मृत्यु का महामंदिर
कालगेह
कि तभी देखता हूं
काल को कंधे पर बिठाए
वाराह नदी सिंह लिंग
और याद आते हैं
अविजित किलों के दिन
उन्हीं की तरह चिकनी
तरुणियों की चल रही
जौहर के लिए अनवरत तैयारी
और गोमुख से निकलती पानी की पतली धार
किन्हीं अदृश्य जीवनस्रोतों से जोड़ती
(कविता "कि जैसे होना खतरनाक संकेत" नामक संकलन में संग्रहित है।)
पुष्कल जी ने परमार्दिदेव की कहानियों के साथ शेरशाह सूरी के मरने की कथा भी बताई और वह जगह भी दिखायी। यह भी बताया कि औरंगज़ेब कुछ ही दिन वहां रहने के बाद फौज को मार्च करने का हुक्म दिया। सेनापति ने पूछा कि इतनी जल्दी क्यों, तो बादशाह ने जवाब दिया :
जमीन जरखार नहीं
पेड़ फलदार नहीं
मर्द वफादार नहीं
औरत बिन यार नहीं
फिर ऐसी जगह भला क्या रहना!
बाद में पता चला कि यह बुंदेलखंड की प्रचलित कहावत है।
इसी तरह हम लोग एक दिन खत्री पहाड़ गये। उससे जुड़ी कथा भी पुष्कल जी ने सुनाई। यह भी बताया कि साल में एक दिन विंध्याचल की देवी यहां आकर रहती हैं। उस दिन बड़ा भारी मेला लगता है। हमारा बांदा जाकर केदारनाथ अग्रवाल से मिलना नहीं हो पाया। पर इलाहाबाद लौटते वक्त हम लोग एक दिन चित्रकूट रुके और गुप्त गोदावरी को छोड़ कर सभी जगहों को देखे।
शाम को हम लोग इलाहाबाद वापस लौट आए।
पांच
केदार नाथ अग्रवाल से मुलाकात जल्दी ही हुई। माध्यम अजित पुष्कल ही बने। हुआ यह कि हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने 1987 में उन्हें निराला व्याख्यान देने के लिए बुलाया। डां जगदीश गुप्त ने मुझे व्याखान सुनने आने के लिए कहा। मैं पुष्कल जी के साथ गया। केदार जी ने अपने साथ के कवियों, अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, प्रभाकर माचवे, श्रीनरेश मेहता आदि के लेखन की आलोचना की। उसके लिए तर्क दिए। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने श्रोताओं से प्रश्न पूछने के लिए कहा। एक प्रश्न पूछने की अनुमति मैंने भी मांगी। अनुमति मिलने पर पूछा कि मुक्तिबोध की कविताएं कैसी हैं। अपने व्याख्यान में उन्होंने मुक्तिबोध का नाम नहीं लिया था। उन्होंने कहा कि वे पागल कर देते हैं। फिर चुप हो गये। मैंने आगे स्पष्टीकरण के लिए कहा कि इसका दो मतलब होता है। एक तो यह कि उनकी कविता समझ में नहीं आती, आप माथा मारते रहिए। वे बिम्बों की ऐसी झड़ी लगा देते हैं कि माथा टिकता ही नहीं। दूसरा यह कि वे इतनी गहराई से प्रेरित करते हैं कि सब कुछ छोड़ कर निकल पड़िए उनके आदर्शों को पूरा करने के लिए। केदार जी ने कहा कि पहली ही बात सही है। मैं कुछ और कहना चाहता था कि चतुर्वेदी जी ने चुप रहने का इशारा किया। केदार जी दूसरों के प्रश्नों का उत्तर देने लगे।
व्याख्यान के बाद हम लोग चाय पीने के लिए बैठे। वहीं पुष्कल जी ने परिचय कराया। केदार जी स्वभाव के बड़े सरल व्यक्ति लगे, बातचीत करने में बड़े शालीन। कहा कि कभी बांदा भी आइए।
उस वर्ष उनका पचहत्तरवां जन्मदिन मनाया जा रहा था। परिमल प्रकाशन के मालिक, शिवकुमार सहाय उनकी पुस्तकों के एकमात्र प्रकशक थे। प्रगतिशील लेखक संघ के सहयोग से उन्होंने उसका भव्य आयोजन किया, हिंदुस्तानी अकादमी के हाल में। खूब लोग जुटे। प्रमुख वक्ता के रूप में नामवर सिंह आए। यह मुझे खटका। वे केदार नाथ अग्रवाल की कविताओं को उतना पसंद नहीं करते थे। बिंबवादी कवि मानते थे। पश्चिम में "इमेजिस्ट पोइट्री" का आंदोलन चल चुका था। उससे प्रभावित मानते थे। कहते थे कि उनके बिंब बड़े सुघड़ होते हैं, गीत की आत्मीयता और तरलता से सराबोर, वे लोक से लिए गये भी होते हैं,पर उनमें इतनी ताकत नहीं होती कि वर्ग की पक्षधरता के बावजूद वे वर्ग की समझ को पुष्ट करें जो तत्कालीन मार्क्सवादी कविता की जरूरत थी। दरअसल वे मुक्तिबोध की कविता के समर्थक थे। दूसरे राम विलास शर्मा केदार नाथ अग्रवाल को निराला के बाद सबसे बड़ा कवि कहते थे। नामवर सिंह को यह नहीं सुहाता था। ठीक तो मुझे भी नहीं लगता था। भावों की वह उदात्तता, भाषा की वह प्रचंड शक्ति, अनुभूति की वह विशालता, मूल्यों का द्वंद्व आदि केदार की कविता नहीं थी, जो निराला को बड़ा कवि बनाती थी। कवि तीन तरह के होते हैं, अच्छे, महान और लोक प्रिय। बहुत कम ऐसे भाग्यशाली होते हैं, जिनमें तीनों गुण हों, या कोई दो गुण हो। इसको ले कर राम बिलास शर्मा से मेरी कई बार बात हुई थी। उस पर फिर कभी। यहां इतना कि नामवर जी का आना मेरे जैसे कुछ लोगों को खटक रहा था। पर अपने व्याख्यान में नामवर जी ने केदार जी की अपेक्षित प्रशंसा की, जो सबको अच्छा लगा। उस आयोजन के दौरान मेरी केदार जी से काफी देर तक बात हुई। पुष्कल जी निरंतर साथ रहे।
छः
हमने (मैं, हरीश चंद्र अग्रवाल, धनंजय सिंह बघेल, सिंहेश्वर सिंह ने) "उन्नयन" का दूसरा अंक इलाहाबाद के कवियों को ले कर निकाला। हमारा इरादा इसी बहाने इलाहाबाद के तमाम नये रचनाकारों को पहचानना और सामने लाना था। जगदीश गुप्त से अपेक्षित सहयोग और पथप्रदर्शन मिल रहा था। वहीं हतोत्साहित करने वाले लोग भी थे। कुछ बामपंथियों ने कहा कि यह परिमल का नया उभार है। प्रमोद सिनहा, जो नयी कविता से जुड़े थे पूछा कि क्या हम लोग कोई नया आंदोलन खड़ा कर रहे हैं। हम नहीं समझते थे कि कोई साहित्य का आंदोलन इस तरह से खड़ा किया जा सकता है। हमनें अंक में छापा तो नये कवियों को ही, पर उसमें रखा अजित पुष्कल और शिवकुटी लाल वर्मा को भी। उस अंक को मैंने उपेन्द्र नाथ अश्क को दिया नीलाभ प्रकाशन में। हाथ में लेते हुए उन्होंने बधाई के साथ आशीर्वाद भी दिया, फिर पन्ने पलटते हुए कहा कि इसमें मेरी कविताएं कहां हैं। मैंने कहा कि यह अंक नये रचनाकारों को लेकर है। उन्होंने शामिल कवियों की सूची पर नजर डालते हुए फौरन कहा कि ये अजित पुष्कल और शिवकुटी लाल वर्मा कब से नये कवि हो गये। मेरे पास उनको मुतमयीन करने वाला उत्तर नहीं था।अश्क जी ने कहा कि दोनों 'मिडियाकर ' रचनाकार हैं। पत्रिका का स्तर ऊंचा उठाना है, तो ऐसे रचनाकारों से भरसक गुरेज रखना चाहिए। मैं इलाहाबाद में व्याप्त साहित्य की राजनीति किस्सों के सहारे खूब सुनता रहता था और मजे लेता रहता था। इसलिए उनकी बात बुरी नहीं लगी। उन्होंने कहा कि इलाहाबाद के रचनाकारों को समझने के लिए मुझे उनकी लिखी दो पुस्तकें पढ़नी चाहिए, "चेहरे अनेक" और "शहर में घूमता आइना"। यथा समय मैंने दोनों पुस्तकें पढ़ी। "चेहरे अनेक" में बड़ी मजेदार बातें थीं। अजित पुष्कल को उन्होंने मीडियाकर लेखक कहा था, जिनका कोई भविष्य नहीं है। शिवकुटी लाल वर्मा को एक ऐसा दरिद्र कवि कहा था, जो अपनी गरीबी और हीनता का इस्तेमाल अपने को स्थापित करने के लिए करता है। विश्वंभर मानव को इंसानियत का संस्कृत पर्यायी तखल्लुसी लिखा था, दूधनाथ सिंह को भोजपुरिया अहीर का खड़ी बोली पर्याय बाबू दूध नाथ सिंह@मिल्कगाड लायन। क्या जमाना रहा होगा जब अपने साथ के लोगों पर इस तरह की चुहुल भरी रचनाएं लिखीं जाती थीं और मजे लेकर पढ़ी जाती थीं और उनसे कटुता नहीं उपजती थी! उन्होंने अजामिल, दिलीप कुमार बनर्जी, देवी प्रसाद मिश्र और बघेल की कविताएं वहीं पढ़ी और अपने विचार से अवगत कराया। चलने लगा तो कहा कि आपने एक अच्छा काम यह किया है कि इससे हम लोगों को शहर में नये रचनारत लोगों का पता चल जाएगा। बाद में उन्होंने तमाम कवियों को पोस्टकार्ड लिख कर मिलने के लिए बुलाया, कविताओं पर बात की, उत्साहवर्धन किया। मैंने पुष्कल जी को अश्क से मुलाकात और बातों के बारे में बताया तो वे खूब हंसे और कहा कि वे अपने आप में एक चीज़ हैं। चुहुल तो अच्छी लगती है, पर वे इर्ष्यावश लोगों का नुक़सान भी बहुत करते हैं। इसलिए थोड़ा सावधान भी रहिएगा।
सात
बनारस में धूमिल की काफी चर्चा होती थी। मैंने उसकी चर्चा पुष्कल से की। पुष्कल की उनसे सिर्फ दो मुलाकातें थीं। उनका प्रभाव अच्छा नहीं था। पहली मुलाकात धूमिल की कविता पर गोष्ठी के दौरान हुई थी बनारस में काशी विद्यापीठ के किसी अध्यापक के घर पर। उन्होंने कोई कविता सुनाई थी, जिसमें आता है कि भूमिगत क्रांतिकारी सीटी बजा रहा है, यानी आह्वान कर रहा है कि लोग उसके अभियान से जुड़े। उस पर बातचीत के दौरान बनारस के ही साहित्यकार राजशेखर ने कहा कि कविता गलत है। क्रांतिकारी यदि भूमिगत है तो सीटी नहीं बजाएगा। उससे तो उसकी उपस्थिति का पता चल जाएगा और पुलिस पकड़ लेगी। इसलिए यह बात किसी और तरह से कही जानी चाहिए। धूमिल को वह आलोचना बर्दाश्त नहीं हुई। वे राजशेखर पर बिगड़ गये। पुष्कल ने राजशेखर का समर्थन किया तो वे आंखें निकाल कर और लाल लाल कर बातें करने लगे। पुष्कल ने हंसते हुए मंद स्वर में कहा कि इस दबंग व्यवहार से कविता सही नहीं हो जाएगी। वह अपने मानदंडों से सही होगी। पुष्कल जी स्वभाव से बड़े मृदु आदमी थे। वे कभी भी किसी से तोड़ कर नहीं बोलते थे। पर इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपना विरोध दर्ज नहीं करते थे। दूसरा प्रसंग राजशेखर ने ही बताया था। पुष्कल का कोई नाटक बनारस में खेला जा रहा था। धूमिल उसे देखने आये थे। किसी प्रसंग में रिमार्क दिया कि ऐसे मरे पात्रों को लेकर सामाजिक परिवर्तन नहीं किया जा सकता। पुष्कल ने कहा कि बहुत बढ़ चढ़ कर बात करने से भी क्रांति नहीं हो जाती। धूमिल बिगड़ गये। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वे अपने गांव खेवली में शोषितों के हक में उठ खड़े होते थे और कई मुकदमें लड़ रहे थे। किसी ने उसकी जिक्र की तो पुष्कल ने कहा कि अच्छी बात है। पर क्या सफलता मिलती है? ऐसे आचरण से प्रोटेस्ट तो किया जा सकता है,पर क्रांति नहीं। मैंने यह प्रसंग पुष्कल के सामने उठाया तो उन्होंने इसे स्वीकार किया और कहा कि छोड़िए इसे, कटु प्रसंगों को याद करने से क्या फायदा। उन्होंने यह भी कहा कि वे अकविता की देन थे।।वह आंदोलन आवेग लिए हुए था, इसलिए उसकी शब्दावली फ़ूहड़ हो जाती थी। वह एक छोटा सा दौर था। कुछ दिनों तक एक करेंट के रूप में याद किया जाएगा, फिर तिरोहित हो जाएगा। पुष्कल की बातों से मुझे ज्ञान मिला कि कविता आवेग के थमने के बाद लिखी जानी चाहिए, उसे विश्वसनीय बना कर लिखा जाना चाहिए और शब्दावली को फूहड़ नहीं होने देना चाहिए।
आठ
जगदीश गुप्त तीन त्रयी निकाल चुके थे, तीन - तीन कवियों को ले कर, जिनकी अपेक्षित चर्चा हुई थी और सम्मिलित कवियों की कुछ पहचान बनी थी। उन्होंने चौथी त्रयी निकालने की योजना बनाई और उसमें एक कवि के रूप में मुझे रखा। बाकी को तलाशने की जिम्मेदारी मुझी पर डाली। मैंने तुरंत देवी प्रसाद मिश्र को रखने का इरादा बनाया। वे अपनी तरह की बड़ी अच्छी कविताएं लिख रहे थे,कविताएं, विशेष कर विदेशी खूब पढ़ रहे थे और हमें उम्मीद थी कि वे आगे महत्वपूर्ण कवि बनेंगे। आगे की किसी मुलाकात में जगदीश जी ने सुझाया कि दूसरा कवि इलाहाबाद से नहीं होना चाहिए और उसमें एक कवियित्री जरूर होनी चाहिए। मैंने तुरंत चंद्रकला त्रिपाठी का नाम तय कर लिया। उन दिनों मैं बनारस में नियुक्त था, गोष्ठियों में उनसे मुलाकात होती थी,कुछ कविताएं सुनीं थीं जो आकर्षित करती थीं और उनके तेवर को देखते हुए लगता था कि आगे वे महत्वपूर्ण कवि होंगी। उनको चुनते हुए मेरे सामने तेजी ग्रोवर, चंपा वैद, गगन गिल, अरुणा दुबलिश, रश्मि रमानी आदि की कविताएं थीं। जरूरत एक और कवि को तलाशने की थी। अभी यह तलाश चल ही रही थी कि जगदीश जी ने कहा कि कवियों की एक अलग त्रयी बनाइए और कवियित्रियों की अलग। अब मुझे दो -दो यानी चार कवियों को तलाशना था। वैसे तो मैं कविता की ही अनियतकालीन पत्रिका "उन्नयन" निकालता था और इस घोषित इरादे से निकालता था कि उसमें नये कवियों को ही स्थान दिया जाएगा, भरसक वहीं पहली बार छपेंगे, इसलिए अपने साथ की पीढ़ी से फर्स्ट हैंड परिचित होने लगा था। जिनकी कविताएं अतिरिक्त रूप से पसंद आती थीं, उन्हें मैं "जिनसे उम्मीद है" कालम के अन्तर्गत छापता था। फिर भी प्रामिजिंग कवियों के बारे में जानने के लिए मैं शिवकुटी लाल वर्मा और अजित पुष्कल से अक्सर राय लेता था। त्रयी संबंधी कवियों के बारे में मैंने अजित पुष्कल से चर्चा की। मैं स्वप्निल श्रीवास्तव, कुमार अंबुज, उदयन बाजपेई, ध्रुव शुक्ल, आदि के नामों को टटोल रहा था कि त्रिलोचन ने सागर के गोविन्द द्विवेदी का नाम भी सुझाया। पुष्कल जी ने कहीं एकान्त श्रीवास्तव की रंगों को लेकर लिखी कविता की शृंखला पढ़ी थी या सुनी थी। वे प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजनों में कभी -कभी बाहर जाते थे और नये रचनाकारों से परिचित हो जाते थे। रंगों संबंधी कविताएं मैंने कुमार विकल की पढ़ी थीं, जिन्होंने बड़ा नायाब आस्वाद दिया था। इसलिए एकांत श्रीवास्तव की कविताएं विशेष आकर्षक लगीं। उन्होंने एकांत को त्रयी में शामिल करने के लिए कहा। मैंने बिना अपना इरादा बताए एकांत से कुछ कविताएं उन्नयन के लिए मंगाई और उनके अलावा भी कुछ और कविताएं भेजने के लिए कहा। वे आईं भी। पर पता नहीं क्या हुआ कि जगदीश जी ने त्रयी निकालने का इरादा त्याग दिया। उन दिनों उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था। उनके दिल और दिमाग़ दोनों यथासमय काटे गये । बहरहाल एकांत की वे कविताएं उन्नयन में 'जिनसे उम्मीद है' के अंतर्गत छपीं और अपेक्षित चर्चा हुई।
नौ
अजित पुष्कल जब भी घर आते थे कोई पुस्तक ले जाते थे और पहले जो पुस्तक ले गये होते थे, उसे वापस कर देते थे। इस निरंतरता से साफ जाहिर होता था कि जो ले जाते थे, उसे पढ़ते थे। मेरे पास तब "चाइनीज लिटरेचर" पत्रिका नियमित आती थी। पहले वह त्रैमासिक थी, फिर माहवारी हो गयी। मेरी तरह वे भी आद्योपांत पढते थे और जो अच्छा लगता था, उस पर बातें करते थे। एक बार वे चीनी कविताओं की अंग्रेजी अनुवाद की पुस्तक ले गए। कोई तीन महीने बाद उसे लौटाया तो उसकी अधिकांश अच्छी कविताओं का अनुवाद कर चुके थे। उनमें से कुछ कविताओं को मैंने उन्नयन में छापा। हलां कि यह हमारे सिद्धांत के विरुद्ध था। हमने पहले ही तय किया था कि विदेशी कविताओं का अनुवाद यहां नहीं छपेगा, उन्हें छापने का काम तो लगभग हर पत्रिका कर रही थी। पिपरिया से आवेग नाम की पत्रिका ही निकलती थी, इस काम के लिए। हम विदेशी कविता को खूब जानने लगे थे, पर हिंदी के बगल की भाषा में क्या लिखा जा रहा है, शायद ही कोई जानता था। पाब्लो नेरुदा और ब्रेख्त पर बात करना हमारे फैशन में था, पर नवकांत बरुआ, विष्णु डे, विंदा करंदीकर, सीताकांत महापात्र, अय्यप्प पणिक्कर, निस्सीम इजकील, गोकाक, हर भजन सिंह, उमाशंकर जोशी,अरविंद मेहरोत्रा जैसे कवि इस देश में हैं, भाई लोंगो को पता ही नहीं था। इसलिए हमने योजना बनाई थी कि उन्नयन का एक अंग हिंदी के नये कवियों की रचनाओं का होगा तो दूसरा किसी भारतीय भाषा की कविता को ले कर।
खैर जब पुष्कल की अनुदित चीनी कविताएं छपीं तो एक बड़ी मजेदार घटना घटी। उन्हीं दिनों चीन से आया एक छोटा सा सांस्कृतिक मिशन देश के कई नगरों से घूमता हुआ इलाहाबाद आया। उसकी आगवानी एक चीनी महिला ने की और अपने घर पर एक गोष्ठी रखी। उन्नयन का वह अंक किसी तरह उनके पास पहुंच गया था, जिसे उन्होंने डेलिगेटों को दे दिया था। तब भारत चीन मैत्री संघ या कुछ ऐसे ही नाम की प्रगतिशीलों की एक संस्था थी, जिसके नुमाइंदे पुष्कल और मुझे उस गेट टुगेदर में बुलाए उस चीनी महिला के माध्यम से। उस महिला को मैं जानता था, पर फिलहाल भूल गया था। उन्हें हम लोग मिसेस वाङ कहते थे। वे विश्वविद्यालय में चीनी भाषा का डिप्लोमा पढ़ाती थीं, जो अंग्रेजी विभाग से संबद्ध था। एल एल एम करते हुए मैंने अपने मित्र उमेशचंद्र के साथ उस डिप्लोमा में प्रवेश लिया था। मिसेस वाङ चीनी संस्कृति से परिचित कराने के लिए कभी - कभी डिप्लोमा के छात्रों को अपने घर बुलाती थीं, उनके भोजन के साथ-साथ पारिवारिक जीवन और औपचारिकताओं से और त्योहारों आदि से परिचित कराती थीं। इलाहाबाद से बाहर चले जाने के कारण मैं डिप्लोमा का कोर्स पूरा नहीं कर पाया और मिसेज वाङ को तो भूल ही गया। यह निमंत्रण पा कर बहुत अच्छा लगा। मिसेज वाङ टैगोर टाउन में अवस्थित एडवोकेट बलराम उपाध्याय के घर के सामने सड़क के उस पार पीपल के पेड़ के साथ वाले घर में किराए पर रहती थीं। मैं पुष्कल जी के साथ उनके वहां पहुंचा। वे देखते ही पहचान गयीं। हमारा परिचय डेलिगेशन के लोगों से कराया। डिप्लोमा का छात्र होने के कारण उनमें से किसी ने चीनी में बात करने का प्रयास किया, पर मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़। फिर बात अंग्रेजी के माध्यम से होने लगी। उन्हें बहुत जिज्ञासा थी कि भारत में किन चीनी रचनाकारों को पढ़ा जाता है। हम लु सुन को जानते थे। हमने बाओ दाई, लुओ पर कुछ यूं ही बात की। हमें बड़ी जिज्ञासा थी भारत के कौन से रचनाकार वहां पढ़े जाते हैं। पता चला कि रविन्द्र नाथ टैगोर वहां बहुत जनप्रिय हैं और सांस्कृतिक क्रांति के दौरान जब वहां बहुत कुछ मिटाया जा रहा था, वे रचनाकारों के बीच संबल की तरह लिए जाते थे। हमें उम्मीद थी कि हिंदी के रचनाकारों में प्रेमचंद वहां जाने जाते होंगे। पर हम चित्त हो गये जब सुना कि वहां सबसे पापुलर लेखक गुलशन नंदा हैं, जिनकी कुछ कृतियों का अनुवाद हजारों में बिकता है।
खैर उन लोगों ने उन्नयन के उस अंक की सौ प्रतियों की मांग खरीदने के लिए की, जिससे कि वे अपने देश की विभिन्न संस्थाओं में रख कर उस अनुवाद को दिखा सकें। हमारे पास मुश्किल से पचीस प्रतियां निकली, जिन्हें उन्हें उपहारस्वरूप दे दिया।
पुष्कल जी ने काफी चीनी कविताओं का अनुवाद संकलनों और चाइनीज लिटरेचर पत्रिका से किया था। वह उनके कागजों में होना चाहिए। उन्हें प्रकाशित किया जाना चाहिए।
दस
अजित पुष्कल अपने नाटकों के साथ बड़ा श्रम करते थे। दो नाटकों की रचना प्रक्रिया मैंने देखी है, "प्रजा इतिहास लिखती है" और "राजा की मुहर" का। संवादों को वे स्वयं बोल कर लिखते थे। मैं जब उनसे मिलने जाता था तो कभी कभी मुझसे भी उन्हें बुलवाते थे। पर मेरा बोलना नाटकीय नहीं सपाट होता था, इसलिए उन्हें कोई मदद नहीं मिलती थी। पर जहां मैं अटकता था, वहां उन्हें लगता था कि कहीं कुछ गड़बड़ है, जिससे प्रवाह बाधित हो रहा है। उसको ठीक करने के लिए दिमाग लगाते थे। सबसे ज्यादे मदद उनको उनके मंचन से मिलती थी। यही कारण था कि जहां भी मंचन होता था, दूसरे नगरों में भी, तो वे वहां जाते जरूर थे और उसके आधार पर दृश्यों और संवादों में परिवर्तन करते थे। अभिनय के बारे में वे कहते थे कि उसमें बनावट, अतरिक्त प्रयास जितना ही कम हो उतना ही अच्छा। लगे कि सामान्य जीवन में लोग सचमुच ही ऐसा कर रहे हैं। इसीलिए वे प्रभावशाली चेहरे वाले पात्रों को भी भरसक नहीं रखते थे और स्टेज को बहुत सजाना ठीक नहीं मानते थे। अपने छात्र राकेश श्रीवास्तव और अंबरीष सक्सेना से अक्सर नुक्कड़ नाटक की बारिकियों पर बात करते थे और चाहते थे कि वे या कोई और उनका मंचन कुछ इसी तरह करके दिखाए। नाटकों के साथ इतना श्रम करना हमें अच्छा लगता था। पर अफसोस होता था कि कुछ अच्छे अनुभवी प्रस्तुतकर्ता उन्हें लेकर नहीं चले। अन्यथा काफी प्रचार मिलता। तो भी वे नोटिस में थे और सरकारी सम्मान भी पाए लखनऊ से।
नाटकों के चलते उन्होंने उपन्यास और कहानियों को छोड़ दिया था। मुझे यह अच्छा नहीं लगता था। कारण यह था कि उनकी भाषा में बड़ी तरलता थी और आंचलिकता का घोर अनुभव। उसे यदि वे एक विस्तृत फलक पर रखते तो साहित्य में वह एक ठोस अवदान होता। पर उससे वे उदासीन रहते थे। उसके दो कारण थे। एक तो उनके चार उपन्यास छप चुके थे, पर अपेक्षित चर्चा नहीं हो पाई थी। और यह इसके बावजूद था कि वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे। उन्हें लगता था कि वहां बड़ी गुटबाजी है और प्रश्रय उन्हें मिलता है जो आक्रामक हैं। वे स्वभाव से ही सरल और मृदु थे, इतना कि अपना विरोध भी शहद में डुबो कर ही रखते थे। दूसरे उनको लगता था कि नाटक की विधा इधर उपेक्षित हो गयी है और उस क्षेत्र में काफी स्कोप है। इसलिए वे उधर मुड़ गये थे।
ग्यारह
नागार्जुन इलाहाबाद आने वाले थे। हरीश चंद्र अग्रवाल ने अपने घर पर एक गोष्ठी रखनी चाही। नागार्जुन इलाहाबाद में यूं तो किसी के घर रुक जाते थे और जबतक मेजवान चाहता था रुके रहते थे, फिर किसी और के घर चले जाते थे। उनके चाहने वालों की कमी नहीं थी। पर हमने सुना था कि वे अजित पुष्कल या शिव कुमार सहाय के पास रुकना विशेष पसंद करते थे। शिव कुमार सहाय अल्लापुर में हरीशचंद्र अग्रवाल के घर के पास ही रहते थे। हम उनसे मिलने गये। सहाय जी ने कहा कि उनके पावों में इधर दर्द रहता है और सीढ़ी चढ़ने से भरसक परहेज करते हैं, लेहाजा यदि नहीं गये तो गोष्ठी उन्हीं के घर पर हो जाएगी। कृष्णेश्वर डिंगर ने अध्यक्षता के लिए जगदीश गुप्त को बुलाने का सुझाव दिया। सहाय जी ने कुछ सोच कर कहा कि वह ठीक न होगा। हमारी जिज्ञासा पर उन्होंने कहा कि वैसे तो दोनों सहज आदमी हैं, पर विचारधारा भिन्न है। आने के लिए आ भी जायं तो भी बातचीत में असहज महसूस करेंगे। हमें भी लगा कि यह ठीक न होगा। तब मैंने अध्यक्षता के लिए अजित पुष्कल का नाम सुझाया। सहाय जी इस पर चुप रहे। चाय पिलाते हुए कहा कि शायद वह भी ठीक न होगा। बात हमारी समझ में न आई।शायद डिंगर ने ही कारण पूछा। सहाय जी ने यह कह कर टाल देना चाहा कि तमाम व्यक्तिगत बातें होती हैं जो हमारी पसंद, नापसंद तय करती हैं। हमारी जिज्ञासा बढ़ गयी तो दबे स्वर में बताया कि इधर नागार्जुन पुष्कल को पसंद नहीं करते। उसका कारण बिल्कुल निजी है। काफी अनुरोध पर बताया कि एक बार नागार्जुन उनके यहां रुके हुए थे। वे पेट से बहुत कमजोर हैं पर खाने के शौकीन। उसी में कुछ ऐसा खा लेते हैं जो उन्हें नहीं पचता तो परेशान हो जाते हैं। उस बार मेरे घर बनी मछली कुछ हजम नहीं हुई। कपड़े और बिस्तर खराब हो गये। वे भी लफोदा गये। मैं उन्हें दीवार के सहारे खड़ा कर पानी डाल रहा था कि पुष्कल जी साइकिल पर आते दिखे।मुझे लगा कि वे मदद करेंगे, पर वे हालत देख कर रुके नहीं चलते बने। बाबा ताड़ गये। तब से उनसे प्रसन्न नहीं रहते।
उसी प्रसंग में उन्होंने एक और बात बताई। बांदा में नागार्जुन आए हुए थे। वहां पुष्कल भी थे। बातचीत के दौरान पुष्कल ने उनसे कहा कि किसी प्रकाशक से कह देते तो मेरी भी एक पुस्तक आ जाती। सहाय वहां पर थे। नागार्जुन ने उनसे कहा। सहाय जी अबतक सिर्फ केदार जी की पुस्तकें छापते थे। पर इधर प्रकाशन का दायरा बढ़ाना चाहते थे। शर्त बस इतनी थी कि उसे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ा होना चाहिए। उन्होंने स्वयं पुष्कल की पुस्तक छापना स्वीकार कर लिया। जल्दी ही वे एक - एक कर उनकी तीन पुस्तकें छाप दिए। बांदा में ही सहाय जी की मुलाकात नागार्जुन से हुई। उन्होंने बड़ी खुशी - खुशी तीनों पुस्तकें उन्हें दीं। उम्मीद थी कि वे भी काफी खुश होंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने तीनों पुस्तकें पहले एक साथ देखा, फिर अलग अलग कर देखा। फिर सहाय को देखा, फिर पुस्तकों को देखा और फिर सहाय को देखते हुए उन्हें एक तरफ रख दिया। जाहिर था कि उन्हें अच्छा नहीं लगा। बाद में कभी मौका निकाल कर सहाय ने उनसे कहा कि आपके ही कहने पर तो छापा है। नागार्जुन ने पट उत्तर दिया कि एक किताब छापने के लिए कहा था कि तीन किताब? इस तरह से छापते जाओगे तो वह फिर हमसे कहेगा?
मैंने कभी पुष्कल जी से इसके बारे में पूछा तो वे अपने चिर अंदाज में हंसते हुए कहे कि हां कुछ ऐसा हुआ था। पर छोड़िए, जीवन में तमाम अच्छी - बुरी घटनाएं होती रहती हैं। उन्हें भूलते जाना ही अच्छा है। बड़ों का जितना आशीर्वाद मिल जाय, उतना ही बहुत होता है।
बारह
पुष्कल जी से मुलाकात होती रही, बातें होती रहीं। नब्बे में मेरा तबादला बनारस से अहमदाबाद हो गय। इसलिए सिलसिला टूट गया। जब आता था छठे -छमासे तब मुलाकात होती थी और ऐसी होती थी कि सारा अंतराल भर जाता था। इस बीच वे कल्याणी देवी से हट कर तुलसीपुर चले गये थे। बेटा सुनील अपनी नौकरी के सिलसिले में दिल्ली चले गये थे और बेटी लखनऊ। इसलिए परिवार के स्तर पर बस मियां - बीवी रह गये थे, कुछ-कुछ अकेले। अमरकांत भी गोविंदपुर चले गये थे और इलाहाबाद में एक ऐसी संस्कृति विकसित हो रही थी, जिसमें लोग यह उम्मीद करते थे कि लोग उनसे मिलने तो घर आएं पर वे किसी के घर न जांय। उसके लिए हजार बहाने थे, समयाभाव, बच्चे, कैरियर, जाने क्या क्या। अष्टभुजा जी लिखते हैं,
"मैं ही गया द्वार पर सबके,
मेरे घर कोई नहीं आया।"
उसके बाद तो ऐसी पीढ़ी आई है जो न तो किसी के घर जाती है, न अपने घर आने देती है। सब उथला - उथला। नौकरी से मुक्ति हुए तो जतन कर झूंसी में आवास-विकास का एक छोटा सा घर ले लिए। नाम रखा "उद्भावना"। झूंसी में साहित्यकार तो अनेक थे, पर इस उम्र में नये सिरे से मित्रता गांठना मुश्किल था। गनीमत थी कि वहां दो - एक रिश्तेदार थे, जिनका साथ मिला। बाद में संस्कृत के स्कालर और कवि जगन्नाथ पाठक से मैत्री हो गयी। दोनों का स्वभाव एक था, इसलिए खूब पटी।
मैं गुजरात से लौटा तो मेरी पोस्टिंग बुंदेलखंड में हुई। मैंने बांदा को केंद्र बनाया क्योंकि वह इलाहाबाद के करीब था। सुनकर पुष्कल जी खुश हुए। थोड़ा उदास भी। कहा कि देरी हो गयी। तबतक केदार नाथ अग्रवाल दिवंगत हो गये थे। वे रहते तो दोनों को खूब संबल मिलता। खुशी ये जाहिर की कि चलो वहां आप रहेंगे तो जब आऊंगा तो लगेगा कि कोई घर का है। सावधान भी किया कि कुछ लोगों से बच कर रहिएगा। उसमें एक व्यक्ति का विशेष नाम लिया। मैं उनसे पूर्व परिचित था। वे मेरी पोस्टिंग से खुश भी बहुत थे। रहने के लिए अच्छा मकान खोज रहे थे। मैंने कारण पूछा तो उन्होने बताया कि केदार जी के पास रहने के लिए, बल्कि उन पर एकाधिकार बना कर रखने के लिए वे उनके पूर्वपरिचितों से काटते रहे हैं। वे आप के साथ भी कर सकते हैं अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए। पर मैंने उनसे दोस्ती की। वे रचनाकार अच्छे थे। उनकी फितरत तब देखने को मिली, जब मैं बांदा से हट गया। वह कहानी फिर कभी। यहां बस इतना कि पुष्कल जी मेरे भले के लिए कितना चिंतित थे।
तेरह
अजित पुष्कल अपने नाटकों में इतना मशगूल हो गये थे कि कहानी, उपन्यास भूल ही गये थे। पर वे मुझे हमेशा कवि लगते रहे। उसकी चर्चा करने पर वे बात को टाल जाते थे। मुझे तब बहुत आश्चर्य हुआ जब 2001 में एक मुलाकात के दौरान उन्होंने कहा कि वे अपना कविता संग्रह तैयार कर रहे हैं, प्रकाशक को तभी देंगे, जब मैं उसकी भूमिका लिख कर दूं। यह मुझे चकित करने वाला था, सिर्फ इसलिए नहीं कि वे अपना संग्रह प्रकाशित कराने जा रहे थे, इसलिए भी कि उसकी भूमिका मुझसे लिखवाना चाह रहे थे। भूमिका अक्सर अपने से वरिष्ठ से लिखवाई जाती है और मैं हर तरह से उनसे कनिष्ठ था। ऊपर से यह कि मैं जानता था कि यह काम केदारनाथ अग्रवाल कर चुके हैं। मैंने यह बात कही तो उन्होंने बताया कि वह अधूरी है, बस कुछ कविताओं का विष्लेषण है। मैंने उसे देखने की इच्छा जताई। पढ़ा तो पाया कि दर असल उससे कुछ बात नहीं बन रही है। फिर भी मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी केदार जी की भूमिका के साथ मेरी भूमिका भी जाय। पर मैं उनकी जिद के सामने झुक गया। मैंने बजाय कविताओं पर सीधी टिप्पणी करने के कुछ सैद्धांतिक ढंग से लिखा। वह उनको और उनके प्रकाशक को काफी अच्छा लगा।
संकलन आया तो मैंने चाहा कि उसका अच्छा प्रोजेक्शन हो। कई लोगों को पुस्तक भेजी गई। उनमें उनके संगठन के लोग भी थे। सबने लिखने का वादा किया, पर लिखा किसी ने नहीं। सिर्फ दो छपी समीक्षाएं मेरे सामने से गुजरीं, जिसमें एक छात्र की थी। दोनों ही लोग पुष्कल जी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते थे। इस ठंडेपन से वे बहुत आहत हुए, इतना कि कहा -- आप ही अच्छे हैं, जो किसी संगठन से नहीं जुड़े हैं। इससे नाते किसी से उम्मीद नहीं रखते हैं। वे बाहर के लोग ही आपकी नोटिस ठीक से लेते हैं। मैं उनका कष्ट समझता था। उसके निदान के लिए जो कर सकता था, वह किया। बस दो समीक्षाएं छप कर रह गयीं।
चौदह
बांदा से जब मैं चार-छः दिनों के लिए इलाहाबाद आता था तो एक बार पुष्कल जी से मुलाकात जरूर हो जाती थी। उस दौर की सारी बातें पता चल जाती थी। वे अपने झूंसी में अपने घर में जरूर चले गये थे, पर उनका मन नहीं लगता था। खास कारण यह था कि वे जगन्नाथ पाठक और सरहा, जो उनके साले थे, के बावजूद वे अकेला अनुभव करते थे। पता नहीं क्यों नदियों को पार कर जाने पर वे इलाके इलाहाबाद के अंग नहीं लगते। पुल अक्सर इलाकों को जोड़ते हैं, पर इलाहाबाद में वे अलग करते हैं। गोष्ठियों और अन्य कार्यक्रमों में जाना कठिन हो गया था। स्कूटर चलाते नहीं थे। नये मित्र बन नहीं पा रहे थे। बच्चे बाहर चले गये थे। इसका असर पुष्कल जी से अधिक उनकी पत्नी पर पड़ा। वे धीरे-धीरे डिप्रेशन का शिकार होती चली गयीं। दवा चलने लगी, पर मन का रोग दवा से नहीं ,साथ और रोग के कारण के निदान से ठीक होता है। ध्यान बंटाने की भी कुछ भूमिका होती है। मेरी पत्नी को 1997-98 में इसका लक्षण दिखने लगा था, जब वे सीढ़ियों से गिर पड़ी थीं। उनको लगता था कि वे पहले जैसी नहीं हो पाएंगी। समय काटने के लिए वे किताबों को, खास कर अच्छे उपन्यासों को पढ़ने लगीं। परिणामस्वरूप वे छः माह में पहले जैसी हो गयीं। यह आजमाया नुख्सा हो गया। मैंने प्रयास कि वे भी पढ़ें। पर वे कर नहीं पायीं। और उनकी स्थिति बिगड़ती चली गयी। उस वक्त सी एम पी कालेज के प्राध्यापक स्व अनुपम आनंद ने बहुत मदद की। वे हर वर्ष कोई छात्र उनके घर रख देते थे, जो उनकी बड़ी लगन से देख भाल करता था और यह सिलसिला तब तक रहा जब तक कि पुष्कल जी अपने बेटे के पास दिल्ली नहीं चले गये। जब मैं सेवानिवृत्त हो कर स्थाई रूप से इलाहाबाद आ गया तो मन परिवर्तन के लिए मैं कभी कभी पति पत्नी को अपने घर ले आता था। स्वयं नहीं जाता था तो ड्राइवर भेज कर बुला लेता था। वे मेरे बड़े साले महेंद्र रज्जन के कभी मित्र होते थे। उनकी पत्नी डा श्याम कुमारी क्रास्थवेट कालेज में पढ़ाती थीं। उन लोगों से मिल कर उनकी पत्नी पुनर्नवा हो जाती थीं, दो चार दिन के लिए ही सही। ऐसे में केथार्सिस यानी विमलीकरण की अपनी भूमिका होती है, विशेषकर यदि वह करुणा से उत्पन्न हो। इसका एक अनुभव मुझे पुष्कल जी के संदर्भ में है। मदन मोहन 'मनुज' अहमदाबाद में आकाशवाणी के अहमदाबाद स्टेशन के निदेशक थे। उन्होंने वहां मुझे बहुत प्रमोट किया था। मेरे गहरे मित्र बन गये थे। वे इलाहाबाद आये हुए थे। उनके सम्मान में मैंने एक अनौपचारिक बैठक रखी थी अंतरंग मित्रों की ।पुष्कल जी को भी पत्नी के साथ बुलाया था। मनुज जी उनके पुर्व परिचित थे। जब वे इलाहाबाद आकाशवाणी में थे तो उन्हें अक्सर कार्यक्रमों में बुलाते थे। दोनों मिल कर बड़े प्रसन्न हुए। उन्हें पुष्कल के तब के गीतों की एकाध पंक्तियां याद थीं। फर्माइश कर सुना। संकलन मेरे पास था। जहां भूलते थे वहां वह काम आता था। मूड में आ गये तो मनुज जी गाने लगे। उसी में एक चइता था,
"केही मोरा अवध उजारल हो रामा
काहें उजारल"
मनुज जी ने इसे बार बार रेघा रेघा कर खूब गाया। उनका स्वर इतना करुण होता गया, उनके भाव से इतना तादात्म्य स्थापित करता गया कि सभी की आंखें नम हो गयीं। पुष्कल जी की पत्नी तो रो पड़ीं। लोगों ने मनाने की कोशिश की। पर मेरी पत्नी और डा श्याम कुमारी ने मना किया कि इन्हें खूब रो लेने दें। जब चुप हुईं तो वे एकदम सामान्य और प्रसन्न हो गयीं । लगा कि मन में जमा सारा कलुष-विकार तिरोहित हो गया है। मनुज जी ने राय दिया कि कुछ करुण संगीत का, विशेष कर क्लासिक गीतों का संकलन रखें और गाहे-बगाहे इन्हें सुनाएं। पता नहीं पुष्कल जी ने उस पर अमल किया कि नहीं, पर वे काफी दिन तक अपने डिप्रेशन से बाहर रहीं।
पन्द्रह
पुष्कल जी की पत्नी अपने अवसाद से उबर नहीं पायीं और अंतत: पंद्रह या सोलह में दिवंगत हो गयीं। ठीक से याद नहीं आ रहा है। इसकी सूचना मुझे संतोष भदौरिया ने फोन पर दी थी। हम लोग उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए, जो झूसी की तरफ गंगा के किनारे हुआ। पुष्कल जी का चुप-चुप रहना स्वाभाविक था। हम तब कोई बात नहीं कर पाये। जब राख सिराई गयी, फूला नदी को दे दिया गया तो मुझे नदी शृंखला की अंतिम कड़ी की एक पंक्ति याद आयी :
यहीं तक ढोना था उसे
हमारे पुरुखों की सिराइ राख
यहां से नदी समुद्र बन जाएगी
पुष्कल जी अब बिल्कुल अकेले हो गये। समय जैसे कटता नहीं था। पढ़ने पर जोर बढ़ गया। अपने नाटकों को उलटने-पलटने लगे। जगन्नाथ पाठक के यहां जाना बढ़ गया। अनुपम आनंद के रखे लड़कों पर निर्भरता बढ़ गयी। खाना कभी घर पर खाते थे, कभी होटल में। मनफेर के लिए बेटी के पास लखनऊ चले जाते थे, या लड़के के पास दिल्ली। लडके सुनील कुछ अस्वस्थ रहने लगे थे। उनकी भी उम्र हो रही थी। मित्र लोग या पड़ोस के साहित्यकार भी उनके पास कम ही जाते थे। मैं भी महीने -दो महीने में ही चक्कर लगा पाता था। तब पाठक जी के यहां जमकर बैठकी होती थी। उनमें कुछ आत्मविश्वास की कमी बढ़ती जा रही थी। इसको सबसे पहले नोटिस मैंने तब लिया जब हम लोग बांदा से केदार जी के शताब्दी समारोह से एक ही गाड़ी में लौटे। उनको भय सता रहा था कि हम लोग पहले ही अपने घरों के सामने उतर जाएंगे और तब वह ड्राइवर पुल पार करा कर बीच में ही छोड़ देगा। नंदल हितैषी ने उनके सामने ही ड्राइबर से घर तक छोड़ने को कहा, पर वे आश्वस्त नहीं हुए। मुझसे कहलवाया। फिर भी उन्हें आश्वस्त करने के लिए मैं पहले उनके घर तक गया फिर अपने घर आया। यह विश्वास क्रमशः और कम होता गया।
ऐसे में उनके साले आनंदमय सैराहा और उनकी पत्नी शांता ने बहुत संबल दिया। उनकी शादी पुष्कल जी ने ही कराई थी अपनी पत्नी और दीगर लोगों के जबरदस्त विरोध के बावजूद। बात यह थी कि शांता बहुत बड़े घर की लड़की थीं। पर मां की मृत्यु जल्दी ही हो गयी। विमाता आई तो शांता को फूटी आंखों से नहीं देखना चाहती थी। आजिज आ कर पिता ने हास्टल में रख दिया। खर्चा तो देते रहे पर पलट कर कभी देखने नहीं आए। आनंदमय सैराहा सामाजिक कामों में बड़ा समय देते थे। उसी सिलसिले में वे शांता से मिलते रहे। फिर शादी का प्रस्ताव रखा। पुष्कल की पत्नी समेत घर के सारे लोग बिगड़ गये, पर पुष्कल जी अड़ गये और शादी हुई। शांता मेरी पत्नी की सहपाठी थीं क्रास्थवेट कालेज में। वे विस्तार से तमाम बातें बताती हैं।
इस गाढ़े वक्त में पति-पत्नी ने बहुत साथ दिया। भोजन वे नियमित रूप से वहीं करने लगे। कभी कभी मैं दोपहर में जाता था तो मुझे भी भोजन करने के लिए कहते थे। पर मैं हर बार टाल जाता था। मेरे पास बहाना भी अच्छा था। सैराहा के घर के सामने मेरे एक रिश्तेदार रहते थे। मैं कह देता था कि उनके यहां पहले से ही निमंत्रित हूं। हम लोग वहां तक साथ जाते थे, फिर उनके घरों में । इस बीच मेरी पुस्तक "बहस के मुद्दे" आई। मत्स्येंद्र नाथ शुक्ल के साथ उसे मैंने पुष्कल को भी समर्पित किया था। उससे वे बड़े खुश थे। उसकी एक समीक्षा भी लिखी थी।
पुष्कल जी की शारिरिक क्षमता घटी तो वे अपने पुत्र सुनील के पास दिल्ली चले गये। देख भाल खूब अच्छी होती थी, पर महानगरों में जो अकेलापन होता है, उसे तोड़ने का कोई रास्ता नहीं था। जब भी फोन पर बात होती थी,यह व्यथा वे अवश्य व्यक्त करते थे। उनकी बहुत इच्छा थी पुनः कुछ दिनों के लिए इलाहाबाद आ कर रहने की। पर वह हो नहीं पाई। उनकी मृत्यु का समाचार मुझे फेसबुक पर ही मिला। उसे हरीशचंद्र अग्रवाल ने पुष्ट किया। उनकी अस्थिकलश का दर्शन के. पी. कालेज के प्रांगण में अवस्थित स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स में हुआ। यह अच्छा ही हुआ। उसी कालेज में वे पढ़ाते रहे थे।
इस तरह कोई पैंतालीस वर्षों का सिलसिला समाप्त हुआ ।
पुनश्च :
कई मित्रों ने पूछा है कि जो चइता मदन मोहन मनुज सुनाते थे, वह पूरा क्या है। पूरा तो याद नहीं,पर जितना याद है, वह कुछ इस प्रकार है :
केहि मोर अवध उजारल हो रामा
काहे उजारल
मचिया बइठ डहकें कौसिल्या रानी
मुचुकी हंसे कैकेई हो रामा
डाह के कारन अवध उजराइल
मंथरा के जुड़ाइल करेज हो रामा.....
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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श्रीप्रकाश मिश्र |
सम्पर्क
मोबाइल : 8005094727
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